मछलियों द्वारा खाद्य सुरक्षा


हिन्दु धर्म पौराणिक कहानियों की बात करें तो पहला अवतार मछली के रूप में ही था। जब सारी पृथ्वी जलमान हो जाती है तब ईश्वर मानवों के आदि पूर्वजों को मछली का अवतार लेकर बचाते हैं। किलकारी मारते बच्चे आज भी ‘मछली जल की रानी है’ सुनाते हैं और हमारे चेहरे खुशी से खिल उठते हैं। आज भी जल परियों और डॉल्फिन की कहानियाँ रुचि पूर्वक सुनी, लिखी और कही जाती हैं। मछलियाँ अनादि काल से हमारी सामाजिक संरचना का हिस्सा रही हैं।

.खाद्य सुरक्षा एवं कुपोषण की लड़ाई में मछलियों को अनदेखा किया जा रहा था परन्तु वर्ष 2012 में खाद्य सुरक्षा पर विश्व समिति ने एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञों के समूह से इस मामले पर अध्ययन करने को कहा। वर्ष 2014 में इस समूह की संस्तुति (एच एल पी. ई. 2014) ने मछलियों की खाद्य सुरक्षा एवं कुपोषण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया। विश्व कृषि एवं खाद्य संगठन के वर्ष 2014 में जारी आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2009 में जीवों से मिलने वाले प्रोटीन का 17% मछलियों से मिलता है। यदि हम वनस्पतियों एवं जीवों से मिलने वाले कुल प्रोटीन की बात करें तो 6.5% मछलियों का योगदान है।

खाद्य सुरक्षा के लिये मछलियाँ भी हैं महत्त्वपूर्ण


यदि हम जीवों से मिलने वाले भोजन के लिये प्रोटीन की बात करें तो मछलियाँ पूरी दुनिया में 4.5 अरब लोगों को 15% प्रोटीन देती हैं। मछलियाँ सभी के लिये महत्त्वपूर्ण हैं चाहे विकासशील देश हो या विकसित देश चाहे शहर हो या गाँव। लाल माँस से होने वाले नुकसान के चलते मछलियों की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है।

मछलियों के प्रोटीन में कई सारे आवश्यक अमीनों अम्ल जैसे लाइसिन एवं मिथिओनिन भी होते हैं। आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे विटामिन डी, ए एवं बी कई आवश्यक लवण एवं धातुएँ जैसे कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयोडीन, जिंक, लोहा एवं सेलेनियम के लिये भी मछलियाँ महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

मछलियों के मूलतः दो स्रोत हैं एक समुद्र से मछली पकड़ना और दूसरा मछली पालना। वर्ष 2011 में विश्व में 173 मिलियन टन मछलियों का कुल उत्पादन हुआ था, जिसमें से पकड़ते समय 7 से 10 मि.टन मछलियाँ छोड़ दी गई थीं और लगभग 12 मि.टन का नुकसान हो गया था। इस तरह 154 मि. टन मछलियाँ भोजन के लिये उपलब्ध थीं। इसमें से 131 मि. टन सीधे खाने में प्रयोग की गई तथा शेष मछली के तेल के उत्पादन एवं मुर्गे एवं मछलियों के आहार के लिये उपयोग में लाई गई।

विश्व में वर्तमान मछली की खपत 18 किलो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2050 में लगभग 215 मिलियन टन मछली का उत्पादन करना होगा जो वर्तमान से लगभग 50% अधिक है।

आपको आश्चर्य होगा कि मछली ही एक ऐसी जीव है जिसके उत्पादन में वृद्धि जनसंख्या में वृद्धि से अधिक है। हरित क्रान्ति के बावजूद चावल के उत्पादन में 3 गुनी वृद्धि हुई है वहीं वर्ष 1950 से मछलियों का उत्पादन 8 गुना बढ़ा है। प्रति व्यक्ति खपत वर्ष 1950 के 6 किग्रा. प्रतिवर्ष से बढ़कर वर्ष 2011 में 18.8 किग्रा प्रति व्यक्ति हो गई है।

मछली उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है। विश्व उत्पादन का 5.68% भारत में होता है। जल कृषि में भी भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है। वर्ष 2013-14 के लिये मछली का कुल उत्पादन 9.58 मिलियन टन रहने का अनुमान था जिसमें से समुद्री 3.44 मिलियन टन तथा अंतर्देशीय क्षेत्र से 6.14 मिलियन टन था। राज्य वार मछली उत्पादन में आन्ध्रप्रदेश 2.01 मिलियन टन, अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह 1.58 मिलियन टन तथा गुजरात 0.79 मिलियन टन के साथ क्रमशः पहले दूसरे एवं तीसरे स्थान पर हैं।

भारत ने वर्ष 2013-14 में 9.83 लाख टन मछली का निर्यात किया जिसका मूल्य लगभग 30213 करोड़ था। इसमें से झींगा मछली (Exotic Shrimp) की एक प्रजाति एल वेन्नामेई ही 20,000 करोड़ की थी।

शहरों की तुलना में गाँवों में अधिक मछली खायी जा रही है। वर्ष 2014 के आँकड़ों के अनुसार, शहरों में 238 ग्राम प्रतिमाह की तुलना में गाँवों में 269 ग्राम प्रतिमाह मछली खाई जा रही है। 100 घरों में से जहाँ गाँवों में 28 घरों में मछली खाई जाती है वहीं शहरों में मात्र 21 घरों में। लक्षद्वीप में सबसे अधिक मछली खायी जाती है लगभग 4 किलो प्रति माह। वहीं केरल में लगभग 2 किलो प्रतिमाह मछली खायी जाती है। जबकि अखिल भारतीय औसत लगभग 250 ग्राम का है।

उत्तर भारतीयों को शायद ही भारत में मछलियों की लोकप्रियता का अनुमान हो। बंगाल में मछली बहुत चाव से खायी जाती है गाँव हो या शहर 10 में से 8 घरों में मछली खायी जाती हैं। केरल में गाँवों की बात करें तो 1000 घरों में से 884 घरों में मछली खायी जाती है वहीं यदि शहरों की बात करें तो प्रत्येक 1000 घरों में से 817 घरों में मछलियाँ भोजन का अंग हैं। गोवा में स्थित गाँवों में तो हर घर में मछली खायी जाती है वहीं शहरों में लगभग 10 में से 9 घरों में मछली बनती है।

.भारत में लगभग 40.6 लाख मछुआरे हैं। सबसे अधिक तमिलनाडु (8 लाख), फिर केरल (6.1 लाख), आन्ध्र प्रदेश (6.0 लाख), पं. बंगाल (3.8 लाख), एवं गुजरात (3.3 लाख) का स्थान है। समुद्री मात्स्यिकी संसाधनों की बात करें तो अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह 1912 किमी समुद्री सीमा के साथ पहले स्थान पर है। अन्य में गुजरात (1600 किमी.), तमिलनाडु (1076 किमी), आन्ध्र प्रदेश (974 किमी) है मछलियाँ कई कारणों से महत्त्वपूर्ण हैं। उत्तम कोटि का प्रोटीन, स्वास्थ्यप्रद वसा, सूक्ष्म पोषक तत्व एवं सबसे महत्त्वपूर्ण है उनके भोजन को दक्षता पूर्वक पोषक तत्वों में बदलना। मछलियों का उत्पादन पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुँचाये बिना हो सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण से बचाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। उनका उत्पादन अनुपयोगी भूमि में करके किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है।

यदि आप दूध पीने के लिये डॉक्टर से सलाह लें तो वे आपको वसा रहित दूध पीने की सलाह देंगे। यदि आप माँस के बारे में पूछेंगे तो बिना वसा वाला माँस खाने को कहा जाएगा। परन्तु वहीं मछलियाँ अपने स्वास्थ्यवर्धक वसा के लिये भी खायी जाती हैं। मछलियों में लम्बी चेन वाले पॉली अनसेचुरेटेड वसा अम्ल (LC-PUFA) होते हैं। ये अम्ल बच्चों के समुचित विकास के लिये आवश्यक हैं। ये हृदय आघात, धमनियों वाले रोग एवं उच्च रक्तचाप से सुरक्षा प्रदान करते हैं। छोटी-छोटी मछलियाँ ऐसे वसा अम्लों की प्रमुख स्रोत हैं। समुद्री मछलियाँ ओमेगा असंतृप्त अम्लों की खान होती हैं। ये अम्ल जैसे डी एच ए मस्तिष्क के विकास में सहायक होते हैं।

जहाँ तक दिये गये भोजन को प्रोटीन में बदलने की क्षमता का प्रश्न है वहाँ मछलियों का कोई मुकाबला नहीं है। मुर्गे जहाँ भोजन का 18% तथा सुअर 13% भोजन को प्रोटीन में बदलते हैं। वहीं मछलियाँ 30% भोजन को प्रोटीन में बदलती हैं। मछलियों को अपने शरीर का तापमान एक समान बनाये रखने की आवश्यकता नहीं होती। दूसरे पानी में तैरने के कारण स्थलचरों की तरह उन्हें मजबूत हड्डियों की भी आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि वे कम भोजन में अधिक लाभदायक प्रोटीन दे सकती हैं।

पर्यावरण के लिये भी मछलियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, चाहे नाइट्रोजन, फास्फोरस का उत्सर्जन हो या कार्बन पद चिन्हों के आकलन की बात मत्स्य उत्पादन में सबसे कम कार्बन उत्सर्जन होता है। मात्र मुर्गी पालन ही उससे थोड़ा कम कार्बन का उत्सर्जन करता है। कुछ मत्स्य तन्त्र तो फास्फोरस एवं नाइट्रोजन के उत्सर्जन के बजाय शोषण करते हैं जिससे पर्यावरण में उनकी मात्रा कम हो।

समेकित एवं संपोषित विकास के लिये मछली उत्पादन सबसे उत्तम माना जा रहा है। विकासशील देशों के लिये कुपोषण से लड़ने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भारत सरकार अपनी कई योजनाओं में सामुद्रिक एवं अंतर्देशीय मात्स्यिकी तथा जल कृषि को बढ़ावा दे रही है। देश में कई बेकार पड़े जल निकाय हैं जिनका मछली पालन में उपयोग हो सकता है। उचित तकनीक, वैज्ञानिक शोध एवं बेहतर बाजार मछली पालन को भविष्य के लिये और अधिक उपादेय बना सकता है।

सम्पर्क


डॉ. ज्ञानेन्द्र मिश्र
1 बी/3, एन पी एल कॉलोनी, न्यू राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली 110060, मो. : 9811753626; ई-मेल : mishrag2510@yahoo.com)


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