मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

22 Oct 2018
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Chipko movement
Chipko movement

 

1972 में स्टॉकहोम में हुई प्रथम पर्यावरण-कॉन्फ्रेंस ने दुनिया को सन्तुलन की आवश्यकता का सन्देश दिया था। ऋषिकेश के शिवानन्द आश्रम के अध्यक्ष स्वामी श्री चिदान्दजी ने गढ़वाल के दूरवर्ती गाँवों में इस सन्देश का महत्व लोगों को समझाया था। यह सन्यासी केवल जप-तप-ध्यान इनकी चर्चा करने वाले शुष्क अध्यात्म का प्रचार करने देश-विदेश में नहीं घूमा करते थे। खुली आँखों से उन्होंने प्रदूषित विदेशों की भीषण संकट-अवस्था देखी थी। इस सनातन देश का जीवन-परिवर्तनकारी अध्यात्म व्यावहारिक दुनिया के समग्र सन्तुलन पर ही टिक पाएगा यह उन्हें मालूम था।

तो ऐसे वन हिमालय से लुप्त होने पर स्वाभाविक था कि जीना दूभर हो गया। लेकिन जीवन-मृत्यु का प्रसंग खड़ा होने पर कौन सा समाज कहाँ तक सहता रह सकता है? वनों के व्यापारी-करण का विरोध गाँधी-विनोबा के सत्याग्रही माध्यमों में से 1970 के दशक में मुख्य रूप से व्यक्त हो गया। मानव व प्रकृति का प्रेम-मूलक सम्बन्ध प्रकट करने वाला ‘चिपको’ आन्दोलन नए रूप में सामने आ गया। इसकी तैयारी कैसे हो सकी यह देखने के लिये गाँधी-युग के कुछ दृष्टा व्यक्तियों का परिचय हमें कर लेना होगा।

गाँधी जी का व्यक्तित्व और जीवन-दर्शन इनका आकर्षण जब विदेशी लोगों को लगा तब उनमें सो दो स्त्रियाँ भारतीयों से भी अधिक भारतीय बनकर स्वातन्त्र्य प्राप्ति के बाद भी इस देश की सेवाओं के लिये यहाँ रह गईं। इन दोनों को भी यूरोप में फैले युद्ध के वातावरण का, परस्पर के विद्वेष के प्रचार का माहौल असह्य हो गया था। उनमें से एक थीं ब्रिटेन के सैन्य के एडमिरल स्लेड की कन्या- मॅडलिनि स्लेड।

वह काव्य की, भक्ति की,मूर्तरूप थीं। फ्रेंच लेखक रोमाँ रोलाँ उसके लिये प्रेरणा-स्रोत थे। भारत की और गाँधी जी की चर्चा उन्हीं के पास वह सुनती आई थीं। फिर तो भारतीय स्वातन्त्र्य आन्दोलनों में गाँधी जी की शिष्या बनकर वे सारे काम करने लगी और वे भारतवासी हो गईं। उसकी भाव-भक्ति को देखकर गाँधी जी ने उसे ‘मीरा’ कहना शुरु किया। मीरा बेन स्वातन्त्र्य के पश्चात हिमालयीन क्षेत्र में ‘पशु-लोक’ आश्रम की स्थापना करके रहने लगीं। सेवा और साधना का जीवन था इस आश्रम में देहातों की अवस्था सुधारने की दृष्टि उन्हें गाँधीजी के सान्निध्य में मिली थी। प्रकृति का प्रेम उनमें जन्मजात था।

हिमालय के परिसर में रहते हुए उन्हें पहले से ही (1950 से) एक महत्त्वपूर्ण बात मालूम हुई थी। उत्तर भारत में गंगा जी के तराई और मैदानी क्षेत्रों में हर साल आने वाली भयानक बाढ़ का मुख्य कारण वन-विनाश ही है और सूची-पर्णी-चीड़-देवदार वृक्षों के एकल प्रजाति के वन यह दूसरा कारण भी है इसका। स्वदेशी नई सरकार को उन्होंने बताया था, ‘हिमालय के प्राकृतिक सन्तुलन के सन्दर्भ में बहुत कुछ बिगड़ गया है।’ पहाड़ों में आवश्यक हैं ऐसे सन्तुलित विकास के प्रयोग उन्होंने प्रारम्भ किये थे। लेकिन अति-औद्योगिक प्रगति के विदेशी दर्शन के आक्रमण के सामने ये प्रयोग टिकना सम्भव नहीं था। ‘चिपको’ के लिये वातावरण निर्मित करने में उनके कार्य का हिस्सा अवश्य था इतना कह ही सकते थे।

गाँधी जी की दूसरी शिष्या थीं कूथेरिन हैलिमन। उनके सरल, सौम्य स्वभाव का गाँधी जी को बहुत कौतुक था। उन्होंने कूथेरिन को ‘सरला’ कहा। वे सबकी सरला बहन जी बन गईं। वर्धा की उष्णता उनके लिये अनुकूल नहीं थी। गाँधी जी ने उन्हें 1940 में हिमालय में काम करने के लिये भेज दिया। कौसानी में ‘लक्ष्मी आश्रम’ स्थापित करके उन्होंने गाँधी जी का जीवन-शिक्षण का कार्य स्त्रियों के लिये प्रारम्भ किया। समग्र स्त्री-जीवन के उत्थान का कार्य ही इस आश्रम में चलता था।

आश्रमीय पद्धति का कार्य ही इस आश्रम में चलता था। आश्रमीय पद्धति का शैक्षणिक कार्य यानी समाज सेवा का, समाज सुधार का कार्य। खादी शराब-बन्दी,शरीर-परिश्रम,अस्पृश्यता निवारण ऐसे अनेक आयाम इसमें जुड़े हुए रहते थे। इनके अनुष्ठान में स्त्री-शक्ति-जागृति का काम सहजता से हो जाता था। शराब-बन्द किये बिना स्त्री को न्याय नहीं मिल सकता यह बात लड़कियों के ध्यान में सहजता से ही आ जाती थी।

देहातों में रहकर सेवा का व्रत चलाने वाली सेविकाएँ तैयार करने का बहुत बड़ा जिम्मा कौसानी के इस शिक्षा के केन्द्र ने उठाया था। खेती-पशु-पालन, खादी वस्त्र में स्वावलम्बन ये काम तो गाँधी जी प्रणित शिक्षा में होते ही थे। अनेक तरुण कार्यकर्ताओं का जीवन संस्कारित करने में सरला बहन जी का बहुत बड़ा योगदान था ही।

विनोबा जी के भूदान-यज्ञ के समय सरला बहन जी उसमें कूदे बिना कैसे रह सकती थीं? उसी के अन्तर्गत एक अद्भुत कार्य हुआ था। हिंसा की जीवन-प्रणाली से मुँह मोड़कर कुछ बागियों ने नया सेवा और प्रेम का मार्ग स्वीकारना तय किया था, विनोबा और जयप्रकाश जी के चरणों पर इस अँगुलिमालों के वंशजों ने अपने शस्त्र अर्पण करके नया जीवन शुरू किया था। उनके उत्थान के शैक्षणिक कार्य में सरला बहन जी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। जो गुनाह किये थे इन लोगों ने उनके लिये जेल जाना जरूरी था- लेकिन जेल भी उनके लिये पाठशाला बन गई थी।

खेती करने का, कपड़ा बुनने का काम भी वहाँ होता था। मध्य प्रदेश-उत्तर प्रदेश के कुछ बीहड़ क्षेत्र के ये लोग ‘बागी’ कहलाए जाते थे। ‘रामचरित मानस’ पढ़कर वे बन्दूकें लेकर निकलते रहे थे। अब रामचरित मानस रह गया था- बन्दूकें फेंक दी गई थी। तुलसीदास का संस्कार प्रबल बना था। लेकिन इस नए जीवन में आन्तरिक विकास की सीढ़ी चढ़ने के लिये जो मदद आवश्यक थी वह सरला बहन जी उन्हें अन्य सेवकों के साथ मिलकर इनके लिये उपलब्ध कराती थीं।

सरला बहन जी की लिखी ‘विकास या विनाश’ किताब में उन्होंने पर्यावरण सन्तुलन का, समग्र दर्शन वैज्ञानिक दृष्टि से पेश किया है। ‘चिपको’ को उनकी सक्रिय सहायता मिली थी यह स्पष्ट ही है। भारतीय प्राचीन आध्यात्मिक परम्परा से उन्हें विशेष प्रेम था। हिन्दी भाषा में बोलने का और लिखने का आग्रह रहता था। उनके भाषण-सम्भाषणों में एक भी शब्द अंग्रेजी का नहीं आता था। और ‘अपनी भारतीय संस्कृति’ का उल्लेख हुए बिना उनका भाषण समाप्त होना सम्भव नहीं था।

‘हिन्द स्वराज’ में भारतीय संस्कृति का प्रतिबिम्ब गाँधी जी ने नई परिभाषा में व्यक्त किया था। साम्राज्यवाद का अर्थशास्त्र व्यर्थशास्त्र ही नहीं अनर्थशास्त्र सिद्ध होगा यह अन्दाज प्रत्यक्ष में आज हम देख रहे हैं। मानव सृष्टि इन दोनों का सन्तुलन साधने वाले अर्थशास्त्र का विकास देहात के सामान्य, कष्ट सहने वाले मनुष्य को केन्द्र में रखे बिना नहीं हो सकेगा। यह गाँधी जी का कहना था, वैसे ही उनके कार्यक्रम भी थे समाज-विकास के लिये। इस सन्देश को लेकर, चरखा चलाकर खादी का दर्शन समझाने वाले हिमालय के तरुण स्वातन्त्र्यवीर श्रीदेव सुमन थे।

टिहरी के संस्थान क्षेत्र में लोक-आन्दोलन का नेतृत्व करते समय वे पकड़े गए और कारागृह में 84 दिनों के उपवास के बाद शहीद हो गए 1944 में। उनकी प्रेरणा आज तक समाज-सेवकों को मिलती आई है। ‘चिपको’ आन्दोलन के समय श्रीदेव सुमन की स्मृति ताजी होकर कार्यकताओं को शक्ति प्रदान करती रही थी। हिमालय के सभी आन्दोलन-शराब बन्दी,टिहरी बाँध-विरोधी आन्दोलन-ये सभी ‘सुमन जी’ को प्रणाम करके ही विकसित हुए हैं।

इससे पहले भी वनों के व्यापारीकरण के विरुद्ध आन्दोलन 1930 में लोगों ने छेड़ा था। उत्तरकाशी जिले में जमुनोत्री घाटी में तिलाड़ी गाँव के निकट अहिंसक संघर्ष करते समय ब्रिटिशों की गोलियाँ चली थीं और उसमें 17 लोगों की आहूति पड़ी थी। उनकी स्मृति में खड़े स्तम्भ के साथ खड़े होकर 1969 में कार्यकर्ता और समाज के बड़े बुजुर्गों ने शपथ ली थी कि वन और वनवासियों का प्रेमपूर्वक सख्य-सम्बन्ध स्थापित करेंगे, व्यापार के लिये वनों का शोषण नहीं होने देंगे। ‘चिपको’ यह शपथ कैसे भूल सकता था?

1972 में स्टॉकहोम में हुई प्रथम पर्यावरण-कॉन्फ्रेंस ने दुनिया को सन्तुलन की आवश्यकता का सन्देश दिया था। ऋषिकेश के शिवानन्द आश्रम के अध्यक्ष स्वामी श्री चिदान्दजी ने गढ़वाल के दूरवर्ती गाँवों में इस सन्देश का महत्व लोगों को समझाया था। यह सन्यासी केवल जप-तप-ध्यान इनकी चर्चा करने वाले शुष्क अध्यात्म का प्रचार करने देश-विदेश में नहीं घूमा करते थे। खुली आँखों से उन्होंने प्रदूषित विदेशों की भीषण संकट-अवस्था देखी थी। इस सनातन देश का जीवन-परिवर्तनकारी अध्यात्म व्यावहारिक दुनिया के समग्र सन्तुलन पर ही टिक पाएगा यह उन्हें मालूम था।

मानव व प्रकृति के सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध का उनका विश्लेषण समाज-कार्यकर्ताओं के दिल-दिमाग को स्पर्श करता था। व्यवहार में मुक्तता से अपना पराक्रम दिखाने वाला द्वैत जीवन की मूलभूत एकात्मकता के विरोध में जाता रहा इसी कारण से विकास ने गलत दिशा पकड़ी थी। आर्थिक जीवन की तह अस्त-व्यस्त हो गई कि धर्म, जाति, भाषा, नदी का जल, इनमें से किसी भी कारण से विद्वेष भड़क उठता है और समूचा समाज अस्थिर बनता है, अन्दर-ही-अन्दर अग्नि सुलगाता रहता है। इतिहास इसका साक्षी रहा है।

अनेक बार स्वाभाविक जागृत अध्यात्म इस सबकी जड़ पकड़ लेता था। इसीलिये उन्होंने जाति-पाँति मे फैले उच्च-नीच के भाव को मिटाने का कार्य देशभर में चलाया था। मानव का धर्म वस्तुतः एक ही हैः मानवता का धर्म। इसी में सभी धर्मों की सिखावन समा जाती है। शिवानन्द आश्रम का उदात्त वातावरण यही बात सिखाता रहता है। विश्व भर के अध्यात्म-साधक इससे योग्य मार्गदर्शन पाते हैं।

गाँधी-युग के ऐसे अनेक महान व्यक्तियों ने ‘चिपको’ के लिये हिमालय के भू-भाग में जमीन में हल चलाकर मशागत कर रखी थी। बीज भी बोए गए थे। प्रत्यक्ष अंकुर प्रस्फुटित होने का क्षण आना शेष था। वह क्षण आया गढ़वाल के चमोली जिले के रेणी गाँव के जंगल में। सरकार ने स्थानीय लोगों को एक अँगू अॅश्ट्री-वृक्ष काटने की इजाजत नकार दी थी।

लोगों को अपने बैल के लिये जू बनाना था। लेकिन इस तरह पेड़ काटना वन-विज्ञान की दृष्टि से गलत है- यह कारण बताया गया। परन्तु इसी समय इलाहाबाद की खेल का सामान बनाने वाली एक कम्पनी को अँगू के (अॅश्ट्री के) चालीस वृक्ष काटने का कॉन्ट्रैक्ट बहाल किया गया था। यह निर्णय अवैज्ञानिक तो था ही, साथ ही यह सरासर अन्याय भी था। लोगों ने कहा कि हमने अपने बच्चों के समान इस अँगू के वन को पाला-पोसा है। हम केवल जीने के लिये एक वृक्ष की माँग कर रहे थे। यह कोई गुनाह नहीं था।

और पैसा कमाने के लिये इतने वृक्षों को काटने की इजाजत आप देते हैं? हम इन वृक्षों का आलिंगन करके इन्हें कुल्हाड़ियों से बचाएँगे।’ 23 अप्रैल, 1972 के दिन खेल कम्पनी के मजदूर कुल्हाड़ियाँ लेकर पहुँचे जंगल में। लेकिन ‘चिपको’ का प्रात्यक्षिक लोगों ने कर दिखाया और कुल्हाड़ियों को पीछे हटना पड़ा। लोगों के इस अहिंसक सत्याग्रह की स्वयं को बलिदान करने की तैयारी की बात सर्वत्र फैल गई और केदारनाथ के रास्ते पर दूसरे वन के वृक्ष काटने के लिये इजाजत मिल गई थी परन्तु वहाँ के लोगों ने भी वही तैयारी रखी थी। आखिर लोक विरोध के सामने कहीं भी कम्पनी की एक नहीं चली और अपना इरादा लेकर वापस जाना पड़ा उसे।

इस तरह ‘चिपको’ के अनेक प्रयोग इसके पश्चात हिमालय के गढ़वाल-कुमाऊँ क्षेत्रों में हुए। इन सभी स्थानों में स्त्री-शक्ति ने ये सत्याग्रह यशस्वी किये। उत्तरकाशी व टिहरी जिलों में, बूढ़ाकेदार और हैंवल घाटी में विशेष रूप से पुलिस के डण्डाशाही का मुकाबला शान्तिपूर्वक उन्होंने किया। वे गाती थींः पुलिस हमारी भाई है, उनसे न लड़ाई है। श्री धूमसिंग नेगी जी ने यहाँ के वृक्ष-संरक्षण के लिये अनेक दिनों तक उपवास किये थे। यह उनका खास कार्य-क्षेत्र रहा।

‘चिपको’ के गढ़वाली कार्यकर्ता श्री धनःश्याम रतूड़ी ‘सैलानी’ जी ने अपने लोक गीतों में लोगों के हृदय में लहराते वृक्ष-प्रेम का अाह्वान किया। ‘चिपको’ प्रसूत किया चोटियों से घाटियों तक उनकी गीत-गायन की पद्धति ने। कहीं भी बाजार में या मैदानों में ‘सैलानी’ अपनी बाजे की पेटी साथ लेकर लोगों को पुकारते, गाते निकलते तो सैकड़ों लोग अपने काम-धन्धे छोड़कर उनके पास इकट्ठा हो जाते।

‘सैलानी’ झूम-झूमकर गातेः

‘ई बाँझ बुरास सी कुलैकी डाली
न काटा न काटा यों रखा जग्वाली।
गदनों मां पाणी, सैरोमां छकूल,
खिलखिल हसदू बुरांस का फूल,
यो बाँझ बुरांसु को यूँ ठण्डो पाणी
न काटा न काटा यों रखा जग्वाली।
गंगा यमुना का ई छ न सिरवाण,
पशु मनख्यों का ई मन-पराण
ई धरती मा स्वर्गसुख देण वाली
लगावा, बचावा, जख जो भी डाली
न काटा न काटा यों रखा जग्वाली।
(इस बाँझ-बुरांस की, चीड़-देवदारु वाली
ना तोड़ो,न काटो यह हरी-हरी डाली।
गदेरों में पानी, वृक्ष वन में डोले
फूलों में बुरांस का मुक्त-हास्य खिले
इन बांज-बुरांस का ठण्डा ठण्डा पानी
ना तोड़ो, ना काटो यह हरी हरी डाली।
गंगा यमुना का यह विश्राम-स्थान
पशु-मानवों को यही मन-प्राण
माता धरत्री सो स्वर्ग-सुख वाली
लगावो, बचाओ, जहाँ जो भी डाली
ना तोड़ो, ना काटो यह हरी हरी डाली!)

‘पेड़ की पुकार’ इस लोक गीत में सैलानी कहते हैंः

खडु हों युं छैं जुगजुग बीटिन,
तुमारा खातिर मैं ज्यूण्यू चां दौ।

मैं तो न काटा मैं छौं तुमारो,
तुमतैं अग्वाडी कुछ देमु चांदौ।।
कुछ जात मेरी फल फूल वाली,
तुमारै खातिर पक दी सी डाली।

मिठास लीक मैं पकणु चांदौ,
तुमारा खातिर मैं झुकणुं चांदौ।।

मैं तै न काटा मैं पर पराण,
मैं तै लगदी पीड़ा तब पेड़ नौ छ।

रुडकान हो लू पड़ोगे र बाडू,
मैं ढाल पर छौं अर बेड़ गौ छ।।

हम तै न काटा हम तै बचाव,
हम तै लगावा धरती सजावा।।

हमारो क्या छ सब कुछ तुमारो,
अगली पीढ़ी तैं कुछ दीक जावा।।

(युग युगों से मैं हूँ यहाँ खड़ा
तुम्हारे लिये ही जीने की है इच्छा।
मुझे मत काटो मैं तो हूँ तुम्हारा
पहले तुम ही तो कुछ देने की है वांछा।।

[फल-फूल वाली मेरी कुछ जाति
तुम्हारे खातिर डाली पे पकति।
माधुर्य लेकर मुझे पकने की इच्छा
तुम्हारे खातिर मुझे झुकने की वांछा।।

मुझे मत काटो, है मुझमें भी प्राण
नाम मेरा ‘पेड़; मेरी पीड़ा के कारण।
गिराओ ना मुझे होगा शुष्क ये पहाड़
ढाल पर खड़ा हूँ मैं नीचे बसा हुआ गाँव।।

हमें मत काटो दे दो हमें संरक्षण
धरित्री सजाओ करके हमारे रोपण।
हमारा तो कुछ भी नहीं, सब कुछ तुम्हारा।
आने वाली पीढ़ी को कुछ देकर है गुजारा।।]

जंगल बचाने के लिये पुकार करते ‘सैलानी’ कह गए

खड़ा उठा भैं बन्धु सब कठा होला,
सरकारी नीति से जंगलु बचौला
ठेकेदारी प्रथा से जंगलु काटोगे,
बुरा एगे समाकाल वर्षा हटीगे।

जंगलात विभाग अरण्य पाल,
पर ई उल्टा व्हैगे जंगलु का काल।
चिपका पेड़ों पर अबन कटेण द्या
जंगलो की सम्पत्ति अब न लुटैण द्या।
खड़ा उठा भाई बैणों बचावा पहाड़,
भयंकर ओण लैगी देश मां बाढ़।
[खड़े उठो रे भाई बन्धु मिलकर सकल
सरकारी नीति-चंगुल से बचा ले जंगल।
ठेकेदारी प्रथा से तो करेगा जंगल
वर्षा हट जाएगी तो बुरा आवे काल।।
जंगल विभाग और अरण्यपाल
विपरीत हुआ आया जंगलों का काल।
चिपको रे पेड़ों पर अब कटने न दो
जंगलों की सम्पदा को लूटने न दो।।
खड़े उठो भाई बहनों बचाओ पहाड़
देश भर भयंकर आ ही गई बाढ़।।]

इन जागृति के लोकगीतों के साथ विकास के लिये ‘चिपको’ की प्राथमिकता किन चीजों के लिये है, आन्दोलन, नीति और तैयारी क्या है यह बताने वाले घोष वाक्य भी सर्वत्र प्रसूत होते थे।

-घास, लाकडू अर पाणी-यां का बिना योजना काणी।
(चारा, ईंधन और पाणी- इनके बिना योजना काणी।।
-आज हिमालय जागेगा, क्रूर कुल्हाड़ा भागेगा।
-पेड़ गिराने वालों सोचो-धरती माँ की खाल न नोचो।
-भले कुल्हाड़े चमकेंगे-हम पेड़ों पर चिपकेंगे।
-लाठी, गोली खाएँगे-अपने पेड़ बचाएँगे।
-आज हिमालय की ललकार-वन पर गाँवों का अधिकार।
-जनता का आदेश सुनो तब-बदलो जंगल का कानून।

औद्योगिक लाभ के लिये, शहरों की बढ़ती माँगों को लेकर वन-विनाश की आई बाढ़ रोकने का यशस्वी कार्य करने वाले ‘चिपको’ आन्दोलन को विकास-विरोधी करार देने वाले अनेक समूह देश-विदेशों में हैं यह सर्वविदित है। परन्तु विश्व भर के पर्यावरण-विज्ञान के पुरस्कर्ता ‘चिपको’ के सुनियोजित कार्यक्रमों के कारण प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। विशेष रूप से ‘चिपको’; की वैज्ञानिक भूमिका अनुभव-पूत होने के कारण जानकर लोगों को अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं रही। व्यापारी, ठेकेदार और सरकारी अधिकारी जानकर भी अन्जान बने थे, इसलिये पहाड़ी स्त्रियों ने अपने वैज्ञानिक आन्दोलन का क्या कहना है यह समझा दिया था। उनकी यह देन विश्व में सब जगह मशहूर हो गई।

अज्ञ बने लोगों का क्या था कहना ?

क्या हैं जंगल के उपकार ?
लीसा, लकड़ी और व्यापार ।

इन पर बहनों का नेतृत्व क्या समझदारी की बात कह देता था?

क्या है जंगल के उपकार?
मिट्टी, पानी और बयार!
मिट्टी, पानी और बयार
जिन्दा रहने के आधार। (बयार-शुद्ध हवा)

‘चिपको’ का वृक्षों का आलिंगन करके कुल्हाड़ियों से उनको बचाने की अहिंसक अभिनव पद्धति दक्षिण भारत के वन-विनाश पर भी रामबाण के समान लागू पड़ सकी। वहाँ के कार्यकर्ताओं ने जो लोक-जागृति की थी, उसके फलस्वरूप लोग, बिना नेतृत्व के ही, निकलकर स्वयं अपने बचे-खुचे वनों को बचाने दौड़ने लगे थे। वे अपने प्राण भी न्योछावर करने की तैयारी रखने लगे। ‘अप्पिको’ का यश कर्नाटक के वन-संरक्षण और रोपण का प्रारम्भ कर सका। और ‘सायलेंट वैली’ (शान्त घाटी) पर आया संकट भी जागृत लोग-वैज्ञानिक और विचारकों के समय पर उठाए आक्षेपों के कारण टल सका।

देश भर में ‘अरावली’ पहाड़ क्षेत्र, ‘गंधमादन’ पहाड़ का उड़ीसा का भू-भाग, बिहार में भी कहीं-कहीं-ऐसे कितने ही स्थानों पर अनेक जागृत-समूह अपने-अपने क्षेत्रों में लोक-संघटन करके वन-विनाश को अटकाव लगाने लगे और नए वन-संवर्धन की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने लगे।

हिमाचल प्रदेश में सेब के बगीचों के फल बाहर के प्रान्तों में और विदेशों में भेजने के लिये असंख्य वृक्षों की बली चढ़ाकर खास लकड़ी की पेटियाँ बनाई जाती रही हैं। ‘चिपको’ का परिणाम यह हुआ कि मुख्यमंत्री जी को जाहिर करना पड़ा-हम इन पेटियों का विकल्प खोज रहे हैं, अब से वृक्षों का इनके लिये कटना बन्द कर देंगे। हिमाचल में पहाड़ों की ढलान पर पेड़ कटना कुछ हद तक बन्द हो गया।

अनेक प्रान्तों में नीलगिरी (यूकेलिप्टस) वृक्षों से उद्योगों के लिये कच्चा माल मिला करता था। नया रोपण भी होता ही रहता था। लेकिन इनकी वजह से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कमजोर होती है, जमीन के भीतर का पानी स्तर और नीचे जाता है, यह अनुभव सर्वत्र आता है। कुछ स्थानों पर और नीचे स्वयं-स्फूर्त आन्दोलन चलाकर नए रोपण को उखाड़कर फेंकना ही उचित समझा।

‘चिपको’ की जन्मभूमि में नए वृक्षारोपण में कौन से वृक्षों को प्राथमिकता दी गई? अंग्रेजी में इन्हें ‘फाइव एफ ट्रीज (Five F trees)’ (पंच प्रकार के ‘एफ’ वृक्ष) कहा गया है-फूड, फाॅडर, फ्यूल, फर्टिलाइजर और फाइबर देने वाले वृक्षों को सर्वत्र उगाना होगा। अन्न, चारा, ईधन, खाद और रेशा (वस्त्र के लिये) देने वाले वृक्ष गाँवों के निकट होंगे तो अपनी सारी आवश्यकताएँ गाँव वाले इन्हीं के भरोसे पूरी कर सकेंगे यह दृष्टि इसमें है। शुद्ध वायु का उत्पादन करने वाले-वट-पीपल जैसे पेड़ इसी दृष्टि से प्राचीन काल से अपने देश में अहम महत्व के माने जाते रहे हैं। जमीन में पानी सम्भाल कर रखने वाले और नियमित रूप से जल-प्रवाह खोलने वाले विशिष्ट वृक्षों का रोपण भी किया जा सकता है। पंच प्राणों के समान इन पाँच ‘एफ’ वृक्षों का रोपण और वर्धन होता रहेगा तो अर्थशास्त्री शूमाखर जी ने भगवान बुद्ध के हवाले से जो कहा है वह होकर रहेगा। वनवासियों के लिये अलग से उद्योग खड़े करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इनकी जो जीवन-पद्धति उभरकर आएगी वह स्व-कष्टावलम्बी, संयमी, सौम्य और शान्तिप्रद होगी ऐसा कह सकते हैं। अखिल विश्व- जगत की एकात्मता इस वातावरण में से पा जाना मानव-जाति के लिये सुलभ होगा। ‘चिपको’ आन्दोलन का और वन-विकास का सांस्कृतिक योगदान भी, आर्थिक-प्रश्न के हल के साथ ही, कितना मूल्यवान हो सकेगा इसका अन्दाज कर सकते हैं।

प्राकृतिक सन्तुलन के लिये हवा निर्माण करने का श्रेय तो ‘चिपको’ के पास जाता ही है। इसका परिणाम सरकारी योजनाओं पर भी हुए बिना नहीं रहा। प्रत्यक्ष लोक-आन्दोलन, उपवास का अहिंसक शस्त्र और वातावरण निर्मिती, साथ ही वैज्ञानिकता की सशक्त भूमिका इन सबके कारण आन्दोलनों ने सुझायी प्रमुख माँगें कुछ प्रमाण में मान्य हो गईं। तीन हजार फीट ऊँचाई से ऊपर पहाड़ो में हरे वृक्षों की कटाई पन्द्रह वर्षों के लिये बन्द हो गई। हालांकि वनों पर गाँवों का अधिकार नहीं हो सका।

स्वातन्त्र्य प्राप्ति के बाद के लोक-आन्दोलन के इस यश का सर्वत्र कौतुक होना स्वाभाविक था। एशिया के कुछ देशों के समाज-सेवकों ने इससे काफी मार्गदर्शन पाया। यूरोप में पर्यावरण मंचों पर इसकी चर्चा हुई। युग की आवश्यकता ही ‘चिपको’ में से प्रकट हुई-कह सकते हैं।

परन्तु हिमालय तथा अन्य प्रान्तों में वन सुरक्षा की और वर्धन की नीति प्रत्यक्ष धरती पर उतरने के बदले वन और लोक-जीवन पर बहुत बड़ा संकट नए सिरे से घिर आया। देश भर में जहाँ-जहाँ नदियों का जल उपलब्ध हो वहाँ छोटे-बड़े बाँध खड़े करने की मुहिम खुल गई। सिंचाई के लिये, बिजली के लिये इन बाँधों को काम में लाना इसलिये आवश्यक हो गया कि बढ़ती आबादी, बढ़ते उद्योग, आवश्यक अन्नोत्पादन के लिये पानी और बिजली की माँग बहुत बढ़ गई और जल-विद्युत सबसे सस्ती पड़ती है। सबसे महँगी है परमाणु-बिजली । कहने के लिये यह परमाणु विस्फोट का कार्यक्रम शान्ति के लिये होता है, परन्तु थोरियम,यूरेनियम के जैसे रेडियोधर्मी तत्वों के विकिरणों के कारण होने वाली हानि कम तकलीफदायी नहीं होती है। इसलिये सभी दृष्टियों से नदियों पर बाँध खड़े करना आसान लगता है। परन्तु इससे अनेक प्रकार की त्रासदियाँ घटित होती हैं। वन-विनाश, जीव-जन्तुओं की जाति-प्रजातियों का लुप्त होना, लोक-संस्कृति की हानि और विस्थापितों के जीवन की दुर्दशा-इस तरह अनेक संकट उपस्थित हो जाते हैं। विशेषतः प्रचंड बाँधों का आग्रह हानि अधिक और लाभ कम ऐसा ही हिसाब सामने लाता है।

टिहरी के परिसर में भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम के पास एशिया के सबसे बड़े बाँध का उपक्रम और नर्मदा नदी पर मध्य प्रदेश-महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में प्रस्तुत हुए बड़े बाँध के कारण अनगिनत हानि के पहाड़ ही ढहकर लोक-जीवन को असह्य बनाते रहे हैं। भागीरथी और नर्मदा ये पुराण प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्रीय नदियाँ रही हैं। इनका और आस-पास के वन-पहाड़ियों इत्यादि का पूरा स्वरूप ही विकृत हो गया है इन बाँधों के कार्य-कलापों से।

कहाँ तो लोक कवि ‘सैलानी’ जी का हिमालय और गंगा के स्वर्गीय वातावरण का, साधना-स्थलों का गुणगान और कहाँ आज के बाँधों ने चलाया उत्पात! नर्मदा की भी यही कहानी है। सैलानी जी की भाषा में कहे तोः

स्वर्ग उत्तराखण्ड भूमि
हिमालय फूल जैसो फुल ब्रह्मी कमल !
गंगा-हिमालय कू दर्शन छ भारी
हिमालय बदरी केदार-ब्रह्मी कमल !
रंग बिरंगा फूल खिल्या छ
हिमालय बर्फीले चटान-ब्रह्मी कमल !
सन्त मुन्यों का पवित्र धाम
हिमालय तपस्या की भूमि-ब्रह्मी कमल !

हिमालय की भूमि में काफी ऊँचाई पर गंगोत्री के भी आगे यह ब्रह्म-कमल खिलता है। नीलवर्ण का, अनेक पँखुड़ियों का सुन्दर पुष्प! यह खासियत खास हिमालय की है। क्या अब विकास के, बाँधो के आक्रमण के सामने यह टिक पाएगी खासियत? साधना का पवित्र क्षेत्र गंगा-नर्मदा का, क्या अब भोग का, व्यापार का, विकास के आक्रमण का कार्य क्षेत्र बन जाएगा ?
 

 

सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम संख्या

अध्याय

1.

वायु, जल और भूमि प्रदूषण

2.

विकास की विकृत अवधारणा

3.

तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

4.

अमरत्व की आकांक्षा

5.

एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6.

निष्ठापूर्वक निष्काम सेवा से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

7.

एकात्मता की अनुभूति के लिये शिष्यत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका

8.

सर्व-समावेश की निरहंकारी वृत्ति

9.

प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

10.

नई प्रकृति-प्रेमी तकनीक का विकास हो

11.

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम

12.

अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

13.

प्रकृति विनाश के दुष्परिणाम और उसके उपाय

14.

मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

15.

टिहरी - बड़े बाँध से विनाश (Title Change)

16.

विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

 

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