मौत और विनाश के बढ़ते आंकड़े

यह घटना रुद्रप्रयाग जिले के प्रख्यात तीर्थ स्थल मद्महेश्वर क्षेत्र में बेडुला गांव की है। उस रात बेडुला से लगे जग्गी-बगवान में 4 तथा राऊंलेक में 32 लोग मारे गए लेकिन इसी 11 अगस्त की रात व 12 अगस्त की सुबह मद्महेश्वर और सिद्धपीठ कालीमठ क्षेत्र के 14 गाँवों में 68 लोग मारे गए। यह विनाश का सिलसिला यहीं नहीं थमा। एक सप्ताह के अंदर ही एक विशाल पहाड़ टूटकर मद्महेश्वरी नदी में गिर जाने से भेंटी और पौंडार गांव पूरी तरह नष्ट हो गए। इनमें रहने वाले सभी 39 लोग तथा दर्जनों पशु, लाखों टन वजनी मलबे के अंदर दबकर मर गए। “तुम भी आज मरण तैं यख ऐग्या” (तुम लोग भी आज मरने के लिए यहां आ गए हो)। चाय का गिलास थमाते हुए लखमा देवी ने अपने दामाद, जो सेना में है और आजकल छुट्टी पर अपनी ससुराल आया हुआ था, से तथा उसके साथ आए एक अन्य मेहमान चंद्रसिंह से कही। लगभग साढ़े आठ-नौ बजे रात की बात थी। बारिश दिनभर से जारी थी उस वक्त वह तेज हो गई थी। रोटी बनाते समय बाहर मूसलधार बारिश हो रही थी। लखमा ने मेहमानों को राजमा की दाल, सब्जी, दही परोसा। भैंस ब्याई थी, इसलिए कटोरे पर दोनों मेहमानों को घी भी परोस दिया था।

चंद्रसिंह बताते हैं कि जैसे ही उन्होंने रोटी का पहला टुकड़ा तोड़ा कि बाहर थरथराहट होने लगी। दरवाज़े की ओर यह देखने के लिए लपके ही थे कि क्या हो रहा है, तभी उनके ऊपर बज्रपात सा हो गया और उन्होंने अपने को मौत के जबड़े में फंसा पाया। वे दलदल में डूब गए थे। सुबह दस बजे के लगभग लोग आए तो चिल्लाने पर उन्होंने उन्हें दलदल से निकाला। पैंसठ साल के चंद्रसिंह के हाथ पैर पर पट्टी बंधी हुई थी। वे अभी इस हादसे से नहीं उबर पाए थे। बेदूला के रास्ते पर उन्होंने अपनी झोपड़ी में यह बात बताई। लखमा का दामाद भी बचा लिया गया। लेकिन लखमा देवी और उनकी लड़की गांधी का कोई पता नहीं चला। उनका मृत शरीर भी नहीं मिला। लखमा देवी की दूसरी लड़की रंजू गौंडार गांव में अपनी बड़ी बहन के ससुराल में गई थी। लड़का मजदूरी के लिए केदारनाथ में था, इसलिए परिवार में ये दोनों जीवित बच सके।

यह घटना रुद्रप्रयाग जिले के प्रख्यात तीर्थ स्थल मद्महेश्वर क्षेत्र में बेडुला गांव की है। उस रात बेडुला से लगे जग्गी-बगवान (बैराफला) में 4 तथा राऊंलेक में 32 लोग मारे गए लेकिन इसी 11 अगस्त की रात व 12 अगस्त की सुबह मद्महेश्वर और सिद्धपीठ कालीमठ क्षेत्र के 14 गाँवों में 68 लोग मारे गए। यह विनाश का सिलसिला यहीं नहीं थमा। एक सप्ताह के अंदर ही एक विशाल पहाड़ टूटकर मद्महेश्वरी नदी में गिर जाने से भेंटी और पौंडार गांव पूरी तरह नष्ट हो गए। इनमें रहने वाले सभी 39 लोग तथा दर्जनों पशु, लाखों टन वजनी मलबे के अंदर दबकर मर गए। इस क्षेत्र की इस सर्वाधिक भयंकर त्रासदी में तीन गाँवों का अस्तित्व पूरी तरह से समाप्त हो गया। लगभग चालीस गांव भूस्खलन से पूरी तरह बर्बाद हो गए। जो गांव बचे भी हैं, वो अत्यधिक असुरक्षित हो गए हैं।

इसके साथ ही 18-19 अगस्त को पौंडार के ऊपरी जंगल, जिसे कोटी डांडा कहते हैं, के विशाल भूभाग टूटकर मद्महेश्वरी नदी में गिरने से नदी का बहाव रुक गया। जिसके कारण लगभग 80 मीटर गहरी झील बन गई। इसकी लंबाई डेढ़ किलोमीटर तथा चौड़ाई तीन सौ मीटर के लगभग थी। यह झील बहुत खतरनाक स्थिति में थी। इस पहाड़ के टूटने से नदी के पार स्थित पौंडर गांव की छाती पर करीब पांच सौ मीटर चौड़ा, एक हजार मीटर लंबा और एक सौ मीटर ऊंचा मलबे का ढेर बन गया था। जिसका घनत्व हमारे प्रारंभिक सर्वेक्षणों के अनुसार लगभग छह करोड़ घनमीटर था। भेटी गांव की ओर का मलबा इसके अतिरिक्त था।

इस प्रकार अगस्त 98 का माह उत्तराखंड के सीमावर्ती जिलों के लिए प्रकृति की विनाशलीला लेकर आया। चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ जिलों के ऊपरी हिस्सों में दर्जनों गांव नष्ट हो गए, जिनमें लगभग साढ़े तीन सौ लोग मारे गए। सैकड़ों पालतू पशु, हजारों मकान और गौशालाओं का नामोनिशान मिट गया। हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि लहलहाती फसल सहित नष्ट हो गई। सैकड़ों परिवार राहत शिविरों तथा दूसरे गाँवों में शरण लेकर अपनी जान बचाने को मजबूर हो गए। कई मोटर मार्ग एवं पैदल मार्ग एवं पैदलपुल, पुलिया पेयजल योजनाएं, सिंचाई गूल, तालाब, स्कूल भवन आदि नष्ट हो गए।

रुद्रप्रयाग जनपद के अलावा 17-18 अगस्त को पिथौरागढ़ जिले में मालपा नामक यात्रा पड़ाव भूस्खलन के कारण पूरी तरह नष्ट हो गया। इसमें कैलाश मानसरोवर के यात्रियों सहित दो सौ से अधिक लोगों के काल कवलित होने की खबर थी। अतिवृष्टि के कारण भूस्खलन, भूक्षरण और बाढ़ की विभीषिका का दुष्प्रभाव इस क्षेत्र में भी दर्जनों गाँवों में पड़ा है।

2-3 अगस्त को चमोली जिले के जोसीमठ तहसील के एक दर्जन से अधिक गाँवों में व्यापक तबाही हुई। 75 परिवारों वाले मल्ली टंगणी गांव के 17 मकान व गौशालायें पूरी तरह धाराशाही हो गई तथा 58 मकान ढहने के कगार पर थे। सरकारी परिभाषा में वे ध्वस्त नहीं थे लेकिन उनमें निवास किया ही नहीं जा सकता था, क्योंकि वे कभी भी ध्वस्त हो सकते थे। दाणमी गांव के 13 परिवार, मकानों के टूटने व खतरनाक स्थिति में हो जाने के कारण बेघर बन गए हैं। दाणमी गांव में एक अनुसूचित जाति की महिला का मकान ढहने के कारण एक नवजात शिशु की मृत्यु हो गई। टंगणी में चार पशु भी मारे गए। कई पशु व मनुष्य घायल हुए हैं। मोल्टा गांव में 70 परिवारों के मकान असुरक्षित हो गए हैं। नौला ग्वाड़, गणाई, पगनों, लंगसी, गुलाबकोटी, लांजी आदि गाँवों में बड़ी संख्या में लोगों के मकान, गौशालाएं, फसलों से भरे खेत, रास्ते व पेयजल बिजली की लाइनें, स्कूल आदि भी क्षतिग्रस्त हो गए। इन गाँवों की स्थिति इतनी खराब हो गई है कि यहां नई बस्तियां नहीं बसाई जा सकती और लोगों के सामने सिर छुपाने का संकट पैदा हो गया है।

चमोली जिला मुख्यालय के समीप ही जुलाई में सिरोली, मकरोली, बैरागना आदि गाँवों में लोगों के खेत, गौशालाएं तथा मकान ध्वस्त हो जाने से उनके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है।

भेंटी के ऊपर कोटी का डांडा जंगल में बताते हैं कि रिंगाल, चीड़ और बांज के पेड़ थे, जिनका ढेर पोंडार की छाती में फैले हुए मलबे में देखा जा सकता है। बुरवा गांव के लोगों के कथनानुसार 4 नेपाली भी यहां मारे गए। वे पेड़ों के चिरान का काम करते थे। यहीं ग्रामीणों के बरसाती पशु पड़ाव यानी खर्क भी बने होने की जानकारी मिली। कोटी डांडा में दरार की बात भी लोगों ने बताई जो कुछ वर्ष पूर्व से पड़ी थी। 12 अगस्त के बाद इस डांडा में स्थित भेंटी गांव के दोनों ओर से भूस्खलन शुरू हो गया था

रुद्रप्रयाग जिले के अनेक भूस्खलन पीड़ित गाँवों के ऊपरी और निचले भागों में अनेक दरारें पड़ी हुई हैं। बेडुला से लेकर उनियाणा के बीच में दर्जनों भूस्खलन गाँवों के ऊपरी हिस्सों से मद्महेश्वरी नदी तक पसरे हुए हैं, जो अपनी चपेट में कई गाँवों को ले आए हैं। यही हाल कालीमठ, कोटमा तथा कालीमठ से बेडूला, मनसूना से पहले और गैड़ तथा बुरवा गाँवों के इलाकों में भी है। यहां बड़े-बड़े शिलाखंड भी चटके हुए हैं। जग्गी-बागवान का भूस्खलन तो सक्रिय है ही, कई अन्य पुराने भूस्खलन भी सक्रिय हो गए हैं। मुख्य रूप से जहां एवं बसासते हैं वे अब रहने के लिए असुरक्षित हो गए हैं। राऊंलेक के आगे पीछे बड़ी दरारें तो देखने को मिली ही कुछ स्थानों पर शिलाखंड चटक कर ऊपर भी उठे हैं। अमूमन भूस्खलनों ने जंगलों की सीमा को कम छुआ है। अधिकांशतः भूस्खलन खेतों के बीच से गांव की काश्तकारी को लपेटते हुए आए हैं। इन भूस्खलनों ने जहां पनढाल था वहां अधिक प्रलय मचाया। पनढाल की चपेट में जो भी आया, चाहे वह खेत रहा या मकान अथवा गौशाला, सभी नष्ट हो गए। पचास डिग्री से अधिक ढाल वाले इन पहाड़ी ढलानों में कई प्रकार का हस्तक्षेप लोगों ने अपनी जीविका के लिए किया। कई गाँवों में मकानों के निर्माण की शैली में परिवर्तन हुआ। कई जगह सीमेंट सरिया की पहुंच के साथ लेंटर पड़े मकानों का निर्माण भी दिखा। नीचे से नदियों द्वारा कटाव तथा भारी निर्माण कार्य ने भी धरती की सांस खोल दी। गांव के ऊपरी भाग से वृक्ष पंक्ति भी ऊपर सरकती गई है। खेती का विस्तार भी स्पष्ट दिखाई देता है।

वर्षा की निरंतरता भी विनाश को बढ़ाने वाली बनी। लोगों का कहना है कि दो तीन दिन पहले से लगातार हल्की वर्षा थी। ऐसी वर्षा का पानी ज़मीन के अंदर समाता है तथा मिट्टी को पोली बना देता है। इसके बाद हुई तेज वर्षा ने इस पोली मिट्टी को आसानी से उखाड़ कर भूस्खलनों की सघनता को बढ़ा दिया।

भेंटी के ऊपर कोटी का डांडा जंगल में बताते हैं कि रिंगाल, चीड़ और बांज के पेड़ थे, जिनका ढेर पोंडार की छाती में फैले हुए मलबे में देखा जा सकता है। बुरवा गांव के लोगों के कथनानुसार 4 नेपाली भी यहां मारे गए। वे पेड़ों के चिरान का काम करते थे। यहीं ग्रामीणों के बरसाती पशु पड़ाव यानी खर्क भी बने होने की जानकारी मिली। कोटी डांडा में दरार की बात भी लोगों ने बताई जो कुछ वर्ष पूर्व से पड़ी थी। 12 अगस्त के बाद इस डांडा में स्थित भेंटी गांव के दोनों ओर से भूस्खलन शुरू हो गया था।

18 अगस्त की रात को झटके के साथ पहाड़ स्खलित हो गया, जो धमाके के साथ भेंटी और पौडार गांव के ऊपर पसर गया। हमारे साथी श्री मुरारीलाल और श्री चंडीप्रसाद, जो कि 18 अगस्त की सुबह बुरूवा, जुगासू पुल होते हुए राऊलेंक और कालीमठ क्षेत्र में 11-12 अगस्त को हुए विनाश की जानकारी लेने जा रहे थे, ने भूस्खलन को देखते हुए गाँववालों को सचेत भी कर दिया था। वे बताते हैं कि भेंटी गांव के दोनों ओर से हल्का भूस्खलन तब भी जारी थी।

चमोली जिले के मल्ली टंगणी, दाड़मी, मोल्टा आदि गांव खड़े पहाड़ पर 50 डिग्री से अधिक ढाल पर बसे हुए हैं। यह इलाक़ा आंतरिक दृष्टि से बहुत कमजोर दिखता है तथा चूनाष्म वाला इलाक़ा है। भूस्खलन एवं भूक्षरण यहां नियमित घटनाएँ हो गई हैं। एक तरह से ये पहाड़ प्यांकू (अयंत संवेदनशील) हो गए हैं।

सन् 1970 की अलकनंदा की प्रलयंकारी बाढ़ का मुख्य केंद्र यही इलाक़ा था। सन् 1981 में दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल ने पर्यावरण संवर्द्धन शिविर के दौरान भूगर्भ विज्ञान के छात्रों सर्व श्री महेंद्र सिंह कुंवर, नवीन जुयाल एवं भुवनेश भट्ट को इस पूरे क्षेत्र के प्रारंभिक अध्ययन की ज़िम्मेदारी दी थी। उनके अनुसार यह क्षेत्र भ्रंश के ऊपर स्थित है। टंगणी गांव के ऊपरी भाग में, जहां जंगल भी है, एक लंबी दरार पड़ी हुई है, जो अब और भी चोड़ी हो गई है। इसी प्रकार दाणमी, गणाई और मोल्टा के बारे में भी सचेत कर दिया गया था। इन तीन दशकों में इन अति संवेदनशील क्षेत्रों में जो प्राकृतिक कारणों से तो कमजोर हैं, पिछले दशकों में कई प्रकार की गड़बड़ियां भी हुई हैं। सीमेंट के भारी-भरकम मकान खड़े किए गए। जंगल बड़े पैमाने पर कटे। चराई भी अत्यधिक बढ़ी, नीचे से भूस्खलन के मलबे को साफ करने के लिए कारतूस के धमाके भी जारी रहे। इस सबका एकीकृत प्रभाव इस इलाके पर पड़ा और अब लोगों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।

भूगर्भविदों के अनुसार संपूर्ण हिमालय पर्वत श्रृंखला नई और विकासमान स्थिति में है तथा मध्य हिमालय में एक बड़ा भ्रंश है जो समय-समय पर होने वाले भूकंपों तथा भूगर्भीय हलचलों का मुख्य कारण है। ऋतुक्रिया और अन्य छोटी छोटी गतिविधियों से भी यह क्षेत्र प्रभावित होता रहता है। यहां बड़ी संख्या में हिमोड़ और नये-पुराने भूस्खलनों के मलबे के ढेर विद्यमान हैं। भूमि की सीमितता के कारण इन पर भी गांव बस गए हैं। कई गांव तो सैकड़ों वर्षों से अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं लेकिन स्थान विशेष की भार वहन क्षमता और प्रकृति की वहनीय क्षमता के प्रतिकूल आचरण के कारण जरा भी प्राकृतिक हलचल से इन गाँवों में दुर्घटनाओं का क्रम लगातार बढ़ रहा है।

पहले लोग मकान बनाने से पूर्व ज़मीन की स्थिरता के बारे में अपना विश्वास पक्का कर लेते थे और मिट्टी की जांच करते थे। सेमार (दलदल) वाली भूमि में मकान का निर्माण नहीं करते थे। सात सौंण, सात माघ की बारिश से पूर्व मकान की नींव डालते थे, जिससें भारी वर्षा से नींव मजबूत हो। नदी तटों नालों के प्रवाह-क्षेत्र, जंगल, चट्टान आदि का बहुत ध्यान रखा जाता था। भवन निर्माण की शैली, स्थानीय मौसम, भूमि की मज़बूती आदि को ध्यान में रख कर विकसित की गई थी। मकानों की ऊंचाई कम रखी जाती थी तथा लकड़ी और पत्थरों से मकान बनाने की जोड़-तोड़ शैली विकसित की गई थी। बहुमंजिला इमारतों का निर्माण अत्यधिक पक्की भूमि में ही किया जाता था और इस बात का पक्का ध्यान रखा जाता था कि जो निर्माण कार्य किए जाएं, वह सुरक्षित हों। अधिकतर घास से ढके आवास बनाए जाते थे। इसी का परिणाम था कि मकानों को कम क्षति होती थी और मौतों की संख्या सीमित रहती थी।

पुराने निर्माण कार्यों में कम क्षति के अनेक उदाहरण समय-समय पर मिलते रहते हैं। 1991 के गढ़वाल भूकंप में केदारनाथ और त्रिजुगीनारायण जैसे, जहां बड़ी संख्या में मकान टूटे, विशालकाय मंदिर और लकड़ी के अधिक प्रयोग वाले मकान सुरक्षित रहे। ये मकान मिट्टी-पत्थर की चिनाई से बने थे। इसके विपरीत लोहे और सीमेंट से बने मकान, जिन्हें पक्का ढाँचा कहा और माना जाता है वे बड़े पैमाने पर ध्वस्त हुए।

बद्रीनाथ का मंदिर विनाशकारी प्राकृतिक प्रकोपों से भी अभी तक यदि सुरक्षित है तो इसका कारण ही है कि उसे न केवल मजबूत ज़मीन पर खड़ा किया गया है, बल्कि आंख की भौंहों की तरह सुरक्षित रखने वाली ऊपरी पर्वत श्रृंखलाओ के कारण हिमानियों से भी उसे सुरक्षा मिली हुई है। यही स्थिति कालीमठ मंदिर की भी है, जो अगल-बगल में भूस्खलनों के कारण ध्वस्त मकानों के बीच में भी सुरक्षित बचने में सफल रहा है।

अब निर्माण कार्यों में इस प्रकार की सावधानी नहीं बरती जाती है। बल्कि इसकी आवश्यकता भी अनुभव नहीं की जाती है। यही स्थिति गाँवों की सुरक्षा संबंधी कार्य व्यवहार की भी है। पहले गांव को बरसाती पानी के कटाव से बचाने के लिए गांव के ऊपरी भाग में डांडा गूल निकालते थे। गांव के लोग समूह में जाकर, गांव के ऊपरी हिस्सों के बरसाती पानी का निकास दोनों ओर के पनढालों में करते थे। नदी, नालों और गदेरों के पास बसासत के लिए चेतावनी थी कि “नदी तीर का रोखड़ा, जतकत सौरो पार” अर्थात जो इसके समीप बसता है, वह तो हमेशा खतरे में ही है। गांव के ऊपरी भाग को वृक्षों और वनस्पतियों से आच्छादित रखना जरूरी माना जाता था। जिस गांव में भूमि व वनस्पति से आच्छादित रखना जरूरी माना जाता था। जंगल और पानी का ध्यान रखा जाता, उस गांव को थानी-मानी गांव कहा जाता था। आज तो ये परंपराएं सभी भूल चुके हैं।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार काली नदी तवाघाट के पास सन् 1846 में भूस्खलन से रुक गई थी। सन् 1857 में मंदाकिनी नदी तीन दिन तक बिजार के पास रुक गई थी। उस पर बने अस्थायी तालाब के टूटने से अलकनंदा घाटी में तक तबाही हुई। सन् 1868 में बिरही नदी में बने गौडियार ताल के टूटने से अलकनंदा घाटी में भारी तबाही हुई। इस बाढ़ में 73 लोग मारे गए थे। बिरही नदी में सन् 1893 में गौणा गांव के ऊपर की चट्टान टूटने से एक साल तक नदी का प्रवाह रुक गया था और उसमें पांच किमी. लंबी झील बन गई थी। यद्यपि मध्य हिमालय में दुर्घटनाओं का इतिहास नया नहीं है। पहाड़ों के टूटने से झीलों के बनने, उनके टूटने या साद से पटते जाने की घटनाएं सदियों से हो रही है। परत-दर-परत अवसाद, इनके अवशेष यत्र-तत्र दिखायी देते हैं लेकिन पिछली दो शताब्दियों में नदियों में पहाड़ के टूटने से बनी झीलों और उनके टूटने की लंबी फेहरिस्त है। जिसमें से कुछ इस प्रकार हैं-

उपलब्ध जानकारी के अनुसार काली नदी तवाघाट के पास सन् 1846 में भूस्खलन से रुक गई थी। सन् 1857 में मंदाकिनी नदी तीन दिन तक बिजार के पास रुक गई थी। उस पर बने अस्थायी तालाब के टूटने से अलकनंदा घाटी में तक तबाही हुई। सन् 1868 में बिरही नदी में बने गौडियार ताल के टूटने से अलकनंदा घाटी में भारी तबाही हुई। इस बाढ़ में 73 लोग मारे गए थे। बिरही नदी में सन् 1893 में गौणा गांव के ऊपर की चट्टान टूटने से एक साल तक नदी का प्रवाह रुक गया था और उसमें पांच किमी. लंबी झील बन गई थी। इसमें बनी झील अगस्त 1894 में टूटी जिससे निचली घटी में भारी नुकसान हुआ।

सन् 1930 में अरवा ताल के टूटने से बाढ़ आयी थी और बद्रीनाथ में अलकनंदा का जलस्तर 9 मीटर ऊंचा उठ गया था। सन् 1951 में नयार नदी ने भारी तबाही मचाई थी और सतपुली में दर्जनों बसें बह गई। इसी प्रकार द्रौणागिरी नाले में ग्लेशियर टूटने से धौली नदी में भाप कुंड के पास झील बन गई थी। ऋषिगंगा में भी भूस्खलन से 1968 में रेणी के पास झील बन गई थी। सन् 1970 की अलकनंदा की प्रलयंकारी बाढ़ में भूस्खलन के मलबे से अलकनंदा अस्थायी रूप से रुकी जिसके टूटने से कई बस्तियां नष्ट हुई और अपरगंगा नहर साद से पट गई थी। सन् 1977 में काली और धौली के संगम पर स्थित तवाघाट, खेला, पलपला (पिथरौगढ़) के क्षेत्र में भयंकर भूस्खलन से 48 लोग मारे गए थे। 6 अगस्त 1978 को उत्तरकाशी जिले में भूस्खलन से भागीरथी और कण्डोलिया गाड़ में झील बन गई थी जिनके टूटने से उत्तरकाशी और टिहरी जिले में भारी तबाही हुई।

भूस्खलन से गाँवों की तबाही का भी लंबा इतिहास है। 27 जुलाई 1961 को डढूवा गांव भूस्खलन से दब गया था। जिसमें 36 लोग और दर्जनों पशु मारे गए थे। सन् 1971 में मांसौं, सन् 1972 में नंदाकिनी घाटी, सन् 1973 में सेरा, मालकोटी (चमोली तहसील) और डूंगर, सिमाला, केड़ा, किणजाणी (उखीमठ तहसील) तथा सन् 1979 में कोन्था में भूस्खलन की विनाशलीला हुई। कोंथा भूस्खलन से पूरा गांव नष्ट हो गया था जिसमें 39 लोग मारे गए थे। इस प्रकार ये घटनाएँ प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है।

चमोली जिले के (रुद्रप्रयाग सहित) 228 गाँवों को भूस्खलन और बाढ़ से खतरा बताया गया है। इनमें इस वर्ष प्रभावित उखीमढ (रुद्रप्रयाग) के गाँवों में से जग्गी, बेडूला, राऊंलेक, उनियाणा, गडगू, करोखी, दैड़ा, सारी, रेल, कविल्ठा, कोटमा, कालीमठ, तालजामण, कुणजेठी सम्मिलित हैं। इसी प्रकार चमोली जिले के दाणमी, गणाइ, मोल्टा, टंगणी, नौला, ग्वाड़ और लंगसी पहले से ही प्रभावित हैं। इन गाँवों के बारे में समय-समय पर जिला बाढ़ सुरक्षा योजना की बैठकों में चिंता प्रकट करते हुए प्रस्ताव पारित किए जाते हैं। इन चिंहित गाँवों में तत्काल सुरक्षात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए पत्राचार किए जाने के बावजूद कतिपय ग्रामों में अभी तक भी संबंधित विभागों द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई है। जिसमें ग्रामवासी अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और बरसात के समय भयभीत हो जाते हैं। बाढ़ सुरक्षा समिति द्वारा यह भी निर्देश दिया जाता है कि संबंधित अधिकारी समय-समय पर इसकी समीक्षा स्थलीय निरीक्षण कर सुनिश्चित करें पर बाढ़ सुरक्षा की बैठक में लिए गए ये निर्णय भी रस्मी हो जाते हैं।

तेज ढाल वाले नदी नालों से कमजोर इलाके तो कटते जा रहे हैं, उससे सीधे खड़े ढलानों का एकदम संकरी घाटियों को अवरूद्ध करना एवं चट्टानों का खिसकना एक सामान्य लक्षण है। प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त मानवीय कारण भी ढलानों में अस्तिरता एवं भूस्खलन को बढ़ावा दे रहे हैं। ऊपर से मूसलाधार वर्षा इसको गतिमान बनाने में बड़ा योगदान दे रही हैं।

प्राकृतिक प्रक्रिया को हम रोक नहीं सकते हैं, किंतु आपदाओं को कम करने में एवं कुछ समय तक टालने में योगदान कर सकते हैं। इन प्रकोपों से जन व धन की हानि में कमी हो ही सकती है। आज के इस विज्ञान एवं तकनीकी युग में हानि को कम करने के लिए उन तत्वों एवं प्रभावों के बारे में भविष्यवाणी करना संभव होगा या नहीं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। छोटे-छोटे भौगोलिक क्षेत्रों के लिए मौसमी भविष्यवाणी करना अभी कठिन लगता है तो भी मौसम विभाग आपदाओं की पूर्व सूचना में कुछ तो सहायक सिद्ध हो सकता है। इससे अस्थिर, कमजोर, भूस्खलन, हिमोड़ व ऋतुक्रिया वाले क्षेत्रों को चिंहित कर नदी घाटियों को भौगोलिक क्षेत्रों के आधार पर सावधान तो करवाया जा सकता है।

इसके लिए जरूरी है कि हिमालय से प्रवाहित नदियों, उसकी छोटी-छोटी धाराओं के बारे में तथ्यात्मक जानकारी हमारे पास हो। उसमें ढलानों की अस्थिरता, भूस्खलनों के स्थायित्व, भूआकृतिक, भूगर्भिय संरचना, प्रवाहित जलस्रोतों एवं उस क्षेत्र में मनुष्य के कार्यों के पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन विस्तार से करना चाहिए। उनमें इस आधार पर कार्य नीति बनायी जानी चाहिए।

यह इसलिए भी आवश्यक है कि हिमालय पर्वत श्रृंखला पूरे उत्तर भारत की नदियों को वर्ष पर्यंत पानी देती है इसलिए हिमालय के संरक्षण हमारे राष्ट्रीय एजेंडे का प्रमुख विषय होना चाहिए। हिमालय के क्षरण से अन्य प्राकृतिक बिगाड़ों के अलावा मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ की विभीषिका बढ़ती है और नदियों का तल ऊपर उठता है।

इसलिए हमने सरकार से मांग की है कि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग, चमोली, पिथौरागढ़ आदि जिलों में हुई इस व्यापक जनहानि और विनाश का मूल्यांकन करने के लिए एक उच्चस्तरीय केंद्रीय दल भेजा जाना चाहिए जो इसके भौगोलिक, भूगर्भीय, पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक पहलुओं का व्यापक अध्ययन करे तथा दीर्घकालिक उपायों के साथ-साथ राहत और पुनर्वास के तात्कालिक और दीर्घकालिक मानकों को सुझाए और पूरे हिमालय क्षेत्र के लिए व्यावहारिक कार्यनीति प्रस्तुत करें।

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