मानसून की पहेली

23 Jul 2017
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मानसून को वैज्ञानिक जैसे ही कुछ बेहतर ढंग से समझने लगते हैं, इस जटिल परिघटना की कुछ नई उलझनें सामने आ जाती हैं।


भारतीय मानसूनी वर्षा के बारे में दो चरणों में दीर्घमीयादी पूर्वसूचना जारी करती है- पहला, अप्रैल के तीसरे सप्ताह में और फिर दूसरा जून के दूसरे सप्ताह में। इनके साथ ही विभाग जुलाई और अगस्त का मासिक पूर्वानुमान समूचे देश के लिये जारी करता है। प्रथागत ढंग से दीर्घ मीयादी पूर्वानुमान सांख्यिकी मॉडल का उपयोग करके बनाया जाता है जो अनेक वायुमण्डलीय और सामुद्रिक संचालकों जैसे अल निनो के साथ भारतीय मानसून के सम्बन्धों को निर्धारित करने में ऐतिहासिक आँकड़ों का उपयोग करता है।‘‘लेकिन मौसम के बारे में पहले से जानना कौन चाहता है? यह जब आता है काफी बुरा होता है, इसके बारे में पहले से जानने से हमारी दुर्गति कम नहीं होती।’’ यह उद्धरण जेरोम के जेरोम का लिखा है जिन्होंने मौसम को लेकर सनकी ब्रिटिश लोगों का उपहास करते हुए व्यंग्य का यह निरस वाक्य लिखा था। और यह शहरी भारतीयों का मन भी बहला सकता है जो हरेक साल झुलसाती गर्मी में मानसून की वर्षा की खिलवाड़ के सामने स्वयं को समर्पित कर देते हैं। लेकिन लाखों गरीब भारतीय किसानों जिनका जीवन न केवल पर्याप्त बल्कि ससमय वर्षा पर निर्भर करता है, के लिये जेरोम का व्यंग्य कठोर और अशिष्टतापूर्ण कहला सकता है।

इसलिये हर साल अप्रैल आते ही भारत के आधिकारिक मौसम अन्वेषक अर्थात भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) पूर्वानुमान करने में लग जाता है कि इस साल मानसून सामान्य रहेगा, प्रचुर होगा या कम होगा। आँकड़ों के अनगिनत पन्ने, जटिल गणितीय मॉडल और कठोर गणना के सहारे वे इतिहास के दायरे के भीतर किसी जुआरी की तरह दाँव लगाते हैं। एक मौसमी या दीर्घ मीयादी पूर्वानुमान (एनआरएफ) जैसाकि इसे आमतौर पर कहा जाता है, केवल जून से सितम्बर के बीच होने वाली वर्षा की कुल मात्रा बताती है। जो किसी किसान के बुआई के बारे में फैसला करने में कतई सहायक नहीं होता, यह राष्ट्रीय जीडीपी या ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिये उम्मीद की किरण या सम्भावित अनहोनी की पूर्वसूचना भर होती है।

भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) भारतीय मानसूनी वर्षा के बारे में दो चरणों में दीर्घमीयादी पूर्वसूचना जारी करती है- पहला, अप्रैल के तीसरे सप्ताह में और फिर दूसरा जून के दूसरे सप्ताह में। इनके साथ ही विभाग जुलाई और अगस्त का मासिक पूर्वानुमान समूचे देश के लिये जारी करता है। प्रथागत ढंग से दीर्घ मीयादी पूर्वानुमान सांख्यिकी मॉडल का उपयोग करके बनाया जाता है जो अनेक वायुमण्डलीय और सामुद्रिक संचालकों जैसे अल निनो के साथ भारतीय मानसून के सम्बन्धों को निर्धारित करने में ऐतिहासिक आँकड़ों का उपयोग करता है। पूर्वानुमान करने के तीन-चार महीने पहले विश्व के विभिन्न हिस्सों में अल निनो (मजबूत अलनिनो को कमजोर मानसून का मजबूत सूचक माना जाता है।) की उपस्थिति का आकलन किया जाता है।

वर्तमान में आईएमडी इंसेम्बल मॉडल का उपयोग कर रही है जो विभिन्न प्रकार के वायुमण्डलीय और सामुद्रिक परिघटनाओं के साथ मानसून के सम्बन्धों के आधार पर पूर्वानुमान करता है, उन परिघटनाओं को भविष्यवक्ता कहा जाता है, जैसे उत्तर अटलांटिक और उत्तर प्रशान्त के बीच समुद्र की सतह के तापमान में अन्तर, दक्षिण भारतीय समुद्र का विषवत रेखीय समुद्रीय सतह का तापमान और उत्तर पश्चिम यूरोप में भूमि की सतह का तापमान।

पूर्वानुमान पाँच भिन्न प्रकार के परिणामों की सम्भावना प्रस्तुत करता है- न्यूनता, सामान्य, सामान्य से कम, सामान्य से अधिक और अत्यधिक। प्रयोग सिद्ध मॉडलों के आधार पर कार्यकारी पूर्वानुमान देने के अलावा आईएमडी गत्यात्मक या संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान (एनडब्ल्यूपी) मॉडलों का उपयोग करके प्रायोगिक पूर्वानुमान भी जारी करता है। यह वायुमण्डल के जटिल गणीतीय मॉडलों पर आधारित होते हैं जो तरल पदार्थों के भौतिक विज्ञानी घूर्णन प्रणाली का नकल करता है। (वायुमण्डल तरल होता है और धरती घूर्णन प्रणाली है।)

वर्तमान में मौसम विभाग अमेरीका के ‘पर्यावरणीय पूर्वानुमान के लिये राष्ट्रीय केन्द्र’ द्वारा विकसित अत्याधुनिक जलवायु पूर्वानुमान प्रणाली का उपयोग कर रही है। लेकिन पूर्वानुमान करने की इसकी क्षमता फिर भी कमजोर है और इसका उपयोग कार्यकारी सांख्यिकी पूर्वानुमान के पूरक के तौर पर ही होता है। भारतीय वैज्ञानिक इसके पूर्वानुमान की परिशुद्धता को तापमान से सम्बन्धित सामुद्रिक परिघटनाओं जैसे इक्यूटोरियल इण्डियन ओसन आॅसिलेशन (इक्यूनू) और इण्डियन ओसन डायपोल (आईओडी) का नकल करके उन्नत बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

मौसम विभाग के अलावा अनेक देशी और विदेशी शोध संस्थान मानसून के प्रायोगिक एलआरएफ जारी करते हैं। हालांकि उनमें फर्क होता है, लेकिन विभाग अन्तिम कार्यकारी पूर्वानुमान जारी करने के पहले उन पर विचार करता है।

विभाग परम्परागत सामान्य अवलोकन मॉडल और मामूली ढंग से विकसित एनडब्ल्यूपी मॉडल का उपयोग करके अल्प और मध्यकालीक कार्यकारी पूर्वानुमान भी करता है जिसका उपयोग सार्वजनिक मौसम सेवाओं, विमानन, कृषि, हाईड्रोलाजी, आपदा प्रबन्धन आदि में होता है। लेकिन उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र के मौसम पूर्वानुमान में एनडब्ल्यूपी मॉडलों का उपयोग करने में कठिनाई यह है कि मौसम अधिक अस्त-व्यस्त और अस्थिर होता है, मध्य-अक्षांश की तुलना में जहाँ मौसम मोटे तौर पर अच्छे से स्थिर और पर्याप्त तापमान प्रवणता से संचालित होती है।

उष्णकटिबन्धों में मौसम मुख्य तौर पर बादलों के हेर-फेर से संचालित होती है, यह ऐसी विशेषता है जिसे एनडब्ल्यूपी माॅडलों द्वारा अच्छी तरह पकड़ा नहीं जा पाता। मोटे तौर पर कहें तो संख्यात्मक पूर्वानुमान अनिश्चितताओं की पहेली है जो अशुद्ध और अपर्याप्त प्रेक्षणों से निकलती है जिसमें प्रारम्भिक अवस्थाओं के प्रेक्षण, मॉडल में विद्यमान कमजोरियों और वायुमण्डलीय भौतिक विज्ञान की कमजोर समझ भी होती है। उन कारकों के प्रभाव जिनका मॉडल द्वारा नकल नहीं किया जा पाता जैसे वन, मिट्टी की आर्द्रता और बर्फ के अतिरिक्त मॉडल की अशुद्धता का प्रभाव भी होता है।

साधारण तौर पर उच्च अक्षांश पर एनडब्ल्यूपी मॉडल की शुद्धता में प्रति दशक एक दिन का सुधार हो रहा है। हालांकि उष्णकटिबन्धों के लिये यह दर बेहद मन्द है। वर्तमान में कार्यकारी सभी एनडब्ल्यूपी मॉडल मानसून के पथान्तरण का पूर्वानुमान करने में सीमाबद्ध हैं खासकर चरम घटनाओं जैसे भारी वर्षा के मामले में।

राष्ट्रीय मानसून मिशन जिसकी स्थापना भारत सरकार ने 2009 के सूखाड़ का पूर्वानुमान करने में आईएमडी के असफल होने पर किया, के अन्तर्गत ऐसी अधिसंरचनाएँ तैयार करने में निवेश किया जा रहा है जो आखिरकार उष्णकटिबन्धों के लिये एनडब्ल्यूपी मॉडल को उन्नत बनाने का काम करेगी। खासतौर से सतह, ऊपरी वायु और समुद्र में प्रेक्षण नेटवर्क का विस्तार किया जा रहा है जिससे एनडब्ल्यूपी की क्षमता को उन्नत बनाया जा सके। आकलन की शक्ति जो मॉडल को चलाने के लिये महत्त्वपूर्ण है, वह मौसम के सूक्ष्म लक्षणों के साथ अनुरूपता बना लेता है जैसे बादल की गत्यामत्कता, उसे भी उन्नत बनाया जा रहा है।

विचलनों का पीछा करना


सांख्यिकीय या प्रयोगसिद्ध मॉडलों की सफलता या कौशल बहुत हद तक विश्लेषणकर्ता की योग्यता पर निर्भर करता है कि वह अन्य बड़ी मौसम परिघटनाओं के साथ मानसून के जटिल सम्पर्कों को आँकड़ों की सहायता से सुलझाता है। मानसून के जीवन का आन्तरिक ज्ञान, सुव्यवस्थित आँकड़ा भण्डार और अब तक अज्ञात भविष्य सूचकों को पहचानने की तेज आँखें विश्वसनीय मौसमी पूर्वानुमान करने में सहायक होते हैं। आईएमडी के पूर्व प्रमुख लक्ष्मण सिंह राठौर कहते हैं कि सांख्यिकीय मॉडलों के साथ बार-बार आने वाली एक समस्या मानसून की वर्षा और उसके सूचकों के बीच सम्बन्धों का विकासशील होना है। समय बीतने पर वे सम्पर्क कमजोर होते हैं और अक्सर अप्रासंगिक हो जाते हैं। इसका अर्थ होता है कि मॉडलों को सदा अद्यतन बनाना होता है।

तो मौसम वैज्ञानिक को मानसून की वर्षा के 60 दिन पहले भविष्यवाणी करने का साहस कौन देता है? पहली नजर में यह मौसम की नब्ज (डाॅन क्यूइक्सोट के प्रति क्षमा सहित) की ओर पहचान का साधारण मामला दिखता है। लेकिन सम्पूर्णता में जैसाकि कहावत है कि यह अपने हिस्सों के जोड़ से बड़ा होता है। भारतीय मानसून की प्रसिद्ध अध्येता और सेंटर फाॅर एटमोस्फेरिक एंड ओसिएनिक साइंसेज, बेगलुरु की मानद प्राध्यापक सुलोचना गाडगिल के अनुसार, ‘कुल विचलन दीर्घमीयादी औसत करीब 89 सीएम का केवल दस प्रतिशत होता है। परम्परागत रूप से अगर कुल वर्षा दीर्घमीयादी औसत से दस प्रतिशत कम होने वाली हो तो हम सम्भावित सूखाड का इन्तजार करते हैं और अगर इसमें दस प्रतिशत बढ़ोत्तरी होने वाली हो तो हम बाढ़ के अन्देशे में डूब जाते हैं। इन दोनों के बीच के आँकड़े को सामान्य मानसून कहा जाता है।’

लम्बे समय तक मानसून की तुलनात्मक स्थिरता सम्भवतः इसकी परिवर्तनशीलता को संचालित करने वाली परिघटना की वजह से होता है, जैसे प्रशान्त महासागर के समुद्री सतह का तापमान या यूरेशियन बर्फ आच्छादन में समयानुसार धीरे-धीरे परिवर्तन। मौसम विभाग ने 1889 से ही मौसमी पूर्वानुमान को संग्रह करके रखा है, इसे सम्भवतः पूर्वानुमान के कल्पित आर्थिक मूल्यवत्ता के अलावा इससे व्याख्या होती है।

1886 में शाही मौसम विज्ञानी रिपोर्टर और भारतीय मौसम विभाग के पहले प्रमुख एचएफ ब्लैन्फोर्ड ने विश्व का पहला दीर्घमीयादी पूर्वानुमान जारी किया था। लेकिन मौसम विभाग के पूर्वानुमान अक्सर अशुद्ध होते हैं। अगर 1993 से 2014 के बीच के पूर्वानुमानों की जाँच करें तो इन 21 वर्षों में यह केवल पाँच बार सही पूर्वानुमान कर सका। श्री राठौड़ कहते हैं कि पिछले दशक में हमारे खराब प्रदर्शन को देखते हुए और पिछले वर्ष के भी सूखा वर्ष होने से हम 2015 के मानसून के कम होने का पूर्वानुमान जारी करने में हिचक रहे थे। लेकिन हमने अपने नए मॉडलों और सहज ज्ञान पर विश्वास करने का फैसला किया।

बदला व्यक्तित्व


2002 में भीषण सूखा पड़ने का पूर्वानुमान करने में असफलता ने मौसम विज्ञानियों को पीछे मूड़कर अपने मौसम चार्ट और मॉडलों को फिर से देखने के लिये बाध्य कर दिया। वे जानना चाहते थे कि मानसून क्यों और कैसे इतना बदल गया? उन्हें मानसून में बदलाव के कुछ बेचैन करने वाले पहलूओं का पता चला, वह था कि समूचे गर्मी के महीनों में सक्रिय और निष्क्रिय दौर अधिक बारम्बार, अधिक तीव्र और अस्थिर हो गई है। यह अपने आगमन और प्रस्थान के मामले में अधिक अस्थिर हो गई है।

मौसम की चरम घटनाएँ जैसे- एक ही दिन में अत्यधिक वर्षा, समूचे मौसम में इसके परिक्रमा ने नई और मजबूत भौगोलिक प्राथमिकताओं को प्रदर्शित किया और अन्त में इसके पुराने सहयोगियों जैसे अल निनो या यूरेशियन बर्फ आच्छादन के साथ सम्बन्धों में विशिष्ट किस्म का ढीलापन तथा नए सहयोगियों जैसे आयोड के साथ सम्बन्धों में गरमाहट।

मानसून हमेशा से थोडा चंचल रहा है लेकिन नई शताब्दी में यह प्रत्यक्ष तौर पर अधिक रहस्यमय हो गया है। इसे मॉडलों में पकड़ने के फेर में लगे मौसम वैज्ञानिकों के सामने यह नई पहेलियों को प्रस्तुत कर देती है। हालांकि भारतीय मौसम विभाग के साथ न्याय करते हुए कहना होगा कि दुनिया भर में यह इकलौती मौसम विज्ञानी एजेंसी है जो कार्यकारी दीर्घमीयादी पूर्वानुमान करने में साल-दर-साल लगी रही है जबकि बाकी दूसरे प्रायोगिक पूर्वानुमान जारी करके सुरक्षित रास्ता चुनते हैं और ऐसा लगता है कि भारतीय मौसम विभाग को एक बहुत ही पेंचदार, मायावी और अनुनमेय ग्राहक से पाला पड़ा है।

कुछ तथ्य ऐसे हैं जो दीर्घमीयादी मानसून पूर्वानुमान करने में मौसम विभाग के प्रदर्शन को सम्मानजनक ठहराते हैं। पहला, स्वतंत्रता के बाद मौसम विज्ञान को उतना महत्त्व और कोष नहीं दिया गया जिसकी जरूरत उसे थी, खासकर 1950 और 1960 के दशक में जब अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिक अत्यन्त प्रभावशाली प्रगति कर रहे थे। दूसरा, हमने तेजी से विकसित हो रहे कम्प्यूटरों के क्षेत्र को बहुत महत्त्व नहीं दिया जिसके बिना एनडब्ल्यूपी आरम्भ ही नहीं हो सका।

भारत 1980 के दशक के आखिरी दिनों में उन्नत कम्प्यूटर खरीदने के बाद ही एनडब्ल्यूपी के लाभों की उम्मीद कर सका। पश्चिम के मौसम विज्ञानियों ने पूर्वानुमान की शाही पद्धति की सीमाओं को बहुत पहले समझ लिया था और इसलिये धीरे-धीरे एनडब्ल्यूपी के परिस्कार पर अपना ध्यान केन्द्रीत किया था। एक एनडब्ल्यूपी मॉडल के लिये मानसून जैसी परिघटना की अनुकृति तैयार करना और फिर उसके व्यवहार की पूर्वानुमान करने में अन्तर्निहित भौतिक विज्ञान के साथ सघन और सटीक आँकड़ों की अच्छी समझ का होना अनिवार्य है। प्रश्न है कि क्या हमारे पास वह है?

मानसून की पहेली


मानसून पर एक शताब्दी के अधिक से नजर रखने और मानचित्रण के बाद हमें इसके बारे में काफी जानकारी है कि यह सालों और मौसमों के बीच बदलता है। लेकिन इस बदलाव के कारणों को कम ही समझा गया है। सीएओएस में जलवायु वैज्ञानिक जे श्रीनिवासन स्पष्ट करते हैं कि अगर हम विश्वसनीय पूर्वानुमान करने के लिये मॉडल बनाना चाहते हैं तो हमें मानसून और उसकी परिवर्तनशीलता के भौतिक विज्ञान को समझना जरूरी है।

ग्लोबल वार्मिंग ने मानसून की पहेली में एक और पहलू जोड़ दिया है मानो पहले से यह पर्याप्त पेंचदार न हो। मानसून के व्यवहार की कुछ ताजा गुत्थियों को कुछ लोग ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ने लगे हैं, पर विज्ञान अभी पूरे विश्वास के साथ कुछ नहीं कह सकता। जलवायु के अनेक मॉडलों का पूर्वानुमान है कि बढ़ते तापमान की वजह से मानसून इस शताब्दी के आखिरी दिनों में अधिक अस्थिर हो जाएगा और मौसम की चरम घटनाएँ अधिक जल्दी-जल्दी होगी। इससे मानसून की किसी घटना का सही-सही पूर्वानुमान करना अत्यधिक कठिन हो जाएगा।

कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि बेहतर भौतिक विज्ञान के अतिरिक्त स्पष्ट आँकड़े और मॉडल सुविधाजनक साबित हो सकते हैं। वर्तमान में वैज्ञानिक 90 प्रतिशत आँकड़े उपग्रहों से प्राप्त करते हैं जो विश्व मौसम विज्ञानी संगठन (डब्ल्यूएमओ) के वैश्विक दूरसंचार प्रणाली के माध्यम से सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है।

मौसम आँकड़ों की गुणवत्ता और सघनता को उन्नत बनाने के लिये ब्रिटेन और भारत ने हाल में परिवर्तनशीलता का संचालक कार्यक्रम आरम्भ किया है जो ताजा आँकड़ा एकत्र करने के लिये ब्रिटेन के बीएई-146 जलवायु शोध विमान और सामुद्रिक ग्लाइडर और भारतीय शोध जहाज का उपयोग करेगा। लेकिन इन आँकड़ों का मॉडल में उपयोग करने के लायक बनाने के लिये उपयुक्त साफ्टवेयर पेशेवरों की आवश्यकता होगी। भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के जलवायु विज्ञान केन्द्र के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर एसके दास ने बताया कि कठिनाई यह है कि हम उन्हें अच्छा वेतन नहीं देते। इसलिये प्रतिभाशाली पेशेवर दूसरी जगह चले जाते हैं।

इसलिये यह मान लें कि हम मानसून के भौतिक विज्ञान को बेहतर ढंग से समझते हैं और हमारे पास जरूरत के सभी आँकड़े संगणना करने की आवश्यक गणना-क्षमता समेत मौजूद हैं, फिर भी क्या हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि हम विभिन्न पैमानों पर विश्वसनीय पूर्वानुमान कर सकते हैं?

सैद्धान्तिक रूप से मौसम को साधने के न्यूनीकरणवादी पद्धति के प्रमुख लोगों का यह आखिरी सपना होगा। हालांकि अमेरिकी सैद्धान्तिक मौसम विज्ञानी एडवर्ड नौर्टन लारेन्ज ने 1963 में सात दिन से अधिक के मौसम का पूर्वानुमान करने की असम्भावना को प्रदर्शित किया था। तिस पर भी गाडगिल और श्रीनिवासन जैसे वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि एनडब्ल्यूपी पद्धति आखिरकार अल्प मीयादी और दीर्घ मीयादी पूर्वानुमान करने में सफल होगी। परन्तु वे इसे लेकर बाजी लगाने के लिये तैयार नहीं हैं। जैसाकि श्रीनिवासन कहते हैं कि तीस साल पहले मैं जब इंजीनियरिंग छोड़कर जलवायु विज्ञान की ओर आया तो मुझे विश्वास था कि हम मानसून के रहस्यों को 20 वर्षों में जान जाएँगे। लेकिन वास्तविकता है कि हम आज भी अल्पकालीक पूर्वानुमान करने में बेहद पिछड़े हैं। उम्मीद है कि हम 20 वर्षों के बाद कुछ दिखाने लायक हो सकेंगे। सचमुच तब तक हम जेरोम को आमीन कह सकते हैं।

 

 

वैज्ञानिकों के कौशल को उन्नत बनाने की जरूरत’  

 

जलवायु परिवर्तन शोध केन्द्र (सीसीसीआर) की स्थापना केन्द्रीय सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने 2009 में की ताकि देश के वैज्ञानिकों की कुशलता और क्षमता में वृद्धि की जा सके जिससे वे जलवायु परिवर्तन के सम्बन्धित वैज्ञानिक मसलों को सुलझा सकें। इसके लिये हमारे 30 वैज्ञानिकों की टीम ने दोमुखी रणनीति अपनाई। पहला मॉडलिंग के क्षेत्र में क्षमता को उन्नत बनाना और दूसरा प्रेक्षण अर्थात अवलोकन की गुंजाईश को विस्तार देना। मॉडलिंग को उन्नत बनाने के लिये हम वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु में दीर्घकालीन परिवर्तनों और क्षेत्रीय स्तर पर अल्पकालीन परिवर्तनों का अध्ययन कर रहे हैं। अभी तक हमारी दो बड़ी उपलब्धियाँ रही हैं। पहला- हमने एक हाई रिजोल्यूशन जलवायु मॉडल ‘अर्थ सिस्टम मॉडल (ईएसएम)’ विकसित किया है जो वैश्विक स्तर पर मौसम की बनावट पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की बेहतर व्याख्या करेगी, खासतौर से दक्षिण एशिया के मानसून पर। यह हाल में ही अमेरिकन मेटेरोलाॅजिकल सोसाइटी की बुलेटीन में प्रकाशित हुआ है।

 

हमने मानसून पूर्वानुमान के लिये उपयोग में आने वाली एनसीईपी सीएफएस वी 2.0 को भी उन्नत बनाया है। अब हमारे पास मॉडल के लिये सामुद्रिक भौतिकी खासकर मानसून से सम्बन्धित बेहतर आँकड़े हैं। हम उम्मीद करते हैं कि इन दोनों मॉडलों का उपयोग जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय समिति की अगली आकलन रिपोर्ट तैयार करने में होगा। सीसीसीआर मानसून की वर्षा में कमी होने का कारण सुनिश्चित करने में भी सक्षम हो सका है।

-आर कृष्णन, कार्यकारी निदेशक, इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ ट्राॅपिकल मेटेरोलोजी, पूणे।)

 

‘‘आइस कोर में मानसून परिवर्तन के संकेतं’’

नेशनल सेंटर फाॅर अंटार्कटिक एंड ओसियन रीसर्च (एनसीएओआर) में मानसून का अध्ययन करने का मुख्य उद्देश्य यह समझना है कि यह लम्बे समय के दौरान कैसे विकसित होता है। जलवायु के अध्ययन से हमें मानसून की बनावट में अल्पकालीन परिवर्तन को निर्धारित करने में सहायता मिलती है जबकि समुद्र हमें मौसमी परिवर्तन का पूरा ज्ञान देता है। लेकिन हम जलवायु परिवर्तन और शताब्दियों से विकसित होती बनावट के बारे में समझ बनाने के लिये बर्फ के केन्द्र बिन्दु की ओर देखते हैं। इसलिये हम हर वर्ष खोज यात्राएँ आयोजित करते हैं। हम बर्फ के केन्द्र बिन्दु के नमूने पाने के लिये 1980 के दशक से अंटार्कटिक में खुदाई कर रहे हैं, आर्कटिक के लिये बीते कुछ वर्षों से और हिमालय के लिये पिछले साल से। विचार तथाकथित ‘तीन ध्रुवों’ को समेटने का है जो विश्व के जलविज्ञानी और जलवायु विज्ञानी प्रक्रियाओं को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। इन नमूनों का अध्ययन करके हम उम्मीद करते हैं कि ध्रुवों के क्षेत्र के प्रभावों को समझ सकेंगे और पिछले जलवायु एवं मानसून बनावटों की अनुकृति तैयार कर सकेंगे। इससे हमें स्पष्ट तस्वीर मिल सकेगी कि जलवायु कैसे विकसित हुई और मानसून को उसने कैसे प्रभावित किया।

 

हमारा काम उपकरणों पर निर्भर है। हमें ध्रुवों तक जाने वाली जहाजों, खुदाई करने के उपकरण, मानव विहिन प्रेक्षण प्रणाली और जलवायु सम्बन्धी एवं सामुद्रिक प्रेक्षण के उपकरणों की जरूरत होती है। लगभग 40 संस्थान और विश्वविद्यालय हमारे साथ काम करते हैं क्योंकि देश में एनसीएओआर ध्रुवों के सम्बन्ध में शोध करने की इच्छुक सभी वैज्ञानिक संस्थानों का प्राथमिक सुविधा प्रदाता है।

-एम रविचंद्रन नेशनल सेंटर फाॅर अंटार्कटिक एंड ओसियन रीसर्च, गोवा के निदेशक हैं।

 

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