लोकोपयोगी भूमि पर अविधिक कब्जा

11 Jan 2012
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छत्तीसगढ़ के गांवों व शहरों में तालाबों की बड़ी संख्या आदिकाल से रही है। हर गांव में कम से कम दो तालाब अवश्य होते थे। एक मवेशियों को धोने, उनकी सफाई करने, उनके पीने के लिए, दूसरा आम जनता के पीने के पानी के लिए होता था, जहां मवेशियों को धोना वर्जित था। धीरे-धीरे गांवों का शहरीकरण होता गया और ये तालाब पटते गए। कई गांवों, पुराने कस्बाई शहरों में दसियों छोटे व बड़े तालाब थे। जिनके जिलाधीश (कलेक्टरों) एवं कमीश्नरों की छत्रछाया में अधिकांश पट गए और अब गिनती के ही बच गए हैं। आज कहीं पर घर, पक्का मकान, स्कूल, अस्पताल, शासकीय भवन, निजी भवन, शॉपिंग कॉम्पलेक्स और मॉल बन चुके हैं।

आजादी के पूर्व एवं आजादी के बाद भी बेईमान, ताकतवर लोगों ने अपने धनबल, बाहुबल और राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर तथा राज्य सरकार के अधिकारियों से सांठगांठ करके, कपटपूर्ण तरीके से गांव व नगरों की लोकोपयोगी भूमि (निस्तारी भूमि) जिसके अंतर्गत घास-गौचर (चारागाह) धरसा, गौठान, मरघट (श्मशान) छोटे झाड़ के जंगल, खाद के गड्ढे (घुरवा) एवं राजसात की गई जमीनों को हथिया लिया है। यह कदाचार देश के सभी राज्यों व केन्द्र शासित राज्यों में हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 141 एवं 142 में लोकोपयोगी भूमि को जनहित में आरक्षित रखने का प्रावधान है। ऐसी सामुदायिक जमीनें जो सार्वजनिक उपयोग की होती है, सदियों से भारत के गांवों में विद्यमान है, जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नामों से जानी जाती है जैसे- ग्राम सभा की जमीन ग्राम पंचायत की जमीन, सामलात भूमि, मान्दावेली, पोरमबोक भूमि, कलाम, मैदान आदि। उनके नाम किसलिए उपयोग किए जाते थे (प्रयोजन) के आधार पर तय थे। ये सभी के उपयोग के लिए होती थी जैसे पीने के पानी का तालाब, मवेशी धोने का तालाब, डबरी (छोटे पोखर) खलिहान जहां फसल कटाई के बाद धान या गेहूं आदि को खरही बनाकर रखा जाता था तथा बाद में उसकी मिंजाईमिसाई की जाती थी।

चारागाह, खेलने का मैदान, सर्कस या रामलीला आदि का मैदान, गाड़ी, गाड़ा (बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी, घोड़ागाड़ी) आदि रखने का अड्डा, वाटरकोष, मरघट (श्मशान) की जमीन जहां पर मुर्दों को जलाया या दफनाया जाता है। यह सब ग्रामसभा (गांव की जमीन) की जमीनें थीं जो सामुदायिक होती थी। अनुच्छेद 141, 142 के तहत ये समस्त जमीनें (लोकोपयोगी भूमि) ग्रामसभा, ग्राम पंचायतों को प्रत्यावर्तित कर दी गई। ये जमीनें अहस्तांतरणीय है। अपवाद स्वरूप ही इनको भूमिहीन श्रमिकों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के परिवारों को पट्टा दिया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने सिव्हिल अपील नं. 1132 सन् 2011 के अपने निर्णय में भारत के सभी राज्यों के राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया है कि 'भारत के संविधान के अनुच्छेद 141 एवं 142 के तहत लोकोपयोगी भूमि (निस्तारी भूमि) पर से अविधिक अधिभोगियों को शीघ्र बेदखली तथा बेदखली के कार्रवाई के बाद उक्त भूमि को वापस ग्राम पंचायत, ग्रामसभा को प्रत्यावर्तित किया जाए'। इस संबंध में आदेश के प्रति भारत के समस्त राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों के सभी मुख्य सचिवों को उन्होंने प्रेषित किया है। साथ ही उन्होंने आदेश के नियमबद्ध एवं शीघ्र अनुपालन को सुनिश्चित करने तथा समय-समय पर न्यायालय के समक्ष अनुपाल रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा है।

संपूर्ण भारत में गांवों में रह रहे धनबल से युक्त लोगों ने सामुदायिक भूमि पर अतिक्रमण किया है और ग्राम समुदाय की कीमत पर अपनी निजी विकास हेतु उसकी मूल प्रकृति से पूर्णत: असंगत उपयोग किया है। इस हेतु उन्होंने राज्य सरकार के अधिकारियों और निहित स्वार्थ वाले स्थानीय अधिकारियों और गुण्डों का सक्रिय सहयोग लिया। कई राज्यों में ग्रामीण क्षेत्र के राजनीतिक प्रभाव वाले लोगों ने प्रशासन से सांठगांठ करके ऐसे उपयोग की सामूहिक सामुदायिक भूमि की एक इंच भी जमीन नहीं छोड़ी है भले ही वह भू-रिकार्ड में अभी भी दर्ज हो। लोकोपयोगी भूमि पर अविधिक कब्जे के अनेक उदाहरण गांवों व शहरों में देखे व खोजे जा सकते हैं जिसके तहत लोगों ने तालाबों, पोखरों को पाटकर भवन निर्माण कर लिया है।

कई गांवों में गौठान के निकट स्थित एवं मवेशियों के पीने व धोने के लिए आरक्षित डबरी को प्रभावशाली लोगों द्वारा पाटकर अन्य उपयोग किया गया और बाद में प्लाटिंग करके बेच दिया गया है। छत्तीसगढ़ के गांवों व शहरों में तालाबों की बड़ी संख्या आदिकाल से रही है। हर गांव में कम से कम दो तालाब अवश्य होते थे। एक मवेशियों के धोने, उनकी सफाई करने, उनके पीने के लिए, दूसरा आम जनता के पीने के पानी के लिए होता था, जहां मवेशियों को धोना वर्जित था। धीरे-धीरे गांवों का शहरीकरण होता गया और ये तालाब पटते गए। कई गांवों, पुराने कस्बाई शहरों में दसियों छोटे व बड़े तालाब थे। जिनके जिलाधीश (कलेक्टरों) एवं कमीश्नरों की छत्रछाया में अधिकांश पट गए और अब गिनती के ही बच गए हैं। आज कहीं पर घर, पक्का मकान, स्कूल, अस्पताल, शासकीय भवन, निजी भवन, शॉपिंग कॉम्पलेक्स और मॉल बन चुके हैं। कई राज्यों में लोकोपयोगी भूमि (निस्तारी जमीन) को राज्य शासन द्वारा आदेश देकर निजी लोगों को मकान और दुकान के लिए पट्टे देकर बेचा गया है।

तालाबों के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निर्णय देते हुए यह भी कहा है कि, हमारे पूर्वज मूर्ख नहीं थे। जब बारिश कम होगी सूखा पड़ेगा या पानी की किल्लत होगी तब इन तालाबों का उपयोग सिंचाई, मवेशियों के धोने, नहलाने उनके पीने के लिए भी होगी। अधिकांश तालाबों के पास या उससे लगे हुए मंदिर भी हुआ करते थे। इस प्रकार वे हमारे संस्कृति के हिस्से भी थे। इन दिनों तालाबों को पाट दिए जाने के कारण गांवों व शहरों में भू-स्तर जल काफी नीचे चला गया है। बोरिंग से पानी प्राप्त करने के लिए काफी गहरा खुदाई करना पड़ता है। शहरों में गंदे पानी के नालियों, नालों के समीप के बोरिंग में दूषित पानी आने लगा है। उन्होंने कहा है कि, अब समय आ गया है कि तालाबों को पाटे जाने व उन्हें पाटकर बेचे जाने पर रोक लगाई जाएं और उन जमीनों को ग्राम पंचायतों, नगर पंचायतों, नगर पालिका व नगर निगमों को वापस की जाएं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में जिसे उन्होंने सभी राज्यों व संघ शासित राज्यों के मुख्य सचिवों को भेजा है कहा है कि, 'आदेश के नियमबद्ध और शीघ्र अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए सबसे पहले लोकोपयोगी सामलात निस्तारी भूमि को राजस्व अभिलेखों में निजी नामों से अविधिक दाखिले को खारिज कर उसे आजादी पूर्व की स्थिति में सन् 1923-24-25 के मिशक बंदोबस्त के रिकार्ड पर लाया जाए तथा अतिक्रमण हटाओ आदेश का विधिवत पालन कराया जाए'।

कई राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के प्रति प्राप्ति के होने के कई माह गुजर जाने के बाद भी अपने राजपत्र में अधिसूचना जारी नहीं की है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के जारी होने से लोकोपयोगी समस्त निस्तारी भूमि, जो अविधिक तरीके से हथिया लिए गए हैं या शासनादेश के जरिए निजी व्यक्तियों को पट्टे दिए गए हैं, निरस्त हो गए हैं। अब वे अविधिक कब्जाधारी हैं। राज्य सरकार ऐसे सभी अविधिक कब्जे को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करें, ताकि किन-किन राजनीतिक प्रभाव रखने वाले लोगों ने, भू-माफिया, गुंडे व बेईमान लोगों ने ऐसी जमीन हथियाई है, आम लोगों को जानकारी हो। राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं, किसानों, खेत मजदूरों व ऐसे समस्त लोगों को जो आम जनता के हित में सोचते हैं उन्हें इन समस्त निस्तारी जमीनों को सामुदायिक हित में वापस लाने के लिए गांव व शहरों में जन अभियान, जन संघर्ष संचालित करना चाहिए।

(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के छत्तीसगढ़ राज्य सचिव हैं)

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