मालवा में कैंसर का कहर

25 Aug 2018
0 mins read
कैंसर से मौत के बाद गमजदा परिवार
कैंसर से मौत के बाद गमजदा परिवार

'डग-डग रोटी, पग-पग नीर' और अपने स्वच्छ पर्यावरण के लिये पहचाना जाने वाला मध्य प्रदेश का मालवा इलाका इन दिनों एक बड़ी त्रासदी के खौफनाक कहर से रूबरू हो रहा है। यहाँ के गाँव-गाँव में कैंसर की जानलेवा बीमारी इन दिनों किसी महामारी की तरह फैलती जा रही है। कुछ गाँवों में घर-घर इसका आतंक है। तम्बाकू और बीड़ी पीने वालों को यह बीमारी आम है लेकिन यहाँ कई ऐसे लोग भी इस लाइलाज बीमारी के चंगुल में फँस चुके हैं, जिन्होंने कभी इनका इस्तेमाल नहीं किया।

विशेषज्ञों के मुताबिक इसका बड़ा कारण खेतों में प्रयुक्त होने वाला कीटनाशक है। कुछ साल पहले पंजाब में भी इसी तरह के हालात बने थे और कैंसर मरीजों को लाने-ले जाने वाली रेलगाड़ी को ही कैंसर ट्रेन कहा जाने लगा था। अब लगभग वैसी ही स्थिति मालवा की भी है। बड़ी बात यह है कि प्रभावितों की बड़ी तादाद होने के बाद भी यह मुद्दा अब तक मीडिया की हेडलाइन से दूर है।

हमने इलाके के उन गाँवों में जाकर स्थितियों का जायजा लिया और इसके कारणों की भी पड़ताल करने की ठानी। इन्दौर से करीब 15 किमी दूर घने जंगलों और हरे-भरे खेतों के रास्ते हम पहुँचे हरसोला गाँव में। करीब नौ हजार की आबादी और अठारह सौ घरों वाला यह गाँव आलू और सब्जियों के उत्पादन के कारण पहचाना जाता है।

यहाँ के कम स्टार्च वाले आलू विदेशों सहित देश भर में बनने वाली वेफर्स में उपयोग किया जाता है। सरपंच लक्ष्मीबाई मालवीय बताती हैं- "यहाँ कैंसर के 35 मरीज थे, जिनमें से 15 की मौत हो चुकी है। इसी महीने इस बीमारी से हजारीलाल और रमेश पिता हरिराम मोडरिया की मौत हुई है।"

गाँव के लोग बताते हैं कि करीब पाँच साल पहले यहाँ कैंसर ने दस्तक दी। 2017-18 में ही अब तक 11 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। इनमें रामकिशन चौधरी, रामचन्द्र पटेल, किशनलाल वर्मा, रमेश बारोड, लक्ष्मीनारायण सोलंकी, भागवंती बाई, कौशल्या बाई, रामकन्या बाई आदि हैं। इससे पहले 2016 में भी लीलाबाई, मदनलाल मुकाती, रामचन्द्र राव, लक्ष्मीबाई मुकाती, परमानन्द माली तथा बद्रीलाल डिंगू की मौत कैंसर से हो चुकी है।

यहाँ जब बीते महीने डॉक्टरों ने पड़ताल की तो पहले ही दिन 6400 लोगों की जाँच में 25 कैंसर के मरीज मिले। यह आँकड़ा देखकर डॉक्टर भी चौंक गए। इंदौर कैंसर फाउन्डेशन (indore cancer foundation) के डॉ. दिगपाल धारकर ने बताया, "अमूमन एक लाख लोगों में से 106.6 कैंसर के मरीज होते हैं लेकिन यहाँ तो इस अनुपात से बहुत ज्यादा हैं। मेरे अनुमान से करीब पाँच गुना ज्यादा और यह शोध का विषय है।" डॉ. हेमंत मित्तल और विकास गुप्ता के मुताबिक इस गाँव में सभी तरह के मुँह, गले, स्तन, गर्भाशय, रक्त तथा लीवर कैंसर के रोगी शामिल हैं। जबकि पूरे गाँव में महज 127 लोग गुटखा-तम्बाखू खाते हैं और 95 धूम्रपान करते हैं।

अमलाय पत्थर गाँव में कृष्णा देवी की कैंसर से मौतअमलाय पत्थर गाँव में कृष्णा देवी की कैंसर से मौत (फोटो साभार - दैनिक भास्कर)लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने गाँव में पीने के पानी के स्रोतों 6 बोरिंग सहित तालाब के पानी की भी जाँच की है। हालांकि अब तक पानी के परीक्षण की रिपोर्ट नहीं आई है लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि डेढ़ साल पहले भी जब जाँच हुई थी तो इसमें कैल्शियम की मात्रा ज्यादा पाई गई थी।

पर्यावरण के जानकार बताते हैं कि अधिक-से-अधिक उत्पादन की होड़ में गाँव के आसपास खेतों में इतनी बड़ी तादाद में कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया है कि यहाँ की धरती और पानी दोनों ही जहरीले हो चुके हैं। खेतों का कीटनाशक बारिश के पानी के साथ जमीन में उतरता है और जमीन के साथ जमीनी पानी के भण्डार को भी प्रदूषित करता है।

यह साफ है कि हरसोला गाँव के ज्यादातर लोग किसान हैं और अपने खेतों में काम करते हैं। सभी मृतक किसी-न-किसी रूप में किसान ही हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि गाँव में बीते 40 सालों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करीब चार से पाँच गुना तक बढ़ा है। इसी ने हमारे परिवेश में जहर और हवा में कड़वाहट घोल दी है। ये बीमारियाँ इन्हीं की देन हैं।

कमोबेश यही स्थिति शाजापुर जिले के अमलाय पत्थर गाँव की है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब सौ किमी दूर करीब पौने दो हजार की आबादी और सवा तीन सौ परिवार वाले इस गाँव के हर दसवें घर में कैंसर के मरीज अपनी मौत का इन्तजार करते मिले। अब तक कैंसर से इस गाँव में 31 मौतें हो चुकी हैं।

वर्ष 2012 में पहली बार यहाँ कैंसर के चार मरीज मिले थे। लेकिन इलाज के अभाव में इन चारों की बारी-बारी से मौत हो गई। इलाके में कैंसर के कई मरीज अब भी हैं लेकिन इनमें ज्यादातर झाड़-फूँक के अन्धविश्वास में अस्पताल पहुँचते इतनी देर कर देते हैं कि उनकी मौत से बचना नामुमकिन हो जाता है। बीते छह महीनों में ही चार लोगों की मौतें हो चुकी हैं।

ग्रामीण रूपसिंह बताते हैं- "कैंसर मरीजों में बुजुर्ग ही नहीं महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं। इनमें अधिकांश कोई नशा नहीं करते थे। अलग-अलग तरह के कैंसर से पीड़ित लोगों के लिये आसपास के अस्पतालों में इलाज के लिये सुविधाएँ नहीं हैं तथा इंदौर या भोपाल के कैंसर अस्पतालों में लम्बे समय तक रहकर इलाज करा पाना उनके बस में नहीं है। यही वजह है कि कैंसर होने पर सिवाय मौत के इन्तजार के अलावा इनके पास कोई चारा नहीं है। यहाँ कैंसर का खौफ इस तरह है कि लोग यहाँ के कुँआरे लड़कों के लिये अपनी लड़कियों का हाथ देने तक में कतराते हैं। गाँव का नाम सामने आते ही वे मुँह बिदका लेते हैं। अमलाय में 18 से 40 साल के करीब 60 युवक ऐसे हैं, जो अपनी शादी के इन्तजार में बुढ़ापे की तरफ बढ़ते जा रहे हैं।"

नवम्बर 2012 में गाँव के सभी 13 जलस्रोतों की जाँच की गई थी लेकिन इसकी रिपोर्ट अब तक ग्रामीणों को नहीं बताई गई है। जवाहर कैंसर हॉस्पिटल भोपाल (Jawahar cancer hospital bhopal) के शोध विशेषज्ञ डॉ. गणेश ने बताया कि गाँव के पानी, जमीन, खाद और कीटनाशकों के उपयोग की स्थिति, धूम्रपान, गुटखा तम्बाखू की लत, जीवनशैली, खानपान के तौर तरीकों सहित कई आयामों से शोध के बाद ही अमलाय में इतनी बड़ी तादाद में हो रही बीमारी के कारणों का खुलासा हो सकता है लेकिन हाँ खेतों में कीटनाशकों का अन्धाधुन्ध उपयोग इसे बढ़ा सकता है। गाँवों में यही बड़ा कारण हो सकता है। जिले के स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. जीएल सोढी का कहना है कि गाँव के लोग कैंसर के प्रति गम्भीर नहीं हैं।

कैंसर से मौत का मातमकैंसर से मौत का मातमहमारे पड़ताल की अगली यात्रा का पड़ाव है धार जिले का डेहरी गाँव। करीब 6 हजार की आबादी वाले इस गाँव में बीते दो सालों में कैंसर से 12 लोगों की मौतें हो चुकी हैं। डेहरी और उसके आसपास के पाँच गाँवों में बीते महीने 25 मरीज मिले हैं। बीते एक साल में कैंसर से खेमाजी सिर्वी, दामोदर राठौर, गणेश राठौर, बाबू खान और रफीक खान की मौत हो चुकी है। इसी तरह बीते हफ्ते ही पूर्व सरपंच दुर्गाबाई कुशवाहा की भी मौत हो चुकी है।

सरपंच शकुंतलाबाई जामोद बताती हैं, "गाँव में कैंसर का प्रकोप बढ़ने के बाद एक बार फिर पीने के पानी की जाँच जरूरी हो गई है। इससे पहले भी पंचायत के प्रस्ताव पर लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने पानी का सैम्पल तो लिया लेकिन इसके गुणवत्तापूर्ण होने या नहीं होने की कोई रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है। यदि विभाग के अधिकारी पानी को दूषित बताएँगे तो हम तुरन्त इसकी सप्लाई रोक देंगे।"

पूर्व सरपंच जफरुद्दीन मुलतानी बताते हैं- "कैंसर के साथ गाँव में कई तरह की बीमारियाँ व्याप्त हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है पीने का पानी। यहाँ के पानी में पहले भी फ्लोराइड का आधिक्य मिला था लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। पुरानी रिपोर्ट में तीन प्रतिशत फ्लोराइड होने से कुछ स्रोतों का पानी बन्द कर दिया था लेकिन कुछ ही दिनों में लोगों ने फिर से पीना शुरू कर दिया। एक प्रतिशत से अधिक होने पर पानी पीने योग्य नहीं रहता। कुछ लोगों को इससे किडनी, लीवर, खुजली, चर्म रोग, घेंघा और दाँत पीले और टेढ़े होने के साथ अन्य बीमारियाँ हो रही हैं। फिलहाल चार ट्यूबवेल से लोगों को पानी दिया जा रहा है। धार जिले में केन्द्र सरकार का कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसे गैर संचारी रोगों के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है।"

इंदौर सम्भाग की क्षेत्रीय संचालक डॉ. लक्ष्मी बघेल भी मानती हैं कि डेहरी और उसके आसपास कैंसर का बढ़ता प्रकोप शोध का विषय है। फिलहाल हमने इन सभी गाँवों में शिविर लगाकर रोगियों को चिन्हित करने की पहल शुरू कर दी है।

धार के ही पड़ोसी जिले खंडवा में बीते एक साल में कैंसर से 31 मौतें हो चुकी हैं। इस साल यहाँ 283 नए कैंसर रोगी दर्ज हुए हैं। झाबुआ जिले के गाँवों में भी यही स्थिति है। बीते तीन साल में यहाँ करीब 30 मरीजों की मौत हुई है तथा 240 से ज्यादा नए मरीज दर्ज हुए हैं। अलीराजपुर में 223 दर्ज हैं। रतलाम में 172 कैंसर पीड़ित हैं। खरगोन में चौंकाने वाला आँकड़ा सामने आया है, जहाँ कुल 290 मरीजों में 62 फीसदी महिलाएँ शामिल हैं। देवास में बीते चार सालों में 934 मरीज दर्ज हैं। मंदसौर में तीन सालों में कैंसर पीड़ितों का आँकड़ा 33 से बढ़कर 209 तक पहुँच गया है। उज्जैन में सर्वाधिक 2787 मरीज दर्ज हैं, इनमें 30 फीसदी स्तन कैंसर पीड़ित महिलाएँ हैं। उज्जैन का कैंसर अस्पताल इलाके में मँडल के रूप में माना जाता है।
 

जिला

सरकारी अस्पताल में दर्ज कैंसर के रोगी

कैंसर से हुई मौतें

खंडवा

283 (बीते 1 साल में)

31

झाबुआ

240 (बीते 3 साल में)

30

अलीराजपुर

223 (बीते 1 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

रतलाम

172 (बीते 1 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

खरगोन

290 (बीते 2 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

देवास

934 (बीते 4 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

मंदसौर

209 (बीते 3 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

उज्जैन

2787 (बीते 4 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

धार

आँकड़े अप्राप्त

आँकड़े अप्राप्त

शाजापुर

आँकड़े अप्राप्त

आँकड़े अप्राप्त

बड़वानी

800 (बीते 3 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

नीमच

आंकडें अप्राप्त

आंकडें अप्राप्त

(सरकारी जिला अस्पतालों से मिले  रिकॉर्ड के मुताबिक)

 

ये आँकड़े केवल जिले के सरकारी अस्पतालों में पहुँचने वाले मरीजों के हैं। लेकिन अधिकांश मरीज कैंसर के इलाज के लिये जिला अस्पतालों की जगह समीप के इंदौर, भोपाल, अहमदाबाद, मुम्बई और बड़ौदा के अस्पतालों की तरफ जाते हैं। इनका कोई रिकार्ड कहीं नहीं है। एक बड़े अनुमान के मुताबिक अकेले मालवा में सात हजार से ज्यादा मरीज हैं। कैंसर का आँकड़ा बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। यह चिन्ता का विषय है।

कुछ सालों पहले से पंजाब के बठिंडा से बीकानेर जाने वाली ट्रेन को कैंसर ट्रेन के नाम से ही पहचाना जाता है। इससे हर दिन 200 से ज्यादा कैंसर रोगी बीकानेर के कैंसर अस्पताल पहुँचते हैं और यह सिलसिला कई सालों से अनवरत चल रहा है। 20 स्टेशनों से गुजरते हुए यह हर दिन 325 किमी का सफर तय कर कैंसर मरीजों की बुझी हुई उम्मीदों को जिन्दा करने की कोशिश करती रही है।

हरित क्रान्ति के बाद पंजाब में उत्पादन बढ़ाने के नाम पर कीटनाशकों तथा रासायनिक खादों का अन्धाधुन्ध इस्तेमाल हुआ और इस ट्रेन में सफर करने वाले मरीजों का कारण भी यही है। यहाँ के प्रदूषित पानी, हवा और जमीन ने इन्हें कैंसर की बीमारी तोहफे में दी है।

पंजाब के बाद मध्य प्रदेश के मालवा का एक बड़ा हिस्सा भी अब इस तर्ज पर कैंसर की अनिवार्य परिणिति को भुगतने को मजबूर है। मालवा के खेतों में बीते कुछ सालों में खूब सारा जहर डाला गया। यह कीटनाशकों के प्रयोग में देश के सर्वाधिक उपयोगकर्ताओं में एक बन चुका है और इसी का खामियाजा अब इसे इन्हीं किसानों के शरीर में गाँठे पड़कर धीरे-धीरे मौत के दरवाजे तक पहुँचने का दौर शुरू हो चुका है। अकेले मध्य प्रदेश में कैंसर मरीजों का ताजा आँकड़ा तेजी से बढ़कर 93 हजार 754 तक पहुँच चुका है।

गाँव में खौफजदा लोगगाँव में खौफजदा लोगमध्य प्रदेश देश का पाँचवाँ ऐसा राज्य है, जहाँ कैंसर मरीजों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ रही है। कहीं कैंसर एक्सप्रेस का अगला स्टेशन मालवा तो नहीं होने जा रहा।

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की ताजा रिपोर्ट ताकीद करती है कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों से पूरी दुनिया की धरती में खेती के उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और मनुष्य की सेहत के लिये गम्भीर किस्म के खतरे खड़े कर दिये हैं। यहाँ तक कि शिशु के लिये अब अपनी माँ का दूध भी अछूता नहीं रहा। पेय और खाद्य पदार्थों के कारण भोजन खुराक से ही माँ का दूध भी प्रदूषित हो जाता है।

फेडरेशन ऑफ गायनिक सोसायटी इण्डिया (Federation of Gynaec Society of India) की अध्यक्ष डॉ राजदीप मल्होत्रा ने बताया- "पहले प्रायः 45 वर्ष या इससे अधिक उम्र की महिलाओं में ही स्तन कैंसर की आशंका होती थी लेकिन अब 25 से 35 साल की महिलाओं में यह बीमारी अधिक देखने में आ रही है। भारत में हर आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर की आशंका रहती है। स्तन कैंसर साइलेंट किलर है तथा थोड़ी-सी भी देरी से डाइग्नोस होता है तो इसके ठीक होने की सम्भावना कम हो जाती है। यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्र में इससे मौतें ज्यादा होती हैं, क्योंकि वहाँ तक जाँच व निदान की तकनीक और संसाधन अब तक नहीं पहुँच सके हैं। इसका सबसे बड़ा कारण आधुनिक जीवनशैली, नशा और अनुवांशिकी के साथ सब्जियों और अनाज में कीटनाशकों के अंश का पहुँचना है।"

रासायनिक खाद के इस्तेमाल में भी मध्य प्रदेश पीछे नहीं है। देश में सबसे ज्यादा यूरिया की खपत करने वाले प्रदेशों में मध्य प्रदेश तीसरे नम्बर पर हैं।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (center for science and environment) की रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2015 से मार्च 2016 के बीच एक साल में 23 लाख 87 हजार 499 मीट्रिक टन यूरिया की प्रदेश के खेतों में खपत हुई है। पहले नम्बर पर उत्तर प्रदेश है, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से काफी बड़ा है। छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल काफी कम होने के बावजूद यहाँ भी यूरिया की खपत 8 लाख 45 हजार 057 मीट्रिक टन हुई है। इसमें हर साल 20 फीसदी की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है। जाहिर है कि मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में किसान यूरिया का बेतहाशा उपयोग कर रहे हैं। हरित क्रान्ति के दौर में उत्पादन बढ़ाने के लिये किसानों को परम्परागत खेती छोड़कर रासायनिक खादों के लिये सरकारों ने प्रेरित किया। किसान उपज के मान से मालामाल हुए भी। लेकिन तब इसके दूरगामी दुष्परिणामों पर गौर नहीं किया गया।

खेतों में कीटनाशक का बेतहाशा इस्तेमालखेतों में कीटनाशक का बेतहाशा इस्तेमालआश्चर्य है कि खेतों की मिट्टी का परीक्षण किये बिना मुनाफे की होड़ में मनमाने तरीके से यूरिया सहित अन्य खादों का प्रयोग किया गया। यूरिया का 30 फीसदी हिस्सा ही पौधों को बढ़ाता है, जबकि बड़ा हिस्सा 70 फीसदी नाइट्रोजन में बदलकर बारिश के पानी के साथ धरती में जाकर भूजल भण्डार तथा मिट्टी के साथ नदी-नालों में समाकर उन्हें प्रदूषित करता है। इससे भूजल क्षारीय हो जाता है और ऐसा पानी फसलों को नुकसान पहुँचाता है। इनकी वजह से खेती में लागत लगातार बढ़कर घाटे का सौदा होती जा रही है। नदी-नालों में जलीय जन्तुओं के लिये ऑक्सीजन की कमी से उनके जीवन पर संकट आता है। यह पानी और इससे उगने वाला अन्न दोनों ही मनुष्य की सेहत को नुकसान पहुँचाते हैं और गम्भीर बीमारियों का कारण बनते हैं।

बीते बीस सालों से पर्यावरणविद और कृषि वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि जल्दी ही रासायनिक खादों और दवाओं को हटाकर जैविक खेती को नहीं अपनाया गया तो हालात गम्भीर हो सकते हैं, किन्तु तमाम सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी अब तक जैविक खेती को लेकर सिर्फ नारेबाजी ही हो रही है।

हमारे यहाँ जैविक खेती की अवधारणा नई नहीं है, परम्परा से हमारे पूर्वज इसे करते रहे हैं। खेती की आसन्न चुनौतियों से निपटने का एकमात्र विकल्प है- अपनी जड़ों की ओर लौटना। हमें फिर परम्परागत खेती के तरीकों पर आना होगा। अब किसानों को भी यकीन होता जा रहा है कि खेती में रसायनों का उपयोग बहुत हुआ। अब इसे रोकने का समय आ गया है। यह जमीन और स्वास्थ्य दोनों के लिये हानिकारक है और पैसों की बर्बादी भी है।

दुर्भाग्य से जिन गाँवों के कोठार कभी अन्न के दानों से भरे रहते थे, आज वहाँ दवाइयाँ हैं, जहाँ के खेत सोना उगलते थे, आज वहाँ मौतें हो रही हैं। हवाओं में दुर्गन्ध का कसैलापन है। जहाँ कभी फसलें आने पर लोक गीत गूँजते थे, आज वहाँ भयावह खौफ और मौत का सन्नाटा है। जहाँ के लोग हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी हृष्ट-पुष्ट बने रहते थे, आज वे कंकाल की तरह नजर आते हैं और निराशा इतनी कि हर दिन अपनी मौत की घड़ियाँ गिनते रहते हैं।

बीते तीस-चालीस सालों में हमने खेती की उपज बढ़ाने के नाम पर किन यमदूतों को हमारी खेती में शामिल कर लिया कि हमारी जान पर ही बन आई। भला ऐसी समृद्धि किस काम की जो मौत का तोहफा देती हो। कीड़ों को मारने वाली दवा जब हमारी खुद की सेहत पर भारी पड़ जाये तो सवाल खड़े होना लाजमी है कि आखिर कब हम इस जहर से मुक्त होंगे।

जानलेवा कैंसर के इलाज के नाम पर करोड़ों खर्च करने वाली सरकारें इन कीटनाशकों, खाद और गुटखा-तम्बाखू उत्पादों के बनाने और बिक्री पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाती। किसान तो मजबूरी में अपनी जीती जागती फसलों को बचाने के लिये इसका प्रयोग करते हैं लेकिन सरकारों की आखिर क्या मजबूरी हो सकती है। आखिर कब तक हम अपने अन्नदाता किसानों को कैंसर के दलदल में धकेलते रहेंगे। कब तक...!

 

TAGS

madhya pradesh, malava, cancer, cancer train, centre for science and environment internship, centre for science and environment jobs, centre for science and environment publications, centre for science and environment report, centre for science and environment wiki, centre for science and environment contact, centre for science and environment upsc, centre for science and environment address, jawaharlal nehru cancer hospital bhopal website, jawaharlal nehru cancer hospital bhopal contact no, jawaharlal nehru cancer hospital bhopal vacancy, government cancer hospital in bhopal, jawaharlal nehru cancer hospital bhopal doctors, jawaharlal nehru cancer hospital & research center bhopal, madhya pradesh, jawahar lal nehru cancer hospital and research center bhopal, madhya pradesh, list of cancer hospital in bhopal, Page navigation, indore cancer foundation charitable trust indore, 452018, free cancer treatment in indore, best cancer surgeon in indore, cancer hospital indore madhya pradesh, list of cancer hospital in indore, govt cancer hospital indore, madhya pradesh, best cancer hospital in indore, indian institute of head and neck oncology indore, madhya pradesh, cancer in punjab statistics, most common cancer in punjab, cancer belt of india, causes of cancer in punjab, causes of cancer in bathinda, cancer in malwa region of punjab, bhatinda cancer, cancer train in punjab, fogsi membership delhi, fogsi membership 2018, fogsi lifetime membership form, fogsi president 2018, fogsi registration form 2018, fogsi membership form download, fogsi membership number 2017, fogsi journal.

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading