लूटने के नए बहाने


हैरानी वाली बात तो यह है कि उत्तराखण्ड के जंगलों की सबसे ज्यादा चिन्ता अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड जैसे तथाकथित पर्यावरण-हितैषी देशों को है। पर्यावरण की रक्षा, जंगलों को बढ़ाने व बचाने के नाम पर वे करोड़ों रुपए की मदद भी दे रहे हैं। ये वही जखीरे हैं, जिन्होंने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान अब तक पहुँचाया है।

पर्यावरण के नाम पर पिछले कुछ सालों में कुछ लोगों को अपने फलने-फूलने में बड़ी सहायता मिल गई है। इससे धौंस जमाने, पैसा कमाने तथा कुछ लोगों को अपनी बुद्धिजीविता का आवरण बनाए रखने के लिये (विशेषकर ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया शुरू होने के बाद) एक नया तरीका मिल गया है। कुछ लोग निश्चित तौर पर अपवाद हो सकते हैं, परन्तु मोटे तौर पर बाजार हमारे जीवन में इस तरह से घुस चुका है कि उसमें नैतिकता की जगह बहुत सिमट-सी गई है।

तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर जबरन अधिकार जमाकर वह (बाजार) जल, जंगल और जमीन सब पर अपनी मुहर लगाने की मुहिम में जुटा है। इसी क्रम में पर्यावरण के नाम पर रिजर्व या सेंचुरी बनाकर स्थानीय लोगों को उजाड़ने की प्रक्रिया को भी देखा जा सकता है। बिहार के भागलपुर में गंगा नदी में डॉल्फिन और मगरमच्छों की सुरक्षा के नाम पर हैबीटाट बना दिये गए। वस्तुतः इस हैबीटाट के नाम पर छोटे मछुआरों को मछली मारने से मना करने का उद्देश्य भर था। वहां ‘गंगा मुक्ति आन्दोलन’ चलाया गया, जो आज भी जारी है।

इस लूटने की प्रक्रिया को आसानी से चलाया जा सके, इसलिये नीति-निर्धारक यह प्रचारित करते हैं कि अगर वन भू-भाग में कमी आएगी और वन्य-पशु का शिकार धड़ल्ले से चलता रहेगा, तो पारिस्थितिकीय सन्तुलन और आहार-शृंखला में गड़बड़ी पैदा होगी। कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता है, क्योंकि यह विज्ञान-सम्मत और सौ फीसदी व्यावहारिक बात भी है, परन्तु ऐसी बात तो इसलिये प्रचारित की जाती है ताकि इससे आम जनता के अन्दर अपने लिये असुरक्षा का भाव पैदा हो।

उत्तराखण्ड में ‘जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व’ की सुरक्षा के नाम पर उजाड़ने की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसे आसानी से समझा जा सकता है। हालांकि ऐसी प्रक्रियाएँ कभी कहीं उद्योग लगाने के नाम पर तो कभी मॉल बनाने को लेकर या फिर शहर के सौन्दर्यीकरण को लेकर पूरे देश में तेजी से हो रहे हैं। उत्तराखण्ड में रामनगर-कालागढ़-कोटद्वार सड़क को आम लोगों के लिये बन्द कर दिया गया है।

तकरीबन 10 कि.मी. का यह रास्ता ही यहाँ की जीवनरेखा था, परन्तु अब जो दूसरा रास्ता लोगों को रामनगर से कोटद्वार के लिये दिखाया जा रहा है, वह उत्तर प्रदेश राज्य से होकर गुजरता है, जिससे रास्ता 49 कि.मी. अधिक लम्बा हो जाता है। दूरी बढ़ने से और दूसरे राज्य में से होकर जाने के लिये किराया और समय, दोनों ही ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। इस उजाड़ की प्रक्रिया से जो संघर्ष की जमीन उत्तराखण्ड में तैयार हो रही है, वह सबको प्रेरणा देगी।

‘जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व’ से होकर जाने वाले रास्ते को बन्द किये जाने और पर्यावरण की सुरक्षा और वन नीति के नाम पर जो खेल चल रहा है, उसमें अन्तर्निहित बातों को समझना बहुत ही जरूरी होगा। जंगली जानवर आये दिन आसपास के गाँवों में घुसकर लोगों को घायल कर देते हैं और मार भी देते हैं। उनके खेतों में घुसकर उनकी फसलों को बर्बाद कर डालते हैं। इनकी शिकायत पर कोई गौर करने को तैयार नहीं है।

वन पर आधारित रोजगार, चारा व ईंधन का कोई वैकल्पिक इन्तजाम किये बगैर इनका वन-नीति के नाम पर शोषण किया जाता है। इन ग्रामीणों से इनकी दरांती और कुल्हाड़ी छीन ली जाती है। जब ये ग्रामीण अपनी और अपनी फसल की सुरक्षा का जिम्मा अपने हाथों में लेते हैं, तो इन पर झूठा मुकदमा चलाया जाता है। आपको मालूम हो, उत्तराखण्ड के 67 फीसदी भू-भाग पर जंगल है। लगभग 15 हजार की आबादी की थोड़ी जरूरतों से जंगल के खत्म होने के बड़े भयंकर नुकसान को दिखाने में अलोकतांत्रिक सरकार की मदद में गैर-सरकारी संगठनों और तथाकथित पर्यावरणविदों के साथ होने का मतलब क्या है?

इतने बड़े सफेद झूठ का आम जनमानस के सामने से इस तरह से गुजारे जाने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह हुआ कि लोगों में राजनीतिक चेतना का संचार कराना अभी बहुत जरूरी है। यह बहुत बड़ा काम जनसंगठनों के हिस्से है। जनसंगठन जो इस मुहिम में जुटे हैं, उनकी प्राथमिकता यह होनी भी चाहिए। हालांकि 23 मई को उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के देहरादून के आवास पर हुए बड़े प्रदर्शन से इस बात की सुगन्ध आ रही थी।

रामनगर और उसके आसपास के प्रभावित होने वाले गाँव के लोग अपने बलबूते प्रदर्शन में शरीक होने आये थे। इस प्रदर्शन में महिलाओं की संख्या बहुत ज्यादा थी। संयुक्त संघर्ष समिति के नेतृत्व में इस सुखद घटना को घटित होते देखना लेखक के लिये सुखद अनुभूति से कम नहीं था। इस तरह के छोटे-बड़े आन्दोलन देश के अन्दर सक्रिय हो रहे हैं। उड़ीसा के कलिंगनगर में 2 जनवरी को 13 आदिवासियों की पुलिस द्वारा हत्या के बाद से द्वेतारी- पारादीप एक्सप्रेस हाईवे का आज तक बन्द होना इस व्यवस्था के खिलाफ लम्बी लड़ाई का आगाज है।

हैरानी वाली बात तो यह है कि उत्तराखण्ड के जंगलों की सबसे ज्यादा चिन्ता अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड जैसे तथाकथित पर्यावरण-हितैषी देशों को है। पर्यावरण की रक्षा, जंगलों को बढ़ाने व बचाने के नाम पर वे करोड़ों रुपए की मदद भी दे रहे हैं। ये वही जखीरे हैं, जिन्होंने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान अब तक पहुँचाया है।

तथ्य तो यह है कि अकेले अमेरिका ही दुनिया के वातावरण में 25 फीसदी से अधिक विषैली गैस उत्सर्जित करने के लिये जिम्मेदार है। ये वही देश हैं, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को न्यूनतम स्तर पर लाने के वायदे से मुकरते हुए कोई खास इन्तजाम नहीं किये। इसे अमेरिकी पारस्थितिकीय साम्राज्यवाद की संज्ञा दी जाये तो किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। संसाधनों की लूट में हमारी देशी व विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, समान रूप से जिम्मेदार हैं।

जिम कार्बेट में उनके पैसों से इस व्यापार को चलाने में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ व कार्बेट फाउंडेशन जैसे एनजीओ (गैर-सरकारी संगठन) मदद को तैयार हैं। मुनाफे की इस होड़ में जनसंगठनों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। उन्हें फंडिंग एजेंसियों के कुचक्र से अपने को बचाकर इस लड़ाई को मजबूती देनी होगी।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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