मानसून : अनुसंधान की दिशा, दीर्घकालीन पूर्वानुमान

पिछले कुछ वर्षों से अखबारों में ‘एल नीनो’ की बहुत चर्चा होती रहती है। अक्सर कहा जाता है कि जिस सर्दी में एल नीनो घटना घटती है उसकी अगली बरसात में भारत और अफ्रीका में बहुत कम वर्षा होती है। वहां सूखा पड़ जाता है। कुछ वैज्ञानिक इन दोनों घटनाओं को - पेरु (दक्षिण अमेरिका) के तट पर सर्दियों में एल नीनो की घटना के होने को और अगली बरसात में भारत में वर्षा के बहुत कम होने को मात्र संयोग मानते हैं तो कुछ इन दोनों घटनाओं में घनिष्ठ संबंध होने पर बल देते हैं।आधुनिक युग में मानसून का पूर्वानुमान लगाने के कार्य का आरंभ सर गिलबर्ट वाकर ने किया, जो 1904 से लेकर 1921 तक, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे। इस पद को ग्रहण करने के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज की फेलोशिप छोड़कर आए थे। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहने के दौरान ही, 1920 में, उन्होंने पवन के उस अत्यंत विशाल परिसंचरण चक्र की खोज की थी, जो बाद में ‘वाकर परिसंचरण चक्र’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह चक्र अल नीनो की घटना का परोक्ष कारण है।

‘विश्व मौसम’ पर माला के रूप में प्रकाशित अपने शोध-लेखों में उन्होंने वायुमंडल के व्यापक परिसंचरण में तीन प्रकार के दोलनों की उपस्थिति के प्रमाण प्रस्तुत किए थे। इन दोलनों में, हमारे लिए, कदाचित सर्वाधिक महत्वपूर्ण है दक्षिणी दोलन। इस दोलन के फलस्वरूप ही जब प्रशांत महासागर के ऊपर वायु दाब उच्च होता है तब हिंद महासागर पर वायु दाब निम्न हो जाता है। इसी प्रकार प्रशांत महासागर पर वायु दाब के निम्न हो जाने पर हिंद महासागर पर दाब बढ़ जाता है। दक्षिण दोलन की खोज के बाद वाकर ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस बारे में और अध्ययन करने से उन कारकों की जानकारी प्राप्त हो सकती है जो मानसून की उत्पत्ति से घनिष्ठ रूप से संबंधित हो सकते हैं। कालांतर में वाकर ने ऐसे आठ कारकों की सूची तैयार की जिनसे, उनके अनुसार, मानसून वर्षा का पूर्वानुमान लगाया जा सकता था।

यद्यपि बाद में यह पाया गया कि इनमें से कुछ कारकों और आगामी मानसूनों के बीच कोई स्पष्ट संबंध नहीं है परंतु यह मानना होगा कि गिलबर्ट वाकर ने इस विषय में बहुत विलक्षण कार्य किया था। उन्होंने इस संबंध में वर्षों तक कष्टसाध्य गणनाएं और परिकलन किए थे और वे भी बिना कंप्यूटर के। यदि उनको कंप्यूटर तथा अन्य आधुनिक यंत्रों की सुविधाएँ उपलब्ध होती तब निश्चय ही ये इनसे कहीं बेहतर नतीजे प्राप्त करने में सफल होते। ये ऐसे कारकों का अवश्य पता लगा लेते जो प्रबल मानसून के आगमन के सूचक हो सकते हैं।

गिलबर्ट वाकर के बाद भी भारतीय मौसम वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में अध्ययन जारी रखे। इनके फलस्वरूप अब मानसूनों के बारे में अधिक सही पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। आज कल भारतीय मौसम वैज्ञानिक देश के दक्षिणतम भाग में गर्मी की मानसून पवनों के आगमन और संपूर्ण देश में जून के आरंभ से लेकर मध्य सितंबर तक होने वाली वर्षा की मात्रा का अनुमान लगाने हेतु समाश्रयण समीकरणों (रिग्रेशन इक्वेशन) का उपयोग करते हैं।

मानसून के पूर्वानुमान लगाने के लिए निम्नलिखित सूचकों का उपयोग किया जाता है :

1. जनवरी के महीने में दिल्ली के ऊपर, 300 मिलीबार ऊंचाई पर, पवन के बहने की औसत दिशा।
2. उत्तरी आस्ट्रेलिया के शहर, डार्विन, के ऊपर 200 मिलीबार ऊंचाई पर, जनवरी मास में पवन के बहने की दिशा।
3. फरवरी मास में तिरुवअनंतपुरम और चेन्नई के ऊपर, 200 मिलीबार ऊंचाई पर, पवन के बहने की दिशा।
4. पिछले वर्ष, दिसंबर मास में, कोलकाता के ऊपर 200 मिलीबार ऊंचाई पर, पवन का औसत याम्योत्तर घटक (मीन मेरीडिओनल कौंपोनेंट)।

इन सूचकों का उपयोग करके भारत के दक्षिणतम छोर पर सामान्य मानसूनों के आगमन का काफी सही पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। आमतौर से पूर्वानुमान और सामान्य मानसूनों के वास्तविक आगमन में लगभग 8 दिन का अंतर पाया गया है। किसी-किसी वर्ष मानसून का आगमन असामान्य रूप से देर से होता है।

जून के आरंभ से लेकर सितंबर के मध्य तक पूरे देश में होने वाली वर्षा की मात्रा का अनुमान लगाने के लिए दो प्रकार के सूचक इस्तेमाल किए जाते हैं। एक प्रकार के सूचक उत्तर-पश्चिम भारत के लिए और दूसरी प्रकार के सूचक भारतीय प्रायःद्वीप के लिए। उत्तर-पश्चिम भारत के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले सूचक हैं :

1. अप्रैल मास में अर्जेन्टाइना के ब्यूनस आयर्स शहर का वायु दाब।
2. अप्रैल मास में लगभग 12 डिग्री उत्तर अक्षांश पर 76 डिग्री पूर्व देशांतर के साथ, 500 मिलीबार ऊंचाई पर, उच्च वायुदाब की औसत स्थिति।
3. सेशल्ज, जकार्ता और डारविन पर, मई मास में औसत भूमध्यरैखिक दाब।
4. अप्रैल के महीने में लुधियाना का औसत ताप।

गर्मी की मानसून से भारतीय प्रायद्वीप पर होने वाली वर्षा की मात्रा का पूर्वानुमान लगाने के लिए निम्नलिखित सूचकों का उपयोग किया जाता है।

1. अप्रैल और मई महीनों में दक्षिण अमेरिकी शहर ब्यूनस आयर्स, और सैंटियागो के वायु दाबों, सामान्य दाबों की तुलना में घट-बढ़।
2. अप्रैल मास में 12 डिग्री उत्तर अक्षांश और 75 डिग्री पूर्व देशांतर के साथ 300 मिलीबार पर, वायु का उच्च दाब।
3. जैसलमेर, जयपुर और कोलकाता शहरों के मार्च के महीने के औसत ताप।

उपर्युक्त कारकों से एक बड़े क्षेत्र में जून के आरंभ से सितंबर के मध्य तक होने वाली कुल वर्षा का मोटा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। परंतु इन कारकों की मदद से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि इस अवधि में हर महीने कितनी वर्षा होगी। इस कठिनाई को हल करने के लिए भारतीय मौसम विभाग आजकल स्व-समाश्रयण (ऑटो-रिग्रेसिव) मॉडल का उपयोग करता है। पिछले कुछ वर्षों से विभाग ने सोलह सूचकों के साथ नये समाश्रय समीकरणों का उपयोग आरंभ कर दिया है। इस दिशा में यह दावा किया जाता है कि नए सूचकों की मदद से मानसून वर्षा का और अधिक सही अनुमान लगाया जा सकता है। परंतु कुछ विशेषज्ञों का मत इससे भिन्न है।

एल नीनो


पिछले कुछ वर्षों से अखबारों में ‘एल नीनो’ की बहुत चर्चा होती रहती है। अक्सर कहा जाता है कि जिस सर्दी में एल नीनो घटना घटती है उसकी अगली बरसात में भारत और अफ्रीका में बहुत कम वर्षा होती है। वहां सूखा पड़ जाता है। कुछ वैज्ञानिक इन दोनों घटनाओं को - पेरु (दक्षिण अमेरिका) के तट पर सर्दियों में एल नीनो की घटना के होने को और अगली बरसात में भारत में वर्षा के बहुत कम होने को मात्र संयोग मानते हैं तो कुछ इन दोनों घटनाओं में घनिष्ठ संबंध होने पर बल देते हैं। पहले मतावलंबी यह कहते हैं कि पिछले 110 वर्षों के दौरान (1875 से 1985 तक), भारत में 43 बार वर्षा सामान्य से कहीं कम हुई थी, परंतु इन 43 वर्षों में एवं केवल 19 बार ही एल नीनो की घटना घटी थी। साथ ही इन 110 वर्षों के दौरान 6 बार ऐसा भी हुआ कि जब एल नीनो आया पर अगले वर्ष भारत में वर्षा सामान्य मात्रा में ही हुई। वर्ष 1997-98 में भी ऐसा ही हुआ था। दिसंबर 1997 में एल नीनो आया था पर 1998 की बरसात में, भारत में वर्षा सामान्य मात्रा में ही हुई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में होने वाली वर्षा पर एल नीनो के अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक घटनाओं के भी प्रभाव पड़ते हैं।

परंतु एल नीनो स्वयं में एक रोमांचक, बहुचर्चित घटना है जिसमें पिछले कुछ वर्षों से, जनसाधारण भी गहन रुचि लेने लगे हैं। अतएव उसका तथा उसकी ‘सहोदरा’ - ‘ला निन्या’ का वर्णन कुछ विस्तार से करना श्रेयस्कर होगा।

वर्ष 1972 के अंत में विश्व के विभिन्न भागों में होने वाली अप्रत्याशित और भीषण घटनाओं ने मौसम वैज्ञानिकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। इन प्राकृतिक घटनाओं ने उन्हें यह सोचने के लिए मजबूर किया कि क्या एक-दूसरे से हजारों किलोमीटर दूरी पर घटने वाली इन घटनाओं में आपस में कोई संबंध है? उस वर्ष हमारे देश में मानसून कमजोर था और अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में भी कम वर्षा हुई थी। साथ ही कुछ महीने पूर्व, दिसंबर के महीने में दक्षिण अमेरिका के उत्तर-पश्चिमी तट पेरु देश के तट के निकट प्रशांत महासागर में एकाएक कोष्ण जल की एक धारा आ गई थी। जिस प्रकार गर्मी की मानसून से वर्षा न होने या अत्यधिक कम होने से हमारे देश में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार सर्दी के दिनों में पेरु के तट के निकट प्रशांत महासागर में कोष्ण जल के आ जाने से भी मछलियों की बड़ी मात्रा में मर जाने अथवा किसी दूरस्थ ठंडे क्षेत्र में चले जाने से पेरू में भुखमरी की हालत पैदा हो जाती है क्योंकि पेरु की आर्थिक बहुत हद तक मत्स्य उद्योग पर ही आश्रित है।

हर चौथे-पांचवे वर्ष भारत में मानसून कमजोर हो जाता है। उसी प्रकार हर पांच-दस वर्ष बाद पेरू के तटीय सागर में कोष्ण जल की धारा आ जाती है। यद्यपि ये घटनाएँ पिछले हजारों वर्षों से निरंतर घट रही हैं परंतु 1972 में पहली बार मौसम वैज्ञानिकों का ध्यान इन दोनों घटनाओं के बीच कोई संबंध होने की संभावना व्यक्त करता है।

सारांश संदर्भ वर्ष 1996 में भारत में वर्षा सामान्य मात्रा में ही हुई। वर्ष 1997-98 में भी ऐसा ही हुआ था। दिसंबर 1997 में एल नीनो आया था पर 1998 की बरसात में, भारत में वर्षा सामान्य मात्रा में ही हुई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में होने वाली वर्षा पर एल नीनो के अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक घटनाओं के भी प्रभाव पड़ते हैं।

मौसम का पूर्वानुमान - एक दशक वास्ते


मौसम का रुख कब अचानक बदल जाएगा और पूरा का पूरा देश सूखे या बाढ़ से तबाह हो जाएगा अथवा भूकंप या चक्रवात के व्यूह में फंसकर चकनाचूर होने लगेगा, इसकी जानकारी किसी को नहीं रहती हैं। यहां तक कि आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित वेधशालाओं और शोधशालाओं में बैठ कर प्रकृति और मौसम की रहस्यमय दुनिया में लगातार निगहबानी कर रहे मौसम वैज्ञानिक भी चकमा खा जाते हैं। मौसम के बदलते मिजाज और प्राकृतिक उतार-चढ़ाव के संबंध में पहले ही जान लेना काफी मुश्किल और आश्चर्यजनक काम है। समय के गर्भ में कौन-कौन सी रहस्यमय घटनाएं छिपी होगी, पता ही नहीं चलता है। देश-दुनिया में स्थापित मौसम पूर्वानुमान केंद्रों और अभी तक विकसित विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से कुछ समय आगे संभावित घटनाओं की ही जानकारी मिल पाती है और कभी-कभार वह भी मिथ्या साबित होती है, किंतु समुदाय इस बात से काफी आशान्वित है कि आने वाले समय में एक दशक आगे का मौसम भी हमारी जानकारी में रहेगा।

मौसम के तुनकमिज़ाज तेवरों का निशाना प्रायः हरेक देश होता रहा है। आज दुनिया का प्रत्येक देश मौसम के गर्भ में झांकने की कोशिश में जुटा है और इसे एक अंतरराष्ट्रीय समस्या के रूप में देखा जाता है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में एशियाई देशों के लोग प्राकृतिक आपदाओं के सीधे निशाने पर रहे हैं। 1995 में महाराष्ट्र के लातूर जिले में विनाशकारी भूकंप आया। इसकी तस्वीर दिलों से ग़ायब भी नहीं हुई थी कि उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में सैकड़ों लोग भूकंप के झटकों में जान से हाथ धो बैठे। इसके पश्चात गत वर्ष उड़ीसा में आए भीषण चक्रवातीय तूफान और फिर इस साल सूखे तथा अकाल की विभीषिका के बारे में तो कुछ बताने की जरूरत ही नहीं महसूस होती है। इधर गुजरात में आए भूकंप ने तथा भूवैज्ञानिकों के इस अनुमान ने कि उत्तरी भारत में दिल्ली सहित एक बड़े इलाके में जोरदार भूकंप आने की संभावना है, लोगों को भयभीत कर दिया है।

जापान में भूकंप इतने अधिक आते हैं कि उसे भूकंपों का देश ही कहा जाता है। एक प्रचलित जापानी लोक कथा के अनुसार पृथ्वी एक विशाल मकड़े पर स्थित है। यह मकड़ा जब टांगे चलाता है तो भूकंप की-सी स्थितियाँ पैदा हो जाती है। इसी तरह भारतीय लोक-कथाएं ऐसी मान्यता प्रदान करती हैं कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है और इसके फन हिलाने से भूकंप आते हैं। कुछ इसी तरह की मान्यताएं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के संबंध में भी प्रचलित हैं।

अब अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक दल को मिली सफलता आशा की किरण लेकर आई है। अभी तक चली आ रही इस विचारधारा को, कि प्राकृतिक घटनाएँ एवं मौसम पूरी तरह से अज्ञात और अव्यवस्थित चीजें हैं और इनका कोई निश्चित तौर तरीका या रास्ता नहीं होता, तोड़ते हुए वैज्ञानिकों ने यह कहा है कि मौसम का भी एक निश्चित और नियमित चलन होता है। यह अंतरराष्ट्रीय शोध कार्यक्रम लगभग तीन वर्ष पूर्व पेरिस में प्रारंभ किया गया था। उस समय इसमें 60 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए। ‘क्लाइमेट वैरिएशन’ यानी ‘क्लाइवर’ नामक इस शोध कार्यक्रम में लगे वैज्ञानिकों को विश्वास है कि शीघ्र ही इस मिशन में कामयाबी मिल जाएगी और इसके उपरांत दस वर्ष आगे तक मौसम की स्थिति क्या रहेगी, यह बताना कठिन नहीं होगा।

कुछ वर्ष पहले यूनेस्को मुख्यालय में हुई वैज्ञानिकों की बैठक में इस मान्यता को खुलकर स्वीकार किया गया कि मौसम की दशाओं का भी एक निश्चित पैटर्न होता है। जैसा कि हम जानते हैं, मौसम के परिवर्तन का जनक महासागर है। यदि समुद्र में होने वाली हलचल का पूर्वानुमान लगाया जा सके तो मौसम की भविष्यवाणी करना कठिन नहीं होगा। यही सोचकर अब ‘क्लाइवर’ के शोधार्थियों ने मानसून, और समुद्री प्रोत्थानों की आवृत्ति, क्षमता तथा तीव्रता पर नजर गड़ा रखी है। इसके सहारे वे यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि सूखा, बारिश, भूकंप और उष्ण कटिबंधीय तूफानों के क्या कारण हैं?

इस मिशन में उन्हें काफी हद तक सफलता मिल रही है। वे जानते हैं कि समुद्री ताप व समुद्री धाराओं में उतार-चढ़ाव वायुमंडल की तुलना में काफी धीरे-धीरे होता है, किंतु ऊष्मा एवं जलवायु के आदान-प्रदान से यह सब पानी में भी उसी तरह है जैसा हवा में। वैज्ञानिकों ने समुद्री निरीक्षण नौकाओं को जब प्रशांत महासागर में छोड़ा तो नौकाओं ने समुद्री सतह के नीचे कुछ अति गर्म स्थानों का पता लगाया। कंप्यूटर मॉडल इसे एल नीनो के पूर्व सूचना ही मान रहे हैं। इन परिणामों से शोधकर्ताओं में नई आशा एवं विश्वास का संचार हुआ है। इसी तकनीक के सहारे वे अब उत्तरी अटलांटिक दोलन-जैसी अन्य जलवायु प्रावस्थाओं को भी जानने का प्रयास कर रहे हैं। ज्ञात हो चुका है कि उत्तरी अटलांटिक दोलन की उत्पत्ति उत्तरी अटलांटिक पर दबाव से होती है। यह सूखा, वर्षा बाढ़ तथा पश्चिमी यूरोप में होने वाले अधिकांश जलवायु परिवर्तनों के लिए जिम्मेदार है।

फिलहाल ‘क्लाइवर’ का शोध-समूह इस नतीजे पर पहुंचा है कि यह प्रोत्थान सप्ताह-दर-सप्ताह बदलता रहता है और इसके दीर्घकालीन पैटर्न होते हैं। वैज्ञानिकों को विश्वास है कि समुद्री धाराओं से इस पैटर्न का पता लगा लिया जाएगा। ‘क्लाइवर’ के योजनाकार सिएटल विश्वविद्यालय के समुद्र-वैज्ञानिक एंड साराचिक का कहना है, ‘अब हम भविष्य को दूर तक देख सकते हैं।’ कल्पना कीजिए उस समय की जब टेलिविज़न और रेडियो स्टेशनों से आज का मौसम की जगह पूरे दस साल बाद का मौसम बताया जाएगा।

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