मौसम बदलने से खोता जा रहा है बारिश का उत्सव

18 Jul 2019
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मौसम बदलने से खोता जा रहा है बारिश का उत्सव।
मौसम बदलने से खोता जा रहा है बारिश का उत्सव।

बारिश का उत्सव हमारे लोक जीवन का मूल आधार है, लेकिन अब यह हमारे लिए तेजी से बीते दिनों का किस्सा बनता जा रहा है। आगे हम अपने बच्चों को शायद इसकी कहानियां ही सुनाते रह जाएंगे। कोई खास सकारात्मक बदलाव नहीं लाया गया तो उनके जीवन से इस उत्सव का आनन्द ही बेदखल हो जाएगा। यह उत्सव खुशियों तक ही सीमित नहीं है, उससे आगे बढ़कर ये हमारी धरती और जीवन के लिए भी बहुत जरूरी प्रक्रिया है। इसी से हमें अन्न और पानी मिलता है। बढ़ती हुई गर्मी से निजात मिलती है। देश का दिल धड़कता है। मध्य प्रदेश में यहाँ की हर बात मन मोह लेती है। हरे-भरे जंगल हो, कल-कल बहती सदानीरा नदियाँ हों, विंध्याचल और सतपुड़ा के पहाड़ हों, दूर तक फैले खेत हों या प्रकृति की गोद में बसे छोटे-छोटे गाँव। यहाँ के खान-पान की तो बात ही क्या...! आस्था, परम्परा, पर्यटन और पुरातत्व के शौकीनों के लिए भी यह स्वर्ग है। कमोबेश यही स्थिति छत्तीसगढ़ की है। 

जिन प्रसंगों को हम झमाझम बारिश और हरे-भरे सुखद परिवेश में उत्साह से मनाते रहे, उन्हें अब तीखी धूप, भीषण गर्मी और बेरंग-फीके चेहरों से मना रहे हैं। उमंग और खुशी खोती जा रही है। हम औपचारिक होते जा रहे हैं। इससे स्वयं को हम स्वयं ही बचा सकते हैं। हमें प्रकृति परस्त होना ही पड़ेगा और कोई विकल्प है ही नहीं।

प्रचुर अरण्य सम्पदा वाला यह प्रदेश भी हमेशा से लुभाता रहता है, लेकिन प्रकृति के चहेते पुत्र रहे हरी-भरी धरती वाले ये प्रदेश भी अब मौसम की मार से अकाल की विभीषिका के साये में आ चुके हैं। भले ही कभी देशभर में ये डग-डगरोटी, पग-पग नीर के लिए पहचाने जाते रहे हैं, मगर कम होती बारिश, बढ़ती गर्मी से यहाँ के लोगों को भी पर्याप्त पानी और अनाज के लिए भटकना पड़ रहा है। कभी शीतल तासीर वाला यह इलाका अब ज्यादातर समय भट्टी की तरह तपता रहता है। बारिश के बिना किसी भी तरह के जीवन की कल्पना बेमानी है। पानी और अन्न दोनों को ही हम किसी प्रयोगशाला में नहीं बना सकते। बारिश का चक्र ही इसकी बेहतर आपूर्ति कर सकता है। हमारे पुरखे इस बात का सच बहुत अच्छे तरीके से जानते-पहचानते थे, इसीलिए उन्होंने बारिश को अपनी निजी खुशियों के साथ लोक के सामूहिक उत्सव की तरह जोड़ा है। हमारी संस्कृति लोक आधारित है और इसमें बारिश के इन चार महीनों में ऐसे कई प्रसंग जोड़े गए हैं। बारिश किसान के साथ पूरे जन-जीवन के लिए आनन्द, उत्साह और दमकते चेहरों की उमंग लेकर आती है। किसानों के खेत फलने-फूलने लगते हैं, तो मजदूरों को खेती में काम मिलता है। फसल के पैसों से व्यापार बढ़ता है। गांव में तो सबकी रोजी-रोटी इसी पर निर्भर रही। 

आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक चार महीनों में हमारे लोक के कितने पर्व, कितने मेले और कितनी परम्पराएं हैं। ये प्रकारांतर से हमारी खुशियाँ ही हैं, जो रिमझिम बारिश की फुहारों के बीच हमारे मन से उपजती हैं। बारिश में उत्सव अन्तर्निहित है। पानी की आमद और अच्छी फसल की उम्मीद में गाँव-जवार झूमने लगता है। राखी, संझा या सातड़ी तीज के अपने लोकगीत, लोक वार्ताएँ, लोक चित्रावण और लोक परम्पराएँ हैं, जो लम्बे समय से हमारे लोक जीवन के अभिन्न अंग हैं और समाज को जोड़ते हैं। मगर बीते दस सालों में बारिश की अनिमितता काफी हद तक बढ़ गई है। जिन प्रसंगों को हम झमाझम बारिश और हरे-भरे सुखद परिवेश में उत्साह से मनाते रहे, उन्हें अब तीखी धूप, भीषण गर्मी और बेरंग-फीके चेहरों से मना रहे हैं। उमंग और खुशी खोती जा रही है। हम औपचारिक होते जा रहे हैं। इससे स्वयं को हम स्वयं ही बचा सकते हैं। हमें प्रकृति परस्त होना ही पड़ेगा और कोई विकल्प है ही नहीं।

 

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