पर्यावरणीय हानिपूर्ति के कार्य अधूरे हैं और गाद, भूकंप, दलदल की समस्याएँ बनी हुई है। सरदार पटेल की लोहे की बड़ी मूर्ति बनाने के बहाने बांध विस्थापित किसानों के पुनर्वास समेत सभी अन्य शर्तों को धता बताने का दौर चल गया। यह बात कोई नहीं देख पा रहा है कि जितना बांध बना है उसका भी पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। शायद यह भारत का पहला बांध है जिसमें महाराष्ट्र और गुजरात में 11,000 परिवारों को भूमि आधारित पुनर्वास मिला है। किंतु हर कदम पर लड़ाई करने के बाद। लेकिन तीनों राज्यों में, आज भी हजारों परिवारों का पुनर्वास बाकी है। 3 राज्यों में 245 गाँवों की हजारों हेक्टेयर उपजाऊ ज़मीन और जंगल डूब में जा रहे है। 48,000 किसान, मज़दूर, मछुआरा, कुम्हार, केवट परिवारों का पुनर्वास अभी बाकी है।
जिस म.प्र. और महाराष्ट्र को “मुफ्त बिजली’’ के झूठे राजनीतिक वादे किए जा रहे हैं जो कि असलियत से कही दूर है वहां आज भी पुनर्वास के लिए 30,000 एकड़ ज़मीन जरूरत है। ज़मीन ना देने के लिए और पुनर्वास पूरा दिखाने के लिए डूब में आ रहे 55 गाँवों और धरमपुरी शहर को डूब से बाहर कर दिया गया है। यह डुबाने का पुराना खेल है। जो बरगी बांध में खेला जा चुका है। बांधों में देश की अन्य परियोजनाओं की तरह पुनर्वास में भ्रष्टाचार आम बात है। किंतु नबआ ने विस्थापितों के पुनर्वास में 1,000 करोड़ भ्रष्टाचार और 3,000 से अधिक फर्जी भू-रजिस्ट्रियों का घोटाला पकड़ा है जिसकी 5 सालों से न्यायालयीय जाँच चालू है। नर्मदा विकास प्राधिकरण के 36 से ज्यादा अधिकारी पकड़े गए हैं और इस न्यायालय को चलाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई की है।

28 साल के सतत संघर्ष में दस साल जल से टकराने वाला सत्याग्रह, कई सारे लम्बे उपवास और गैरकानूनी बांध के अत्याचार या भ्रष्टाचार की पोलखोल नर्मदा बचाओ आंदोलन ने की है। हर बार नए तरह का आंदोलन, नई रणनीतियां, सरकार को हर मुद्दे पर चुनौती देना जिसे तार्किक परिणाम तक पहुंचाना यह नर्मदा बचाओ आंदोलन की पहचान है। लगभग 20 साल पहले मेधा पाटकर के अरुंधती धुरु व कई साथियों के जलसमर्पण की घोषणा ने देश को हिला कर रख दिया था। सरकार को पुर्नविचार करना ही पड़ा।
बांध की 90 मीटर ऊंचाई से प्रभावित अलिराजपुर एवं बड़वानी जिले के पहाड़ी गाँवों के सैकड़ों आदिवासी परिवारों की कृषि ज़मीन तथा मकान 15 बरसों से जलाशय के नीचे चले गए। मगर किसी भी परिवार को मध्य प्रदेश में सर्वोच्च अदालत के आदेशानुसार सिंचित, कृषि-योग्य, उपयुक्त एवं बिना अतिक्रमण वाली ज़मीन का आवंटन नहीं हुआ। तब आंदोलन ने जोबट शासकीय कृषि फार्म की 87 एकड़ ज़मीन पर 24, नवंबर, 2011 से अपना अधिकार (कब्ज़ा) जमाया और खेती शुरू की। यह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों का लैंड ग्रेब (भू-कब्जा) नहीं, वरन् राईट ग्रेब (अधिकार कब्ज़ा) है।

आखिर किस दवाब में बांध की वर्तमान ऊँचाई 122 मी. से 138.68 मी. तक बढ़ाने का गैरकानूनी, अत्याचारी प्रयास जारी है। सामाजिक न्याय मंत्रालय के नेतृत्व में पुनर्वास उपदल ने मंजूरी दी हैं तथा जल संसाधन मंत्रालय - नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण मंजूरी देने की तैयारी कर रही है।
जहां लाखों लोग एक संस्कृति के साथ बिना पुनर्वास के उजड़े हैं और संसार का पहली किसानी, हड़प्पा से पुरानी सभ्यता को डुबाने के बाद सरदार पटेल की सैकड़ों टन की लोहे की मूर्ति सरदार सरोवर के निकट लगाकर पयर्टक स्थल बनाना कैसे न्यायपूर्ण होगा? क्या आज सरदार पटेल जीवित होते तो क्या वो इस अन्याय को स्वीकार करते?