मानव फांस में उलझी यमुना

Yamuna
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दिल्ली का मीडिया और केंद्र सरकार यमुना सफाई पर फतवे जारी करते रहते हैं, लेकिन नजफगढ़ नाले से लेकर 16 बड़े नालों ने दिल्ली में यमुना का जो हाल कर रखा है वह यमुना के मानव फांस का ही द्योतक है। शुक्र है आज कृष्ण नहीं हुए वरना वे कालिंदी के उद्धार के लिए दिल्ली को ही नाथते। दिल्ली ही आज का वह ‘कालिया नाग’ है जिसने यमुना को विषैला कर रखा है। जरूरी है कि या तो वह अपनी आदत सुधार ले या यमुना को छोड़कर कहीं और चला जाए।यम द्वितीया के दिन जब यम फांस से मुक्ति के लिए मृत्यु लोक के वासी यमुना में डुबकी लगाकर अपने को तार रहे थे तो यमुना मानव फांस से मुक्ति के लिए छटपटा रही थी। कहते हैं कि यम द्वितीया के दिन मथुरा में स्नान का विशेष पुण्य होता है और इसीलिए भाई-बहन के इस पर्व को सफल बनाने के उद्देश्य से प्रशासन ने विशेष इंतजाम किए थे। तीन हजार क्यूसेक पानी विशेष तौर पर छोड़ा गया था। अफसरों की मुस्तैदी से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चलते रहे, सीवेज पंपिंग स्टेशन ओवर फ्लो नहीं हुए। लेकिन, न यमुना को ताजा पानी नसीब हुआ, न ही उसके भक्तों को। अगर आस्था के आगे मनुष्य ने आंख और नाक बंद करने की कला न सीखी होती तो उस पानी में डुबकी लगाना और अपना उद्धार करना मुश्किल था।

इन्हीं स्थितियों से ऊबकर यमुना सत्याग्रहियों ने दो नवंबर को एक बार फिर हथिनी कुंड बैराज पर आर-पार की लड़ाई का फैसला किया है। हथिनी कुंड बैराज वह जगह है, जहां पर हरियाणा यमुना में से अपनी जरूरत के लिहाज से पानी निकाल लेता है। जबरदस्ती का यह सिलसिला ताजेवाला से शुरू होता है और वजीराबाद, ओखला होते हुए गोकुल बैराज और उससे आगे तक जारी रहता है। हरियाणा अगर यमुना के पानी के अधिकतम दोहन के लिए जिम्मेदार है तो दिल्ली उसके दोहन के साथ प्रदूषण के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। यमुना को धीरे-धीरे मारने के इस पाप में उत्तर प्रदेश का भी योगदान है, लेकिन वह हरियाणा और दिल्ली के पाप के आगे दब जाता है। उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण गोकुल बैराज है जिसे मथुरा, आगरा और वृंदावन को पानी देने के लिए यमुना पर बनाया गया था, लेकिन इसके फाटक बंद होने से किसानों की जमीनें डूब गईं और वे मुआवजे के लिए तरस रहे हैं। हार कर किसानों ने अब बैराज में कूदकर आत्महत्या की धमकी दी है।

उधर, हरियाणा के मुख्यमंत्री दिल्ली पर यमुना को प्रदूषित करने का आरोप लगाते रहे हैं। यह आरोप तब भी लगता था जब दिल्ली में कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और हरियाणा में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा थे। यह आरोप अब भी बंद नहीं होगा, चाहे दिल्ली में राष्ट्रपति शासन और हरियाणा में भाजपा सरकार रहे। उसकी वजह भी है। वजीराबाद से पहले यमुना साफ भी है और उसमें पानी भी है। लेकिन, वजीराबाद से ओखला तक पहुंचने में यमुना देश के सबसे चमकदार और सबके कल्याण का लंबा-चौड़ा दावा करने वाली देश की राजधानी की मार से इतनी पस्त हो जाती है कि न तो उसमें पानी बचता है न ही स्वच्छता। ऊपर से तुर्रा यह है कि हम यमुना को टेम्स बना देंगे।

दिल्ली का मीडिया और वहां स्थित केंद्र सरकार यमुना सफाई पर लंबे-चौड़े फतवे जारी करती रहती है। लेकिन, मशहूर नजफगढ़ नाले से लेकर सोलह बड़े नालों ने दिल्ली में यमुना का जो हाल कर रखा है वह यमुना के मानव फांस का ही द्योतक है। शुक्र है आज कृष्ण नहीं हुए वरना वे कालिंदी के उद्धार के लिए दिल्ली को ही नाथते। क्योंकि दिल्ली को नाथे बिना यमुना का उद्धार संभव नहीं है। दिल्ली ही आज का वह ‘कालिया नाग’ है जिसने यमुना को विषैला कर रखा है और जरूरी है कि या तो वह अपनी आदत सुधार ले या यमुना को छोड़कर कहीं और चला जाए। लेकिन, मुश्किल है कि दिल्ली को नाथेगा कौन?

बड़े-बड़े दावे करने वाली दिल्ली यमुना के साथ कितना छल कर रही है, यह बात आंकड़ों से साबित होती है। यमुना सफाई के नाम पर कई हजार करोड़ रुपये पानी की तरह बहा दिए जाने के बावजूद राजधानी में अभी महज 17 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जा सके हैं। वे सिर्फ आधी गंदगी का शोधन कर पाते हैं। इस बीच यूपीए सरकार ने 2013 में जापान सरकार के सहयोग से ओखला बैराज पर 1656 करोड़ रुपये की लागत से अति आधुनिक सफाई संयंत्र लगाने की योजना बनाई थी। लेकिन, अब यह राशि कम पड़ रही है और आंकड़ा 6000 करोड़ तक जा रहा है। उधर, दिल्ली जल बोर्ड की योजना के तहत राजधानी में सीवेज ट्रीटमेंट पर 2031 तक 25 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं।

.यमुना प्रदूषण के बढ़ते जाने और सफाई खर्च के बीच एक समानुपाती रिश्ता है। यह बात ब्रज लाइफ लाइन वेलफेयर से जुड़े यमुना मुक्ति के योद्धा महेंद्रनाथ चतुर्वेदी की एक पुस्तिका से प्रमाणित होती है। ‘सफरनामा’ नाम से प्रकाशित उनकी यह पुस्तक आरंभ में ही कहती है- ‘नदी के प्रदूषण का प्राथमिक कारक कॉलीफार्म बैक्टीरिया जहां निजामुद्दीन ब्रिज पर 1999 में आठ करोड़ पचास लाख था, वह बढ़कर 2012 में 17 अरब की संख्या पार कर गया। वह भी छह हजार करोड़ रुपयों की भारी राशि के खर्च किए जाने के बाद।’ यह इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि सरकारी धन की किस प्रकार बंदरबांट की गई है। यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि वह 1983-84 के वर्ष को यमुना के प्रदूषण की शुरुआत का वर्ष बताते हैं और लगभग यही वर्ष गंगा एक्शन प्लान का भी है।

आज सवाल यह है कि क्या यमुना की सफाई जल संसाधन मंत्री उमा भारती और उनके साथ धार्मिक तरीके से इसे मुद्दा बनाने का कोलाहल करने वाले लोगों के द्वारा होगी या विशुद्ध वैज्ञानिक तरीके से औद्योगिक लॉबी द्वारा की जाएगी? यह एक गंभीर सवाल है और इस पर समाज में ही नहीं सरकार के भीतर भी खींचतान कम नहीं है। वे इसे वोट के लिए धार्मिक मसला बनाना चाहते हैं, लेकिन औद्योगिक शक्तियों व हरित क्रांति से पोषित किसान लॉबी के बिजली पानी के हितों की कुर्बानी देकर गंगा- यमुना को मुक्त नहीं करना चाहते। पर, यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि गंगा और यमुना किसी पार्टी को वोट नहीं देतीं और न ही किसी धर्म की माला जपती हैं।

वे सभी धर्मों के अनुयायियों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से समभाव से ही व्यवहार करती हैं। लेकिन, उनकी अन्याय और अत्याचार सहने की एक सीमा है। जब वे कुपित होती हैं तो न तो हिन्दू बहुल उत्तराखंड को बख्शती हैं और न ही मुस्लिम बहुल कश्मीर को। इसलिए नदियों का अपना धर्म और अपनी राजनीति है। वह धर्म है नदियों के साफ-सुथरे तरीके से अविरल बहने का। हमें उसे समझना होगा और उसे इस लोकतंत्र में जगह देनी ही होगी। तभी यमुना का मानव फांस दूर होगा और तभी वह हमारा यम फांस दूर कर पाएंगी।

(लेखक कल्पतरु एक्सप्रेस के कार्यकारी संपादक हैं), ईमेल-tripathiarunk@gmail.com

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