मौत का पानी : दीपांकर चक्रवर्ती

17 Sep 2008
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दीपांकर चक्रवर्ती
दीपांकर चक्रवर्ती
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पानी में आर्सेनिक नामक विषैले तत्व की मौजूदगी की ओर उस वक्त लोगों का ध्यान गया, जब 1994-95 में 'द एनालिस्ट' में आपका शोधपत्र छपा, जिस पर 1996 में 'द गार्डियन' में छपे एक लेख में 'द वाटर ऑफ डैथ' (मौत का पानी) शीर्षक से टिप्पणी की गई थी। भूजल में आर्सेनिक विशाक्तता अब पानी को मौत का पानी बना रही है, इंडिया वाटर पोर्टल के लिए दिए गये साक्षात्कार की हिन्दी प्रस्तुति

आपको पहली बार एहसास कैसे हुआ कि पानी में आर्सेनिक की समस्या है?

मैं कई सालों से अमरीका की 5000 एकड़ में फैले एएंडएम यूनिवर्सिटी, टेक्सास में आर्सेनिक की समस्या पर काम कर रहा था, हालांकि यह अध्ययन वैज्ञानिक था। उसी दौरान भारत के बारे में कई अखबारों में इस तरह की रिपोर्ट भी सामने आई कि गांवों में लोग आर्सेनोकोसिस नामक बीमारी का शिकार हो रहे हैं। लेकिन जब मैं 1988 में कलकत्ता घूमने आया, तो जिज्ञासा में पश्चिम बंगाल के नाडिया जिले के कई गावों को देखने गया, जहां के बारे में मैंने खबरें पढ़ी थीं, तब मैंने जाना कि गांव वाले जिस बीमारी से जूझ रहे है, वह भूजल में विषैले आर्सेनिक की वजह से हो रही है। भूमिगत आर्सेनिक विशाक्तता एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है।

आपको यह कैसे लगा कि यह समस्या सिर्फ आर्सेनोकोसिस तक नहीं रहने वाली है, बल्कि बड़े पैमाने पर होने वाली समस्याओं की आहट है।

अगर आप किसी डॉक्टर के पास जाते हैं तो वह कैंसर से मरने वाले मरीज की हालत देखकर जान जाता है, बस ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी है। मैंने उन लोगों की हालत देखी, जो सालों से उस प्रदूषित पानी को पी रहे हैं, ऐसा एक जगह नहीं बल्कि करीमपुर और ऐसे ही बहुत से गांवों के लोग गहरे नलकूपों का पानी पी रहे हैं। लोग कैंसर और क्रोनिक आर्सेनिककोसिस के शिकार हो रहे हैं। बेचारे गरीब गांव वाले तो यह जानते तक नहीं कि वे इतनी खतरनाक बीमारियों के शिकार क्यों हो रहे हैं? बस फिर क्या था - मैं अमेरिका से अपने देश वापस लौटकर प्रभावित गावों में इस बीमारी की जड़ खोजने का फैसला ले लिया। इसने मेरी आत्मा को झिंझोड़ कर रख दिया था और मैंने अपने आप से ही सवाल पूछा कि क्या मेरी सारी ऊर्जा की जरूरत पश्चिमी देशों से ज्यादा अपने देश को नहीं है?

आप वहां से सब कुछ यहां कैसे ले आए?

मैंने शुरुआत जादवपुर विश्वविद्यालय में, फैकल्टी मेम्बर के रूप में की और फिर 1988 में स्वयं 'स्कूल ऑव इन्वायरनमेंटल स्टडीज' की स्थापना की। सबसे पहले तो मैंने कुछ छात्रों को इस काम पर लगाया कि वे 1982- 88 के दौरान भारत और विदेशों में आर्सेनिक के विषैलेपन से हुई घटनाओं के आंकड़ों और रिपोर्ट इकट्ठा करें, आज भी वह काम जारी है। इस काम में मेरी सहायता प्रो केसी साहा ने की, जो उस समय कलकत्ता में 'स्कूल ऑव ट्रोपिकल मेडिसिन' के प्रमुख थे। मैंने प्रो. साहा की ही तरह पश्चिम में गहरा और लगातार अध्ययन करके यह पता लगाया कि भूजल में आर्सेनिक है, हालांकि पश्चिम बंगाल सरकार मुझे, फैकल्टी मेम्बर होने के नाते मीटिंगों में तो बुलाती थी, लेकिन भूजल में आर्सेनिक की समस्या के दावों और सुझावों को नजरअंदाज कर दिया जाता था। इसलिए मैंने 1995 में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की 'आर्सेनिक कॉफ्रेंस' का आयोजन किया, जिसमें 30 देषों ने हिस्सा लिया। तब विदेशी और भारतीय मीडिया वाले हमारे साथ फील्ड से सीधी जानकारी के लिए रामगढ़ क्षेत्र के बरियारपुर, जो बंगाल के 24परगना जिले में है। सीएनएन, बीबीसी, सीबीएस टीवी, आदि चैनलों ने खबर दिखाई, लेकिन चूंकि सरकार मुझसे खुश नहीं थी, इसलिए एक पत्रकार ने तो मुझे 'सीआईए' का एजेंट तक कहा।

अभी भारत में भूजल में आर्सेनिक प्रदूषण की क्या स्थिति है?

पश्चिम बंगाल में स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। हमने जब- जब गांवों का दौरा किया हर बार 2- 3 गांव ज्यादा हो जाते थे। गरीबी और ज्ञान की कमी की वजह से समस्या जारी रहेगी। राज्य सरकारें भी अब समस्या को समझ रही हैं। केंद्र से करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं, लेकिन अभी प्रभावशाली परिणाम नहीं आए हैं। चाहे उत्तर प्रदेश हो या पश्चिम बंगाल हर जगह इसके लिए जागरूकता की सबसे ज्यादा जरूरत है। आर्सेनिक और फ्लोरोसिस दोनों ही पानी को जहरीला बनाते हैं, इससे किसानों में कैंसर फैला रहा है। इस पर तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए।

आपको इस बारे में क्या जानकारी मिली है

असम के धेमा जी और करीमगंज क्षेत्रों से और बिहार के भोजपुर जिले से 2006 में हमारे पास रिपोर्ट मिलीं, जो अब 12 जिलों तक फैल चुकी हैं। झारखंड के साहिबगंज जिले के ज्यादातर भागों में लोग कुंओं का पानी पीने की वजह से आर्सेनिक की समस्या झेल रहे हैं। यह सब मेरी थ्योरी को सिध्द करते हैं।

मणिपुर में 9 में से 4 जिलों में आर्सेनिक संक्रमित पानी है। यहां टयूबवेल की गहराई और आर्सेनिक के बीच कोई व्यवस्थित संबंध नहीं हैं, लेकिन यहां गंगा- मेघना- ब्रह्मपुत्र मैदान की अपेक्षा आर्सेनिक का प्रतिशत ज्यादा है। ऐसे ही उत्तर- पूर्व में भी नदी बेसिन से थोड़ी सी भिन्न स्थिति है।

गंगा-मेघना- ब्रह्मपुत्र में आर्सेनिक की समस्यागंगा-मेघना- ब्रह्मपुत्र में आर्सेनिक की समस्या आर्सेनिक संक्रमित ज्यादातर क्षेत्र या तो गंगा नदी बेसिन के समीप हैं या फिर छोटी नहरों के समीप, पर जैसा आप झारखंड के बारे में बता रहे हैं, ऐसा क्यों है?

शायद इसीलिए कि झारखंड में गांगेय मैदान का एक बड़ा भाग है। गंगा नदी बेसिन में आर्सेनिक खनिज हिमालय से आते हैं और गंगा की बेल्ट में जमा हो जाते हैं। हालांकि सभी नदियां सुरक्षित हैं, लेकिन उसके चारों ओर का क्षेत्र खासकर गंगा की शुरुआती धारा प्रदूषित है। धारा प्रवाह बदले जाने के बाद अब बाईं ओर का छोर दायां बन गया है और यही वह क्षेत्र है जहां भूजल में आर्सेनिक की मिलावट है।

इन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा वर्षा होती है क्या आपको लगता है वर्षा जल संचयन से कुछ राहत मिलेगी? समस्या को कम करने के लिए किये जा रहे दूसरे प्रयासों के साथ इसे कैसे जोड़ा जा सकता है?

वर्षा जल संचयन तो केवल एक ही समाधान है, जबकि बड़े पैमाने पर समस्या से निपटने के साथ- साथ जल संचयन प्रबंधन के अलावा जल नियमों की भी आवश्यकता है, क्योंकि सब जगह एक जैसे समाधान लागू नहीं किये जा सकते। इन सभी क्षेत्रों में पानी तो भरपूर है, बस कमी है तो प्रभावशाली प्रबंधन की। नीति में परिवर्तन और जागरूकता के लिए मिलकर एक साथ काम करने की जरूरत है।

केन्द्रीय भूजल आयोग की रपट बताती है कि देश में 19 राज्यों के 184 जिलों के भूजल में फ्लोराईड की मात्रा उचित सीमा 1.5 मिलीग्राम से ज्यादा है. वहीं देश के चार राज्यों के 26 जिलों के भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा उचित सीमा 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है. फ्लोराईड के खतरे के मामले में राजस्थान सबसे ऊपर है और यहां के 32 जिले पानी में फ्लोराईड की समस्या से पीड़ित हैं जबकि पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला पानी में आर्सेनिक के होने का सबसे ज्यादा शिकार है.

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वर्षा जल संचयनवर्षा जल संचयन क्या दूसरी जगहों से भी भूजल में आर्सेनिक मिले होने की खबरें आने की उम्मीद है? अगर ऐसा है तो कहां से?

हां, खासकर उत्तर- पूर्वी राज्यों से। मुझे लग रहा है कि गंगा- मेघना- ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन के सभी क्षेत्रों से भी इसी तरह की खबरें मिलेंगी इनमें भी खासकर दक्षिणी किनारों पर और दूसरे भागों जो जल निकायों से घिरे हैं, वहां भी ऐसी ही खबरों की उम्मीद, हालांकि वहां समस्या शायद उतनी गंभीर न हो। झारखंड में साहिबागंज जिले का हाजीपुर बिट्टा गांव और उप्र के बनारस से मिली हाल की खबरों से यह साफ हो गया है कि अब समस्या दूर तक फैल चुकी हैं।

आर्सेनिक खत्म करने के लिए वाटर ट्रीटमेंट प्लांट कहां तक कारगर साबित हुए हैं?

अच्छे प्रबंधन और लोगों खासकर गांव वालों की भागीदारी से वे कारगर साबित हो सकते हैं। जैसे कि शिबपुर में बीई कॉलेज में को-ऑपरेटिव के रूप में इसका प्रबंधन किया गया है। दुर्भाग्य से बंगाल हो या बिहार या उप्र सबकी एक ही कहानी है। प्लांट पर करोड़ों रुपया लगाने के बाद भी सब ठप्प पड़े हैं।

कुओं, टयूबवेल और नलों के पानी के नमूनों के लिए आप कौन सी किट का इस्तेमाल कर रहे है।?

मर्क किट

आपके परीक्षण के इस कार्यक्रम में आपकी प्रयोगशाला परीक्षण पद्धति कितना साथ देती हैं?

मेरे संस्थान की प्रयोगशाला में सभी साधन मौजूद हैं और यहां ज्यादातर परीक्षण 'हाई रिजोल्यूशन इंडस्टिवली कपल्ड प्लाज्मा मास स्पेक्ट्रोमेट्री (एचआरआईसीसी- एमएस) का प्रयोग करके किये जाते हैं।

आप विकल्प के तौर पर किसे चुनना पसंद करेंगे- मैदानी परीक्षण या प्रयोगशाला परीक्षण?

जाहिर है, मैदानी परीक्षण को, अगर फील्ड टेस्ट किट के काम करने की गारंटी हो तो। मैं सेम्पलिंग किट पर भी यकीन करता हूं, क्योंकि परीक्षण मैं खुद करता हूं।

समस्या को समझने में आप कहां तक कामयाब रहें?

मैंने कुछ भी नहीं किया है। मुझे लगता है कि यह काम पहाड़ की चोटी पर चढ़ने जैसा है। मुझे तो समस्या को कम करने के साथ- साथ जागरूकता जगाने के लिए भी लड़ना है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की लापरवाही मुझे सबसे ज्यादा खलती है।

पानी में आर्सेनिक के विषैलेपन की समस्या को कम करने के लिए अभी आपका क्या कार्यक्रम है?

इसके लिए कृपया आप हमारी वेबसाइट www.soesju.org देखें, इससे आपको मालूम हो जाएगा कि अभी हम क्या कर रहे हैं?

पश्चिम बंगाल के कई जिलों में भूजल में आर्सेनिक होने की रिपोर्ट जब मैंने दी तो मेरा मजाक उड़ाया गया। भारत सरकार ने तो परवाह नहीं की, जबकि पश्चिम देशों ने मेरे शोध की कद्र की। फिर भी मैंने एक ऐसा संस्थान खड़ा किया, जिसके लिए, उसी के शोध, पत्रिकाओं और पुस्तकालय सामग्री से ही धन भी जुटाया, क्योंकि बाहर से पैसा लेने का मतलब था, षोध पत्रों के प्रकाशन में आजादी छिन जाना, लेकिन अब न केवल हम अपने शोध कार्यों के लिए पैसा जुटा पाते हैं, बल्कि समस्या से पीड़ित गांवों और मरीजों की भी सहायता कर पाते हैं। शायद आपको पता नहीं होगा कि न्यूयार्क टाइम्स ने इस बात को स्वीकार किया कि पहली बार उन्होंने रिपोर्ट फाइल करने के लिए पैसा दिया है। ऐसे पैसे से न केवल हमारा शोध कार्य बढ़ता है, बल्कि पीड़ितों को सहायता भी मिलती है।

आपने आर्सेनिक प्रभावित बहुत से लोगों को राहत पहुंचाई है, आपने जिस तरह से पानी के नमूने लेकर उनका विश्लेशष किया और बहुत से परिवारों को सहायता दी है। नाडिया जिला उसका आदर्श उदाहरण है। क्या आप इस सबका कारण हमारे साथ बांटना चाहेंगे?

स्थिति की गंभीरता को जानने के लिए आपको आर्सेनिक प्रभावित गांवों में जाकर देखना चाहिए। एक ऐसा राज्य, जिसे मानों पानी का वरदान मिला है, वहां एक लड़की सिर्फ इसलिए आत्महत्या करने को मजबूर हुई, क्योंकि उसके टयूबवेल का पानी पीने लायक नहीं है और कोई मददगार भी नहीं है। आर्सेनोकोसिस पीड़ित बच्चों को देखता हूं तो लगता है, बहुत कुछ करना बाकी है। हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। हमारे साथ एक आर्सेनिक प्रभावित लड़का भी है जो शोध कर रहा है, हमें उसकी पढ़ाई के दौरान उसके साथ रहना है।

आज जब हर तरफ स्वार्थ और गलाकाट ग्लैमर प्रतियोगिता का बोलबाला है, ऐसे में आपके द्वारा अपने पुरस्कार की राशि और वेतन को शोध कार्य में लगाना अपने आप में अनूठा उदाहरण है। क्या आप अपने कोई अनुभव हमें बताना चाहेंगे?

मेरा संस्थान एक ऐसे परिवार की तरह है, जो समस्याओं को उखाड़ फेंकने के लिए काम कर रहा है, यहां विद्यार्थी प्रयोगशाला में रात-रात भर जागकर काम करते हैं और गांव के आदर्श मॉडल को साकार करने में सहायता कर रहे हैं। हम केवल पानी का परीक्षण और शोध ही नहीं करते, बल्कि प्रभावित परिवारों को सामान्य जीवन जीने में सहायता भी करते हैं।

मैं यह भी बताना चाहूंगा कि हमने विभिन्न विभागों में पत्रों के साथ रिपोर्ट और फिल्मों की प्रतियां भी भेंजी, लेकिन उनको नजरअंदाज कर दिया गया। इसके बावजूद भी क्या आपको लगता है कि मैं अब भी आर्सेनिक पर काम करूंगा?

खैर! मुझे इस काम से खुशी मिल रही है। जब हम अपने फंड से हर महीने पीड़ित परिवारों या पीड़ितों के आश्रम में सहायता राशि भेजते हैं तो मुझे एक उपलब्धि एक संतोष का अहसास होता है।

प्रस्तुति : मीनाक्षी अरोड़ा



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