मध्य प्रदेश में इन्दौर, जबलपुर, ग्वालियर, उज्जैन तथा धार कला के मुख्य केन्द्र थे। यहाँ से विद्यार्थी चित्रकला की शिक्षा ग्रहण करते थे और ललित कला में मुम्बई से परीक्षा देकर डिप्लोमा प्राप्त करते थे। इन सभी केन्द्रों में इन्दौर का कला मन्दिर (शासकीय ललित कला संस्थान) प्रमुख है। जिसके संस्थापक स्वर्गीय दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर थे। इन्होंने सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स मुम्बई से कला की शिक्षा प्राप्त की। इसी दौरान आप होल्कर सरकार के शिक्षा अधिकारी को प्रभावित कर इन्दौर में 1927 में फाइन आर्ट स्कूल स्थापित करने में सफल रहे। यहाँ से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों ने मुम्बई की परीक्षा में सफलता प्राप्त की।
स्वाधीनता के पश्चात यहाँ के कलाकारों में नई चेतना देखी गई। यूरोप की नवकला के प्रभावों को आत्मसात करते हुए नए प्रयोग किये जाने लगे। सर्वश्री एन.एस. बेन्द्रे, डी.जे. जोशी, विष्णु चिंचालकर, लक्ष्मी सिंह राजपूत, चन्द्रेश सक्सेना तथा श्रेणिक जैन प्रभाववादी चित्रांकन में अग्रसर हुए।
इस समय प्रभावादी शैली अधिक आकर्षक होने पर दृश्य चित्रों और व्यक्ति चित्रण संयोजनों में न्यूड स्टडी, लाइफ स्टडी में मांसलता आई। हुसैन, बेंद्रे, रजा जैसे चित्रकार मालवा से निकलकर मुम्बई पहुँचे और अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कलाकार बने।
हुसैन और रजा ने प्रारम्भिक दौर में ही दृश्य चित्रण किया। फिर उनकी निजी शैलियों में परिवर्तन हुआ। रजा ने अमूर्त शैली में और हुसैन ने घोड़ों के चित्रण में अपनी पहचान बनाई। आप दोनों ही विदेश में जाकर बस गए और भारत की कला को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। बेन्द्रे ने भारत में ही रहकर अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। आपने बिन्दुवाद और प्रभाववादी शैली में अनेकों विशुद्ध दृश्य चित्र बनाए। आप प्रयोगधर्मी कलाकारों में से एक हैं। आपका सरोकार रंगों की रंगतों से है अतः आपको रंगों का चित्रकार कहा जाता है।
इन्दौर में कलात्मक गतिविधियों के विकास के लिये ‘फ्राइडे ग्रुप’ और ‘स्पेक्ट्रम- ग्रुप’ का संगठन किया गया। इसमें समय-समय पर प्रदर्शनी और कलात्मक चर्चाएँ तथा चित्रों का विश्लेषण किया जाता था।
इन्दौर में डी.जे. जोशी, विष्णु चिंचालकर और श्रेणिक जैन निसर्ग से जुड़े चित्रकारों के रूप में जाने जाते हैं। जबलपुर के श्री अमृतलाल वेगड़ तथा स्व. श्री राममनोहर सिन्हा दोनों ही शान्ति निकेतन से दीक्षित कलाकार है। जिन्होंने नर्मदा सौन्दर्य को चित्रण का विषय बनाया। अमृतलाल वेगड़ ने ‘कोलाज’ को तथा राममनोहर सिन्हा ने मसि (स्याही) और जल रंग के माध्यम से दृश्य चित्रण तथा प्रकृति चित्रण किया। इसी प्रकार हरि भटनागर ने एल्युमिनियम फॉइल से एम्बोस चित्रण कर स्वयं के मुहावरे रचे।
भोपाल में मु्स्लिम शासन होने से निसर्ग चित्रण अवश्य हुआ। डी.डी. देवलालीकर तथा मुकुन्द सखाराम भाण्ड के समकालीन चित्रकार अब्दुल हलीम अन्सारी, भोपाल के सैरा चित्र बना रहे थे। भारत विभाजन के पश्चात स्व. श्री सुशील पाल भोपाल आये। आप कोलकाता स्कूल ऑफ आर्ट से दीक्षित थे। आपने तेल रंगों (Oil colour) से सैरा चित्र (Landscape) बनाये। भोपाल में क्रियाशील वरिष्ठ दृश्य चित्रकारों में सिचदा नागदेव, डॉ. लक्ष्मीनारायण भावसार, सुरेश चौधरी और जी.एल.चौरागड़े प्रमुख हैं। उज्जैन में डॉ आर.सी. भावसार, श्री कृष्ण जोशी और डॉ. शिवकुमारी जोशी वर्तमान में क्रियाशील हैं। ग्वालियर में चन्द्रेश सक्सेना, एस.एल.राजपूत, देवेन्द्र जैन, श्री मोहिते आदि प्रमुख कलाकार रहे हैं। इसी प्रकार देवास के अफजल पठान और शाजापुर के सत्येन्द्र आदि कलाकारों ने भी दृश्य चित्रण में कार्य किया। अतः इन मूर्धन्य कलाकारों के कलाकर्मों तथा इनकी उपलब्धियों से अवगत कराना मुख्य उद्देश्य रहा है।
डी.जे. जोशी (जीवन परिचय)
मध्य प्रदेश के स्थापित कलाकारो में से श्री डी.जे. जोशी अर्थात देवकृष्ण जटाशंकर जोशी ने स्वयं की पहचान रूपाकार और विशिष्ट शैली के द्वारा बनाई है। मालवा के रंग, निमाड़ के आकार, प्रभाववादी तकनीक आपके चित्रों की विशेषता रही है। चित्रकला के अलावा शिल्पकला में भी आपका हस्तक्षेप रहा है। कला संसार में सौन्दर्य की अनुभूति महेश्वर, ओंकारेश्वर इन्दौर, भोपाल एवं अनेकों स्थानों के दृश्य चित्रों में होती है। आप राष्ट्रीय स्तर के कलाकार के रूप में जाने जाते हैं। आपका जन्म नर्मदा के तट पर बसे महेश्वर में 07 जुलाई, 1911 को हुआ। आपके पिता श्री जटाशंकर जोशी श्रेष्ठ ज्योतिषाचार्य, पुरोहित-कार्य में दक्ष ब्राह्मण थे। महेश्वर के छोटे से कस्बे में निवास करते थे। श्री.जे. जोशी का बाल्यकाल यही व्यतीत हुआ। आप ब्राह्मण धर्म के होने के बावजूद आपमें धार्मिक गुण के लक्षण नहीं दिखाई देते थे। आपका मन मस्तिष्क प्रकृति के सौन्दर्य-पान में व्यक्त रहा। आपका अलमस्त स्वाभाव, सौन्दर्य के प्रति लगाव ने कलाकार बनने में मदद की। कसरत करना, कुश्ती लड़ना, इधर-उधर घूमना, रंगीन पत्थरों का संग्रह, मिट्टी की मूर्तियाँ बनाना और खिलौने बनाना आपके विशेष शौक में शामिल था। नर्मदा के विशाल प्रवाह में तैर कर नहाने में एक अलग ही आनन्द आता था।
बाल्यकाल में ही वे नर्मदा (महेश्वर) के विशाल घाट, चौड़ा पाट, मजबूत और बड़ा दुर्ग, निमाड़ की चमकीली धूप से प्रभावित हो चुके थे। यह अल्हड़पन की दिनचर्या अधिक समय तक नहीं चल सकती थी। अतः परिवार वालों ने उनकी रुचि देखकर बड़ौदा भेजने का तय किया। माँ द्वारा दिये गए 5 रूपए लेकर वे निकल पड़े। लेकिन उन दिनों भी 5 रूपए में बड़ौदा पहुँचना आसान न था। वे इन्दौर जाकर अपनी बहन के घर ठहर गए। वहाँ उन्हें ज्ञात हुआ कि जिस प्रकार की शिक्षा बड़ौदा में दी जाती है उसी प्रकार की कला शिक्षा की व्यवस्था इन्दौर में ही है। अतः बडौदा न जाकर वे इन्दौर में ही रूक गए और 1928 में ‘इन्दौर स्कूल ऑफ आर्ट्स’ में प्रवेश ले लिया। इस समय चित्रकला विद्यालय के संस्थापक प्राचार्य दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर थे। उनकी कार्य-क्षमता की प्रसिद्धि मुम्बई तक थी।
यह समय ललित कला संस्था के लिये स्वर्णिम समय था। जब आपकी कला शिक्षा का प्रारम्भ ललित कला संस्थान में हुआ तब श्रेष्ठ कलागुरू श्री देवलालीकर, प्राचार्य के रूप में पदस्थ थे और श्रीधर नारायण बेन्द्रे, मनोहर जोशी, सोलेगांवकर, मकबूल फिदा हुसैन और विष्णु चिंचालकर इस संस्थान में कला अध्ययन में रत थे। श्री डी.जे जोशी की प्रसन्नता का ठिकाना न था क्योंकि श्रेष्ठ कला विद्यार्थियों का सानिध्य प्राप्त हुआ। महेश्वर में प्राथमिक कक्षा की परीक्षाएँ बमुश्किल उत्तीर्ण कर पाते थे। किन्तु इन्दौर में इस संस्था में प्रवेश पश्चात दिन-प्रतिदिन उनकी कार्य क्षमता में वृद्धि होने लगी। उनके कलात्मक अनुभव, कल्पनाएँ चित्रों के रूप में साकार होने लगे। उस समय विद्यार्थी इन्दौर के ललित कला संस्थान में अध्ययन करते थे और मुम्बई परीक्षा देने जाना पड़ता था। सन 1931 में आपने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स की तृतीय वर्ष की परीक्षा संरचना (Composition) में विशेष योग्यता हासिल की। यह प्रवाह यहीं नहीं रुका।
सन 1932 में चतुर्थ वर्ष में ‘फुलफिगर फ्रॉम लाइफ’ में विशेष योग्यता के साथ नकद पुरस्कार राशि प्राप्त की और डिप्लोमा की अन्तिम परीक्षा में सर्वप्रथम आये। एक छोटे से कस्बे के विद्यार्थी का कला के क्षेत्र में अग्रणी आना कोई सामान्य बात न थी। वे अपने चित्रों को प्रदर्शनी के लिये भेजते रहे और पुरस्कार पाते रहे। उन्हें अनेकों पुरस्कारों से नवाजा गया। यह तब तक चलता रहा जब तक उन्होंने स्वयं कृतियों को प्रदर्शित किये जाने हेतु बन्द नहीं कर दिया। आपकी एकल प्रदर्शनियाँ भी सफल होती थीं। कठिनाइयों से खेलने का उनमें अदम्य साहस था। विषम परिस्थितियों में भी वे मन लगाकर द्विगुणित वेग से कार्य करते थे। वार्षिक चतुर्थ वर्ष में आपने जे.जे. स्कूल में डेकाइंट विषय पर चित्र बनाया। इस चित्र में रात का विषय था। इस दृश्य में रात में डाकू द्वारा बारात को लूटे जाने का उल्लेख था।
जंगल में बारात का धन को मशाल के प्रकाश में लूटने का प्रयास दिखाई देता है। एक मुख्य डाकू भागने की तैयारी में है और बाराती डाकू का पाँव पकड़े भागने न देने के प्रयास में हैं। इस चित्र की विशेषता यह है कि इसमें सफेद रंग का अभाव है उसके स्थान पर लेमन येलो, ओरेंज का प्रयोग किया है। अंधेरे के लिये काले रंग का प्रयोग किया है। अन्धकार में प्रकाश का प्रयोग समुचित ढंग से किया गया है। इस चित्र ने तहलका मचा दिया। डिप्लोमा कर रहे सभी छात्रों ने इस चित्र की सराहना की। 1934 में पहली बार मद्रास चित्र प्रदर्शनी में भेजा। इस कार्य के लिये श्री बेन्द्रे ने उन्हें प्रोत्साहित किया। आपने डेकोरेशन से सम्बन्धित अनेकों कॉमर्शियल कार्य किये।
डी.जे. जोशी का यह वह समय था जब भारत में पश्चिमी आन्दोलनों का पर्दापण हो चुका था। यूरोप में आधुनिक कला चिन्तन तेजी से गति पकड़ रहा था। भारतीय कला जगत में आधुनिक कला की भूमिका का गगनेन्द्र, रवीन्द्र और अमृता शेरगिल ने नव-चिन्तन का परिचय दिया। रामकिंकर, हुसैन, विनोद बिहारी मुखर्जी की तरह डी.जे. जोशी ने विभिन्न आन्दोलनों से मुक्त निजी रचना बोध कराया। यही कारण था कि वे निजी शैली में स्वयं की दृष्टि से चित्रों में सजीवता ला सके। अभिव्यक्ति की सजीवता, श्रेष्ठ कलाकृति का सनातन गुण है। भारतीय आधुनिक कला में डी.जे. जोशी भारतीय परम्परा में प्रभाववादी गुणों को लाए और नवीन कला मूल्यों की स्थापना कर समकालीन सजीव कला कर्मों की सार्थकता का प्रमाण दिया। श्री धर नारायण बेन्द्रे और हुसैन जैसे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकारों में डी.जे.जोशी का नाम लिया जाता है। आपका सम्पूर्ण जीवन मालवा में ही व्यतीत हुआ। आधुनिक समय में इस प्रदेश की एक महत्त्वपूर्ण हस्ती के रूप में प्रतिनिधित्व किया।
आप चित्रकार के अलावा शिल्पी के रूप में भी जाने जाते हैं। शिल्पकार होने की पहचान धार के श्रेष्ठ शिल्पी रघुनाथ फड़के ने की। श्री फड़के जी को स्वयं की सहायता के लिये किसी होनहार कला छात्र की आवश्यकता थी। अतः वे इन्दौर स्कूल ऑफ आर्ट में आए और विद्यार्थियों का कार्य देखा। वहीं पर डी.जे. जोशी द्वारा बनाये गए वेस्ट (मॉडल) ने आकर्षित किया। श्री फड़के जी ने इस छात्र को अपने साथ धार ले जाने की इच्छा व्यक्त की। साथ ही कलात्मक कार्य में सहायता करने के लिये रुपए 100/- माहवार देने का आग्रह किया। आपने इस कार्य को सहर्ष स्वीकार किया। उनके आग्रह को स्वीकार कर आपने दो वर्ष तक क्ले मॉडलिंग में उनके सानिध्य में रहकर शिल्प कला में पारंगत हुए। इसके पश्चात आपने जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट, बॉम्बे ज्वाइन किया। चतुर्थ वर्ष में क्ले मॉडलिंग कक्षा में प्रवेश लेकर छः माही परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान मिला। क्ले मॉडलिंग की शिक्षा अधूरी छोड़ कर लक्ष्मी कला- भवन के प्रमुख के रूप में कार्य किया। आपकी प्रमुख शिल्प कृतियों में काम के क्षण, माखनलाल चतुर्वेदी का शिल्प, रिलीफ और अर्द्ध-रिलीफ, त्रिआयामी तथा चतुर्थ आयामी के रूप में बनाये। इस प्रकार आप प्रसिद्ध चित्रकार और मूर्तिकार दोनों ही थे। दृश्यकला में विशेष योग्यता थी। आप अवनी कला शैली के लिये जाने जाते थे। कला शैली में रंगों के कतरे और बोल्ड स्ट्रोक आपकी पहचान थी। नर्मदा की तरह, जीवन भर रूपाकारों रेखाओं की अन्तः सलिता बहाते चले गए। आप बहुलतावादी चित्रकार रहे। आपने पल्प पेपर मेशी, रिली, सीमेंट, मार्बल, कांसा, जल रंग, तेल रंग, पेस्टल-सूखे, स्केच पेन, पोस्टर आदि सभी माध्यमों में कार्य किया। ग्राम्य बाला, वार्सोवा, महेश्वर, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का पोर्ट्रेट, दो बंजारा महिला, आदिवासी परिवार, कुमारिन, फ्लावर पॉट, पिछोरा झील इनके प्रमुख चित्रों में से एक हैं। नेमावर नाम लैण्डस्केप इनका अन्तिम चित्र है।
जोशी जी ने धार में लगभग 15 वर्ष व्यतीत किये। प्रारम्भिक ढाई-तीन वर्ष फड़के के सहायक के रूप में और उसके बाद धार सरकार द्वारा स्थापित ‘लक्ष्मी कला भवन’ के संस्थापक प्राचार्य के रूप में। रियासतों के विलीनीकरण के बाद सन 1952 में श्री डी.जे. जोशी का स्थानान्तरण स्कूल ऑफ फाइन आर्ट, इन्दौर में कर दिया गया। जहाँ कि उन्होंने कला अध्ययन किया था। यहाँ पर आधुनिक कला की समझ रखने वाले श्री विष्णु चिंचालकर के साथ कला शिक्षक के रूप में कार्य किया, जो कि आप फ्राइडे ग्रुप के संस्थापक सदस्य थे।
श्री डी.जे. जोशी को कला साहित्य में कभी रुचि नहीं रही। अतः वे चिन्तक कलाकार तो नहीं थे बल्कि वे सृजन सामर्थ्य के गूढ़ चितेरे अवश्य थे। आपको बेन्द्रे जैसे मनन चिन्तनशील चित्रकार का छात्र जीवन धार और मुम्बई में भी लगातार सम्पर्क बना रहा। बेन्द्रे के मशविरों का डी.जे. जोशी पर प्रभाव पड़ा और कला कर्म में यह क्लिष्टता से दूर सहज अभिव्यक्ति कर पाए।
डी.जे. जोशी के व्यक्तित्व की यह विशेषता रही है कि जो भी विचार उनके मन में जगह पा सका, उनके व्यक्तित्व का रंग लेकर नया रूप धारण कर लिया। भू-दृश्य अकेले हो या संयोजन दोनों में ही समान रूप से विद्यमान है। प्रारम्भ में आप इम्प्रेशनिष्ट कलाकार थे। आपमें पाश्चात्य वस्तुपरकता और पौर्वात्य चिन्तनपरकता विद्यमान थी। 1981 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा प्रदान किये प्रशस्ति पत्र में कहा गया है श्री जोशी की कला मनुष्य और प्रकृति के बीच एक सघन रिश्ता खोजती है। आधुनिक दृष्टि की सम्पन्नता के साथ ही लोक जीवन की स्थानिक आंचलिकता में रची बसी उनकी कला आस-पास के जीवन में सक्रिय भागीदारी का एहसास कराती है। भू- दृश्यों के प्रभाववादी ऐन्द्रिक संस्कार उसमें शैलीगत सघनता और चटख रंग संघातों से प्रतिकृत होते हैं। उनकी कला सहज सामाजिक और जनजीवन के प्रसंगों को रचती हुई उनकी रंग विविधता और रैखिक प्रखरता से युक्त है।
जोशी जी चित्रकार तो थे ही प्रमुख रूप से दृश्य चित्रकार दृश्य में मल्टिपल व्यू और मल्टीनैरेशन पद्धतियाँ भी अपनाई गई हैं। ‘व्हीट प्रोडक्शन और गाँव का सबेरा’ इसी पद्धति में बने प्रमुख चित्रों में से एक हैं। आपके दृश्य चित्रों में विस्तार दिखाई देता है दूर जाते पुल को वे 75 फीट ऊँचाई से देखते प्रतीत होते हैं। आपके चित्रों में प्रभाववादी शैली स्पष्ट दिखाई देती है। आपने वानगाफ के स्ट्रोक से प्रेरित हो चित्रों में प्रयोग किया।
आप चित्रकार तो थे ही साथ ही मूर्तिकार भी थे। उन्होंने अनेकों चल-अचल मूर्तियों का निर्माण किया। विशेषकर सीमेंट, प्लास्टर और कांसे में ढली मूर्तियाँ। इसके अलावा पेपर मेशी में भी कार्य किया। घुड़सवार झाँसी की रानी, मालवी देहाती, महावीर प्रसाद द्विवेदी (कांसा), पुलिस शहीद स्मारक, नेहरू प्रतिमा, अहिल्या बाई, निराला, के.सी.नायडू (सीमेंट), यशवन्त राव होल्कर (कांसा) और पं. माखनलाल चतुर्वेदी इनके प्रमुख शिल्पों में से हैं।
आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और अपनी निजी कला शैली से अनेकों पुरस्कार और सम्मान को प्राप्त किया। साथ ही समाज को कला की धरोहर प्रदान की जो कि अनेक स्थानों पर संग्रहित है। इस प्रकार कला जगत में सर्वोच्च स्थान बनाने में स्वयं के कला कार्यों में प्रयासरत रहे और 24 मार्च, 1984 को इन्दौर में मृत्यु को प्राप्त हुए।
विशुद्ध दृश्य चित्रण परम्परा में आपका नाम प्रमुखता से आता है। इन्दौर के ललित कला महाविद्यालय में प्राचार्य पद पर रहकर अनेकों कलाकारों का मार्ग प्रशस्त किया। वहाँ से अनेकों राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय कलाकार निकले।
स्व. श्री डी.जे जोशी का संक्षिप्त परिचय (जन्म 07, जुलाई, 1911 एंव मृत्यु 24 मार्च, 1984)
जन्म- 07 जुलाई, 1911 महेश्वर मध्य प्रदेश में
शिक्षा
1. सामान्य शिक्षा बहुत कम, नानाजी भुजंग और पिताजी का कला पर प्रभाव
2. 1928 से 1933 तक देवलालीकर के सानिध्य में कला स्कूल, इन्दौर।
3. 1937- श्री रघुनाथ फड़के के सानिध्य में मूर्ति कला सीखी।
4. 1939- ललित कला संस्थान लक्ष्मी कला भवन के प्रथम प्राचार्य।
5. 1952 से 1988- तक कला मन्दिर, इन्दौर (शासकीय ललित कला संस्थान, इन्दौर में सेवानिवृत्ति तक प्राचार्य पद पर रहे।)
6. सहयोगी शिक्षक- माधव शान्ताराम रेगे, विष्णु चिंचालकर, एम. टी. सासवड़कर, रमेश दुबे, चन्द्रेश सक्सेना तथा श्रेणिक जैन।
7. कला विषय में स्वयं के निवास स्थान स्टूडियों कम गैलरी का निर्माण
उपलब्धियाँ
1. 1961 सरस्वती पत्रिका के शताब्दी समारोह के अवसर पर मैथिलीशरण गुप्त द्वारा सम्मानित।
2. 1975- मध्य प्रदेश शासन द्वारा ‘उत्सव 75’ के अवसर पर सम्मानित।
3. 1977-मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा डी.जे. जोशी प्रसंग में प्रदर्शनी और सेमिनार का आयोजन कैम्ब्रिज द्वारा ‘Man of Achievement’ आटोबायोग्राफी प्रकाशित।
4. 1978- Ph.D (शोध पत्रोपाधि) शासकीय ललित कला अकादमी, इन्दौर 1980-81- मध्य प्रदेश शासन द्वारा निर्मित संस्कृति समिति में सदस्य 1981- मध्य प्रदेश शासन द्वारा शिखर सम्मान भारत भवन, भोपाल श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा अलंकृत
5. 1982-83 एवं भारत सरकार द्वारा फेलोशिप
6. 1983-84- मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा उनके बहुरंगी रेखांकन का रंगीन छापा प्रकाशित
7. 1977- कैम्ब्रिज से मैन ऑफ अचीवमेंट के 1977 के संस्करण में जीवनी प्रकाशित
पुरस्कार
1. 1931-32- संयोजन के लिये पुरस्कार, जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई में पोर्ट्रेट के लिये प्रथम पुरस्कार
2. 1935- ब्राँज मेडल- AIFACS न्यू दिल्ली
3. 1935- मद्रास फाइन आर्ट सोसायटी द्वारा Set of painting पुरस्कृत
4. 1932, 1936-37 मूर्ति शिल्प में ब्राँज मेडल- राज्य प्रौद्योगिकी और कृषि प्रदर्शनी
5. 1937- बाम्बे आर्ट सोसायटी पुरस्कार
6. 1943- महाराजा गायकवाड़ बड़ौदा कैश अवार्ड
7. 1944- मध्य भारत एक्जीबिशन, इन्दौर ‘Bager & Udaipur’ best painting award
8. 1946- स्कूल ऑफ आर्ट नागपुर ‘Marmada at Madleshwar’
9. 1947. गवर्नर्स अवॉर्ड बाम्बे आर्ट सोसायटी ‘Vegetable Market’
10. 1949- गवर्नरस अवार्ड- साउथ इंडियन सोसायटी ऑफ पेंटर इग्मोर मद्रास ‘Boat’
11. 1950- टाइम्स ऑफ इण्डिया अवार्ड ‘bridge buying bangles’
12. 1950- स्वर्ण पदक- इण्डियन आर्ट अकेडमी, अमृतसर
13. 1950- स्वर्ण पदक- फाइन आर्ट एण्ड क्राफ्ट एक्जिबिशन, शिमला
14. 1951- स्वर्ण पदक- मध्य भारत सरकार द्वारा मूर्तिकला के लिये
15. 1953- प्रथम पुरस्कार- पंजाब शासन द्वारा ‘ओंकारेश्वर’ के लिये सिल्वर ट्रॉफी एवं कैश अवार्ड
16. 1954- स्वर्ण पदक- त्रिवेन्द्रम ‘Festival’
17. 1955- ‘A Sketch’ के लिये प्रथम नेशनल एक्जिबिशन अवार्ड
18. 1959- विशिष्ट स्वर्ण पदक ‘शकुन्तला’ के लिये ऑल इण्डिया कालिदास प्रदर्शनी, उज्जैन
प्रदर्शनी
1. 1947, 1949 एकल प्रदर्शनी मुम्बई और जहाँगीर आर्ट गैलरी
2. 1951 और 1979 मुम्बई समूह श्रेणिक जैन के साथ- बाम्बे आर्ट सोसायटी द्वारा आयोजित प्रदर्शनी
3. 1981- एकल प्रदर्शनी- रायपुर
4. 1982- मध्य प्रदेश उत्सव नई दिल्ली नर्मदा पर चित्र प्रदर्शित
5. 1983- उनके जन्मदिवस के अवसर पर रितु फलक इन्दौर
6. 1984- जन्म दिवस के अवसर पर …..और गैलरी मुम्बई
7. 2006- जहाँगीर आर्ट गैलरी मुम्बई में ‘मास्टर स्ट्रोक’ कला प्रदर्शनी
संग्रह
सरस्वती प्रेस इलाहाबाद, कला भवन वाराणसी, पिलानी संग्रहालय , सीबा फार्मेसी मुम्बई, सागर पुलिस सेंटर, आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज इन्दौर, कला वीथिका ग्वालियर, राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली, एम.जी.एम. हॉस्पिटल इन्दौर, मध्य प्रदेश सूचना प्रकाशन विभाग, मध्य प्रदेश कला परिषद भोपाल, भारत भवन भोपाल, भोज अकादमी भोपाल, एयर इण्डिया मुम्बई, डिफेंस अकादमी दिल्ली, इन्दौर, ग्वालियर और टेकनपुर के केन्द्रीय सीमा सुरक्षा बल आदि सार्वजनिक संग्रह। इसके अलावा रानू मुखर्जी कोलकाता, बिड़ला निवास मुम्बई, नीमकर संग्रह लुणाला, भूतपूर्व गृह सचिव एल.पी.सिंह नई दिल्ली, महारानी उषा राजे इन्दौर, मुम्बई, स्लेसिगर्स संग्रह मुम्बई, उप वित्त सचिव श्री सूद भोपाल आदि के व्यक्तिगत संग्रहों में तथा विदेशों में जापान, सोवियत संघ, अमरीका, कनाडा, स्विट्जरलैंड आदि में कई सार्वजनिक और व्यक्तिगत संग्रह में कलाकृतियों के संग्रह हैं। प्रमुख संग्रह निजी कला वीथिका इन्दौर में है।
प्रकाशन और प्रशस्तियाँ
हिन्दी अंग्रेजी की कई पत्र पत्रिकाएँ जिनमें प्रमुख हैं
हर्मन गर्टज की पुस्तक- इण्डिया, रामचन्द्र राव की पुस्तक- इण्डियन मॉडर्न आर्ट, कंटेम्परेरी आर्टिस्ट बुक्स मद्रास और मध्य भारत कांग्रेस का इतिहास
पूर्वग्रह, दिनमान ...वीकली (अनेक बार चित्र सील), 2500वीं बुद्ध जयन्ती समारोह नई दिल्ली रूपलेखा- आयेफेक्स प्रकाशन, कलावार्ता स्मारक शिल्प
महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रतिमा (कांसा) 1961, पुलिस, शहीद स्मारक भोपाल (1961) एवं ग्वालियर निराला प्रतिमा (कांसा) इलाहाबाद, नेहरू प्रतिमा बड़वानी अहिल्याबाई प्रतिमा इन्दौर, सी.के.नायडू प्रतिमा सीमेंट इन्दौर, यशवन्त राव होल्कर प्रतिमा कांसा इन्दौर, पं. माखनलाल चतुर्वेदी (रिलीफ) खण्डवा 1984

गुरूजी के नाम से जाने-जाने वाले स्व. श्री विष्णु चिंचालकर मालवा के प्रमुख कलाकारों में से एक हैं। जिन्होंने बिम्बात्मक प्रवृत्ति को अपना माध्यम बनाया। आप प्रकृति प्रेमी थे, प्रकृति से प्राप्त विभिन्न प्रतिमानों से कला के नवीन आयामों की खोज में प्रयत्नशील रहते थे। आपकी कला में निसर्ग के समीकरण और विश्लेषण दिखाई देते हैं। इन्ही विशेषताओं के कारण आपको ‘शिखर सम्मान’ जैसी उपलब्धि प्राप्त हुई।
आपका इस संसार में पदार्पण महत्त्वपूर्ण दिवस 05 सितम्बर, 1917 को देवास जिले के आलोट ग्राम में हुआ था। यह दिन शिक्षक दिवस के रूप में जाना जाता है। अपने वैयक्तिक गुणों के कारण गुरूजी के नाम से जाने जाते हैं। आपकी तीन बहनें और एक भाई है। आपके पिता श्री दिनकर चिंचालकर राजकीय ऑफिस में अकाउटेंट के पद पर थे। माँ आनन्दी बाई एक खुशमिजाज, मितव्ययी घरेलू महिला अपने पति की तनख्वाह में पूरा करने वाली थी। पिता दिनकर राव की आदत में दैनिक उपयोग की वस्तुएँ जैसे धागा, कैंची, पेपर, पंसारी की दुकान से बचे पैकेट आदि को फिर से उपयोग में लाना शामिल था। यही आदतें श्री विष्णु चिंचालकर की आदतों को प्रभावित करती रहीं। इनकी पत्नी शालिनी एक पुत्र दिलीप और पुत्री तारा है। इनका पारिवारिक वातावरण स्वस्थ मानसिकता वाला था।
इनका घरेलू वातावरण कला से ओत-प्रोत रहता था। आपका मानना है कि जो भी प्रकृति ने बनाया वह सम्पूर्ण कला है। प्रकृति के प्रतिबिम्ब पूरी तरह से चित्र हैं। ये प्रतिबिम्ब घर के प्रत्येक कोने में रखी वस्तुओं में दिखाई देते हैं। द्वार पर लगा एक वन का दृश्य, पेड़ के तने से बना स्टूल तथा आलमारी में रखी ‘West to best’ कलात्मक रूप अनायास ही अपनी ओर खींचते हैं।
श्री विष्णु का बचपन देवास में बीता और प्रारम्भिक शिक्षा देवास में हुई। आपने निकटतम मित्र बच्चू सालुंखे और गोविन्द जोकारकर के साथ स्काउट संघ में भाग लिया। वहीं से वे प्रकृति के समीप आये।
आपने माध्यमिक और हाईस्कूल की परीक्षा देवास में ही पास की। इसके बाद ही कला शिक्षा लेने के लिये गम्भीरता से विचार किया। मैट्रिक्यूलेशन के पश्चात आपको सन 1934 में कला अध्ययन के लिये इन्दौर श्री डी.डी. देवलालीकर के संरक्षण में भेजा। ललित कला स्कूल के चार प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं-
1. श्री डी.जे. जोशी
2. श्री एन.एस.बेन्द्रे
3. श्री मकबूल फिदा हुसैन
4. श्री विष्णु चिंचालकर
श्री जोशी. एन.एस.बेन्द्रे और हुसैन एक वर्ष सीनियर थे। यह समय एक ऐसा सन्धि काल था जहाँ नया आकार ग्रहण करने का उतावलापन था तो पुराना अपना वर्चस्व जमाने के लिये संघर्ष कर रहा था। कदाचित यहीं से सभी ने अपनी-अपनी राह चुनी और अलग हो गए।
जिस समय कला की शिक्षा ले रहे थे उस समय कला मन्दिर के प्राचार्य श्री दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर थे। इस दौरान आपने दृश्य चित्रण और पोर्ट्रेट निर्माण में ऐसी दक्षता प्रदर्शित की कि उनके शिक्षक को कभी करेक्शन की आश्यकता महसूस नहीं हुई। आपने प्रारम्भिक चित्रों में रेखा की सादगी और शक्तिमता के लिये मेहनत की। इन रेखाओं का प्रभाव हुसैन के चित्रों में देखने को मिलता है।
आपने सन 1941 में जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स मुम्बई से चित्रकला में डिप्लोमा किया। वहाँ का असंवेदनशील माहौल आपको पसन्द नहीं था। फिर भी अपनी लगन और मेहनत के बल पर आपने शिक्षण कार्य पूर्ण किया।
इसके पश्चात कुछ समय देवास के मिडिल स्कूल में कुछ समय तक अध्यापन कार्य किया और 1947 में इन्दौर आये। आप अखिल भारतीय चित्रकला प्रतियोगिता में भाग लेने गए। मॉडल चित्रण में आपको शीर्ष पुरस्कार प्राप्त हुआ। श्री चिंचालकर जी ने देवास के मिडिल स्कूल में अध्यापन का कार्य किया। 1947 में इन्दौर आने के पश्चात राजनैतिक पार्टियों के लिये पोस्टर्स तैयार किये। इसी समय देवास के महाराजा जो कि कला के प्रति रुचि नहीं रखने वाले थे, उनका कार्टून, तैयार किया। जिसका काफी विरोध हुआ और उन्हें देवास से बाहर जाने का आदेश दे दिया। इसके पश्चात वे चार वर्षों तक वापस देवास नहीं आये। 1955 से 1967 तक कला महाविद्यालय, इन्दौर में रहकर अध्यापन कार्य किया। उस समय श्री डी.जे. जोशी प्राचार्य थे।
आपने अपनी शक्तिशाली रेण्ड्रिंग से ‘राष्ट्रीय कला सर्किल’ में अपना नाम जोड़ा। इसके परिणामस्वरूप फेलोशिप प्राप्त की और फाइन आर्ट सोसायटी ने गेस्ट के रूप में बुलाकर सम्मानित भी किया। इस सोसायटी की प्रमुख लेडी रानू मुखर्जी थीं, जो कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की निकटतम मित्र थीं। वे आपके परिपक्व कार्यों को देखकर चकित और प्रसन्न थीं। मुम्बई में माइकेल ब्राउन के द्वारा ‘Illustrated Weekly of india’ के लिये एडिटर के रूप में नियुक्त किये गए। परन्तु पारिवारिक कारणों के कारण वे पुनः इन्दौर आ गए।
आपने बहुत से न्यूज पेपरों और संगठनों में कार्य किया जिनमें जागरण, ट्रेड यूनियन और राजनैतिक सेटअप प्रमुख थे। अन्त में छजलानी द्वारा स्थापित नई दुनिया में कार्य किया। यह उनके जीवन का अन्तिम साझा संगठन था। बाबू लाभचन्द छजलानी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा राजनैतिक चापलूस था। नई दुनिया में कार्य करते हुए आपने निरन्तर नवीन प्रयोग किये। आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर आपने प्रकाशन के लिये लिनोकट को उकेर कर सस्ते Visuals तैयार किये। इलस्ट्रेशन को मनपसन्द बनाने के लिये यथार्थ जीवन के स्केचेज तैयार किये। यहीं पर आपकी मुलाकात राहुल बारपुते से हुई। वे बहुमुखी एडिटर और वर्तनी के सुजाता थे। इनसे आपको पत्र प्रकाशन में काफी सहयोग प्राप्त हुआ। इन्दौर में इसी समय ‘फ्राइडे ग्रुप’ सक्रिय था जिसमें सर्वश्री विष्णु चिंचालकर, रामजी वर्मा, दादा खोत, सातपुते, राहुल बारपुते, चिन्तामन बांकर, रथीन मित्रा, प्रभाकर चतुर्वेदी और ताराचंद आदि सदस्य थे। बाद में श्री डी.जे.जोशी भी सदस्य बने। आप सभी के प्रयासों से इस ग्रुप ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। यह ग्रुप अधिक समय तक नहीं चला किन्तु यही समय था जब कि विष्णु चिंचालकर के मस्तिष्क को बीज से पौधा बनने में मदद मिली। अब उन्होंने कला कार्य हेतु यात्रा की योजना बनाई। इस अभियान में राहुल बारपुते साथ रहते थे। उन्होंने कुमाऊँ, रामखेत और चम्बल बाँध आदि की यात्रा की। इस समय जल रंगों से चित्रण करना पसन्द करते थे। एक बार उन्होंने बनारस की यात्रा की। तबसे ही वे ‘गुरूजी’ के नाम से जाने गए। यही नाम जीवन पर्यन्त बना रहा।
इन कार्यों से आपको बहुत सी उपलब्धियाँ हासिल हुईं। 1959 का समय आपके जीवन के परिवर्तन का समय था। इस समय दो मार्ग थे एक राजमार्ग और दूसरा पगडण्डी। उनका मानना था कि पगडण्डी हम खुद बनाते हैं। अतः उन्होंने एकाकी मार्ग ही चुना। इस राह में प्रकृति उनके साथ होती थी। वहाँ उन्हें अलग-अलग चीजें जैसे झाड़ी-झंकाड़ी और बहुत सी चीजें मिल जाती हैं। यह समय एक ऐसा सन्धिकाल था जब नया आकार, ग्रहण करने की उतावली में था और पुराना स्वयं के वर्चस्व के लिये संघर्ष कर रहा था। इस प्रकार देखा जाए तो चिंचालकर जी के कलात्मक जीवन के दो पहलू दिखाई देते हैं-
1. शास्त्रीय
जिसमें उन्होंने कैनवस पर प्रभाववादी चित्र बनाये और इसी समय नवकला आन्दोलन का प्रभाव पड़ा और यह समय अपार उपलब्धियों सम्मान और पदक का समय था।
2. प्रकृति से सानिध्य
इस समय उन्हें प्रकृति का विराट माध्यम मिला। जो सहज सुलभ था। इसमें सूखी लकड़ी, टहनियाँ, पत्ती, सूखे मेवों के खोल, पौधों की जड़ें, तार की जालियाँ, नरेठी आदि सम्मिलित थीं। इन्ही माध्यमों से उन्होंने चित्र और कलाकृतियाँ निर्मित कीं। आपका विचार था कि प्रकृति ने जो बनाया है उसे कोई नहीं देखता, जो स्वयं बनाता है उसे ही देखता है क्योंकि उसमें हमारा अहम जुड़ा होता है। उनका कहना है कि मेरा यह प्रयास रहता है कि प्रकृति ने जो बनाया है उसे लोगों के सामने रखें।
अतः इनकी आलोचना ललित कला की अनुचित स्वतंत्रता के लिये होती थी उनकी प्रदर्शनी के दौरान घर में कलाकारों की चर्चा परिचर्चा होती रहती थी। गाँधी जो के आमंत्रण पर जागफाल आए। यह नेचुरल काल था। यहाँ पर चित्रों की प्रदर्शनी लगाई। यह पहला स्थान था जहाँ आकारों की खोज हुई। उन्होंने पारम्परिक माध्यमों से प्रकृति को पहचाना। स्पेनिश कलाकार ने नये प्रयोगों का समर्थन किया।
आपमें अनइच्छुक लोगों को शिक्षित करने की व्याकुलता थी। सन 1966 में संस्थागत अनुशासन में शिथिलता का समय था। इस समय आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी लेकिन राहुल बारपुते और कुमार गन्धर्व जैसे प्रेरणादायक साथ ने उन्हें प्रेरित किया। खुद को उत्साहपूर्वक प्रकृति के साथ शामिल किया।
राष्ट्रीय स्टेडियम दिल्ली को सजाने के लिये नवीन प्रयोग के अन्तर्गत सजावटी उत्पादों जैसे झाड़ू, चटाई एवं बास्केट आदि के प्रयोग से शहर के लोगों को चुनौती दी। इस प्रयास के लिये प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू से प्रशंसा पाई। चिंचालकर जी ने माध्यम के परीक्षण के लिये एक मंच प्रदान किया। बाबा डिके, राहुल बारपुते और शास्त्रीय गायक कुमार गन्धर्व, सुमन दाण्डेकर ने नाट्य भारतीय मंडली की स्थापना की, जिसके अलंकरण का जिम्मा चिंचालकर जी को था। आपमें गहरी मंच पर्यवेक्षक क्षमता विद्यमान है।
चिंचालकर जी के क्रान्तिकारी विचारों को विकसित करने में करीब एक दशक लगा। 1971 में दिल्ली की Aihacs Gallary मानक मानदण्डों को पूरा नहीं करती थी। सन 1977 में जहाँगीर आर्ट गैलरी की प्रदर्शनी का उद्घाटन कुमार गन्धर्व ने किया, जो काफी सफल रही।
सन 1979 में कोलकाता में प्रदर्शनी हुई। यह बच्चों पालकों और अध्यापकों का ध्यान केन्द्रित करने के लिये थी। इस प्रदर्शनी ने अप्रशिक्षित आँखों को नवीन दृष्टि प्रदान की।
पर्यावरणीय संरक्षक बाबा आम्टे ने आपको प्रभावित किया। उनसे उत्प्रेरित होकर आपने कोढ़ी और बीमार व्यक्तियों की भी सेवा की। Parallelism work में प्रयोग में आने वाले व्यर्थ पदार्थ से कला का संरक्षण किया। 1970 में बच्चों के कॉलम ‘खेल-खेल में’ ने बच्चों को काफी प्रभावित किया। इसको उन्होंने 2 वर्षों तक जारी रखा। उन्होंने अपनी खोज और प्रयोगों को युवा और वृद्धों तक पहुँचाया। यही आर्ट कॉलम बाद में पुस्तक के रूप में आया। यह नेशनल बुक ट्रस्ट से उपलब्ध की जा सकती है साथ ही मराठी भाषा में भी उपलब्ध है। 1969 में 10 फुल साइज पैनल ‘स्त्री शक्ति’ (Women empowerment) की सीरीज बनाई, जो कि कस्तूरबा ग्राम में है। आपने बहुत से योद्धाओं के पैनल बनाये।
आपने कला विस्तार के लिये अनेकों यात्राएँ कीं, बिना रुके भाषण और डिमाँस्ट्रेशन दिये। मौसम का आनन्द लेने के लिये जो भी साधन मिला उसका उपयोग किया। ग्रामीण इलाकों के लिये साइकिल का प्रयोग किया। इन्होंने कई कहानियाँ तथा कवर इलस्ट्रेट किये। उनकी एक संक्षिप्त फिल्म तथा तीन Lucid- presentation बने। इन्होंने चर्चित पुस्तक ‘ खिलते अक्षर खिलते फूल’ का निर्माण किया।
नई दुनियाँ से जुड़कर इन्होंने अपने आपको चर्चित भी किया। नामाझर उनकी अमिट कृति है। नई दुनियाँ के विशेषांकों, कैलेण्डरों और अन्दर के पृष्ठों पर उनकी कृतियाँ छपी हैं। बम्बई दिल्ली और भोपाल में इनकी कृतियाँ प्रदर्शित की जा चुकी हैं। प्रत्येक 26 जनवरी पर वे बाबा आम्टे के साथ किसी-न-किसी नर्मदा तट ओंकारेश्वर, महेश्वर या माण्डव और कान्हा किसली पर साथ होते थे। ग्रामीण दृश्यों के चित्र भी मनोहारी होते थे। राहुल बारपुते जी ने उनकी 75वीं वर्षगांठ पर 1992 में एक लेख लिखा, जिसमें उनकी प्रशंसा में उन्हें ‘कला का बाजीगर’ कहा।
मालवा की माटी से जुड़े गुरूजी अन्त तक इन्दौर में ही रहे। उनका कथन है कि ‘मिट्टी से जुड़े रहना मुझे अच्छा लगता है आम आदमी की बात करना सरल है लेकिन आम आदमी बने रहना कठिन है तथा आम आदमी बनकर व्यवहार करना भी कठिन है। अच्छा आदमी बनकर ही अच्छा कलाकार बना जा सकता है। इसी प्रकार आदिवासी बगैर रचना अहसास के गीत नृत्य और कला के सृजन करते हैं। मगर हम उसे प्रदर्शन की चीज बना देते हैं। उन्हे 1996 हृदयाघात और फ्रैक्चर हुआ। इसके पश्चात 1998 में उनकी सभी गतिविधियों को सख्ती से रोका गया लेकिन 30 जुलाई, 2000 फ्राइडे क्लब की मीटिंग के दौरान दूसरा दिल का दौरा पड़ा और वे सम्भल नही पाये और उनका देहावसान हो गया। कला जगत ने इनके अवसान से एक अनन्य कलाकार खो दिया। विश्व ख्याति प्राप्त कलाकारों में से एक थे। बेन्द्रे, हुसैन, रजा इनके समकालीन ख्याति प्राप्त चित्रकार हैं।’
उपलब्धियाँ
1. सबसे अच्छा पोर्ट्रेट पुरस्कार, भारतीय अनुभाग, Aifacs
2. दिल्ली में पहली अन्तरराष्ट्रीय समकालीन कला
3. उत्कृष्टता भारत पर्यटन एसोसिएशन के पदक
4. फेलोशिप, फाइन आर्ट सोसाइटी कोलकाता
5. त्रिवेन्द्रम और पटना कला प्रदर्शनियों में पुरस्कार (1940 और 50 के दशक में सर्वोच्च)
6. मध्य प्रदेश राज्य रजत जयन्ती सम्मान 1973
7. FIE फाउण्डेशन पुरस्कार 1979
8. मध्य प्रदेश शिखर सम्मान 1984
9. All India Fine Arts & Crafts Society Honour Delhi 1985
10. साने गुरूजी सम्मान महाराष्ट्र 1994
11. पी.ए. देशपाण्डे बहुरूपी सम्मान 1998
12. भारत भवन भोपाल की सलाहकार समिति के सदस्य
13. चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी दिल्ली
14. उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक समिति नागपुर
चन्द्रेश सक्सेना
मध्य प्रदेश के कलाकारों में चन्द्रेश सक्सेना का नाम एक चित्रकार एवं सृजनकर्ता के रूप में जाना जाता है। वे कर्तव्यनिष्ठ, सदैव आगे बढ़ने वाला विचार रखने वाले व्यक्ति थे। परम्परा के प्रति विद्रोही स्वर उठाने में सक्षम तथा कला के प्रति समर्पित व्यक्तित्व वाले थे। रजा हुसैन जैन समकालीन चित्रकारों के रूप में उनका नाम है। आपने विभिन्न रमणीक स्थानों के दृश्य चित्र बनाये इसके अलावा आपने अमूर्त चित्रों का सृजन भी किया।
आपका जन्म 14 अगस्त, 1924 को उज्जैन के एक सामान्य परिवार में हुआ। आपको रंगों ने आकर्षित किया। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा धार में हुई। स्कूल शिक्षा पूर्ण होने पर डिप्लोमा करने के उद्देश्य से जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स मुम्बई गए। 1948 में आपने जी.डी. आर्ट किया। वहीं पर आपकी मुलाकात सैयद हैदर रजा से हुई। श्री अहिवासी ने यहाँ पर आपको कला की शिक्षा दी। गुरू के संरक्षण में कला का रूप निखरता गया। आपको 1949 में सरकार ने शिक्षा मंत्रालय से छात्रवृत्ति देकर स्नातकोत्तर अध्ययन के लिये शान्ति निकेतन भेजा। कला प्रशिक्षण के दौरान आपका सम्पर्क कला गुरू नन्दलाल बोस से हुआ। यहाँ पर आपने वाश तकनीक के विभिन्न पहलुओं की बारीकियों को सीखा लेकिन आपने-अपने आपको इस शैली में बाँधा नहीं। बंगाल शैली से रूबरू होने के पश्चात उन्होंने स्वयं की शैली ढूँढने का प्रयास किया। आपने जल रंग, पेस्टल, ऑयल सभी माध्यमों में कार्य किया। आपके अधिकांश कार्य ओपेक पद्धति के बोल्ड आघात वाले हैं। बाद के चित्रों में अधिकांश यही विधि अपनाकर चित्र बनाये हैं।
बंगाल से आने के पश्चात आपने माण्डव सौन्दर्य को अपने कैनवस पर उतारा। माण्डव के मनमोहन सौन्दर्य में वहाँ की ऐतिहासिक इमारतें, खण्डहर, इमली के वृक्ष, पहाड़ी, लहराती हुई सड़कें एवं वहाँ की वनस्पति को अपने रंगों से अतीत की स्थिरता प्रदान की।
माण्डव में रहकर मध्य भारत के ग्रामीण अंचलों का अवलोकन किया और उनकी कला पर एक सारगर्भित अंग्रेजी भाषा में शोध प्रबन्ध लिखा, जिसकी कला क्षेत्र में काफी प्रशंसा हुई। इसके पश्चात आप इन्दौर के कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक न्यास (कस्तूरबा ग्राम इन्दौर) से जुड़े वहाँ आपने केन्द्रीय प्रशिक्षण संस्थान सांस्कृतिक निदेशक के पद पर सुशोभित किया। सन 1953 में चित्रकला मन्दिर (ललित कला महाविद्यालय) इन्दौर में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। इस संस्थान से सन 1982 तक जुड़े रहे और यहीं से सेवानिवृत्त भी हुए।
श्री चन्द्रेश सक्सेना ने अपने आपको कला क्षेत्र में स्थापित किये जान का श्रेय अपने गुरुओं को दिया है। आपके प्रथम कला गुरू बी.वी. कोराने थे, जिन्होंने कला सृजन के गुण निर्मित किये। इनके पश्चात धार में श्री फड़के जी ने पारंगत किया। उच्च शिक्षा की पढ़ाई हेतु कला मन्दिर, इन्दौर में प्रवेश किया। यहाँ पर कला गुरू देवलाली जटाशंकर जोशी का सानिध्य प्राप्त हुआ। आप उनके बोल्ड स्ट्रोक्स से प्रभावित हुए। यह प्रभाव उनके चित्रों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आपने मुम्बई में कला शिक्षक श्री अहिवासी और शान्ति निकेतन में नन्दलाल बोस और अरड़कर से कला शिक्षा पाई।
मुम्बई में कला शिक्षा के दौरान अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त स्व. एम.एफ. हुसैन, सैयद हैदर अली, रजा, गाड़े, श्रीधर, नारायण बेन्द्रे, अकबर पद्मसी आदि कलाकारों का साथ मिला। आपका अधिकांश समय मुम्बई में गुजरा। वहाँ रहकर आधुनिक कला में निहित गुणों और दाँव-पेंचों को पहचाना लेकिन आपकी विशिष्ट शैली होने के बाद भी दाँव-पेंचों जैसे गुणों के अभाव में समकालीन कलाकरों से पीछे रहे।
कला यात्रा
आपकी कला यात्रा में धार, माण्डव, उज्जैन, इन्दौर, दिल्ली और शान्ति निकेतन के अलावा देश-विदेश के विशिष्ट क्षेत्र सम्मिलित हैं। चित्रकारिता के साथ ही निपुण कला शिक्षक बनने के लिये कला प्रशिक्षण लिया। सज्जा के प्रति विशेषज्ञता और सुरुचि सम्पन्न शैली उनकी पहचान थी। आपकी शैली को भारतीय, अलंकारिक, इम्प्रेशनिष्ट, सेमी एक्स्ट्रैक्ट एवं एब्सट्रैक्ट शैली में जाना जाता है। आपने दृश्य चित्रण में महारत हासिल की है। 1949 में स्नातकोत्तर शान्ति निकेतन के पश्चात दृश्य चित्रण अधिकता से किये। छात्रवृत्ति मिलने के पश्चात माण्डव को अपना कार्य क्षेत्र चुना। आपने कैनवस पर सूने खण्डहरों को रंगों की ताजगी प्रदान की। वहाँ की भौगोलिक, वनस्पति, परिस्थितियों को चित्र के रूप में परिवर्तित किया। ग्रामीण क्षेत्र का अवलोकन कर लेखन और चित्रण दोनों ही कार्य सम्पन्न किये।
भरण-पोषण के लिये चित्रकला के व्यवसायिक रूप का सहारा भी लिया। आप रंग और ब्रश को अपने कोट की जेब में छिपाकर ले जाते थे। उज्जैन के क्षिप्रा तट पर बने मन्दिरों की दीवारों पर कलात्मक श्लोक लिखा करते थे। उस समय चित्रकला क्षेत्र में व्यवसाय को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अतः यह कार्य वे छिपकर किया करते थे।
दृश्य चित्रण चन्द्रेश जी की विशिष्ट पहचान थी। कभी वे स्पॉट पर जाकर दृश्य चित्रण करते थे तो कभी स्मृति के सहारे रंगों की झिलमिलाती छटा बिखेर देते थे। इनके दृश्य चित्रों में उज्जैन के मन्दिरों को प्रमुख स्थान दिया है। इसके साथ ही भीड़ भरे बाजार तथा शहर के प्रमुख स्थानों का चित्रण देखने को मिलता है। 1986 में ‘माण्डू कैम्प’ आयोजित किया जिसमें श्री बेन्द्रे, श्री विष्णु चिंचालकर, श्री रामजी वर्मा, सचिदा नागदेव, सुरेश चौधरी, जी.एल.चौरागड़े, राजाराम आदि चित्रकारों को आमंत्रित किया था परन्तु विडम्बना देखिये, जिसने माण्डू की धरती को जाना, उसकी मिट्टी की गन्ध को पहचान उसको ही चित्रकारों ने भुला दिया।
आप एक ऐसे चित्रकार थे जिन्होंने काफी समय तक माण्डू में रहकर लैण्डस्केप बनाये, जिसकी प्रदर्शनी मुम्बई तथा कोलकाता में की। माण्डू में रहकर ग्रामीण अंचलों की कला पर एक शोध प्रबन्ध लिखा, जोकि उस समय आश्चर्यजनक कार्य माना जाता था। आपका कार्य उत्कृष्ठ होने पर भी उन्हें कला क्षेत्र में उपेक्षा सहनी पड़ी। चन्द्रेश सक्सेना मध्य प्रदेश के होते हुए भी उन्हें 1982 में भारत भवन की स्थापना के अवसर पर भुला दिया गया। इस बात से उन्हें बहुत तकलीफ हुई। यदि उन्हें पहचाना था तो नन्दलाल बोस, अहिवासी और डी.जे. जोशी ने। आपने इन्दौर और ग्वालियर में अध्यापन कार्य किया। इन्दौर के ललित कला महाविद्यालय में 1971 में प्राचार्य का पद सम्भाला और इस कॉलेज से सेवानिवृत्त भी हुए।
कला शैली
श्री चन्द्रेश सक्सेना के चित्र उनके अपने रंग और आकारों से पहचाने जाते हैं। आपने लगभग सभी माध्यमों में चित्रण कार्य किया। कागज, कैनवस और प्लायवुड पर यथार्थ जिन्दगी से जुड़े विषयों को लेकर चित्र बनाये। दृश्य चित्रों में उज्जैन और माण्डव के दृश्य चित्र प्रमुख हैं। आपके चित्रों के विषय मध्य भारत के ग्रामीण अंचलों के नजदीक हैं। माण्डव के दृश्य वहाँ की ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थिति को बयां करते हैं। चित्रों में धूसर रंगों का प्रयोग करते थे। मनमोहक मिश्रित रंग के संयोजन से चित्र मनोहारी बन जाता था। माण्डव के खण्डहर, सफेद इमली के वृक्ष, निमाड़ी व्यक्ति (स्त्री-पुरूष) विशेष महत्व रखते थे। आपको जल रंग (वाश तकनीक) और ओपेक दोनों पर ही पूर्ण नियंत्रण था। तेल रंगों से चित्रण में तीव्र तूलिका घातों का प्रयोग करते थे। आपने अलंकारिक, प्रभाववादी, अमूर्त और अर्धअमूर्त शैली में कार्य किया।
चित्रण में उनके अपने रंग थे। कभी पेड़ लाल, कभी भूरे तो कभी पीले पेड़ भी दिखाई देते हैं। यही कारण था कि उन्हें Colour Blind कहा जाता था। उनके रंग उनके मनोभावों को व्यक्त करते हैं। उनकी सुबह पीले और नारंगी से आच्छादित होती है। उज्जैन के मन्दिरों के दृश्य चित्रों में भक्तों की श्रद्धा-भक्ति दिखाई देती है। साथ ही मन्दिरों का वैभव भी परिलक्षित होता है। इस तरोताजगी युक्त कला शैली को नन्दलाल बोस ने बहुत सराहा।
उपलब्धियाँ
1. सर सी.डी. देशमुख पुरस्कार -1947
2. आर्ट सोसायटी ऑफ इण्डिया-1948
3. शिल्प कला परिषद, पटना- 1956
4. कालिदास पुरस्कार, मध्य प्रदेश ललित कला अकादमी- 1958 एवं 1959
5. विक्रम विश्वविद्यालय पुरस्कार, पोर्ट्रेट अकादमी पुरस्कार कोलकाता- 1962
6. प्रधानमंत्री प. नेहरू द्वारा कालिदास प्रदर्शनी- 1959
7. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा ‘उज्जयिनी’ चित्र पर विशेष पुरस्कार
एकल प्रदर्शनी
1. शान्ति निकेतन कला भवन- 1949
2. माधव महाविद्यालय, उज्जैन- 1949
3. व्यास फल्य सांस्कृतिक मीट- 1950
4. आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम माण्डू-1950
5. कस्तूरबा ग्राम इन्दौर- 1951
6. होल्कर महाविद्यालय इन्दौर- 1955-56
समूह प्रदर्शनी
1. बाम्बे यूनिवर्सिटी, बम्बई- 1947
2. Art Society of India- 1948
3. संयुक्त प्रदर्शनी रविशंकर रावल के साथ- 1949
4. कला भवन शान्ति निकेतन, प्रहलाद ढांड द्वारा आयोजित प्रदर्शनी- 1949
5. All India Art & Craft Society, Delhi-1950

मध्य प्रदेश के शीर्षस्थ कलाकारों में से श्री श्रेणिक जैन का नाम प्रमुखता से आता है। आप सरल स्वभाव, तीक्ष्ण बुद्धि एवं कला मर्मज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। दृश्य चित्रकारों की सूची में आपका अपना महत्व विशिष्ट शैली के कारण है। उन्हें सृजनात्मक कार्यों के लिये अनेक सम्मानों से सम्मानित किया गया है, जिसमें शिखर सम्मान प्रमुख है।
पारिवारिक वातावरण
श्री श्रेणिक का जन्म 20 नवम्बर, 1931 को बड़नगर, जिला उज्जैन में हुआ था। पिता श्री तखतमल जैन और माता श्रीमती मानकुंवर बेन के इकलौते पुत्र हैं। पिता हीरा मिल उज्जैन में एक कॉटन सेलेक्टर के पद पर कार्यरत थे। बाल्यावस्था में ही आपको पिता का वियोग सहन करना पड़ा। आपके पिता की मृत्यु हुई, उस समय आपकी उम्र 8 वर्ष की थी। आपके लालन-पालन में माताजी के अतिरिक्त दादाजी श्री भेरूलाल जी जैन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। आपके प्रथम कला गुरू आपके दादाजी थे। जैन मन्दिरों में धार्मिक उत्सवों के दौरान श्री भेरूलाल जी का महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। भगवान की सजावट हो या मन्दिरों का अलंकरण आपके बिना सम्भव नहीं था। बालक श्रेणिक जैन भी दादाजी के कार्यों में मदद करते थे। दादाजी के सानिध्य में रहते हुए ही उन्होंने कला का प्रथम पाठ पढ़ा। संसाधनों के अभाव ने भी कभी उनके कार्यों में रोड़े नही अटकाए। उन्होंने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का ही सृजन कार्य में उपयोग किया। स्वयं के घर-आँगन को उन्होंने कोयले और चूने के माध्यम से सजाया। महात्मा गाँधी सुभाष चन्द्र बोस जैसे क्रान्तिकारियों के चित्रों का अंकन सजीवतापूर्ण किया। उस छोटी अवस्था में भी इन्होंने 10-10 फीट तक के चित्रों का निर्माण किया।
आपकी 14 वर्ष की अवस्था में आपके दादाजी (श्री भेरूलाल जी) का स्वर्गवास हो गया। जीवन की संघर्षशीलता में जिम्मेदारी का अध्याय और जुड़ गया। फिर भी उन्होंने अपनी कला को जीवित रखा और निरन्तर प्रयत्नशील रहे। परिवार में धर्मपत्नी सुमन के अलावा पुत्र नवीन (व्यवसायी) है। सुखी सम्पन्न परिवार के साथ कला यात्रा निरन्तर है।
शिक्षा श्री श्रेणिक जैन की प्रारम्भिक शिक्षा बड़नगर में ही हुई। माध्यमिक स्कूल में चित्रकला एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती थी। कढ़ाई, बुनाई और चित्रकला में से किसी एक विषय को लेना आवश्यक था। आपको बचपन से ही चित्रकला में रुचि रही है। स्कूल शिक्षक श्री बालूस ने हमेशा आपको प्रोत्साहित किया है।
कला शिक्षा प्राप्त किये जाने हेतु आपने महाराजवाड़ा उज्जैन स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ पर भी चित्रकला एक वैकल्पिक विषय ही था भूगोल, बुनाई, कढ़ाई आदि विषय ही प्रचलन में थे। महाराजबाड़ा के अध्यापक श्री कोराने ने आपको अग्रसर करने में सहयोग दिया। आपने अजमेर बोर्ड से परीक्षा दी। अंग्रेजी विषय में पूरक आने पर वे मात्र अंग्रेजी के पीरियड में उपस्थित होने के पश्चात श्रीमान कोराने से कला की शिक्षा लेते थे। साधना में रत होते हुए अनेकों चित्रों का सृजन किया। सन 1949 में पहली बार चित्र प्रदर्शनी का आयोजन श्रीमान कोराने के सहयोग से किया, जिसका उद्घाटन ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया ने किया। महाराजा सिंधिया ने चित्रों से प्रभावित होकर स्वर्ण पदक प्रदान किया। यह इनकी उस समय की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
इसके पश्चात उन्होंने इण्टरमीडिएट परीक्षा उज्जैन से उत्तीर्ण की। चित्रकला विषय में विशेष रुचि होने से वे उच्च शिक्षा चित्रकला विषय में ही प्राप्त करना चाहते थे। अतः उन्होंने इन्दौर में रहकर शिक्षा लेने का निर्णय किया।
प्रारम्भ में आपने आर्ट्स एण्ड कॉमर्स होल्कर कॉलेज में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया किन्तु कला समूह के विषय रुचिकर न होने से 15 दिवस में ही कॉलेज छोड़ दिया। इसी बीच उन्हें स्कूल ऑफ आर्ट्स (चित्र कला मन्दिर) जिसे वर्तमान में देवलालीकर कला वीथिका नाम से जाना जाता है, का पता चला। स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लेकर कला शिक्षा में प्रवीण हुए।
उस समय स्कूल ऑफ आर्ट्स इन्दौर की समस्त परीक्षाएँ मुम्बई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में होती थीं। उस समय स्कूल ऑफ आर्ट्स इन्दौर का अच्छा स्थान था क्योंकि वहीं के कला गुरू श्री देवलालीकर एवं श्री डी.जे. जोशी (देव कृष्ण जटाशंकर जोशी) के सानिध्य में रहकर श्रीधर नारायण बेन्द्रे, श्री रजा हुसैन, श्री हुसैन जैसे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट बन चुके थे।
आप नरसिंह बाजार के पास मुकेरीपुरा में किराये का मकान लेकर रहते थे और भोजन अपनी मौसी के यहाँ किया करते थे। आपकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी अतः अतिरिक्त समय में ट्यूशन लेने के साथ ही पेंटर श्री के.जैन के पास कार्य करते थे। शारीरिक संरचना में आप दक्ष थे। अतः श्री के.जैन को आपसे काफी मदद मिली। आपने इनके पास दो वर्ष तक रहकर व्यवसाय को आगे बढ़ाया।
जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से चतुर्थ एवं पंचम वर्ष में 75 रुपए प्रतिमाह की छात्रवृत्ति स्वीकृत हुई, जो उस समय की सबसे बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि उस समय शिक्षकों का वेतन 60 रुपए प्रतिमाह था। अतः उन्होंने श्री के.जैन पेंटर के यहाँ जाना छोड़ दिया।
इन्दौर में श्रेष्ठ कला गुरू श्री डी.जे.जोशी एवं श्री देवलालीकर एवं मुम्बई में श्री अहिवासी के सानिध्य में कला शिक्षा ग्रहण की और 1954 में जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से डिप्लोमा पूर्ण किया।
इस संस्थान की शर्तों के अनुसार डिप्लोमा प्राप्त विद्यार्थी को एक वर्ष तक शासकीय सेवा देना होती थी। यह उनका मनपसन्द कार्य था। अतः 1954 से 1955 तक स्कूल ऑफ आर्ट्स में शिक्षक का कार्य किया। इसी वर्ष कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा छात्रवृत्ति प्रारम्भ की गई, जिसमें उभरते कलाकारों का चयन कर 9 कलाकारों को दी जानी थी। उन कलाकरों में श्रेणिक जैन भी थे।
शान्ति निकेतन की ख्याति महसूस कर आपकी इच्छा भी वहाँ की रंगोली अल्पनाएँ एवं वहाँ की लोक कला का अध्ययन करने की थी, किन्तु घर वालों की अनिच्छा के कारण उन्हें जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट्स जाना पड़ा। वे वहाँ पर 20 जून, 1955 से 1957 तक रहे। वहाँ आपने श्री जे.एम. अहिवासी के सानिध्य में रहकर चित्रण कार्य किया।
कला यात्रा
श्री श्रेणिक जैन को महान कला गुरू श्री जे.एम. अहिवासी की पारखी नजर ने पहचाना और निरन्तर कर्मशील रहने के लिये प्रवृत्त करते रहे। कला का वास्तविक अर्थ मुम्बई जाने पर ही समझ आया। प्रारम्भिक दौर में वे समझते थे कि महान कला गुरूओं की पेंटिंग की नकल करना ही श्रेष्ठ है, परन्तु समय की पर्तों और तत्कालीन कला बाजार ने अहसास कराया कि मौलिकता और नवीनता ही प्रमुख तत्व हैं। यह उन्हें तब पता चला जब उन्होंने दो दिवसीय प्रदर्शनी का आयोजन किया। आपने श्री अहिवासी से इसके सम्बन्ध में विचार जानना चाहा तो उन्होंने एक अच्छे गुरू की भाँति स्पष्टता से कहा कि इन चित्रों को देखने से श्री डी.जे. जोशी की झलक मिलती है। कुछ ऐसा करो जिसमें स्वयं की पहचान नजर आए। यही बात उनके हृदय को छू गई और मौलिकता हेतु निर्णायक मोड़ लिया।
इसके पश्चात इन्होंने गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान का दौरा किया। आपने प्रकृति की विशालता और मानव की लघुता को स्वीकारा और चित्र सृजन में रत हो गए। इस प्रकार उन्होंने अपनी निजी शैली का विकास किया।
1957 तक जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में रहे। इस दौरान मुम्बई के प्रसिद्ध कलाकरों के चित्रों को देखने का अवसर मिला। फाइन आर्ट्स कोलकाता की वार्षिक प्रदर्शनी में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। उस समय भारत में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप सक्रिय था, जिसमें रजा, स्व. मकबूल फिदा हुसैन, आरा, बेन्द्रे एवं अम्बेरकर जैसे कलाकार थे। उस समय प्रभाववादी कला शैली प्रचलन में थी। इनके अलावा पलसीकर, हेब्बर, चावड़ा, मोहब सामन्त, ए.ए.शरबा, ए.एच. अलमेलकर एवं आर.डी. रावल आदि के कार्यों को भी देखा। आप विदेशी कलाकार सर एलिजम के झकालों से प्रभावित हुए।
सन 1957 में जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स के शताब्दी वर्ष पर संस्था के तत्कालीन एवं भूतपूर्व विद्यार्थियों की मिली जुली प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इसमें श्रेष्ठता के आधार पर 500 रुपए का नकद पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस समय आप स्वतंत्र कलाकार के रूप में कार्य कर रहे थे। टाइम्स ऑफ इण्डिया, धर्मयुग और सारिका पुस्तकों के लिये चित्र निर्माण किया। इनके बने कार्ड एवं कैलेण्डर अनूठे हैं। इसके अतिरिक्त रूपभारती कंसलटेंसी के लिये भी कार्य किया आपने राजधानी दिल्ली की अशोका होटल को अलंकृत किया। बाम्बे की गोकुलदास ऑडिटोरियम में एक विशाल म्यूरल 125 फीट चित्रित किया।
इसी दौरान आप मुम्बई में इन्दौर के प्रसिद्ध कलागुरू श्री देवलालीकर से मिले। उनके कार्यों को श्री देवलालीकर ने धनोपार्जन का एक साधन बताया। उन्होंने कहा कला साधना करें, जिससे कला समाज के लोग स्वयं आपकी कला को स्वीकार करें। मुम्बई की भाग दौड़ भरी जिन्दगी से आपको ऊब हो गई। आप सन 1966 तक ही मुम्बई में रहे।
सन 1966 में पी.एस.सी. से चयनित होकर कला निकेतन फाइन एप्लाइड आर्ट्स जबलपुर में तकनीकी व्याख्याता के पद को सुशोभित किया। आपका सोचना था प्रकृति के बीच रहकर विद्यार्थियों को सिखाया जाय। वे अपने विद्यार्थियों को प्रकृति को पहचानने के लिये सदैव प्रोत्साहित करते थे।
इस उद्देश्य को पूर्णता प्रदान करने के लिये मध्य प्रदेश सरकार से अनुदान प्राप्त कर आर्टिस्ट कैम्प का आयोजन किया। इसमें शान्ति निकेतन के प्रमुख राम मोहन सिंह तथा प्राचार्य के.बी. श्रीवास्तव ने सहयोग किया। इसमें देश के प्रत्येक हिस्से से शिक्षकों और विद्यार्थियों को बुलाया था। जबलपुर में विभिन्न कलाकारों को जोड़े रखने के लिये ‘आर्टिस्ट फोरम, जबलपुर’ का गठन किया।
सन 1979 में स्थानान्तरण इन्दौर होने पर ललित कला संस्थान, इन्दौर के प्रभारी प्राचार्य और बाद में नियमित प्राचार्य हुए। कॉलेज का समय सुबह 7.30 से दोपहर 1.00 बजे तक था। शेष समय में वे कला साधना में रत रहते थे।
श्रीधर नारायण बेन्द्रे से उनकी मुलाकात 1984 में इन्दौर में हुई। आपने उनके चित्रों को देखा और उन चित्रों की प्रदर्शनी लगाने का सुझाव दिया। इसी सुझाव को सम्मान देते हुए 1987 में बाम्बे की जहाँगीर आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी लगाई, जिसका उद्घाटन जहाँगीर आर्ट गैलरी के मालिक श्री कावा जी जहाँगीर के कर कमलों से हुआ, जिसकी बहुत प्रशंसा हुई। बेन्द्रे साहब से धीरे-धीरे व्यक्तिगत सम्बन्ध हो गए। समय-समय पर आपके साथ उनकी सम्माननीय उपस्थिति रहती थी।
देवलालीकर कथा वीथिका में प्रदर्शनी आयोजित करने हेतु कला वीथिका का शुभारम्भ सन 1980 में श्री श्रेणिक जैन के अथक प्रयासों का प्रतिफल था। इसमें श्री अशोक बाजपेयी का महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला।
श्री विष्णु चिंचालकर, श्री अगासे, श्री डी.जे. जोशी एवं इस्माइल बेग जैसे कला गुरुओं के सहयोग ने उनके विद्यार्थी, शिक्षक और कलात्मक जीवन को अग्रसर करने में मदद की। विद्यार्थी जीवन से प्राचार्य तक की इस कला यात्रा में अनेकों पुरस्कार सम्मान को समेटे हुए वे सन 1993 में शासकीय सेवा से निवृत्त हो गए।
सेवानिवृत्ति के पश्चात भी उनका कला प्रेम निरन्तर बढ़ता गया। आज भी वे चित्र सृजन में लगे हुए हैं। स्वाभाविक शैली के साथ लगे हुए हैं।
15 मार्च, 2011 में भारत भवन की कला दीर्घा में ‘निसर्ग’ शीर्षक से एक भव्य एकल प्रदर्शनी का उद्घाटन किया, जिसमें उनके जीवन में सृजित प्रमुख चित्रों (रेखांकन, संयोजन, दृश्य चित्रण, पोर्ट्रेट) आदि को प्रदर्शित किया गया था। इसमें प्रकृति चित्रण को विशेष रूप से संयोजित किया गया था। इसमें लगभग 130 चित्र प्रदर्शित किये गए।
कला शैली
आपने जल, तेल, एक्रेलिक सभी प्रकार के रंगों से चित्र सृजन किया। आपने विशिष्ट चित्र शैली में कार्य किया। तेल रंगों में भी जल रंगों सी पारदर्शिता दिखाई देती है। आपने मालवांचल को दृश्य चित्रों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। प्रारम्भ में डी.जे. जोशी से प्रभावित दृश्य चित्र बनाये लेकिन उससे उन्हें सन्तुष्टि नहीं मिली। अतः उन्होंने स्वयं की शैली अपनाई प्रकृति छटा के विभिन्न रूपों नदी, पहाड़, वृक्ष, खेत, आकाश, ऐतिहासिक स्मारक, धार्मिक स्थल, पोस्ट ऑफिस, बकरियाँ एवं अन्य पशु पक्षी, मानवाकृतियाँ, धार्मिक दृश्य आदि को बनाया है। आपने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दृश्य विधियों को अपनाया है। आपके चित्रों में प्राकृतिक, सामाजिक और धार्मिक पर्यावरण दृष्टिगोचर होता है। वृक्षों को पूजनीय मानते हुए, वृक्षों की पूजा करते दर्शाया है। जंगल के अनेकों दृश्य, जुलूस जैसे विषयों को लेकर चित्रांकित किया है। आपके चित्रों ने मध्य प्रदेश को राष्ट्रीय पहचान दिलाई है। स्वयं की मौलिक कला शैली, प्राकृतिक प्रेम, मनोरम दृश्यों का प्रस्तुतिकरण विषयानुकूल रंगों की महत्ता, भाव, प्राकट्य प्राकृतिक मानव एवं पशु पक्षियों का सुन्दर सामंजस्य उनके चित्रों की विशेषता है। मनुष्य के द्वारा फैलाया गया अनर्गल प्रलाप दूषित वातावरण आपके चित्रों में नहीं है।
श्री श्रेणिक जैन के प्रमुख चित्र
आपके चित्रों को निम्न श्रेणियों में रखा जा सकता हैः
1. मनोवैज्ञानिक
2. ऐतिहासिक
3.धार्मिक
4. ग्रामीण कार्य-कलापों से सम्बन्धित
5. पशु प्रेम
आपके दृश्य चित्र दर्शक पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ते हैं। पर्वत शृंखलाओं के बीच मन्दिर, पेड़ों के बीच पगडंडियों के बीच से जाती जैन साध्वियाँ, हरे अथवा नीले परिदृश्य में भैरों बाबा धार्मिक भावना को प्रकट करते हैं। ऐतिहासिक परिदृश्यों में खण्डहरों के अवशेष दिखाई देते हैं। श्री जैन के दृश्य चित्रों में मालवा का लोक रूप अपनी अलग धुन में प्रतिबिम्बित होता है। आकाश को छूते विशाल पर्वत शृंखला, उस पर मानव की जिद के प्रमाण स्थापत्य रूप, आकाश से बातें करते गुम्बद और मीनारें प्रेक्षक के सामने एक तन्द्रामय रूमानी माहौल पैदा करते हैं।
मध्य प्रदेश के कलाकार के रूप में आज भी साधनारत हैं और राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पहचान बनाये हुए हैं।
श्री श्रेणिक जैन की उपलब्धियाँ
आपने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स मुम्बई में भित्ति चित्रण में विशेषज्ञता हासिल की। कला के कई आयामों को पार करते हुए भू-दृश्य चित्रण की ओर अग्रसर हो गए। इस कला यात्रा के दौरान मुम्बई, इन्दौर और जबलपुर में कला शिक्षक पद पर सुशोभित हुए। अनेकों एकल एवं सामूहिक प्रदर्शनियों में चित्र प्रदर्शित किये और अनेकों सम्मानों से नवाजा गया।
स्कालरशिप Govt. of India की स्कालरशिप 1955-57 तक
सम्मान
1. मध्य प्रदेश शासन द्वारा प्रदत्त ‘शिखर सम्मान’ -1992-93
2. अन्तरराष्ट्रीय रेड क्रॉस सोसायटी, कनाडा- 1952
3. अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स कोलकाता- स्वर्ण पदक- 1957
4. इण्डियन एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स- अमृतसर- 1958 (रजत पदक)
5. कला परिषद रजत-मंजूषा- 1961
6. ललित कला अकादमी में इनवाइटेड आर्टिस्ट- 1992
7. पाँचवा प्रौढ़ कलाकार सम्मान AIFACS- 1996
पुरस्कार
1. जे.जे.स्कूल ऑफ सेनिटरी एक्जिबिशन- प्रथम पुरस्कार- 1957
2. बाम्बे आर्ट्स समिति पुरस्कार- 1960
3. बाम्बे आर्ट्स समिति- हाइली कमाण्डेड पुरस्कार- 1961
4. कालिदास समिति, उज्जैन- 1960
5. रविन्द्र सेनेटरी एक्जिबिशन- 1961
6. मध्य प्रदेश कला परिषद, ग्वालियर- 1962
7. द्वितीय जन रंग प्रदर्शनी AIFACS नई दिल्ली- 1986
एकल प्रदर्शनी
मुम्बई 1956/ 87/ 92/ 95/ 99, जबलपुर 1966, रायपुर 1983, इन्दौर 1984, भोपाल 1993, नासिक 1993, हैदराबाद 1994
सामूहिक प्रदर्शनी
श्री डी.जे. जोशी के साथ मुम्बई में 1960, श्री मदन भटनागर के साथ मुम्बई में 1989, श्री मदन भटनागर एवं श्री हामिद के साथ मुम्बई में 1993, मध्य प्रदेश, के कलाकारों के दल हाला तोल के साथ मुम्बई में 1996
सेमिनार
ऑल इण्डिया आर्ट्स एजुकेशन सेमिनार बंगलुरु 1986, आर्टिस्ट कैम्प जबलपुर 1966, आर्टिस्ट फोरम जबलपुर का गठन
श्री श्रेणिक जैन का कलात्मक सृजन
स्कूल ऑफ आर्ट्स इन्दौर- 1954, अशोका होटल, नई दिल्ली- 1958, गोकुलदास तेजपाल ऑडिटोरियम- 1959, मध्य प्रदेश राज्य योजना उत्सव, भोपाल- 1966, आनन्द टॉकीज, जबलपुर- 1972, कला निकेतन, जबलपुुर -1972 डॉ. कर्ण सिंह (19 जून 1947)
श्री कर्ण सिंह एक चित्रकार, शिक्षक और एक अच्छे प्रशासक के रूप में जाने जाते हैं। आपका जन्म 19 जून, 1947 को रीवा जिले में हुआ। आपके पिता श्री जी.पी. सिंह एवं माता श्रीमती द्वादशी देवी हैं। बचपन में आपको चित्रकला एवं संगीत दोनों में ही रुचि थी। इनकी प्रेरणा आपको अपने परिवार से ही प्राप्त हुई। आपके दादा जी श्री आर.एस.सिंह ‘स्टेट कलाकार’ के रूप में जाने जाते थे। उन्हें State Artist की उपाधि प्राप्त थी। पिता श्री जी.पी.सिंह व्यक्ति चित्रण में निपुण थे तो अपनी माता श्रीमती द्वादशी देवी पारम्परिक कला में। वर्तमान में आपकी धर्मपत्नी श्रीमती सरला सिंह आपके सृजन कार्य में सहयोग करती हैं। पुत्र कुबेर सिंह एवं भूपेन्द्र सिंह दोनों का चित्र कला क्षेत्र में हस्तक्षेप रहा है।
आपकी प्राथमिक शिक्षा रीवा जिले में ही हुई। शिक्षा का प्रारम्भ एक भव्य और पुरातन मन्दिर से हुआ। प्राथमिक गुरू श्री मुकाती रहे हैं। पाँचवी कक्षा तक आप रीवा के सरकारी स्कूल में पढ़े। इसके पश्चात आगे की पढ़ाई के लिये इन्दौर के संयोगितागंज के विद्यालय में प्रवेश लिया। मैट्रिक की परीक्षा आपने रीवा से दी। इसी समय आपने आई.जी.डी. की परीक्षा पास की। ग्यारहवीं की पढ़ाई के लिये पुनः इन्दौर आये। संयोगितागंज के हायर सेकेण्डरी स्कूल से ग्यारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने बी.एस.सी. में साइंस विषय तो लिया था परन्तु आपकी विशेष रुचि चित्र कला में थी इस कारण आप असफल हो गए। ‘क्रिश्चन कॉलेज’ में आर्ट विषय लिया। इसके साथ ही स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स इन्दौर में चित्र कला का अध्ययन भी चलता रहा। 1959 में फाइन आर्ट्स का डिप्लोमा प्राप्त किया। 1970 में क्रिश्चन कॉलेज से राजनीति विज्ञान में एम.ए. किया। चित्र कला विषय को जीवन का उद्देश्य बनाने के लिये विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के माधव कॉलेज से स्नातकोत्तर एवं पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की।
आपके कला गुरुओं में डी.जे. जोशी, राम नारायण दुबे, श्री विष्णु चिंचालकर, श्री भोंसले. श्री एम.जी. किस्किरे, श्री चन्द्रेश सक्सेना प्रमुख रूप से थे। श्री देवलालीकर ने आपके कार्य को प्रशंसित किया और अच्छा कार्य करने के लिये प्रेरित किया।
सन 1971 में डेली कॉलेज, इन्दौर में कला शिक्षक के रूप में कार्य किया और ‘आर्ट सेक्टर’ नामक संस्था को प्रारम्भ किया किन्तु यह अधिक समय तक चल न सकी, अन्ततः इसे बन्द करना पड़ा।
09 मार्च, 1979 को शासकीय ललित कला संस्थान, धार में कला शिक्षक के रूप में कार्य किया। सितम्बर 1979 में शासकीय ललित कला संस्थान, ग्वालियर में निदेशक के पद पर नियुक्त हुए। वहाँ से 1980 में स्थानान्तरित होकर ललित होकर ‘ललित कला संस्थान’ इन्दौर आये। प्रशासनिक कार्यों में दृढ़ता और पारदर्शिता अपनाते थे। संस्थान में सभी सदस्यों के साथ समतापूर्ण व्यवहार करना एवं अपने कार्यों के प्रति समर्पित रहना आपके गुणों में शामिल है।
आपने ‘लक्ष्य’ नामक पुस्तक छपवाई जिसमें विद्यार्थियों की उपलब्धियों का अंकन है। इसमें ललित कला का इतिहास और वर्तमान दोनों निहित हैं। आपका मानना है कि किसी भी संस्था की उन्नति के लिये ईमानदारी एक आवश्यक गुण है। यह नियम विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों के लिये आवश्यक रूप से लागू होता है। आपका मानना है कि गुरू की तकनीकों में ध्यान देते हुए कार्य की मौलिकता पर ध्यान देना चाहिए।
प्राचार्य पद पर रहते हुए आपने अनेकों उन्नति के कार्य किये। कर्तव्यों को पूर्ण करते हुए सफल प्राचार्य के रूप में जाने गए। आपमें सौन्दर्यपूर्ण दृष्टि और प्रशासनिक क्षमता दोनों ही विद्यमान हैं। आपने कॉलेज के प्रॉस्पेक्टस को स्वयं डिजाइन किया।
सृजनात्मक कार्य करते हुए अनेकों एकल और सामूहिक प्रदर्शनियाँ की। अनेकों पुरस्कारों को प्राप्त किया जिनमें अखिल भारतीय कालिदास प्रदर्शनी चित्रकला पुरस्कार 1975 और मूर्ति कला में 1980 में पुरस्कार प्राप्त किया। सन 1976 में महावीर दर्शन अखिल भारतीय प्रदर्शनी, 1977 में My India miniature binaleg exhibition, Hyderabad, 1991 में दृश्य चित्रण में Best award, Ujjain और 1991 में ‘मेरा इन्दौर’ पेंटिंग प्रतियोगिता में भी पुरस्कृत हुए।
आपने आई.सी.सी.आई. सेन्ट्रल म्यूजियम, इन्दौर 1974, स्वीन्डरा एम.जी. रोड इन्दौर, आर्ट प्लाजा किला मुम्बई 1990, जहाँगीर आर्ट गैलरी मुम्बई 1991 व 1994, बजाज आर्ट गैलरी मुम्बई 1992 और देवलालीकर कला वीथिका, इन्दौर में एकल चित्र प्रदर्शनियाँ आयोजित की साथ ही अनेकों सामूहिक प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया।
सन 1976 में मध्य प्रदेश कला परिषद, भोपाल द्वारा आयोजित ऑल इण्डिया आर्टिस्ट कैम्प में भागीदारी की। साथ ही 1977 में भीमबेटका दृश्य चित्रण कैम्प, 1978 में युवा कलाकार कैम्प, इन्दौर 1990 में यूथ सेंटर जोन पोर्ट्रेट कैम्प 1994 में श्री डी.डी. देवलालीकर शताब्दी समर कैम्प और 1993 में टूरिज्म कॉर्पोरेशन कैम्प और प्रदर्शनी में हिस्सेदारी की।
आपकी सौन्दर्यपूर्ण कृतियाँ राजभवन गवर्नर हाउस, भोपाल, मध्य प्रदेश कला परिषद, भोपाल, बल्लभ भवन, भोपाल, नेहरू एक्जीक्यूटिव यूनिवर्सिटी, जबलपुर, बॉर्डर सोसायटी फ्रांस, टोकेनपुर, एम.पी.हाउस, नई दिल्ली, बिरला अकादमी और रॉयल मिल, भारत भवन, भोपाल, श्री केतन भाई एण्ड इन्मेनीपिरेटिव गवर्नमेंट कार्यालय में संग्रहित हैं। इसके अलावा इंग्लैण्ड, अमरीका, इटली तथा कनाडा में भी आपकी कृतियाँ संग्रहित हैं।
इस प्रकार आप कलात्मक जीवन को सार्थक बनाकर सृजन कार्यों में लगे रहे और कला जगत में प्रशंसा प्राप्त करते रहे।

डॉ. रामचन्द्र भावसार प्रख्यात चित्रकार और मूर्तिकार हैं। इनका जन्म 17 मार्च, 1935 को शाजापुर में श्री नत्थूलाल जी भावसार के घर हुआ था। जो कि एक कपड़े के व्यापारी थे। माता श्रीमती पार्वती भावसार दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं। जिन्हें धार्मिक पुस्तकें पढ़ने का शौक है। परिवार में आप सबसे बड़े पुत्र हैं। आपके सभी भाई डॉ. लक्ष्मीनारायण एवं डॉ. जगदीश भावसार चित्रकार है। डॉ. लक्ष्मीनारायण भावसार प्रख्यात चित्रकारों में से एक हैं।
आपके पूर्व परिवार में कोई चित्रकार नहीं था। अतः आपको इस क्षेत्र में आने के लिये बहुत संघर्ष करना पड़ा। आपकी प्राथमिक शिक्षा शाजापुर में हुई। शाजापुर के तोड़ा स्कूल में महन्त दयालदास जी ने चौथी कक्षा तक पढ़ाया। तोड़ा स्कूल अपने समय में अध्यापन के लिये पूरे जिले में विख्यात था। चौथी कक्षा के पश्चात आपने शाजापुर के सरकारी हाईस्कूल में प्रवेश लिया। चित्रकला की प्रारम्भिक शिक्षा श्री राजनारायण जौहरी से ली। इनके अलावा आपकी शिक्षा श्री गंगाधर गणेश सोमनी और ओमप्रकाश भटनागर के मार्गदर्शन में हुई। शाजापुर में मैट्रिक तक का अध्ययन करने के पश्चात कला गुरुओं की प्रेरणा से आपको इन्दौर स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश मिला।
डॉ. रामचन्द्र ने एलीमेन्ट्री ग्रेड ड्रॉइंग तथा इन्टरमीडिएट ग्रेड ड्रॉइंग परीक्षा सन 1950 एवं 1955 में इन्ही गुरुओं के माध्यम से पूरी की। इनके श्रेष्ठ मार्गदर्शन में ‘A’ ग्रेड प्राप्त किया। आपकी अन्य विषयों में पढ़ने के प्रति रुचि नहीं थी। आपकी चित्रकला में अत्यधिक रुचि थी। सन 1954 में मैट्रिक (10वीं) कक्षा की परीक्षा मध्य भारत माध्यमिक शिक्षा मण्डल से उत्तीर्ण की।
आगे की शिक्षा के लिये आपके माता-पिता ने आपके शिक्षक श्री गंगाधर गणेश सोमनी से सलाह ली तो आपने इन्हें इन्दौर के आर्ट स्कूल में शिक्षा दिलाने की सलाह दी। सन 1954 में आपने इन्दौर स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश लिया. उस समय श्री डी.जे.जोशी स्कूल ऑफ आर्ट्स के प्राचार्य थे तथा चित्रकला के क्षेत्र में वे सम्पूर्ण भारत में ख्याति प्राप्त थे। अन्य शिक्षकों में श्री चन्द्रेश सक्सेना, श्री शान्ताराम रेगे, श्री दुबे एवं श्री सासवड़कर आदि पदस्थ थे। उसी समय श्री श्रेणिक जैन को भारत सरकार की फेलोशिप दी गई थी। अतः वे भी स्कूल ऑफ आर्ट्स में अध्ययन किया करते थे। रामचन्द्र जी को इन योग्य शिक्षकों का शीर्षस्थ कलाकारों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ तथा मुम्बई जाकर परीक्षा दी और सफलता प्राप्त की।
आपके पिताजी ने पढ़ाई के लिये इन्दौर स्कूल ऑफ आर्ट्स भेज तो दिया, परन्तु कार्याभाव की समस्या आ गई। इसके समाधान के लिये पेमगिरिकर पेंटर से साइन बोर्ड बनाने का मार्गदर्शन लिया। इन्दौर में रह कर सर्विस ढूँढी। सौभाग्य से इन्दौर में ही सर्वे एवं प्रोजेक्ट डिवीजन में मानचित्रकार के रूप में नौकरी मिल गई। इस प्रकार स्वावलम्बी होकर पढ़ाई जारी रखी। अचानक व्यवधान आ गया, क्योंकि मध्य भारत सर्वे एवं प्रोजेक्ट डिवीजन ऑफिस को स्टाफ सहित उज्जैन स्थानान्तरित किया। वे तब से उज्जैन आ गए। इस प्रकार उनकी शिक्षा में भी व्यवधान आया।
सन 1954 में आप भारती कला भवन के कलागुरू वाकणकर के सम्पर्क में आये। अत्यधिक परिश्रम के साथ जी.डी.आर्ट की परीक्षा मुम्बई से पास की। सन 1961-62 में आपने माधव महाविद्यालय, उज्जैन की बी.ए. कक्षा में प्रवेश लिया। 1963 में बी.ए. पास किया। पदोन्नत होकर असिस्टेंट ड्राफ्टमैन हो गए। आपने इन्दौर स्थित सेन्ट्रल स्कूल के लिये आवेदन किया और 1964 में सफल होने पर कला शिक्षक पद प्राप्त किया।
इसी समय भोपाल में मध्य प्रदेश शासन माध्यमिक शिक्षा मंडल आदर्श विद्यालय (Model School) प्रारम्भ कर रहा था। इस कार्य के लिये महाराजवाड़ा हायर सेकण्डरी स्कूल, उज्जैन के प्राचार्य श्री एम.बी. लालगे को चुना गया था। इन्हें विषय विशेषज्ञ शिक्षक नियुक्ति के अधिकार दिये गए थे। अतः श्री रामचन्द्र भावसार मॉडल स्कूल में शिक्षक हो गए। यहाँ रहकर शिक्षक बतौर अनेक चित्रों का निर्माण किया। 1967 में माधव कॉलेज से एम.ए. उत्तीर्ण किया। आपने चित्रकला और इतिहास (Ancient India History & Culture) में एम.ए. किया।
1979 को माधव कॉलेज में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए। सन 1979 को खैरागढ़ विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय चित्रकला में नारी ‘सौन्दर्य’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई। इस प्रकार अपनी योग्यता का संवर्धन करने के लिये श्री भावसार ने अपने जीवन में अथक परिश्रम की ओर माधव महाविद्यालय उज्जैन को अपनी कर्मभूमि बनाया तथा अध्यापन कर अनेकों शिष्यों को दीक्षित किया।
आप बहुत अच्छे व्यक्ति चित्रकार, दृश्य चित्रकार, मूर्तिकार हैं। आपने विशेषकर चित्रकला में प्रशिक्षण प्राप्त किया। मूर्तिकला में किसी प्रकार का डिप्लोमा या डिग्री हासिल नहीं की। फिर भी मूर्तिकला में भी उतनी ही रुचि है, जितनी चित्रकला में। आपकी प्रसिद्ध कृतियों में माधव महाविद्यालय में लगी आदमकद विवेकानन्द की प्रतिमा, धावक प्रतिमा और विक्रम विश्वविद्यालय में विक्रमादित्य प्रतिमा आदि हैं।
आपने दृश्य चित्रण के लिये कश्मीर से कन्याकुमारी तक यात्रा की और दृश्य चित्रों का सृजन कर मनोरम झांकी प्रस्तुत की। इनमें आध्यात्मिक मनोरम दृश्यों को भी बनाया। आपने लगभग सभी माध्यमों जल रंग, तेल रंग, एक्रेलिक पेस्टल तथा कुछ कोलाज में चित्र बनाये हैं। सीधे ब्रश के माध्यम से बिना स्केच किये मात्र 40-45 मिनट में कोई भी पोर्ट्रेट बनाने में सिद्धहस्त हैं।
आपने आज तक अनेकों विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया है और अभी भी शोध कार्य और चित्र सृजन का मार्गदर्शन दे रहे हैं। साथ ही चित्र निर्माण में रत हैं। आपको सृजनात्मक कार्यों के लिये निम्नलिखित अवार्ड्स मिल चुके हैंः-
1. प्रथम पुरस्कार (Govt. of M.P. Plaque) मध्य प्रदेश स्टेट आर्ट एक्जिबिशन, भोपाल- 1968
2. नकद पुरस्कार सहित प्रमाण पत्र- श्रेष्ठ चित्र हेतु अखिल भारतीय कालिदास चित्र और मूर्तिकला प्रदर्शनी उज्जैन- 1972
3. प्रशंसनीय प्रमाण पत्र (1973) - महाकौशल कला परिषद, रायपुर द्वारा
4. प्रशंसनीय प्रमाण पत्र- (Indian academy of fine arts Amritsar)-2004
Prestigious Awards-
1. मधुबन द्वारा श्रेष्ठ कला आचार्य के रूप में सम्मानित- 1990
2. ऑल इण्डिया फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट सोसायटी, न्यू दिल्ली द्वारा विशेष योगदान के लिये सम्मानित- 1996
3. श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान शिक्षक दिवस के अवसर पर म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन उज्जैन- 2014
4. सविता अरोरा का शोध प्रबन्ध- चित्रकला शिक्षा में माधव महाविद्यालय उज्जैन का योगदान और विद्यार्थियों की उपलब्धियाँ एक समीक्षात्मक अध्ययन 2011- विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन- पृष्ठ क्रमांक- 104
यहीं से जीवन का संघर्ष प्रारम्भ हुआ। मध्य प्रदेश के शिक्षा मंत्री श्री हरिभाऊ जोशी ने लोकमान्य तिलक विद्यालय प्रारम्भ किया। इसी विद्यालय में आपने अपनी सेवाएँ शिक्षण कार्य के रूप में प्रदान की। स्व. डॉ. मोहनलाल झाला ने 02 अक्टूबर, 1968 में अपने कलागुरू स्व. मास्टर मदनलाल जी की स्मृति में उज्जैन नई सड़क योगेश्वर टेकरी स्थित गुजराती समाज के एक स्वतंत्र कक्ष में चित्रकला विद्यालय प्रारम्भ किया। जिसकी मानसेवी प्राचार्या प्रो.रावत, सचिव डॉ. मोहनलाल झाला और कला शिक्षक डॉ. एस.के. जोशी, नियुक्त हुए। 3 वर्ष तक यह संस्था चली और आर्थिक संकटों से जूझते हुए बन्द हो गई। जुलाई 1971 में श्री जोशी लोटी स्कूल में कला अध्यापक नियुक्त हुए किन्तु वहाँ अन्य विषय भी पढ़ाए जाते थे। तब आपने वहाँ की सेवा छोड़कर 09 नवम्बर, 1971 में मिडिल स्कूल छोड़कर खेड़ाखजूरिया तहसील महिदपुर में आप सहायक शिक्षक नियुक्त हुए। स्व. श्री वाकणकर की ही कृपा से आपने कला अध्ययन जारी रखा। सन 1976-77 में आपने बी.एड. किया और 1975 में आप विजयाराजा स्कूल में कला अध्यापक भी रहे। आपने सन 1978 में विक्रम विश्वविद्यालय में प्रो. शिवकुमारी जी के निर्देशन में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। सन 1979 में कन्या माध्यमिक विद्यालय दशहरा मैदान में आपका स्थानान्तरण हुआ। इस मध्य शिक्षा विभाग ने आपसे कला सम्बन्धी बहुत सा कार्य कराया और शिक्षक दिवस पर नगर पालिका ने आपको सम्मानित भी किया। आपकी पहली एकल प्रदर्शनी सन 1971 में इन्दौर के केन्द्रीय संग्रहालय में आयोजित हुई। इस प्रदर्शनी का उद्घाटन प्रसिद्ध चित्रकार और कलागुरू प्राचार्य स्व. देवकृष्ण जटाशंकर जोशी जी ने किया। अध्यक्षता चि. श्री वाकणकर जी ने की और प्रोत्साहनकर्ताओं में प्रो. शिवकुमारी रावत, डॉ. मोहनलाल जी झाला, केन्द्रीय संग्रहालय के अध्यक्ष श्री रामसेवक जी गर्ग थे। प्रसिद्ध चित्रकार श्री करण सिंह ने बहुत सहयोग दिया।
संघर्षमय जीवन चलता रहा और विक्रम विश्वविद्यालय ने व्याख्याता की विज्ञप्ति निकाली और साक्षात्कार में आप चुन लिये गए। 09 नवम्बर, 1981 से आप माधव महाविद्यालय में व्याख्याता नियुक्त हुए। विभागाध्यक्ष श्रीमती शिवकुमारी जी और डॉ. रामचन्द्र भावसार उस समय चित्रकला विभाग में पदस्थ थे। सन 1981 से लेकर 2005 तक आपने वहाँ सेवाएँ दी। आपने स्वयं के अथक प्रयासों से अनेकों विद्यार्थियों को तैयार किया। आप सेवानिवृत्ति के बाद भी चित्रकला में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों को आज भी तैयार करने के लिये चित्रकला की कक्षाएँ ले रहे हैं।
सामूहिक प्रदर्शनी
आपने डॉ.आर.सी. भावसार के साथ कला निलय चित्रकला महाविद्यालय गुजराती समाज, उज्जैन 1970, इस प्रदर्शनी का उद्घाटन डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा किया गया। जय बंगला प्रदर्शनी केन्द्रीय संग्रहालय, इन्दौर- 1971 विश्व हिन्दू परिषद, अमरीका द्वारा 1984 में न्यूयार्क में आयोजित इसके अतिरिक्त अनेक समूह प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया, जो भोपाल, दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ तथा जबलपुर में आयोजित थीं।
एकल प्रदर्शनी
1. 13 से 15 अगस्त 1971 केन्द्रीय संग्रहालय, इन्दौर,
2. 23 फरवरी, 2005 जवाहर कला केन्द्र, जयपुर।

श्रीमती शिवकुमारी जोशी का जन्म 15 नवम्बर, 1935 को जवासिया जिला देवास में हुआ था। माध्यमिक शिक्षा दीक्षा के लिये आपके पिताजी श्री गिरिराज सिंह ठाकुर ने उज्जैन के फ्रीगंज क्षेत्र में जवासिया हाउस नामक भवन बनाया, वहीं रहकर आपने मसीहा मन्दिर देवास रोड और उसके पश्चात विजयाराजे कन्या विद्यालय में आपने शिक्षा प्राप्त की। माध्यमिक शिक्षा के पश्चात आपने मैट्रिक की शिक्षा विजयाराजे विद्यालय से पूर्ण की। उस समय अजमेर बोर्ड से परीक्षाएँ होती थीं। मैट्रिक के पश्चात आपने माधव महाविद्यालय में प्रवेश लिया। उस समय माधव महाविद्यालय आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। उसके पश्चात एम.ए. आपने आगरा विश्वविद्यालय के केन्द्र अलीगढ़ से उत्तीर्ण किया और उज्जैन के शिक्षा महाविद्यालय से बी.एड. किया।
कला शिक्षा की शुरूआत घर से ही हुई। तीज त्योहारों पर मॉडने, सांझी आदि रूपाकर बनाये जाते थे, उन संस्कारों ने कला के बीज बोये। प्रारम्भ में संगीत की ओर झुकाव रहा और श्रीमती खाण्डेपारकर और स्व. वाघ संगीत के शिक्षक रहे। आवाज में मिठास और माधुर्य था, लेकिन रूढ़िवादी विचारों के कारण इस क्षेत्र में आगे न बढ़ते हुए दूसरा रुझान कला की ओर था। कला शिक्षिका ब्रजेश कुमारी सक्सेना ने आपको प्रोत्साहित किया और फिर आप योग्य कला गुरू पद्मश्री श्री वाकणकर के सम्पर्क में आये। श्री वाकणकर जी मुम्बई से डिप्लोमा पास करके आये थे और उन्होंने माधव नगर क्षेत्र में भारतीय कला भवन 1954 में प्रारम्भ किया। वे स्वयं भी बहुत अच्छे कलाकार थे। सुवासरा में कला गुरू श्री मावलकर जी से चित्रकला, मूर्तिकला की प्रेरणा ली थी। उसके पश्चात घर में श्री देवकृष्ण जटाशंकर जोशी जैसे कलागुरू से कला की विधियों का ज्ञान प्राप्त किया और वहीं पर प्रसिद्ध शिल्पकार फड़के (पद्मश्री) से मूर्तिकला का ज्ञान प्राप्त किया। उसके पश्चात आप मुम्बई गए। वहाँ एक से बढ़कर एक कलाकार थे। आपने उन सभी के कार्यों को ध्यान से देखा और आपको लगा मेरे मालवा में भी जागृति आनी चाहिये। इन्दौर में श्री देवलालीकर जी कला गुरू थे जिन्होंने विश्वविख्यात चित्रकार तैयार किये थे। धार में फड़के सा और डी.जे. जोशी हैं लेकिन उज्जैन में इस दिशा में कोई हलचल नहीं है। श्री वाकणकर जी के पिता ने फ्रीगंज क्षेत्र में एक मकान खरीदा। आपने उसी मकान में भारतीय कला भवन आर्ट स्कूल प्रारम्भ किया और उत्सुक छात्रों को खोजा। उनमें सचिदा नागदेव, मुजफ्फर कुरैसी, रहीम गुट्टी, आर.सी. भावसार जैसे विद्यार्थी इस स्कूल में जुटे और वहीं शिवकुमारी रावत भी पहुँची। आर्ट स्कूल का वातावरण भी गुरुकुल जैसा था। स्वयं विद्यार्थी कक्षा की सफाई करते और स्वयं के चन्दे से दरी भी क्रय की थी और एक-एक कोने में हर एक विद्यार्थी अपना कार्य लेकर बैठ जाते थे। इस प्रकार घंटों कार्य होता था।
श्री वाकणकर जी कला गुरू के साथ-साथ पुरातत्ववेत्ता थे और साथ ही हिन्दुवादी संगठन में भी जुड़े थे। इस कारण कई दिन प्रवास पर रहते थे किन्तु कला विद्यालय निरन्तर चलता रहता था। श्री वाकणकर साहब जब नगर में रहते थे वे चित्र कला की बारीकियों से अपने विद्यार्थियों को अवगत कराते। दृश्य चित्रण के लिये रमणीय स्थानों पर ले जाते, माण्डव, ओंकारेश्वर आदि और वहाँ सभी दृश्य- चित्र बनाते थे।
अपने यहाँ आर्ट स्कूल में बड़े-बड़े कलाकारों को बुलाते और उनसे प्रातयक्षिकी (Demonstration) दिलवाते और कला मण्डपों को दिखाने भी ले जाते। जैसे अजन्ता बाघ आदि। उनसे छात्रों को सीखने की प्रेरणा मिलती। ऐसे वातावरण में शिवकुमारी जोशी की शिक्षा अनवरत जारी रही।
प्रदर्शनी
श्रीमती शिवकुमारी जोशी ने माधव महाविद्यालय, उज्जैन में सन 1965 अपने द्वारा निर्मित चित्रों की प्रदर्शनी की, जिसका उद्घाटन राजमता सिंधिया के द्वारा हुआ था। आपने अनेकों सामूहिक प्रदर्शनियों में भी हिस्सेदारी की। 1968 में लखनऊ, 1974 और 1975 में उज्जैन के कलाकारों के साथ केन्द्रीय संग्रहालयों में प्रदर्शनी की। डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर के निर्देशन में मुम्बई में सामूहिक प्रदर्शनी में हिस्सेदारी की। यही नहीं आपके चित्रों की प्रदर्शनी देश ही नहीं विदेश में भी हुई। आपके चित्रों को वाकणकर जी अपने साथ विदेश यात्रा पर ले गए थे। अतः यूरोप के विभिन्न स्थानों पर आपके चित्र प्रदर्शित किये गए।
अतः कहा जा सकता है कि विभिन्न विधाओं में पारंगत होने पर भी चित्र की अपनी पहचान बनाई है। कालिदास रचित ग्रन्थों पर आधारित अनेकों चित्र बनाये।
श्री सत्यव्रत विनयेन्द्र सिंह देशमुख (1 जून 1928-2000)
श्री सत्यव्रत जी प्रकृति प्रेमी कर्मठ एवं सहृदयी व्यक्ति थे। प्रकृति के बदलते रंगों का निरीक्षण, मन्दिरों, ऐतिहासिक इमारतों और पृथ्वी के सौन्दर्य को आत्मसात कर अभिव्यक्त करने में निपुण थे। आपका सम्बन्ध बड़ौदा से होने से आप कलाकारों से प्रेरणा पाते रहे।
पारिवारिक स्थिति
आपका जन्म गुजरात के बड़ौदा नगर में 01 जून, 1928 में हुआ। आपके पिता श्री विनयेन्द्र सिंह आनन्द राव देशमुख मध्य प्रदेश के शुजालपुर तहसील के जमींदार थे और माता विमला देवी बड़ौदा के राज परिवार से सम्बन्धित थीं। आपके नाना जी श्री गणपत राव गायकवाड़ के बड़ौदा राजपरिवार से निकट सम्बन्धी थे। आपकी दो बहनें और दो भाई थे। आपकी सबसे बड़ी बहन सत्यप्रिया, सबसे छोटी बहन सत्यप्रभा, दो भाई सत्येन्द्र और सत्यप्रसंग देशमुख आपके सहयोगी रहे हैं।
आपकी धर्मपत्नी सुहासिनी देशमुख शिक्षित महिला हैं। आपने राजनीति विषय में स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की। इस प्रकार आपका परिवार समृद्ध और सुखी था। आपके परिवार में एक पुत्र अंशुमाली और पुत्री विभावरी आज्ञाकारी बच्चे हैं।
आपके पिता जमींदार होने से आपको किसी प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। जमीन-जायदाद खेती-बाड़ी और पशु धन से सम्पन्न थे।
कला-प्रेरणा
आपको चित्रकला की प्रेरणा अपने परिवार से ही प्राप्त हुई। आपके पिता श्री विनयेन्द्र सिंह चित्रकला के शौकीन थे। उनके कुछ मित्र भी चित्रकार रहे चुके हैं। आपका सम्बन्ध मालवा की भूमि से रहा। अतः मालवा भूमि का सुखद प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, क्योंकि शुजालपुर क्षेत्र मालवा की धरती पर उपस्थित है और शस्य-श्यामला भूमि की हरितिमा मनमोहक प्रभाव छोड़ने में कामयाब रही। यही कारण रहा कि इस धरती पर श्री डी.डी.देवलालीकर, श्री डी.जे. जोशी, श्री नारायण श्रीधर बेन्द्रे एवं हुसैन जैसे कलाकारों ने अपने चित्रकर्म से मालवा धरती को विश्व के समक्ष लाने का प्रयास किया।
श्री सत्यव्रत सिंह देशमुख का परिवार सदा सौभाग्यशाली, धार्मिक प्रवृत्ति का रहा है। माता जी धर्म पर अधिक विश्वास रखती थीं। घर में धार्मिक वातावरण के रहते, घर में साधु-सन्तों का सम्मान, दान-धर्म, तीज-त्योहारों का माहौल बना रहता था। गणेश उत्सव एवं पूजा-पाठ के समय रंगोली और आलेखनों को ध्यान से देखते थे।
शुजालपुर एक ऐतिहासिक, धार्मिक और पौराणिक स्थान है। इसका वर्तमान नाम सुजातखान से सम्बन्धित है जिसे उसने जीर्णोद्धार के बाद दिया था। इसे विकसित करने में पिण्डारी नेता करीम खाँ और सिंधिया परिवार का साथ रहा।
शुजालपुर में अवस्थित महल सेनापति राणेजी सिंधिया शहीद स्थली (छत्री), श्री राम मन्दिर, जटाशंकर स्थित भोलेनाथ का मन्दिर प्रमुख है। इसके अलावा राणोगंज स्थित भगवान शंकर की पिंडी धार्मिक विश्वास की परिचायक है। शुजालपुर मध्य स्थित जुमा मस्जिद आकर्षण का कारण है।
जमधड़ नदी, नेवन देवा, सिलोदा और नरोला तालाब नैसर्गिक सौन्दर्य का साधन हैं। जिन्हें श्री सत्येन्द्रव्रत ने अपने चित्रों में स्थान दिया है। आपके चित्रों में बादलों की घनघोरता, जल की उपस्थिति, मन्दिरों, चर्च, छतरी एवं गुरुद्वारे की उपस्थिति आपके चित्रों के सौन्दर्य को बढ़ा देती है। अर्थात यह धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल भी प्रेरणास्रोत रहे हैं। शुजालपुर सद्भावनाओं की मिसाल रहा है।
कलागुरू
आपके प्रथम कलागुरू आपके पिता थे। उन्होंने ही आपकी रुचि देखते हुए आपको कला की शिक्षा की ओर प्रेरित किया। बचपन से ही आपमें कलाभिरुचि व्याप्त है। आपको कला की प्रेरणा आपके ननिहाल बड़ौदा से प्राप्त हुई।
आपने प्रारम्भ में राजा रवि वर्मा जैसे महान कलाकारों के चित्रों की अनुकृति की। उस समय उनके चित्रों की कॉपी करना, श्रेष्ठ समझा जाता था। जिसमें भील-वेश, शिव पार्वती, राम-दरबार, नल दमयन्ती हंस, शकुन्तला के चित्र प्रमुख हैं। आपने चाँद बीबी की अनुकृति सजीवता के साथ चित्र बनाया।
आपके कलागुरू श्री बम्बेगांवकर जी थे। इनके अलावा नरसिंहगढ़ के हाड़ा साहब और अम्बेरकर से कला शिक्षा पाई।
कला यात्रा
सन 1940 के बाद आप नरसिंहगढ़ गए। वहाँ आपने श्री हाड़ा साहब से कला शिक्षा पाई। इंटरमीडिएट की परीक्षा ग्वालियर से उत्तीर्ण की।
नरसिंहगढ़ के महाराजा कला के विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते थे। उनके पुस्तकालय में चित्रकला विषय की अच्छी पुस्तकों का संग्रह था। कोलकाता से प्रकाशित ‘माडर्न रिव्यू’ एवं ‘विशाल भारत’ पत्रिकाओं से प्रेरणा ग्रहण की। आपकी कला रुचि देखकर ‘फानरपेकर’ ऑफिसर शिक्षा ग्वालियर स्टेट ने चित्रकला क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा दी।
आपका परिवार शिक्षित परिवार रहा है। मामा श्री यशवन्तराव एवं चन्द्रसेन गायकवाड़ ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से स्नातक किया था। जिन्होंने श्री सत्यव्रत देव को अपने उद्देश्य में अग्रसर होने में मदद की।
जीवन में कलागुरुओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। आपके प्रयास कला गुरू श्री अम्बेरकर साहब थे। बचपन में आपने पेस्टल रंगों को अपनाया।
एक बार उनके घर पर एक साधु आये। वे कागज पर हनुमान जी की आकृति बनाते और उन्हें विसर्जित कर देते थे। उनकी इस प्रक्रिया को वे एकाग्र होकर निहारते रहते थे।
1937-38 में आपने ‘निकोलस-एरिक’ के चित्रों को देखा। उनसे प्रभावित होकर प्रेरित हुए। आप श्री रामभाऊ महाराज के काँच के चित्रों से प्रभावित हुए। गणेश उत्सव के समय झाँकी निर्माण भी करते थे। श्री हाड़ा साहब ने नरसिंहगढ़ के प्राकृतिक स्थलों के दृश्य चित्रों से परिचय कराया। वहाँ के महन्त जी की प्रेरणा से कला अध्ययन के लिये शान्ति निकेतन में प्रवेश लिया। सत्येन्द्र बोस, नन्दलाल बोस, अवनीन्द्र नाथ, रामकिंकर के चित्रों से प्रेरणा पायी। आपको नन्दलाल बोस के ‘उमा’ शीर्षक चित्र और अवनीन्द्र नाथ के औरंगजेब के चित्र ने बहुत प्रभावित किया।
प्राचार्य धीरेन्द्र देव वर्मन, राधाचरण बागची, पीरूमलदा सुभनन्दा, राममनोहर सिन्हा, रामकिंकर बैज, विनोद बिहारी मुखर्जी आदि ने आपके कार्य को सराहा।
रूप तत्व की प्रेरणा आपको इन्दौर बाजार के गहनों को देखकर मिली। वहीं प्रमाण का ज्ञान श्री दुबे जी से पाया। नख-चित्र की शिक्षा रसियन कलाकार से पाई।
आपकी कला यात्रा शुजालपुर, उज्जैन, इन्दौर, ग्वालियर, शान्ति निकेतन और नागपुर तक सतत चलती रही।
सृजन कार्य
आपने नागपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। सम्पत्ति, न्यायालय जैसे अरुचिकर, मानसिक कष्ट देने वाले कार्यों से विमुक्ति पाते ही वे सृजन कार्य में तन्मय हो जाते थे। श्री देशमुख साहब मुख्यतः जल रंगों से दृश्य चित्र बनाते थे। दृश्य चित्रण हेतु विभिन्न प्रदेशों की यात्रा की। उज्जैन में रहकर महाकालेश्वर मन्दिर में अवस्थित मूर्तियों के स्केचेज बनाये। कालिदास के मेघदूत पर भी चित्र निर्मित किये। रामटेक नामक स्थान पर अनेकों दृश्य चित्र निर्मित किये। उज्जैन में रहने महाकाल हरसिद्धि, माधव कॉलेज के अनेकों दृश्य चित्रण का लक्ष्य बनाया।
नागपुर में रहकर आपने स्वयं के सुख के लिये चित्र सृजन किया। वहीं पर आपके गुरू पाटवेकर का सानिध्य प्राप्त हुआ।
इस प्रकार आपने कला को आत्मानन्द के लिये ही चुना। व्यावसायिकता प्रचार, प्रसार और सम्मान जैसे लालच से दूर रहे और सतत चित्रण कार्य में संलग्न रहे। आपने अपने चित्रों में वाश पद्धति और जल रंग को विशेष महत्व दिया है। आपके दृश्य चित्रों में मन्दिर, खंडहर, छतरी वास्तुकला, पहाड़, नदी विभिन्न रंगतों वाली धरती, राजवाड़ा, गायत्री मन्दिर किला आदि विषयों को लेकर दृश्य चित्र बनाये हैं। आपके दृश्य चित्र मोने मने, पिस्सारो, सिसली रेनायर और देगा जैसे प्रभाववादी चित्रकारों से प्रभावित रहे हैं।
श्री सत्यव्रत विनयेन्द्र देशमुख के चित्र सरल, सुबोध, स्वतंत्र रचनात्मकता लिये हुए हैं। आपकी आभासात्मक तकनीक ने अनेक कलारसिकों, चितेरों को प्रभावित और प्रकाशित भी किया है। आपने चित्रों में पर्सपेक्टिव का विशेष ध्यान रखा है। पास और दूरी के अनुरूप रंगों का सिद्धस्त प्रयोग दिखाई देता है। दृश्यों में केन्द्रीयकरण के नियम का पालन किया गया है। आपके चित्रों का आकार सामान्यतः 15”x22” होता है।
चित्र कर्म करते हुए आप सन 2000 में इस संसार को छोड़कर दिव्य ज्योति में लीन हो गए।
श्री सत्येन्द्र देशमुख के प्रमुख चित्रदृश्य चित्रण
1. गीता भवन मन्दिर, 2. रामटेक, 3. गोपाल कृष्ण मन्दिर सोनेगाँव नागपुर, 4. राम मन्दिर शुजालपुर 5. काटीबाबा मन्दिर शुजालपुर 6. राणों जी सिंधिया की छत्री 7. लक्ष्मण राव वाकणकर शुजालपुर का घर 8. ब्रह्मकुमारी समाज आश्रम नागपुर 9. राजवाड़ा इन्दौर 10. बिजासन मन्दिर इन्दौर 11. महाकाल मन्दिर उज्जैन 12. रूद्रसागर उज्जैन 13 माधव महाविद्यालय 14. परतवाड़ा सिविल लाइन 15. गायत्री मन्दिर 16. गणेश मन्दिर नागपुर 17. साईंनाथ मन्दिर 18. अम्बाझेरी नागपुर 19. आवासीय दृश्य 20. बड़ली किला नागपुर

मालवा ने भारतीय कला को अनेक चित्रकार प्रदान किये। मालवा एक ऐसा उर्वरक धरातल रहा है कि उसमें भिन्न-भिन्न कला दृष्टियों वाली प्रतिभाएँ पैदा की है। मानव भूमि पर अफजल बुनियादी रूप से अमूर्तन कला जगत के विशिष्ट कलाकार रहे हैं। अफजल देवास के कला जगत में शीर्षस्थ बिन्दुओं पर पहुँचने वाले मार्तण्ड राव कापड़े गुरूजी नसीर अहमद खिलजी, विष्णु चिंचालकर के साथ नानाजी भुजंगए डी.बी.पवार, सखाराम, मुसव्वर, आत्माराम कारपेंटर, वासुदेव दुबे, शंकर पुरकर, माधव गिरी, माधव शांताराम रेगे जैसे कलाकारों की नगरी में पैदा हुए थे, जिनकी प्रेरणा से अपने को कला जगत की नई दिशा में राष्ट्रीय स्तर की ऊँचाई दी, सालों तक वह स्थानीय स्कूलों और महाविद्यालयों में ललित कला के छात्रों को बिन्दु और रेखाओं द्वारा रंगों के खेल सिखाते रहे। अफजल के चित्रों में रंगों का सन्तुलन और अनुशासन दोनों की झलक साफ-साफ दिखाई देती है। उनका एब्स्ट्रैक्ट सृजन बहुत महत्त्वपूर्ण है। रतनलाल शर्मा के लैण्डस्केप और कम्पोजीशन जैसी विधाओं का प्रभाव अफजल पर पड़ा, वह उनको अपना गुरू मानते थे। वे विभिन्न रंगों के संघातों से विशिष्ट सौन्दर्य पैदा करते थे। अफजल का और उनकी कला का आम-आदमी के जीवन से सीधा सम्बन्ध और प्रेमपूर्वक रिश्ता था, इसलिये कि वह अपने आस-पास की वस्तुओं रूपाकारों और दृश्यों को अपने चित्रों में मूर्त रूप का स्थान देते थे। आपके निवास स्थान देवास में उनकी कृतियों की एकल प्रदर्शनी लगी। उसमें प्रतिष्ठित दर्शक से लेकर आम आदमी तक की भीड़ लगती थी। लोग बातचीत में वहाँ के स्थानों के चित्र देखकर वहाँ की पहचान बताते थे। वह अपने आस-पास के वातावरण समय स्थान एवं सुख-दुख को चित्रों में ढूँढते दिखते थे। इस चित्र प्रदर्शनी में कोई-न-कोई एक स्थल या बिन्दु था जो औसत दर्शक को भी अपने सामने रोके रखता था। प्रदर्शनी हॉल दर्शकों से खचा-खच भरा रहती थी और यह एक अपूर्व घटना थी। अफजल 50 वर्षों से निरन्तर अनपी रचना कर्म में लगे रहे।
ईश्वरी रावल ने लिखा है-
“अफजल ने बहुत मामूली सी चीजों, जगहों और लोगों को अंधेरे उजाले की दुनिया में देखा और एक निश्चित लेकिन निजी कला दृष्टि के साथ पुनर्सृजित कर दिया। किसे मालूम था कि एक ‘पहलवान’ कैसे-कैसे अनुभव को अपने भीतर समेटे रहा है। यह तो दुनिया को तब पता चलेगा जब उनके चित्रों के असीम सागर के दरवाजे खुल जायेंगे।”
विज्ञान की असीम ऊँचाइयों के साथ पिछली शताब्दी ने आदमी की क्षमताओं को घटाया है और भाग-दौड़ की ऐसी संस्कृति विकसित की है जिसमें सब कुछ बह रहा है, किन्तु इस, बहने के बीच पिछले पाँच दशक से अफजल का चित्रकार न केवल अविचल बना रहा, बल्कि अपनी बात चित्रों के माध्यम से बिना किसी बड़बोलेपन के व्यक्त करता रहा। उसके अन्तर निरन्तर रचना कर्म के लिये ऐसी ऊर्जा निरन्तर बनी रही, जिसके चलते उनके कैनवस हमेशा गीले रहे। अफजल पर टिप्पणी करते हुए एक बार मित्र ने कहा था कि आखिर वह किस मिट्टी का बना है, क्या खाता है, उम्र के छटे दशक में ब्रश और रंग इसके हाथ से नहीं छूटते, हमेशा ताजा-दम कैनवस पर झुका नजर आता है।
देवास के बुजुर्ग चित्रकार रतनलाल शर्मा, विष्णु चिंचालकर, श्री शिंदे, हुसैन शेख, प्रभु जोशी, हरीश गुप्ता, स्व. फापड़े साहब देवास के रंग विधान को समृद्ध करने वाली पीढ़ी रही है। देवास और मालवा की युवा पीढ़ी अफजल साहब से प्रेरणा और शक्ति पाती रही है। अफजल पूर्ण संकोची और विनम्र होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे हैं। देश विदेश की प्रदर्शनियों में उनके चित्र सुशोभित हुए प्रशंसित हुए पुरस्कृत हुए और मान-सम्मान मिला। इस उपलब्धि का ढिंढोरा उन्होंने भी नहीं पीटा। एक बार उनके मित्रों को अपना चालीस साल पुराना काम बताया, जिसमें जल रंग, तेल रंग, पेन्सिल, वुडवर्ड का खजाना था। आपने तेल रंगों से पेंटिंग्स की जबर्दस्त सीरिज तैयार की है। प्रख्यात चित्रकार रामकुमार जी को अफजल के चित्र देखकर इतना सुखद आश्चर्य हुआ था कि देवास में इस प्रकार का सुन्दर मौलिक काम देखने की आशा नहीं थी। भारत भवन के विख्यात चित्रकार, विशेषज्ञ तथा ट्रस्टी स्व. जगदीश स्वामीनाथन ने लिखा था ‘अल्लाह अगर तौकीफ न दे इंसान के बस का काम नहीं।’ आपके प्रशंसकों में स्व. डॉ. वाकणकर, स्वामीनाथ, डॉ कमलेश दत्त त्रिपाठी, चित्रकार हुसैन, प्रभु जोशी, राजाराम तथा वर्तमान युवा पीढ़ी में उनके काम की तारीफ होती है।
अफजल के चित्रों में नवीनता सदैव बनी रही। उनकी यह विशेषता थी कि वे किसी कृति की नकल नहीं करते थे। वे शोहरत पसन्द नहीं थे। कलाकार साथियों के प्रयास से इन्दौर, दिल्ली और मुम्बई में प्रदर्शनियाँ हुई। इसके बाद उन्हें थोड़ा सा कला बाजार का अहसास हुआ, तब उन्होंने एक योगी की तरह जुटकर इतने काम कर डाले कि देखने वाले कहते थे कि इसके लिये सात जन्म भी छोटे पड़ेंगे। वे लगभग पाँच दशक तक निरन्तर कार्य करते रहे, कभी भोर होने होने से पहले, कभी चढ़ती दोपहरी, कभी रात के किसी पहर में ब्रश और कैनवस लेकर काम करना शुरू कर देते थे। उनके काम का समय निश्चित नहीं था और न ही मूड आड़े आता था।
अफजल के मूर्त-अमूर्त चित्रों ने उन्हें एक अमर चित्रकार बना दिया। देवास के उन्होंने अनगिनत लैंडस्केप बनाये। किसी के पूछने पर कि आप देवास के ही लैण्डस्केप क्यों बनाते हो? तब उन्होंने कहा कि ‘मेरा वतन मेरी दुनिया देवास’ है। ये पेचीदा सी तंग गलियाँ, ये मन्दिर, मस्जिद, मकबरे, ये त्यौहार का जोश, ये जश्न ये हगामे सब कुछ हंगामे सब कुछ समय की रफ्तार के साथ थम जायेंगे। आने वाली पीढ़ियों के लिये इसे अपने लैण्डस्केप में कैद कर लिया है। वे कहते थे कि मैंने सबसे पहले मूर्त चित्र बनाना सीखा और बरसों यही करता रहा तभी अमूर्त काम करने में बहुत मजा आता है। मूर्त की शाखाओं से ही अमूर्त की कोपलें फूटती है। आप एक अच्छे शिक्षक भी थे।
आपका जन्म 01 अगस्त, 1936 को एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। बचपन में उनके पिता ने मदरसे से मजहबी तालीम दिलवाई। जब वे कुरान शरीफ पढ़ते थे तो अरबी का एक-एक शब्द अलंकरणयुक्त होता था। जिसने आपको कला की ओर प्रेरित करने में महती भूमिका अदा की। इससे प्रेरित होकर साधारण ढंग से चित्रण की शुरूआत की। देवास में ही स्कूल की शिक्षा पूर्ण कर शासकीय ललित कला संस्थान, इन्दौर से पंचवर्षीय पत्रोपाधि चित्रकला विषय में तथा एम.ए. चित्रकला विषय से विक्रम विश्वविद्यालय से किया।
अफजल देवास में रहते हुए ललित कला की शिक्षा इन्दौर और उज्जैन से प्राप्त कर मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग, इन्दौर से चयनित होकर शासकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय, किला मैदान, इन्दौर में व्याख्याता पद पर पदस्थ हुए। यहाँ विभागाध्यक्ष चित्रकला डॉ. एल.एन. भावसार थे सहकर्मी श्री भंवरलाल कुल्मी थे। विभागाध्यक्ष ने उनको किले की बड़ी-बड़ी दीवारों पर अजन्ता के चित्रण का कार्य सुपुर्द किया। रात-दिन एक कर बड़ी-बड़ी दीवारों पर पूरी अजन्ता को चित्रों में उतारा। इस कार्य से आन्तरिक चित्रकार का जागरण हुआ। चित्रों की प्रतिलिपि से अन्तरमन में भी स्थिरता आई। अब वह बगैर अवरोध के ऊपर उठ सकता है। अजन्ता के चित्रों से ही इनके चित्रों में अमूर्तन का जन्म हुआ। शा.के.पी महाविद्यालय, देवास में स्थानान्तरण हो गया। वहाँ से उनकी कला यात्रा प्रारम्भ होती है।
आपके चित्रों का संसार अपने आप में अनूठा और परिपक्व रहा है। उनके चित्र रेखांकन मध्य प्रदेश की पत्रिकाओं, समाचार पत्रों आदि में प्रकाशित होते रहे हैं। उन्होंने जल रंगों में, तेल रंगों में और एनामेल रंगों में भी काम किया है। साथ ही स्केच पेन से शबीहों की रेखा भंगिमाएँ देखने लायक हैं। अफजल यूरोपीय अमूर्तन से परिचित तो थे ही पर भारत की अमू्र्तन आकारों का उनका सम्पूजन, उसके रंग और रंगते, कई चित्रों की रंग-जरन, अफजल के अपने मुहावरे और अपने कथ्य में है। हम उनके अमूर्त को देखते हैं, तो प्रकृति का अनुभव मिलता है, अनुभव के रंगों का जो एक दो परत वाला नहीं है। उसकी तहें हैं, सवेदित हैं जो दर्शकों के मन में सौन्दर्य को बिछा देती है।
अफजल को लैण्डस्केप में हरे नीले, पीले, सफेद आदि की जो रंगतें हैं, उनमें एक गहरी ऐन्द्रियकता है और वह प्रकृति की ओर झुके हुए रंग हैं। उनके चारों ओर का वातावरण प्राकृतिक उपकरणों से सम्पन्न है, जिसका अंकन उन्होंने किया। इनमें पहाड़ियाँ, देवालय, सरोवर, छोटे-छोटे घरों की बस्तियाँ हैं। राहें, पगडंडियाँ, वृक्ष, हरीतिमा हैं। ये यथार्थवादी हैं, बहुतेरी चीजें संकेतों में, आभासों में हैं। मालवा के लेण्डस्केप देखते हुए अन्य ऐसे दृश्यों से अलग हैं। अपने परिवेश और वातावरण के प्रति इनमें गहरा प्रेम है, तोता पंखी रंग, मालवा के परिधानों के इनमें कहीं-न-कहीं दिखाई देते हैं। नदियों, सरोवरों का जल मौजूद है, आकाश का खुलापन भी इनके साथ है। अफजल के लैण्डस्केप चित्रों में भी सहज ही लोक व्याप्त है, जो मालवा क्षेत्र या उसके आस-पास के क्षेत्रों के कलाकारों के काम में व्याप्त है। इस लोक की ग्राम्य छवियों से अफजल का गहरा जुड़ाव है। अफजल के लैण्डस्केप की अन्तरंगता, ऐन्द्रियता, आँखों और मन को तरंगित करती है, उसका अपना ही एक आस्वाद है।

बहुमुखी प्रतिभा के युक्त श्री प्रभु जोशी एक चिन्तक, जल रंग में चित्र बनाने वाले, अंग्रेजी के विशेषज्ञ, एक कथाकार, सम्पादक लेखक हैं। आपका जन्म 12 दिसम्बर, 1950 को देवास जिले के रांवा गाँव में हुआ। चित्रकला का आपको बचपन से ही शौक था। जिसे वे अभी तक बरकरार रखे हुए हैं। आपने बी.एस.सी. की। इसके पश्चात रसायन शास्त्र में तथा अंग्रेजी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। इंग्लिश ग्रामर में विशेषज्ञता है।
आपने अपनी बाल्यावस्था से ही चित्र बनाना प्रारम्भ किया। जब आप आठ वर्ष के थे, तब रंगों के साथ खेलना प्रारम्भ किया था। इनका पहला चित्र महाभारत की एक घटना पर आधारित था, जिसमें द्रौपदी को छेड़े जाने पर कीचक की भीम द्वारा धुनाई की जा रही थी। यह केवल एक चित्र नहीं था बल्कि समाज में घटित घटना का उद्गार था जो चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया गया। सही कलाकार वही है जो अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं को चित्रों के माध्यम से व्यक्त कर सके। इस चित्र के बाद चित्रकला की प्रति आपकी रुचि बढ़ती रही। आपके पीपलरावां स्थित घर की दीवार तरह-तरह के चित्रों से अलंकृत होती रही। इनमें बैल, बकरी, शेर सहित अन्य जानवर होते थे। आपके चित्र गाँव के लोगों से प्रशंसा पाते रहे। आपके कल्पनाशील हृदय से अनेकों विचार आते जाते रहते थे। किसी बात को लेकर आपने अपना गाँव रांवा छोड़ दिया और देवास आ गए। यहाँ विचारों के दायरे में विस्तार हुआ। यहाँ आपने स्नातक और स्नातकोत्तर (रसायन और अंग्रेजी) में किया। इसके पश्चात आपकी इन्दौर के ललित कला संस्थान के कला गुरुओं के सानिध्य में रहकर कला अभिरुचि परिष्कृत हुई। आप श्री डी.जे.जोशी की पेंटिंग से प्रभावित हुए। आपने अपनी शैली निर्मित की। जो कि रंगों के बहाव पर आधारित थी, जिसमें विशेष प्रकार के टेक्चर का उपयोग किया गया था।
चित्रकला आपका शौक है, इसके साथ ही आप प्रसिद्ध कहानीकार के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। आपने पहले इन्दौर आकाशवाणी के एक्जीक्यूटिव के रूप में सेवाएँ दी। आपने महान साहित्यकार, चित्रकार, संगीतकार पर आधारित प्रोग्राम प्रसारित किये, जिनमें मुक्तिबोध, साल्वेडर डाली, पिकासो, कुमार गन्धर्व तथा उस्ताद अमीर खाँ प्रमुख थे। आकाशवाणी प्रसारण से राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है। आपने अपने जीवनकाल में दो टेली फिल्मों का निर्माण किया। मन्नू भण्डारी पर आधारित दो कलाकार को राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। आपके द्वारा बनाये गए कार्यक्रमों को राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया और पुरस्कार प्राप्त हुए। प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में कहानियाँ, आलेख, परिचर्चाएँ, सेमिनारों में हिस्सेदारी की। नई दुनिया के सम्पादकीय तथा फीचर का प्रकाशन किया। साहित्य के लिये आपको मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग द्वारा ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ फेलोशिप प्राप्त हुई। हिन्दी भाषा की उल्लेखनीय पत्रिका ‘सारिका’ में ‘पितृ ऋण’ प्रकाशित हुई। 1973 में पहला कहानी ‘संग्रह किस हाथ से’ प्रकाशित हुआ। ‘Impact of electronic media on trible society’ विषय पर किये गए ‘ऑडियंस रिसर्च विंग’ का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। सहज, कल्पनाशील, तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्री प्रभु जोशी की कल्पनाएँ चित्रकला के रूप में साकार होती है। ख्याति प्राप्त चित्रकार के दो चित्रों को अमरीका और चार राष्ट्रों द्वारा संचालित Best International Gallery का विशेष पुरस्कार दिया गया।
1. Smile of Child Monalisa
2. Land Scape
‘स्माइल ऑफ चाइल्ड मोनालिसा’ ब्रिटेन के एक अधिकारी की बेटी का चित्र है, जो तेल रंग से यथार्थवादी शैली में निर्मित है। बालिका की मुस्कान ही इस चित्र की विशेषता है। चेहरे पर बाल्य मासूमियत विद्यमान है, बालों में सफेद फूल सौम्यता और सौन्दर्य में वृद्धि कर रही है।
जिस प्रकार श्री चन्द्रेश सक्सेना, श्री श्रेणिक जैन दृश्य चित्रकार के रूप में विख्यात हैं, उसी प्रकार श्री प्रभु जोशी ने भी दृश्य चित्रण की विशिष्ट-शैली के कारण ख्याति प्राप्त की है। आपने पारदर्शी रंगों के चित्र बनाये हैं। ब्रिटेन के प्रसिद्ध जल रंग चित्रकार टेऊ बोर लिंगार्ड ने उनके बारे में कहा कि ‘मै हैरान हूँ कि आपने अपने चित्रों में ऐसा अनलभ्य प्रभाव कैसे पैदा किया?’
अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार पावेल ग्लाद कोव ने उन्हें मौलिक और विशिष्ट चित्रकार बताया है। क्योंकि जल रंग माध्यम चुनौतीपूर्ण माध्यम है।
श्री प्रभु जोशी का मानना है कि कोई भी पूर्ण कलाकार नहीं बन सकता, जब तक उसे कार्य करने का अनुभव न हो। इस विधा में यह डर बना रहता है कि गलत स्ट्रोक लगाने से पूरा चित्र खराब हो जाएगा। वे इस बात के लिये सदैव तैयार रहते थे। चित्र के संयोजन में एकता और लय का सम्बन्ध दिखाई देता है।
आपने पोर्ट्रेट और दृश्य चित्रण दोनों ही बनाये हैं। आपके द्वारा बने पोर्ट्रेट के लिये श्री गुलजार ने कहा है -‘लेण्डस्केप तो सांस लेते हैं, लेकिन पोर्ट्रेट रूह के लैण्डस्केप हैं।’ अर्थात दृश्य चित्रों में जीवन्तता है लेकिन पोर्ट्रेट आन्तरिक दृश्य (अन्तर्मन) को व्यक्त करते हैं। आपने सादृश्य और माइंड स्केप दोनों ही निर्मित किये हैं। आपके चित्रों को देखकर सहज ही ज्ञान हो जाता है। दृश्य चित्र के प्रति उनका आधुनिक विधान दिखाई देता है। विषयों की विविधता और रंगों की बहुलता के बावजूद उनके कार्य सौन्दर्यपूर्ण हैं, क्योंकि उनमें पुरानी मनोहारी रंग योजना और रंगों को इस्तेमाल करने का जादुई ढंग का कमाल देखा जा सकता है। आपने मिक्स मीडिया में भी कार्य किया है, उसी प्रकार Textural के साथ ही यथार्थ आकारों का समावेश एक सामंजस्य उत्पन्न करता है।
आपके दृश्य चित्रों की दिलकश छटा मनोहारी बन पड़ी है। प्रकृति के प्रत्येक रूप को चित्रांकित करने का प्रयास किया है। पर्यावरण के सभी तत्वों को चित्रांकित किया है। पहाड़, जल, वृक्ष, चट्टानें, भूमि, हवा का वेग, वर्षा, गर्मी, वातावरण के सभी रूप चित्रों में उकेरे गए हैं। शीत रंगों के साथ कार्माइन रेड या ऑरेंज कलर की उपस्थिति आकर्षकता उत्पन्न करती है। प्रकृति का मनोहारी रूप और कला तत्वों का सार्थक विद्यमान होना उनकी कला की सौन्दर्यात्मकता की पुष्टि करता है। आपके अधिकांश चित्रों में मानवाकृतियों का अभाव दिखाई देता है। इसका कारण है कि श्री प्रभु जोशी अपना गाँव का घर छोड़ कर देवास आ गए थे। उनकी स्मृतियों में वहाँ की गलियाँ, वहाँ के लोग अवश्य याद आते थे लेकिन वे जिद की वजह से घर नहीं गए। जब चित्र बनाने लगे तो वह जगह तो दिखाई दी, परन्तु आदमी नदारद थे। आपके चित्रों में रंगों की तरलता, पारम्परिक रंग योजना, तकनीक और रंगों के बहाव पर नियंत्रण बना रहा है। इस प्रकार चित्रों में जादुई प्रभाव देखने को मिलता है। उनके चित्रों की स्मृतियों में बसे गाँव, रास्ते, नदी, पोखर, झरने, मैदान, वृक्ष आदि दर्शित हैं। एक चित्र में जंगल काटने का दृश्य दिखाई देता है। श्री प्रभु जोशी का मानना है कि जंगल काटने का अर्थ है स्मृतियों को धराशायी करना। इस प्रकार आपके कुछ चित्र मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ते हैं।
श्री प्रभु जोशी का व्यक्तित्व एक चित्रकार, कहानीकार, सम्पादक, आकाशवाणी एक्जीक्यूटिव और टेलीफिल्म निर्माता के रूप में सामने आता है। आपके बहुआयामी व्यक्तित्व ने अनेकों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किये हैं। प्रदर्शनियाँ लगाई हैं।
प्रदर्शनी
फोर्ट ऑफ आर्ट गैलरी अमरीका, जापान, आस्ट्रेलिया, लिंसिस्टोन, हरबर्ट, जहाँगीर आर्ट गैलरी, भारत भवन भोपाल तथा देश के कई स्थानों पर एकल एवं सामूहिक प्रदर्शनियाँ आयोजित की हैं।
सम्मान एवं पुस्कार
भारत भवन से चित्रकला एवं मध्य प्रदेश साहित्य परिषद का अखिल भारतीय सम्मान, कैलीफोर्निया (यू.एस.ए)- ‘स्माइल ऑफ चाइल्ड मोनालिसा’ जल रंग चित्र के लिये ‘थॉमस मोरान अवॉर्ड’ आपके द्वारा बनाई गई टेली फिल्म ‘दो कलाकार’- राष्ट्रीय पुरस्कार, ऑडियेंस रिसर्च विंग - राष्ट्रीय पुरस्कार, भारत भवन का शीर्ष पुरस्कार, आकाशवाणी के कार्यकर्मों के लिये- 16 पुरस्कार प्राप्त हुए। 21वीं सेंचुरी गैलरी न्यूयार्क के टॉप 70 में शामिल, अन्तरराष्ट्रीय स्पर्धा जनसंचार बर्लिन- जूरी का विशेष पुरस्कार, मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग द्वारा ‘गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप’, अमेरिका में कला प्रेमियों ने ‘भारत का पिकासो’ की, संज्ञा दी।

‘शिखर सम्मान’, ‘शरद जोशी सम्मान’, ‘सृजन सम्मान’ तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसे महत्त्वपूर्ण सम्मानों से सुशोभित श्री अमृतलाल वेगड़ नर्मदा प्रेम से ओत-प्रोत है। उन्होंने अपने धर्म, कर्म और संस्कृति में नर्मदा- सौन्दर्य को ही देखा। नर्मदा पद यात्रा के दौरान आपका एक ही मंत्र होता था, ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ यही जाप करते हुए अपनी नर्मदा परिक्रमाएँ पूरी की। इस दौरान आपने उस पल को उत्साह के साथ महसूस किया। मध्य प्रदेश में अनवरत प्रवाहित होने वाली जीवनदायिनी ‘नर्मदा’ का व्यक्तित्व पाकर ही श्री अमृतलाल वेगड़ की कला-यात्रा पूर्णता को पाती है। आपकी नस-नस में, सम्पूर्ण शिराओं में चेतना की लहर के दर्शन रेखांकनों, चित्रों, कोलाज के माध्यम से किये जा सकते हैं, जो कि आपकी नर्मदा परकम्मा के दौरान सृजित किये गए। आपकी पद यात्रा का उद्देश्य धार्मिक न होकर सांस्कृतिक रहा है। आपने पर्यावरण सौन्दर्य को आत्मीय और श्रद्धा से देखा।
अमृतलाल वेगड़ जब चलने लगते हैं तो रास्ते थक जाते हैं पर पैर नहीं; कांटे, पत्थर, चट्टानें, बीहड़, जंगल, जानवर, आदिम संस्कृति के लोक मानव, सब के सब नर्मदा का आचमन कर यदि किसी परकम्मी को प्रणाम करते हैं तो वह है सिर्फ एक परकम्मी जिसको नर्मदा ने अपने अमृत जल से नाम दिया है- अमृतलाल वेगड़।
आपका जन्म 03 अक्टूबर, 1928 को जबलपुर मध्य प्रदेश में हुआ। आपके माता-पिता मूलतः कच्छ गुजरात के रहने वाले थे और बाद में मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में आकर बस गए। वर्तमान में तीन भाइयों का संयुक्त परिवार है। आप सामान्य कद-काठी, इकहरा बदन, उस पर खादी का कुर्ता पजामा, उन्नत मस्तक, आँखों पर चश्मा आपके व्यक्तित्व का परिचायक है। आप मृदुभाषी, दृढ़ निश्चयी और संवेदनशील व्यक्ति हैं। आपकी जीवन-संगिनी कान्ता वेगड़ पति और परिवार के प्रति समर्पित सदाचारी, श्रमशील एवं सहृदयी महिला हैं, जो अपने पति के साथ कदम से कदम मिला कर परकम्मावर्ती रही है। आपका पूरा परिवार गाँधी प्रवृत्ति का है। गाँधीवादी नियमों को आत्मसात कर स्वयं से सम्बन्धित प्रत्येक कार्य स्वयं करने की आदत है।
सादगीपूर्ण और आडम्बरों से दूर रहना, पैदल चलना, श्रम करना आपकी आदतों में शामिल है। यही कारण रहा कि निसर्ग से निकटतम सम्बन्ध स्थापित कर सके। आपका मुख्य उद्देश्य बुद्धिजीवियों और सौन्दर्य दृष्टि रखने वाले जनमानस को पवित्र नदी नर्मदा सौन्दर्य से अवगत कराना रहा है उनका कहना है कि नर्मदा ही मेरी कृतियों का एकमात्र विषय रही है। मैं नर्मदाव्रती चित्रकार हूँ- लेखक हूँ। मैं नर्मदा का सांस्कृतिक संवाददाता हूँ। मैं अपने सौन्दर्य को अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहता हूँ। चाहे तो आप मुझे नर्मदा सौन्दर्य का हरकारा भी कह सकते हैं।
पर्यावरण से जुड़े श्री अमृतलाल वेगड़ की अपनी पहचान उनकी कृतियों (चित्र, कोलाज एवं साहित्य) से है। इस शोध में उनके चित्रों और कोलाज पर ही विशेष दृष्टि डाली गई है।
शिक्षा
आपका बाल्यकाल और साधारण शिक्षा जबलपुर में हुई। बाल्यकाल से ही चित्रकला में आपकी रुचि थी। कला की वास्तविक शिक्षा आपको शान्ति निकेतन के सुरम्य वातावरण में हुई। 1948-1952 तक का विद्यार्थी जीवन शान्ति निकेतन के कला भवन में व्यतीत हुआ। यहाँ का सुरम्य, शान्तिपूर्ण, कलात्मक वातावरण विद्यार्थी को सृजनात्मकता की ओर अग्रसर करने में सहायक है। इस वातावरण में ही आपको कल्पनाशीलता और सौन्दर्य दृष्टि आचार्य नन्दलाल बोस (बसु), विनोद बिहारी मुखर्जी तथा रामकिंकर बैज के माध्यम से प्राप्त हुई। उस समय श्री राममनोहर सिन्हा भी वहीं अध्ययन कर रहे थे। वे आपसे एक वर्ष सीनियर थे।
आपने स्वरचित पुस्तक अमृतस्य नर्मदा में लिखा है- “सौन्दर्य को देखने की दृष्टि मुझे अपने प्रातः स्मरणीय गुरुओं से मिली। आँखों का काम है देखना। उनमें यह विवेक नहीं कि सुन्दर असुन्दर का फर्क कर सकें। उसके लिये तो सभी समान हैं। जिन भाग्यवानों को सौन्दर्य परखने की दृष्टि मिली हो वे ही सुन्दर-असुन्दर का फर्क कर सकते हैं। बहुधा यह दृष्टि गुरुओं से मिलती है। अगर वह न हो तो सामने सौन्दर्य का पारावार हो, फिर भी हमें दिखाई न देगा। उसे देखकर भी अनदेखा कर देंगे। हमारे भीतर सोए पड़े इस सौन्दर्य बोध को प्रायः गुरू जगाते हैं।”
गुरू से प्राप्त दृष्टि और शान्ति निकेतन का मनोहारी वातावरण, जिसमें रामकिंकर बैज के बड़े-बड़े स्कल्पचर तो कहीं पर बड़े-बड़े म्यूरल सृजन को प्रेरित करने के लिये पर्याप्त हैं। वहाँ की विशेष प्रकार की झोपड़ी में कार्य करने का एक अलग ही आनन्द आता है। आचार्य नंदलाल बोस से आपने वाश टेक्नीक सीखी। सन 1952 में विश्व भारती शान्ति निकेतन पश्चिम बंगाल से ललित कला में उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात 1953 में जबलपुर आये। यहीं रहकर कला साधना करते रहे। वाश तकनीक में चित्र बनाने के लिये आपने Waterman England Paper का उपयोग भी किया। आपके द्वारा टेम्परा विधि से बने म्यूरल/चित्र भी उल्लेखनीय है।
कलात्मक जीवन
शान्ति निकेतन से शिक्षा प्राप्ति के बाद 1953 में जबलपुर आ गए। यहाँ आकर शासकीय कला निकेतन, जबलपुर (मध्य प्रदेश) में टेक्नीकल पद पर नियुक्त हुए। यहाँ पर ही आपकी कला अभिरुचि का मार्ग प्रशस्त हुआ। चित्रकला एवं कोलाज का मुखर रूप दृश्य चित्रों और संयोजनों में दिखाई देता है। प्रारम्भ में आपके चित्र ‘वाश और टेम्परा’ शैली के हैं और बाद के चित्र ‘कोलाज’ विधा में हैं और यही आपकी निजी पहचान है।
सन 1961 में शासकीय कला निकेतन के प्राचार्य श्री एस.के.दास थे, जो कि इंजीनियर होने के साथ ही कला-प्रेमी भी थे। वे विद्यार्थियों को चित्रकला के प्रति प्रोत्साहित भी किया करते थे। उनका यह प्रयास रहता था कि प्रतिदिन विद्यार्थियों द्वारा नोटिस-बोर्ड पर नवीन रेखांकन चस्पा किये जायें। विद्यार्थियों के मार्गदर्शन में श्री अमृतलाल वेगड़ का सदैव सहयोग रहता था। समकालीन कलाकारों में स्व. राममनोहर सिन्हा, विष्णु चौरसिया, हरि भटनागर, हरि श्रीवास्तव, भगवानदास गुप्ता, कामता सागर, साजन मैथ्यू, राजेन्द्र कामले, सुरेश श्रीवास्तव आपने प्रथम नर्मदा परिक्रमा सन 1977 में और दूसरी 1987 में की। आपके कलात्मक जीवन में ‘कोलाज’ विधा का प्रादुर्भाव नर्मदा पदयात्रा के साथ ही हुआ। कोलाज अर्थात कुछ भी चिपकाकर बनाई गई कलाकृति। इसमें कोई भी सामग्री चिपका कर कलाकृति बनाई जा सकती है। किन्तु आप केवल कागज चिपकाने तक ही सीमित रहे। आप कागज को कैंची से सफाई से काटकर चिपकाते हैं। यहाँ तक कि कलाकृति पूर्ण होने पर स्वयं के हस्ताक्षर ‘श्र’ चिपकाकर ही करते हैं। आपके कोलाज सिर्फ कोलाज न लगकर कभी जल रंग तो कभी तेल रंग तो कभी लिनोकट का अहसास कराते हैं।
नर्मदा परिक्रमा के दौरान किये गए रेखांकन ही कोलाज का आधार होते थे। पहली यात्रा के दौरान आपने काफी रेखांकन किये। साथियों और विद्यार्थियों को दिखाने के उद्देश्य से सात-आठ स्केचेज बड़े करवाये, जिसे कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर लगा सकें। उन्होंने रंगीन कागज चिपकाकर बना दिया और बोर्ड पर लगा दिया। वह छात्रों और साथियों को बहुत अच्छा लगा। तब से कोलाज बनाने का सिलसिला चला तो आज तक चल रहा है।
नर्मदा पदयात्रा ने अभिव्यक्ति के दो माध्यम दिये, एक चित्रकला और दूसरा साहित्य लेखन। आपकी समस्त रचनाओं का एक ही विषय है- नर्मदा समाचार पत्र दैनिक भास्कर में आपने उल्लेख किया है-
मेरा नर्मदा परिक्रमा से ही मेरे लेखों और चित्रों को आकार मिला। सच तो यह है कि इन पद यात्राओं के दौरान ही मुझे प्रकृति से धार्मिक प्रेम हुआ।
आपकी रचनाओं ‘अमृतस्य नर्मदा’, ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ और ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ में यात्रा वृतान्त का वर्णन है। आपकी पुस्तकों का अनुवाद अंग्रेजी, गुजराती, बंगाली भाषाओं में भी हुआ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सचित्र लेख प्रकाशित हुए। जैसे कला दीर्घा, समकालीन कला आदिवासी लोककला परिषद द्वारा प्रकाशित कलावार्ता का 50 अंक अमृतस्य नर्मदा Sketches from the river प्रतिभा इण्डिया दिल्ली जर्नल्स। इसके अलावा समाचार पत्रों में सचित्र लेख प्रकाशित।
1977 में की गई परकम्मा में उनकी पत्नी कान्ताबेन तथा विद्यार्थी समूह साथ रहता था। इस दौरान आपने अनगिनत रेखांकन किये, जिन्हें निवास स्टूडियों में कोलाज में परिवर्तित किया। आपके कोलाज रेखांकन पर आधारित अवश्य होते थे किन्तु वे रेखांकन को कसकर पकड़ते नहीं थे। समयानुसार उसमें परिवर्तन भी कर देते थे। प्रारम्भिक कोलाज सपाट रंगीन कागज के बने होते थे, किन्तु बाद में नेशनल ज्योग्राफिक पत्रिका के आने से विभिन्न रंगतें और टेक्सचर का नया आयाम मिला। इसका पेपर आकर्षक और पतला होता है। इसकी तीन चार पर्तें लगाने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता। आप एक ही विषय को अलग-अलग रूप में प्रस्तुत करते थे। हरेक का अपना सौन्दर्य होता था।
आपने कोलाज विधा द्वारा अनेको दृश्य चित्र और मनवीय संयोजनों की रचना की। आपके कोलाजों का आकार छोटा (14”x18”)लगभग होता है। कृतियों के विषय नर्मदा तट तक ही सीमित रहे। नर्मदा सौन्दर्य के साथ-साथ नर्मदा तट का जनजीवन भी आपकी कृतियों में दिखाई देता है। भू-दृश्यों को स्वनिजता के साथ चित्रांकित किया है। आपके सशक्त रेखांकन जिनमें गति, लय और विन्यास समाहित है। कोलाजों में जल रंग, तेल रंग और लिनोकट तीनों के दर्शन होते हैं। कृतियों के मुख्य विषय नर्मदा में टापू, प्रपात में स्नान, प्रखण्ड कीर्तन, नर्मदा की खड़ी कगार, नर्मदा पर स्नानार्थी, रात्रि में घाट आदि रहे हैं। चित्रकला कोलार और रेखांकन और लेखन के माध्यम से एक नदी संस्कृति को जीवित किया, जो आनन्ददायक ही नहीं बल्कि भारतीय-संस्कृति को व्यक्त करने वाले गूढ़तम अभिलेख हैं।
नर्मदा यात्रा के दौरा सृजित की गई कृतियों की प्रदर्शनी सर्वप्रथम 1980 में मध्य प्रदेश कला परिषद में की। इसके बाद प्रदर्शनियों का सिलसिला चल निकला। 1981 और 1986 में मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा वार्षिक प्रदर्शनी में वेस्ट अवार्ड प्राप्त किया। 1986 और 1990 में शिखर सम्मान पुरस्कार हेतु जूरी सदस्य भी रहे।
चित्रकला के क्षेत्र में मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति विभाग द्वारा सन 1994-95 में ‘शिखर सम्मान’ से सम्मानित किया गया। आपकी कृतियाँ अनेक स्थानों पर संग्रहित हैं। आप पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन के अध्यक्ष भी हैं।
आपने स्वयं को एक चित्रकार, कोलाजिस्ट और लेखक के रूप में स्थापित किया है। इसके साथ ही कवि हृदय वाले व्यक्ति भी हैं। आपका सृजन कार्य वर्तमान में भी जारी है। चित्र और साहित्य नर्मदा नदी के दो किनारे हैं, जो साथ-साथ प्रवाहित हो रहे हैं।
अमृतलाल वेगड़ का संक्षिप्त जीवन परिचय
जन्म-03 अक्टूबर 1928, जबलपुर मध्य प्रदेश
सम्मान
1. 1994-95 शिखर सम्मान (चित्रकला) मध्य प्रदेश शासन, संस्कृति विभाग
2. 2001 वीरेन्द्र तिवारी स्मृति पुरस्कार
3. 2004 डॉ. शंकरदयाल शर्मा ‘सृजन- सम्मान’ हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, मध्य प्रदेश शासन
4. 2004 महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार- साहित्य अकादमी केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, दिल्ली
5. विद्या निवास मिश्र स्मृति सम्मान, वाराणसी
आपके द्वारा देश के विभिन्न स्थानों में एकल एवं समूह प्रदर्शनी में भाग लिया गया है।
प्रकाशित पुस्तकें
1. सौन्दर्य की नदी नर्मदा
2. अमृतस्य नर्मदा
3. Sketch from the river Narmada- Trible & Folk art Parishad, Bhopal (अमृतस्य नर्मदा)
प्रकाशित लेख
1. समकालीन कला- अंक 33- जुलाई से अक्टूबर 2007
(i) आत्मकथ्य- अमृतलाल वेगड़- शीर्षक- मेरी कला नर्मदा के पृष्ठ- 25, 26, 27, 28
(ii) परख- डॉ. ज्योतिष जोशी- शीर्षक शुभ आकांक्षा से प्रेरित विचार की कलाएँ पृष्ठ- 29,30,31
2. समावर्तन- जनवरी 2009 - एकाग्र- अमृतलाल वेगड़- उद्गम से संगम तक नर्मदा परकम्मी पृष्ठ- 17, 18,19, 20, 21 एवं 22 सभावर्तन- जनवरी 2009- नर्मदा की अमृत परकम्मा थके रास्तों पर अनथके पाँव पृष्ठ- 23,24
3. Narmada Trekking- हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद द्वारा- Marietta Madrell Pratibha India- Delhi Journals- ‘Archeic river and the old Traveller’.
संग्रह
भारत भवन भोपाल

स्व. श्री राममनोहर सिन्हा व्यौहार जबलपुर (मध्य प्रदेश) निवासी थे जिन्हें मध्य प्रदेश शासन द्वारा सर्वोच्च सम्मान ‘शिखर सम्मान’ से सम्मानित किया गया। आप मूर्धन्य चित्रकार, भित्ति चित्रकार और प्रकृति प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। आपके प्रकृति प्रेम ने आपको प्रसिद्ध चित्रकार (दृश्य चित्रकार) बना दिया। नर्मदा का सौन्दर्य और कमल के चित्रण आपने विशेष रूप से किये। नर्मदा के सौन्दर्य को दो चित्रकारों ने विशेष रूप से देखा। एक परकम्मा यात्री श्री अमृतलाल वेगड़ और दूसरे श्री राम मनोहर सिन्हा व्यौहार। आप दोनों ही जबलपुर के रहने वाले हैं।
आपका जन्म 15 जून, 1929 को जबलपुर मध्य प्रदेश में हुआ। आपके पिता व्यौहार राजेन्द्र सिंह विख्यात स्वतंत्रता सेनानी, साहित्यकार तथा प्रखर गाँधीवादी प्रवृत्ति के थे। आपका सम्पर्क महात्मा गाँधी जैसे प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी से था। जब आपके पिता प्रवास पर जाते थे तो आपको साथ ले जाते थे। इस प्रकार आपका बचपन स्वतंत्रता सेनानियों के बीच व्यतीत हुआ।
शिक्षा
आपकी स्कूली शिक्षा जबलपुर के मॉडल स्कूल में हुई। इसके पश्चात 1948 में कला की विधिवत शिक्षा लेने के लिये विश्व भारती शान्ति निकेतन वेस्ट बंगाल गए। उस समय आचार्य नंदलाल बसु, विनोद बिहारी मुखर्जी, रामकिंकर बैज तथा विनायक मसोजी जैसे आधुनिक कलाकार गुरू रूप में पदस्थ थे।
नंदलाल बसु तो आधुनिक कला के जनक के रूप में जाने जाते हैं। राम मनोहर सिन्हा को आपका अति स्नेह प्राप्त हुआ। आप नंदलाल बोस के श्रेष्ठ शिष्यों में से एक थे। जबलपुर के ही अमृतलाल वेगड़ दो वर्ष पश्चात शान्ति निकेतन पहुँचे। आपकी उनसे अच्छी मित्रता रही।
राममनोहर सिन्हा ने 1950 में ललित कला में डिप्लोमा किया और सन 1951 भित्ति चित्र (Mural Painting) में विशेषज्ञ-डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद उन्होंने सन 1957 में भारत सरकार की छात्रवृत्ति पर बीजिंग में चीनी चित्रकला का अध्ययन किया।
वहाँ वे 1957 से 1959 तक अध्ययन करते रहे। इस दौरान उन्हें महान चित्रकार पी-पाई-शी से मिलना हुआ। इनके अलावा अन्य कलाकारों से मिलकर उनकी कला के दर्शन किये। कला के अवलोकन से ज्ञात हुआ कि यह कला कठिन कला है जो कि अनुशासन चाहती है। चीनी ब्रश और स्याही से बने चित्र और रेखांकन प्रकृति के प्रति शुद्धता की चाह रखते हैं। यह एक श्रमसाध्य कार्य है, जो कलाकार के अभ्यास से ही आता है। आपने चीनी कला का गहन निरीक्षण कर अभ्यास किया। चित्र बनाना कोई कार्य नहीं बल्कि एक साधना है। अतः आपने गहन साधना करके चित्र बनाये।
चीन से लौटन के पश्चात आप शान्ति निकेतन आये और लगभग दस वर्ष तक कला के अध्यापक के रूप में कार्य किया। सन 1962 में वे जबलपुर वापस आये। यहाँ शासकीय आर्ट कॉलेज खुल जाने पर इस कॉलेज के प्राचार्य पद पर पदस्थ हुए और यहीं से 1989 में सेवानिवृत्त हुए। वे 1975 में खैरागढ़ के इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के कला संकाय के डीन (अधिष्ठाता) रहे। इनके निर्देशन में अनेकों छात्रों ने शोध कार्य किया। 1986 में शासकीय ललित कला संस्थान, जबलपुर के संस्थापक सदस्य रहे और यहीं निदेशक के पद पर रहकर कार्य किया।
जिस समय आप शान्ति निकेतन में कला की शिक्षा ले रहे थे उस समय भारत के संविधान की मूल हस्तलिखित प्रति को चित्रित करने का दायित्व भारत सरकार ने नंदलाल बसु को सौंपा था। आपने कुछ चुने हुए छात्रों द्वारा यह कार्य पूरा करवाया। इसमें राम मनोहर सिन्हा का प्रमुख योगदान रहा। संविधान की हस्तलिखित मूल प्रति के प्रत्येक पृष्ठ को हाथों से सजाया गया था।
इसी प्रकार शान्ति निकेतन को जबलपुर स्थित एवं नवनिर्मित स्मारक (शहीद स्मारक) की चित्र सज्जा का कार्य भी मिला। यहाँ पर सिन्हा जी के दो म्यूरल (भित्ति चित्र) हैं, जिनमें-
1. रानी दुर्गावती की शस्त्र पूजा और
2. 1942 की अगस्त क्रान्ति इसके अलावा
3. 1950 में अनेकों म्यूरल बनाये और 1952 में Martyr Memorial (शहीद स्मारक) बनाया।
आपने भारतीय परम्परा और चीनी परम्परा के समन्वय से ही चित्र संसार रचा। केलीग्राफिक कला और भारतीय कला से ही आपकी अपनी निजी शैली विकसित हुई। आपके समकालीन कलाकार आधुनिक कला शैली में कर रहे थे। अतः आप माडर्न आर्ट के भय से आतंकित भी हुए और एक समय ऐसा था कि आपने कार्य करना लगभग बन्द कर दिया था। पुनः आपकी पत्नी ने चित्र बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। इस प्रकार निजी शैली में असंख्य चित्र बनाकर चित्रों की एक बड़ी शृंखला बनाई। 1954 में ‘क्रांग्रेस का ऐतिहासिक कल्याणी सत्र’ का इलस्ट्रेशन बनाया, जिसे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनके काम की प्रशंसा की। जब उन्होंने पारम्परिक शैली से हट कर निजी शैली में कार्य करना प्रारम्भ किया, जो चीनी और भारतीय शैली से सम्बद्ध थी। तब आप कला जगत में अपना स्थान बना पाये। इस शैली में असंख्य चित्र बनाकर देश के महानगरों में एकल प्रदर्शनियाँ आयोजित कीं। जिनमें भारत भवन, ललित कला अकादमी दिल्ली, मध्य प्रदेश कला परिषद, कला भवन शान्ति निकेतन एवं अरूपायन कोलकाता आदि संस्थाओं द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनियों और शिविरों में हिस्सा ले चुके हैं। देश-प्रदेश के अनेक महत्त्वपूर्ण कला आयोजनों में सम्मिलित हुए।
1957 में चीन के प्रसिद्ध कलाकार ची-पाई-शी, ली-ख-रान, वू-जो-रेन जैसे महान चित्रकारों के साथ कला साधना की। शिक्षाविद राधाकृष्णन से भेंट की जिन्होंने अध्यापन को जीवन का उद्देश्य बनाने के लिये प्रेरित किया। इसी बात को ध्यान में रखते हुए 1959 में नंदलाल बोस के आग्रह पर शान्ति निकेतन में पुनः अध्यापन कार्य किया। आपने जामिनी राय और सत्यजीत रे के साथ कला साधना की। चीन संस्कृति के अलावा यूरोपीय संस्कृति और पुनर्जागरण काल पर भी वृहद अध्ययन किया।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, पं. रविशंकर शुक्ल के विशेष अनुरोध को ध्यान में रखते हुए सन 1961 में वापस जबलपुर आये और यहाँ कला निकेतन में ललित कला एवं कोलकाता की स्थापना की। 1991 में शासन द्वारा सर्वोच्च सम्मान शिखर सम्मान से अलंकृत किये गए।
न्यूयार्क लन्दन में विश्वविख्यात अन्तरराष्ट्रीय कला पारखी ‘सदबीज’ द्वारा हुसैन, सूजा, हैब्बर एवं सुब्रमण्यम आदि के समकक्ष चित्र प्रदर्शन और आकलन किया गया। बी.बी.सी. लन्दन पर व्याख्यान से कला साधक लाभान्वित हुए। 2001 में आपको ‘कलाश्री’ की उपाधि प्राप्त हुई। आपके चित्रों के संग्रह देश-विदेश सभी जगह हैं जैसे विक्टोरिया एण्ड अलबर्ट म्यूजियम, ब्रिटिश म्यूजियम, टेट गैलरी, केण्डर डाइन कैनेडा, ललित कला अकादमी बीजिंग आदि।
आप केलीग्राफी- आर्ट और भारतीय कला के समन्वय से विकसित निजी शैली में कार्य करने वाले अकेले कलाकार थे। इंक से बने पारदर्शी रंगों में आपने असंख्य चित्रों के रचना की। दृश्य चित्र विशेष रूप से बनाये हैं। इसके अलावा म्यूरल, ग्राफिक्स, पॉटरी, फोटोग्राफी में भी सिद्धहस्त कलाकार थे। केलीग्राफिक आर्ट के वे मास्टर थे। जल रंग में शीघ्रता से कार्य करने में सधे हुए कलाकार थे। इसके साथ ही अपारदर्शी रंग, पेस्टल तथा टेम्परा में चित्रण कार्य किया।
आपका एक पुत्र इंग्लैण्ड में था। पत्नी की मृत्यु के पश्चात आपका मन उद्वीग्न रहता था। अतः पुत्र आपको इंग्लैण्ड में ले गए। वहाँ पर उन्होंने बहुत से चित्र बनाये। लन्दन और अन्य शहरों में प्रदर्शनियाँ की।
अन्तिम वर्षों में वे बीमार रहने लगे थे। आपके चित्रों की प्रदर्शनी लगाने के लिये चीन के राजदूत ने आमंत्रित किया किन्तु अस्वस्थता के कारण वे न जा सके।
पत्नी के देहावसान के पश्चात उनका जीवन नौकरों के भरोसे कटता था। अस्वस्थता की स्थिति में कभी घर में तो कभी अस्पताल में रहते थे। 25 अक्टूबर 2007 को इन्दौर के अस्पताल में गुमनाम व्यक्ति की तरह इस संसार से विदा हो गए। उनकी अर्थी में मात्र छः लोग ही थे। यदि उनका देहावसान जबलपुर में हुआ होता तो असंख्य लोगों का समूह होता।
वे अत्यन्त सौम्य स्वभाव के प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। वे अपने पीछे चित्र सृजन का अनोखा संसार छोड़ कर गए। उन चित्रों और शैलियों में उनकी झलक सदैव विद्यमान रहेगी।

श्री हरि भटनागर मध्य प्रदेश के समकालीन चित्रकारों में से एक हैं, जिन्हें ‘तुलसी सम्मान’ के साथ ही अनेकों सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। आप चित्रकार के साथ ही समाज सेवक भी हैं।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी हरि भटनागर का जन्म 03 सितम्बर, 1937 श्योपुर (तत्कालीन जिला मुरैना) में हुआ था। आपके पिता श्री इन्द्र नारायण भटनागर शासकीय सेवक थे। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न थी। आपकी आरम्भिक शिक्षा किला स्कूल शाजापुर से हुई। पाँचवी तक की शिक्षा शाजापुर में हुई। 1947 में आपके पिताजी भिण्ड आये और आपका प्रवेश छठी कक्षा में हाईस्कूल भिण्ड में करवाया। आप दबंग प्रकृति के बालक थे। बाल्यकाल में कला की शिक्षा जौहरी सर से सीखी। वे प्रारम्भ में पीपल का तिरछा पत्ता बनवाया करते थे और नहीं बनाने पर सजा देते थे। पास में चीलर नदी बहती थी, इसमें नहाने और नौसादर मिलाकर आइसक्रीम जमाने में मजा आता था। घूमना-फिरना, तैराकी, अखाड़े में कुश्ती लड़ना, गुलाम दण्डा खेलना आपके बचपन के शौक थे। स्कूली शिक्षा में आपने चित्रकला, कृषि तथा कॉमर्स विषयों की पढ़ाई की।
1951 में आप भिण्ड से ग्वालियर आये। आपने मैट्रिक की पढ़ाई साइंस विषय लेकर की। पढ़ाई जारी रखते हुए आपने टाइपिस्ट की शासकीय सेवा प्राप्त की। 1954 में शासकीय ललित कला संस्थान, ग्वालियर में प्रवेश लिया। यहाँ से पाँच वर्षीय पत्रोपाधि प्राप्त की। 1960 में स्नातकोत्तर की उपाधि आपने एम.कॉम, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट्स बॉम्बे में परीक्षा देने जाते थे। इस प्रकार ललित कला की पत्रोपाधि 1963 में प्राप्त की। आपके कलागुरू ग्वालियर के स्व. श्री लक्ष्मीशंकर राजपूत थे। वे आपको प्रिय शिष्य ही नहीं एक बेटे की तरह मानते थे। यही कारण था कि उन्होंने आपको अपना वारिस बनाया। अतः एल.एस. राजपूत का देहावसान होने पर आपने ही अन्तिम संस्कार किया।
आप एक प्रतिभावान चित्रकार हैं। आपने श्री राजपूत जी से कला शिक्षा ली। अतः आपकी कला पर उनकी कला का प्रभाव पड़ा। अध्ययन के दौरान ही आपने प्रतियोगिताओं में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया था। इस अवधि में अनेकों पुरस्कार प्राप्त किये, जिनमें 1958 में अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी ग्वालियर, 1959 में कालिदास समारोह उज्जैन, 1960 में कालिदास समारोह ग्वालियर प्रथम, 1961 में M.L.B. College सर्वोत्तम छात्र सिंधिया सांस्कृतिक प्रतियोगिता ग्वालियर तथा अखिल भारतीय टैगोर प्रदर्शनी, इन्दौर में पुरस्कृत हुए। 1963 में सर्वोत्तम छात्र एम.एल.बी. कॉलेज ग्वालियर, राज्य कला प्रदर्शनी रायपुर में प्रथम पुरस्कार, 1967 में महाकौशल कला प्रदर्शनी रायपुर, स्वर्ण मंजूषा रायपुर 1975, अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी अमृतसर 1986 प्रथम पुरस्कार तथा अनेकों पुरस्कार प्राप्त किये। ग्वालियर मेले में ऑन द स्पॉट स्केचिंग प्रतियोगिता में आपको प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। 1961 में एम.एल.बी. कॉलेज ग्वालियर में सर्वश्रेष्ठ चित्रकार के रूप में पुरस्कृत हुए। आपने देश की अनेकों प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पुरस्कृत हुए।
चित्रकला के क्षेत्र में प्रेरित करने का कार्य स्व. वाकणकर और स्व. एल.एस. राजपूत ने किया। आपने शासकीय पॉलीटेक्निक कॉलेज जबलपुर से व्याख्याता के रूप में अपनी जीवन यात्रा शुरू की। सन 1966 में राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर जबलपुर ललित कला संस्थान के प्राचार्य बने। सन 1984 में दूसरी बार राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में सम्मिलित होकर शासकीय ललित कला महाविद्यालय ग्वालियर के प्राचार्य बने। अपने पद पर बने रहते हुए शासकीय माधव संगीत महाविद्यालय, ग्वालियर के प्राचार्य का संयुक्त भार भी सम्भाला। 1989 में आपका स्थानान्तरण कला निकेतन जबलपुर हो गया। जहाँ आप सेवानिवृत्ति 1997 तक प्राचार्य पद पर कार्य करते रहे। प्रशासनिक दक्षता के कारण ही आपके सेवाकाल में 1998 से 1999 तक वृद्धि की गई।
आप मूर्धन्य कलाकारों में से एक हैं। आपके चित्र अनेकों प्रदर्शनियों में पुरस्कृत हुए। साथ ही अनेक एकल तथा सामूहिक प्रदर्शनी किये और अनेक शिविरों में भाग लिया। आपने अनेक सेमिनारों में हिस्सा लिया, आकाशवाणी से वार्ताएँ प्रसारित हुईं तथा अनेक कला पत्रिकाओं में चित्र तथा कला सम्बन्धित विचार प्रकाशित हुए तथा अनेकों कला गोष्ठियों में हिस्सेदारी की। आपके चित्र देश-विदेश के विशिष्ठ स्थानों पर संग्रहित हैं। आप कई समितियों में जूरी-मेम्बर भी रहे हैं और सामाजिक सुधार हेतु एनजीओ भी चला रहे हैं।
एकल प्रदर्शनी
1. 1961- महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय, ग्वालियर छात्र संघ के सहयोग से
2. 1975- मध्य प्रदेश कला परिषद, भोपाल द्वारा आयोजित
3. 1975- मिलन जबलपुर द्वारा माखनलाल चतुर्वेदी भवन में आयोजित
4. 1976- श्रीधारमी आर्ट गैलरी, नई दिल्ली
कला शिविर
1. 1967- मध्य प्रदेश कलाकार शिविर, ग्वालियर
2. 1970- मध्य प्रदेश कलाकार शिविर,जबलपुर
3. 1973- मध्य प्रदेश कलाकार शिविर, भोपाल
4. 1986- भारत भवन, भोपाल
5. 2012- स्वराज भवन, भोपाल
कला संग्रह
मध्य प्रदेश कला परिषद भोपाल, विक्रम कीर्ति मन्दिर उज्जैन, मध्य प्रदेश गृह विभाग, मध्य प्रदेश शिक्षा विभाग भोपाल, जबलपुर नगर निगम (म्यूजियम) ग्वालियर तथा भोपाल वल्लभ भवन। भोपाल तथा अन्य देश-विदेश में संग्रहित है।
संगोष्ठी
तीसरे विनाले प्रदर्शनी 1978 में आयोजित संगोष्ठी, आर्ट वैल्यू मध्य प्रदेश कला परिषद भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश का प्रतिनिधित्व, अन्तर अनुशासन परिसंवाद साक्षात्कार मध्य प्रदेश शासन साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा आयोजित संगोष्ठी में जबलपुर में संगोष्ठी, 1975 इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ द्वारा 1978 में कला के मूल तत्व संगोष्ठी, इण्डियन काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च नई दिल्ली द्वारा उदयपुर में आयोजित कला शिक्षा संगोष्ठी 1985।
प्रसारण और लेखन
आकाशवाणी, जबलपुर द्वारा कलावार्ता 1975, 1976, आकाशवाणी ग्वालियर द्वारा कलावार्ता 1984, 1986।
धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, इकोनोमिक टाइम्स, हिन्दुस्तान टाइम्स, नवभारत टाइम्स, स्मारिका, मुक्ता, मध्य प्रदेश, कोनिकल, हितवाद, नर्मदा हेरल्ड, शीर्षस्थ बैंक बुलेटिन ओशिका एवं अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशन। श्री हरि भटनागर पर विद्यार्थी शोध-कार्य तथा लघु शोध कर चुके हैं।
कलात्मकता
श्री हरि भटनागर प्रयोग धर्मी कलाकार हैं, जिन्होंने अध्ययन काल में सभी माध्यमों में कार्य किया जैसे जल रंग, तेल रंग, पेस्टल तथा मिश्रित माध्यम। रेखांकन आपको बहुत प्रिय है। फोटोकॉपियर पेजों पर कई हजारों स्केचेज बना चुके हैं। वॉश पेंटिंग में आपकी सिद्धहस्तता थी। ग्वालियर के तालकटोरा में अमलतास के बहुत से वृक्ष लगे थे। उससे अभिभूत हो यथार्थवादी शैली में दृश्य चित्रण किया। राजपूत जी से प्रभावित होकर आपने अलंकारिक शैली भी अपनाई। लेकिन अधिक समय तक इस शैली में कार्य नहीं कर सके। भूलने की प्रक्रिया अपनाते हुए जो सीखा उसे छोड़कर नवीन चित्रण शैली को अपना लिया। बच्चों की ताबीजों की बनावट से प्रभावित होकर आपने निजी विशिष्ट शैली अपनाई, जो कि एम्बोस (उभारयुक्त) आकारों वाली शैली थी। इस विधि को 1970 से अपनाया। इसमें एल्युमिनियम की फॉइल को पीछे की ओर से रेखांकित कर अंगूठे से उभार देकर आकार बनाये जाते हैं और आवश्यकतानुसार रंग भरे जाते हैं, जिससे प्रेक्षक आकर्षित हो सकें। आपके द्वारा सृजित ए-4 साइज के फोटोकॉपियर पेपर में हैं जिसकी आकृतियाँ लम्बी होती हैं। आपने भी प्रभाविता अपनाते हुए Perspective law तोड़ने की कोशिश की जैसे कि N.S.Bendre ने भी लम्बी आकृतियों का निर्माण किया।
आपके चित्रोंं में रेखांकन में काव्य और नैसर्गिकता के दर्शन होते हैं। गतिमयता इसकी प्रवाही तथा सजीव रेखाओं के माध्यम से प्रकट होती है, जिससे गुजरते हुए आँख उसमें गति का अनुभव करती है।
आपको शहरी चित्रों के विषय कभी न भाये। ग्रामीण मानवों की सादगी, भोलापन और विश्वास से प्रभावित हो रेखांकन और चित्रांकन किये। आपका मानना है कि राजस्थानी और मुगल कालीन दृश्य भी रेखाओं से प्रभावित रहे हैं। दृश्य चित्रण में वातावरण में जो भी दिख रहा है वृक्ष, जमीं, आसमान, पशु-पक्षी, पहाड़, मानव आदि सभी कुछ समाहित है। अतः आपने अपने विषयों को एम्बोस पेंटिंग की तरह अपने नजरिये से देखा। अपनी इसी विशिष्टता के कारण आप अपनी निजी पहचान बना पाये और कला जगत में स्थापित कलाकारों के रूप में जाने जाते हैं। वर्तमान में भी आप चित्रकारिता से जुड़े हुए हैं।
तत्कालीन दृश्य चित्रकारों ने जहाँ हू-ब-हू आकृतियाँ वास्तुशिल्प चित्रित करने की आकांक्षा सर्वोपरि थी वहीं समकालीन चित्रकारों ने कुछ परिवर्तन के साथ प्रयोगधर्मी मार्ग को अपनाया। उसने ‘स्वान्तः सुखाय’ का दृष्टिकोण रखते हुए अन्तःकरण की बैचेनी को तीव्र ब्रश से, घातों, आकृतियों की सूक्ष्मता तथा सरल गतिमय रेखाओं से उजागर किया। कला रसिकों को नई दृष्टि प्रदान की। जिन चित्रकारों ने भोपाल में रहकर दृश्य चित्रण का कार्य किया उनमें से कुछ प्रमुख दृश्य चित्रकारों से अवगत कराना चाहूँगी।
श्री सुशील पाल
वरिष्ठ चित्रकार श्री सुशील पाल का जन्म 15 जून, 1917 को फरीदपुर पूर्वी बंगाल में हुआ। वे सरल स्वभाव एवं कला के धनी हैं। इनका कला के क्षेत्र में प्रो. प्रमोद रंजन और नन्दलाल बोस से अच्छे सम्बन्ध थे। इनकी स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई। 1939 में ‘चित्रकला विषय’ से ललित कला में छः वर्षीय डिप्लोमा प्रथम श्रेणी में पास किया। इसके पश्चात ‘ललित कला’ दो वर्षीय डिप्लोमा प्राप्त किया। क्षितिन्द्रनाथ मजूमदार से भी इन्होंने शिक्षा पाई अवनीन्द्र नाथ और गगनेन्द्र नाथ ठाकुर के निर्देशन में कार्य किया। वे Geographical Society University Metro Publicity और ब्रिटिश फर्म से भी जुड़े।
1949 में वे गाँधी नगर (बैरागढ़) के रिफ्यूजी कैम्प में प्रवास पर आये। यहाँ इन्होंने खिलौना प्रशिक्षक के रूप में कार्य किया और तब से भोपाल वासी हो गए और कला कार्य से नोयल बैनर्जी चीफ कमिश्नर विश्वनाथन, भगवान दास सहाय, शंकर दयाल शर्मा को प्रभावित किया। इन्होंने शाहजहाँनाबाद, जहाँगीरिया स्कूल में कला शिक्षक का पद पाया और बाद में गवर्नमेंट बेसिक ट्रेनिंग, भोपाल में कला विभाग में लेक्चरर का पद पाया।
इन्हें दृश्य चित्र बनाने में और पोर्ट्रेट बनाने में महारत हासिल है। इन्होंने काठमाण्डू में अनेक दृश्य चित्र बनाये। पंचमढ़ी में इनकी एकल प्रदर्शनी लगी।
सन 1961 ई. में शंकर दयाल शर्मा द्वारा शासकीय एम.एल.बी. कॉलेज, भोपाल में चित्रकला विभाग का उद्घाटन हुआ और श्री सुशील पाल वहाँ कला प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के रूप में पदासीन हुए और वे निरन्तर कला छात्रों को तैयार करते हुए सन 1977 में इस पद से रिटायर हो गए। पद पर रहते हुए वे अनेकों यूनिवर्सिटी के बोर्ड ऑफ स्टडीज के सदस्य रहे।
कला कार्य
श्री सुशील पाल समकालीन दृश्य चित्रकारों में और विविध रंग संयोजन के लिये जाने जाते हैं। इन्होंने भोपाल में रहकर जल रंग और तेल रंग में बहुत से दृश्य चित्र बनाये जिनमें स्वयं के निवास ईदगाह हिल्स के आस-पास का दृश्य, पुराना किला, झील का किनारा, बालू के टीले, मैदान और मस्जिदें आदि। इन्होंने यथावत दृश्य चित्रण तो किया ही साथ ही ‘अमूर्त’ भी चित्रित किये। चित्रण कार्य हेतु प्राकृतिक दृश्यों को इसी विधि से चित्रित किया। उन्होंने चर्चा के दौरान बताया था कि वे यदि किसी पहाड़ी का चित्रण करते थे तो विभिन्न आकार के पत्थरों को संयोजित कर उसे वृहदाकार प्रदान करते थे। ऐसा ही प्रयोग उन्होंने एक दृश्य चित्र में किया है जिसमें विस्तृत जल-स्तर को दिखाया है और जिसमें हरे नारियलों को जल में प्रवाहित होते हुए दिखाया है।
इन्होंने शिमला में रहकर हिमालय के दृश्य चित्रित किये। पंचमढ़ी के दृश्यों को आपने कैनवस पर उतारा, दिल्ली के बगीचों और पुष्पों को नया रंग प्रदान कर चित्रांकित किया।
इनके प्रमुख दृश्य चित्रों में जल रंग में बना After the rain, Evening prayer, Gas light of Calcutta, Old for of Bhopal, Idgah Hills of Bhopal आदि हैं। तेल रंगों में Silent street, path the woods, Pachmarhi Landscape and why? केनवास पर चित्रित किये हैं।
इनके चित्रों की प्रदर्शनी कोलकाता, रंगघाट, इन्दौर, साँची, भोपाल, काठमाण्डू (नेपाल), पचमढ़ी, शिमला, मुम्बई में एकल चित्र प्रदर्शनी आयोजित हुई।
ऑल इण्डिया/स्टेट आर्ट एक्जिबिसन कोलकाता, दिल्ली, पटना, हैदराबाद, ग्वालियर, भोपाल, खैरागढ़, पचमढ़ी में आयोजित समूह प्रदर्शनी में भाग लेकर प्रशंसा प्राप्त की।
श्री सुशील पाल राष्ट्रीय स्तर के सिद्धहस्तता प्राप्त सम्मानित कलाकार हैं इन्हें राजा रामदेव पदक ब्राँज मेडल, रजत पत्र, Kamalyar Junge Sliver Medal प्राप्त किये गए।
1995 में संस्कार भारतीय ने गुरू पूर्णिमा के अवसर पर सम्मानित किया तथा मध्य प्रदेश शासन द्वारा सन 1998-99 में राज्य स्तरीय शिखर सम्मान प्रदान किया गया।
इनकी कलाकृतियाँ आशुतोष म्युजियम ऑफ इण्डियन आर्ट, कोलकाता, स्टेट आर्ट गैलरी, ग्वालियर, रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन, भोपाल, शासकीय एम.एल.बी. कॉलेज, भोपाल, शिक्षा मण्डल अजमेर तथा अनेक स्थानों पर संग्रहित हैं।
इनकी जीवनी एवं कला कार्य का प्रकाशन डिस्कवरी ऑफ इन्टरनेशनल बायोग्राफिकल सेन्टर कैम्ब्रिज इंग्लैण्ड रिफासीमेण्टो इन्टरनेशनल दिल्ली द्वारा रिक्रेन्स एशिया तथा ललित कला अकादमी, नई दिल्ली द्वारा चित्रकारों की डायरेक्टरी में प्रकाशित हो चुके हैं।
हमेशा से श्री पाल कला कार्य में संलग्न रहे। निरन्तर नये सृजन कार्य करते रहे हैं एवं आज के छात्र वर्ग को निरन्तर प्रोत्साहित करते रहे हैं। श्री पाल का कलात्मक जीवन और इनकी कलाकृतियाँ शोध का विषय हैं जिन्हें भविष्य के लिये सहेजना आवश्यक है।
वे 13 सितम्बर, 2006 को अनन्त यात्रा पर चले गए।
श्री लक्ष्मण भाण्ड
कला जगत में बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री लक्ष्मण भाण्ड का जन्म 04 अक्टूबर, 1930 को उज्जैन में देवास गेट स्थित केलकर के बाड़े में हुआ। आप विचारशील और दृढ़ निश्चयी कलाकार हैं। चित्रकला, काव्य, साहित्य, पत्रकारिता नाट्य सभी क्षेत्रों में आपका हस्तक्षेप रहा है। रेखा, आकार एवं रंगों से सौन्दर्य के नवीन प्रतिमानों को खोजना इनकी प्रवृत्ति रही है। चित्र शैली पाश्चात्यगत होने के बावजूद भारतीयता से परिपूर्ण है।
चित्रकला के गुण आपको विरासत में प्राप्त हुए। आपके पिता श्री मुकुन्द सखा राम भाण्ड प्रसिद्ध चित्रकार थे और माता लक्ष्मी थीं। कला शिक्षा के प्रारम्भिक गुरू आपके पिता थे जिन्होंने चित्रकला और मूर्ति कला में समान रूप से कार्य किया 1941 में आई.जी.डी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1951 में इन्होंने जी.डी.आर्ट्स मुम्बई की परीक्षा की।
आप अमृता शेरगिल और से जान से प्रभावित हुए। धनवादी शैली में सृजित ‘शकुन्तला’ कालिदास समारोह में पुरस्कृत हुई। प्रारम्भिक दौर में अनेकों शैलियों में कार्य किया, परन्तु इस कार्य से उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई। उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली बनाई, जो कि ज्यामितिय आकारों पर आधारित थी। उस समय इस शैली को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अतः चित्रों की बिक्री नहीं हुई। इस बात का उन्हें आघात लगा और उन्होंने स्वयं की लगभग 15 पेंटिंग जला दी। उन्होंने धनोपार्जन के लिये व्यवसायिक कला का भी सहारा लिया। आपका कला क्षेत्र प्रारम्भ में ग्वालियर और बाद में भोपाल रहा।
सन 1951 में ग्वालियर में रूद्रहंजी, एल.एस.राजपूत, शान्ति भूषण, विमल कुमार, उमेश कुमार और लक्ष्मण भाण्ड ने एक कल्चरल सोसायटी बनाई, जो ग्वालियर मेले के अवसर पर अखिल भारतीय स्तर की वार्षिक प्रदर्शनी आयोजित करती थी। इस संस्था को श्री सरदार मोहित और विजयाराजे सिंधिया का संरक्षण प्राप्त था। इस अखिल भारतीय प्रदर्शनियों में चित्रों को पुरस्कृत और चयन किये जाने हेतु जाने माने कलाकार श्रीधर बेन्द्रे और रामकिंकर बैज आदि कलाकारों को बुलाया जाता था। इस सोसायटी में चित्र कला विषय पर चर्चाएँ होती थीं।
गवर्नमेंट ऑफ डिप्लोमा, मुम्बई में पश्चिमी कला के संस्कार दिये जाते थे, परन्तु आपने अपनी कला में भारतीय पुट लाने के लिये ग्वालियर में सास-बहु मन्दिर, तेल मन्दिर एवं गुर्जरी महल स्थित म्यूजियम की मूर्तियों और पश्चिमी परिपक्वता देखने को मिलती है। ‘कलाकार मण्डल’ द्वारा लगाई गई प्रदर्शनी में श्री लक्ष्मण भाण्ड ने श्री एम.एस.भाण्ड, उमेश कुमार, रूद्रहंजी, प्रभात नियोगी, रत्नाकर केशव बाघ, एस.एल.राजपूत, दुर्गा प्रसाद, विश्वामित्र वाराणसी के साथ सामूहिक प्रदर्शनी में भाग लिया।
सन 1956 में मध्य प्रदेश का गठन हुआ। इस दौरान नागपुर, जबलपुर इन्दौर, ग्वालियर में आने वाले विद्यार्थियों को अपनी शिक्षा अधूरी छोड़नी पड़ी। अतः विचार किया कि आर्ट शिक्षा के लिये सार्थक प्रयास किया जाये, अतः मुम्बई के कलाकार साथियों के सहयोग से स्वाध्यायी रूप से परीक्षा जी.डी.आर्ट, मुम्बई में दे सकते थे।
प्रेम मैथिल, प्रभाकर घारे, वासुदेव कात्रे और सुरेश चौधरी ने कला अध्ययन किया। कुछ समय पश्चात भोपाल के विद्यार्थियों को जी.डी. आर्ट की परीक्षा देना असम्भव हो गया, क्योंकि चित्र कला और मूर्ति कला के स्वाध्यायी विद्यार्थियों को बोर्ड की परीक्षा देना अनिवार्य कर दिया था। भोपाल में ऐसी कोई संस्था नहीं थी कि महाविद्यालय खोला जा सके। किसी भी स्कूल की मान्यता प्राप्ति के लिये तकनीकी शिक्षा मण्डल की रिपोर्ट लाना आवश्यक होता है। श्री लक्ष्मण भाण्ड के अथक प्रयासों से सन 1964 में ‘मुकुन्द सखाराम भाण्ड’ स्कूल ऑफ आर्ट सोसायटी के अन्तर्गत चित्रकला की शिक्षा प्रारम्भ की। इस विद्यालय से लगभग 60 विद्यार्थी दीक्षित हुए जिनमें सुश्री शोभा घारे, डॉ. मजूषा गांगुली, डॉ. सुषमा श्रीवास्तव, विनय सप्रे प्रमुख रूप से हैं।
आपने क्रान्तिकारी सदस्य के रूप में भी हिस्सा लिया। अनौपचारिक गतिविधियों में कुछ पोर्ट्रेट एवं निसर्ग के शिविर आयोजित किये। श्री लक्ष्मण भाण्ड की कलाकृतियों में नवीनता के लक्षण दिखाई दिये। वे विद्यार्थियों को रेखांकन करने पर अधिक जोर देते थे। आपने सभी माध्यमों में कार्य किया। जल रंगों से चित्र बनाने के लिये एक विशेष पद्धति अपनाई। वे चित्रतल पर विभिन्न रंगों को बहाने की प्रक्रिया अपनाते हैं। उन रंगों में विभिन्न आकार खोजते हैं। उसमें ही वे कभी मानवाकृतियाँ तो कहीं पशु आकृतियों का सृजन करते हैं। मनोरम दृश्य चित्रण में भी उन्होंने इस पद्धति को अपनाया है। इस प्रक्रिया में रंगों का मिला-जुला प्रभाव दिखाई देता है। इस प्रकार दृश्य संयोजन अधिक प्रभावशाली बन जाता है। भोपाल के दृश्यों ने भी आपको प्रभावित किया। इसके अलावा पश्चिमी शैली का भी अनुकरण किया परन्तु विषय वस्तु भारतीय है। आपने कई बड़े-बड़े म्यूरल्स बनाये जिनमें 1969 में सृजित ‘गंगा’, 1962 में सृजित एग्रीकल्चर छत्तीसगढ़, 1986 में नवभारत एवं पैलेस में बनाया गया ‘सिटोस-विजिट’ प्रमुख है। आपके चित्र अनेकों सार्वजनिक आगमन के अवसर पर बनाये गए म्यूरल (भित्ति चित्रों) की बहुत प्रशंसा प्राप्त हुई।
आपने अनेकों कैम्प और प्रदर्शनी में हिस्सा लिया। प्रदर्शनी में आप कलाकारों और कला रसिकों से चर्चा करने में जरा भी नहीं हिचकते हैं। कला में व्यवसायिकता आने से आप चिन्तित भी हैं। उनका मानना है कि ‘कलाकार अपने स्टूडियो में कैद होकर रह गया और माँग के अनुरूप चित्र बनाकर बाजार में खड़ा हो गया।’ कलाकार जब व्यापारी बन जाता है तो कला में संवेदनाएँ खत्म हो जाती हैं।
श्री भाण्ड के ‘राग रागिनियों’ पर आधारित शृंखला काफी चर्चित रही। इसमें संगीत और चित्रकला का अन्तर्सम्बन्ध स्थापित किया गया उन्होंने स्वरों के रंगों को भी अंकित किया।
सा- नील (इण्डिगो)
रे- भूरा-सीपिया
ग- स्वर्ण
म- पीत
ध- गुलाबी
नि- हरित
स्वरों पर आधारित चित्र विशेष प्रकार के चित्र हैं। ये जल रंग में बने हैं। इनके द्वारा बनाये गए निसर्ग और व्यक्ति चित्र अत्यन्त जीवन्त हैं और आपने अमूर्त चित्रों को भी अपने कला जीवन में विशेष महत्व दिया है। आपके प्रसिद्ध चित्र प्रमुखतः निम्नलिखित है-
(1)Weshell Servive (2) भोपाल जो एक शहर था (3) पन्नी बीनने वाली (4) जाए कहाँ आखिर अहमदाबाद की दंगा पीड़िता (5) माँ (6) पिंजरे का पंछी (7) बिम्ब (8) पिछली रात का गम (9) विरह विदग्धा (10) खण्डिता (11) अवसाद (12) टूटा घट (13) उर्ध्वमुखी चाहें (14) लज्जा (15) अश्व (16) पृथ्वी (17) प्रदक्षिणा (18) ला- फेमिना (19) शकुन्तला नामे तथा अनेकों अमूर्त चित्रों का भी सृजन किया।
आप फिल्म उद्योग से भी जुड़े इस कारण कुछ चित्रों के विषय फिल्म उद्योग या निर्माण पर आधारित रहे हैं।
करवट कला परिषद द्वारा ‘कला साधना’ सम्मान तथा मधुकली द्वारा ‘कलाचार्य’ सम्मान से सम्मानित किया गया। वर्ष 2002 में श्री एल.एम. भाण्ड अमृत महोत्सव समिति द्वारा कला गुरू का सम्मान प्राप्त हुआ। इसके अलावा आप कल्चरल सोसाइटी ग्वालियर, आर्टिस्ट कम्बाइन ग्वालियर, रिद्म आर्ट सोसायटी और एम.एस. भाण्ड सोसायटी भोपाल के संस्थापक सदस्य रहे। आप पंजाब के नवाशहर स्थित महाविद्यालय के कला विभाग के प्रमुख भी रह चुके हैं। मध्य प्रदेश शासन के विशेष आमंत्रण पर तत्कालीन सूचना प्रकाशन विभाग, भोपाल में पदस्थ हुए।
आप कलाचिन्तक, इतिहासकार, कवि, साहित्यकार, कार्टूनिस्ट और पत्रकारिता में भी निपुण रहे हैं। जब आप पर्यावरण विभाग में जनसम्पर्क अधिकारी के पद पर पदस्थ थे, उस समय आपने बच्चों के लिये बाघ और तितलियों पर आधारित ‘बाघ की आत्मकथा’ और ‘तितलियाँ’ पत्रिकाएँ छपवाई। आप ग्वालियर की साहित्यिक पत्रकारिता और नाट्य लेखन क्षेत्र से जुड़े रहे। शरद जोशी द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका ‘नवलेखन’ का कला पक्ष आपके द्वारा ही लिखा जाता था। ‘प्रशयश’ नाट्य संस्था में भी सदस्य के रूप में कार्य किया। ‘भारती’ नामक संस्था में सम्पादक का कार्य किया। आप शरद जोशी, बसन्त देव, अनुरागी और अम्बा प्रसाद जैसे महान कवियों के सम्पर्क में आये और आपने कई काव्य गोष्ठियों में हिस्सा लिया। ‘मुखौटा’ एक प्रसिद्ध काव्य है, जिसमें आपका जीवन दर्शन अवलोकित होता है। उल्लेखनीय पुस्तक ‘ग्वालियर कलम’ आपके द्वारा लिखी गई है। इसके अलावा अनेकों कलात्मक लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
उपरोक्त अनेकों विधाओं में निपुण बहुआयामी कला के धनी, कला के नये आयामों की खोज में आज भी अग्रसर हैं।
व्यक्तिगत उपलब्धि
सम्मान
कला साधना सम्मान- करवट कला परिषद, कलाचार्य सम्मान- मधुकली संस्था द्वारा, कला गुरू सम्मान -2002- श्री एल.एम. भाण्ड अमृत महोत्सव समिति
प्रदर्शनी
वार्षिक प्रदर्शनी- 1948-52 Cultural Society, Gwalior, बनारस यूनिवर्सिटी- (ड्रमर) पुरस्कृत, वार्षिक प्रदर्शनी- आर्ट सोसायटी बाम्बे - 1949, कालिदास समारोह- 1968, नेशनल एक्जिबिशन- (L.K.S)- 1968, एकल प्रदर्शनी- बाम्बे- 2003, स्टेट आर्ट एक्जिबिशन रायपुर 1 पुरस्कार- 1959 (पेंटिंग Siesha), स्टेट आर्ट एक्जिबिशन दिल्ली- 1968, स्टेट आर्ट एक्जिबिशन भोपाल- 1973
Camps & Workshop
Artist Camp- 1960- of Polytechnic Bhopal Organised Kalaparishad, Camp Jabalpur- 1975, -Portrait Camp Bhopal- Swaraj Bhawan- 2004, Workshop of Gwalior Mela- 1974, Seminar at Tradition & UGC- 2004- M.L.B. College, Bhopal
Published work
15 Artical in Press, Gwalior Kalam, Madhya Pradesh Mein Chitrakala, Waga’s Contribution to Culture
First in Bhopal
1956-60-Survey-Bhopal’s artist M. Ansari, Mohd. Ayoob Artist & Banver artist in old city, 1960- First Art Exhibition at Police Welfare Culure Artist

शोधार्थी अपने पिता श्री डी.डी. धीमान जी की जीवन कला यात्रा को अक्षरबद्ध करने में बड़ा गर्व अनुभव कर रही है कि उन्होंने कला संस्कृति को अपने जीवन में किस प्रकार संजोया उसका स्पष्टीकरण अपनी लेखनी से लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आप समकालीन चित्रकला में प्रसिद्ध प्रतिभावान चित्रकार एवं वरिष्ठतम कला शिक्षक हैं।
जीवन परिचय
आपका शुभ नाम देवीदयाल धीमान जन्म 1 मार्च, 1937 जिला सीहोर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। आपकी कला शिक्षा शासकीय ललित कला महाविद्यालय इन्दौर में 1963 में जी.डी. फाइन एण्ड एप्लाइड आर्ट, मध्य प्रदेश शासन पंचवर्षीय पत्रोपाधि कोर्स हुआ। आपने 1977 में एम.ए. चित्रकला की उपाधि प्राप्त की।
आप शासकीय ललित कला महाविद्यालय, इन्दौर में कला अध्ययन के दौरान कला गुरू प्रो. चन्द्रेश सक्सेना जो छात्र कला गुरू और दृश्य चित्रकार के रूप में जाने जाते हैं। मालवा के क्रियाशील कलाकार श्री डी.जे. जोशी जी जो अनेक कलाकारों के गुरू और पश्चिमी कला के प्रणेता दृश्य चित्रकार भी कला गुरू रहे। श्री विष्णु चिंचालकर जी पेंसिल और चारकोल के एवं श्री एम.टी. सासबड़कर जी मूर्ति कला के गुरू रहे। एम.ए. चित्रकला की उपाधि के दौरान कला मनीष श्री सुशील पाल के मार्गदर्शन में अध्ययन किया।
चित्रकला की उच्च शिक्षा हेतु महामना राष्ट्रपति महोदय डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी, शिक्षा मंत्री, मध्य प्रदेश थे उन्होंने आपके चित्रों को देखकर शासकीय ललित कला महाविद्यालय, इन्दौर में पाँच वर्षों तक कला अध्ययन के लिये डेप्यूट कर दिया था। उस समय वह ग्रामीण स्कूल के शिक्षक थे। वह एक साधारण एवं गरीब परिवार से सम्बन्धित थे। माता-पिता को पुत्र की कला रुचि से बहुत लगाव था। बचपन में मिट्टी की दीवारों पर कपड़े रंगने वाले रंगों, गेरू कजली और फूल पत्तियों के रंगों से चित्र बनाते थे, जिससे लोगों से काफी सराहना मिलती थी।
जिला सीहोर में कोई भी शासकीय मेहमान आते थे, उनका बनाया पोर्ट्रेट कलेक्टर द्वारा भेंट किया जाता था। 1965 में राज्य शिक्षा संस्थान, मध्य प्रदेश का निर्माण हुआ, उसमें कला शिक्षक के स्थान पर नियुक्त कर राष्ट्रीय पुस्तकों के चित्रों के सृजन का कार्य सौंपा गया। प्राथमिक, माध्यमिक एवं हाईस्कूल की पुस्तकों के चित्रों एवं चार्ट्स आदि का सृजन किया। वहाँ से मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग से चयन होकर 1972 में शा. महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय, भोपाल में व्याख्याता- चित्र कला पद पर नियुक्त होकर प्राध्यापक चित्र कला के पद पर पदोन्नत हुए। वहाँ पर कला मनीषी सुशील पाल साहब का सानिध्य प्राप्त हुआ।
चित्रांकन विषय
आपने मानव चित्रण अधिक किये। आपने प्रकृति चित्रण और संरचना में पौराणिक एवं सामाजिक विषयों पर आधारित चित्रण कार्य किया। आपके चित्रों में त्रिआयामी गुणों का पूरा ध्यान रखा गया है। तूलिका के संघात इस प्रकार लगाते हैं कि रंगों की चमक और स्पष्टता अलग दिखाई देती है। रेखाओं के फार्मों में भी लय है, रंगों में हार्मनी और सन्तुलन का पूरा ध्यान रखा गया है। वर्ण नियोजन का पूरा ध्यान रखते हैं। पेन्सिल, चारकोल, जल रंग, पोस्टर रंग, तेल रंग आदि रंगों का चित्रण किया गया है। चित्र कला के सिद्धान्तों के आधार पर ही चित्र सृजन की विशेषता है।
आपके दृश्य चित्रण ‘स्टिल लाइफ’ से प्रारम्भ होकर प्रकृति की प्रत्येक छवि अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। वस्तु समूह से रंगों की स्वाभाविकता का प्रतिबिम्ब एक दूसरे फार्म पर पड़ता है, जिससे रंगों और आकारों में परिवर्तन आता है। इस प्रकार दृश्य चित्रों में भी वातावरण का प्रभाव पड़ता है। प्रकृति में जो भी वस्तु सजीव व निर्जीव हैं वह पंच तत्वों से ही दृश्यांकित होती है उसमें कला तत्वों से ही दृश्य चित्रण सहायक होता है। धीमान साहब के दृश्य चित्रों में पंच तत्व का अपना महत्व है। उन्होंने प्रत्येक चित्र में पर्यावरण का समावेश आवश्यक रूप से किया है। आपने अधिकांशतः दृश्य चित्र यथार्थ और प्रभाववादी शैली में बनाये हैं। इन्दौर, भोपाल सहित अनेक स्थानों के दृश्य चित्र बनाये हैं। आपके दृश्य चित्रों में अनुकूल स्थानों पर मानव तथा पशु आकृतियाँ भी दिखाई देती हैं। आपने चित्रों को मौसम के अनुरूप चित्रित किया है। आपके चित्रों में प्रफुल्लित प्रकृति परिलक्षित होती है। अपने जीवन में बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक जो भी चित्रित किया वह मूर्त रूप में भी देखने को मिलते हैं। बचपन में अगर आम के पेड़ का चित्र बनाया है तो आम का वृक्ष लगाकर आम खाये गए हैं, जो भी पेड़ के चित्र बचपन में बनाये गए थे वह सब मूर्त रूप में इस धरा में लगाकर प्रकृति प्रेम को साकार किया गया है। आप जिस किसी भी भवन में रहे, उस स्थान की प्राकृतिक छटा को बढ़ाकर प्राकृतिक वातावरण को बनाकर रखा गया। वे कहीं भी पेड़-पौधे रोपकर पूरी देखभाल करते हैं और फूल, फलदार वृक्ष बना देते हैं और उसके चित्र भी बनाये गए हैं। दृश्य चित्र अन्तर्मन में निहित हैं। कुछ चित्र इस शोध ग्रन्थ में दिये गए हैं। चित्रों का व्यवसाय अपने जीवन में कभी नहीं किया चित्र जिसको पसन्द आया वह चित्र उसे प्रसन्नता से प्रदान किया आपका सोचना है कि फूल पत्ती एवं फलों का व्यवसाय नहीं जो जिसको प्राप्त हो जाये वह उसका ही है। आयु के 78 वर्षों के दशक में वह चित्रमय वातावरण देखना पसन्द करते हैं। इसके लिये कड़ी मेहनत आज भी करते हैं। वे अपने आपको समृद्ध मानते हैं। ‘उनके पर्यावरण परिसर में विभिन्न औषधि, फल, फूल के पौधे हैं।’ उनका सन्देश है ‘जो खाओ वह बोओ।’ अधिकतर देखने में आया है कि आज का मानव अर्थ की ओर अधिक ध्यान देता है पर्यावरण की ओर नहीं, जबकि प्राण वायु प्रत्येक प्राणी को चाहिए। कहीं भी थूकना, पन्नी फेंकना, बीड़ी सिगरेट का धुआँ, हवा में गन्दगी, पानी दूषित करना आदि पर्यावरण बिगाड़ने में भी उपरोक्त बातें घातक हैं। जैसे चित्रकार अपने चित्र में आवश्यक बिन्दु लगाकर चित्र को सुन्दर बनाता है, उसी प्रकार प्रकृति को भी पेड़-पौधे लगाकर संवारना चाहिए।
चित्रों की प्रदर्शनी एवं सम्मान
प्रथम एकल प्रदर्शनी ‘नव ज्योति संगठन’ सीहोर नगर (जन्म स्थान) नगर अभिनन्दन समारोह में सम्मान- 29 अक्टूबर 1982, कला संगम- दुर्गावती पुरातत्व संग्रहालय कला वीथिका में सम्मान जबलपुर- 25 मई 1986, संस्कार भारती- अखिल भारतीय संस्था भोपाल- 24 जुलाई 2005 एवं विश्व भारती लोक कला सम्मान भोपाल- 05 जुलाई 2009
श्री डी.डी. धीमान ने मध्य प्रदेश के कला परिवेश के निर्माण में एक कला शिक्षक और एक दृश्य चित्रकार के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आपके द्वारा तैयार किये विद्यार्थी महत्त्वपूर्ण स्थानों पर शासकीय सेवा में हैं और कुछ स्थापित कलाकार के रूप में स्वतंत्र कार्य कर रहे हैं।
श्री गिरधारी लाल चौरागड़े (17 सितम्बर 1937)
श्री जी.एल. चौरागड़े साधारण से दिखने वाले व्यक्ति असाधारण प्रतिभायुक्त राष्ट्रपति द्वारा ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ से सम्मानित चित्रकार एक सामान्य ग्राम बालाघाट जिले के ‘फोगलटोला’ सुविधाविहीन गाँव के रहने वाले हैं। जिन्होंने बालाघाट जिले को अन्तरराष्ट्रीय मानचित्र पटल पर गौरवमयी पहचान दिलाई। आपका जन्म 17 सितम्बर 1937 को ग्राम फोगलटोला के काश्तकार परिवार में हुआ था। आपके पिता श्री गोकुल सावजी साधारण काश्तकार थे। नितान्त अभावों व आधुनिक सुविधा रहित माहौल में रहते हुए भी आपने उच्चतम शिखर को चुना। आपकी बचपन से ही चित्रकला में रुचि रही। इनके रिश्तेदार श्री रंगलाल विजयवार के चित्रों को देखा। परिवार की उपेक्षा और श्री विजयवार की प्रेरणा ही कलात्मक रुचि बढ़ाने में सहायक रहे।
श्री चौरागड़े प्रारम्भ से ही तीक्ष्ण बुद्धि वाले प्रतिभावान छात्र थे। विद्यालयीन स्तर पर ही उन्होंने अपने धर्मगुरुओं से दृढ़ता, ज्ञान, संयम का भाव सीखा। आपका स्कूल में ड्रॉइंग के अतिरिक्त विज्ञान विषय था। 1975 में हायर सेकण्डरी के पश्चात मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन धार्मिक प्रवृत्ति होने के कारण वे इस कोर्स को पूरा नहीं कर सके। इसके पश्चात आपने कृषि महाविद्यालय में प्रवेश लिया। मन न लगने के कारण वापस फोगलटोला ग्राम लौट आये। उनका सृजनात्मक मन चित्र बनाने को आतुर रहा। सन 1958 में सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई महाराष्ट्र शासन में प्रवेश लिया। 1963 में कलागुरू श्री पलसीकर और श्री सम्पत जी के सानिध्य में रह कर कलात्मक गुणों को निखारते हुए पंचवर्षीय जी.डी. आर्ट (पेंटिंग) मुम्बई पास किया। आपको 1963 से राष्ट्रीय स्तर के कलाकार श्रेणी में मान्यता प्राप्त हुई।
आपकी इच्छा स्टूडियो खोलने की थी, परिवार के असहयोग के कारण आपको सर्विस तलाशनी पड़ी। 1966 में जे. आर. दाणी गर्ल्स हायर सेकण्डरी स्कूल, रायपुर में ड्रॉइंग टीचर के रूप में नियुक्त हुए। 1972 में स्थानीय कमला नेहरू कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, भोपाल में सर्विस लगी और तब से आप भोपाल निवासी हो गए। यहाँ पर सेवानिवृत्ति तक चित्रकला विषय के व्याख्याता रहे। चित्रकला विषय की शिक्षा देकर विद्यार्थियों को लाभान्वित किया। साथ ही चित्रण कार्य निरन्तर करते रहे।
आपने चित्रकला के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं, पर कला को कभी व्यवसायिक नहीं बनाया। आपने रंग आइल, पेस्टल, एक्रेलिक सभी माध्यमों में चित्र बनाये। श्री डी.जे. जोशी एवं विष्णु चिंचालकर से प्रेरणा पाई, पर कभी उस शैली को अपनाया नहीं। आपको जल रंग में वाश शैली से चित्र बनाना अधिक भाता है, अतः आप जल रंग के चितेरों के रूप में जाने जाते हैं। आपको ‘पारदर्शी रंगों के जादूगर’ के नाम से भी नामित किया गया। आप ग्रामीण अंचल के होने से ग्रामीण अंचल से प्रभावित रहे। ग्रामीण अंचल से सम्बन्धित समस्याओं को उकेरने की कोशिश की। ग्रामीण जीवन पर बने पोर्ट्रेट महानगरों में रहने वाले लोगों के लिये गाँव में अल्पाभाव से जीवन बसर करने वालों को करीब से जानने का माध्यम बने। पेंटिंग के जरिये हर विषय, मुद्दे, समस्याओं हर वर्ग, हर धर्म को उकेरने का प्रयास किया। दृश्य चित्र, पोर्ट्रेट संयोजन, प्रकृति चित्रण आदि चित्रण करने में समानाधिकार रखते हैं। दृश्य चित्र से ग्रामीण, नगरीय तथा महानगरीय दृश्यों का चित्रण किया है। जब आप मुम्बई ललित कला का डिप्लोमा लेने गए थे उस समय आपका निवास स्थान समुद्र किनारे था अतः आपको समुद्र के विभिन्न स्वरूपों के दर्शन होते थे। जिसे उन्होंने रेखांकन और चित्रों में व्यक्त किया। आपने यथार्थवादी पारम्परिक शैली में चित्रण किया है। प्रमुख दृश्य चित्रों में चांदनी रात की छटा, भीगी रात की झलक, भोपाल का बड़ा ताल, एक झलक छोटे ताल की और रायपुर का तल जल रंगों में बने हैं तथा भोपाल का छोटा ताल, केरवा डैम, समुद्र किनारा, नाव तथा ग्राम्य जीवन तेल चित्रों में बने हैं। आपकी विशिष्ट पद्धति के कारण आपके चित्र देश-विदेशों में प्रसिद्ध हैं। इन विशिष्ट चित्रों के सृजन के लिये आपको विशेष प्रकार की टेबिल की आवश्यकता महसूस हुई। अतः वर्ष में लकड़ी से निर्मित ‘मयूराकृति ईजल’ का आविष्कार कर स्वयं निर्मित किया। यह ऐसी सर्वसुविधायुक्त टेबल है जो पूरी तरह से एडजस्टेबल है। इसे किसी भी दिशा में पूरी तरह से ऊपर-नीचे घुमाया जा सकता है। इसमें रंग रखने की और प्रकाश की व्यवस्था है तथा बड़े से बड़ा बोर्ड भी फिट किया जा सकता है। प्रकृति का सजीव चित्रण आपके चित्रों की विशेषता है जो गीले पेपर पर दृश्य चित्र सृजन किया जाता है। आपने आवश्यकतानुसार शीतल और उष्ण रंगों का प्रयोग परिप्रेक्ष्यानुसार किया है। आपने सृजित चित्रों को प्रदर्शित भी किया। सेमिनारों और कैम्प में भागीदारी की।
कैम्प
आर्ट सोसायटी प्रदर्शनी मुम्बई- 1963, 64 कला नगर प्रदर्शनी 1964, राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी नई दिल्ली- 1963 मध्य प्रदेश राज्य स्तरीय कला प्रदर्शनी रायपुर- 1967, 1970, महाकौशल अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी रायपुर- 1971, 1972 मध्य प्रदेश राज्य प्रदर्शनी रिद्म आर्ट सोसायटी भोपाल- 1989-80
एकल प्रदर्शनी
जबलपुर 1966, महाकौशल कला वीथिका रायपुर 1967, मध्य प्रदेश कला परिषद कला वीथिका भोपाल- 1983, 1985, देवलालीकर कला वीथिका इन्दौर - 1987, The academy of Fine arts, Gallery Kolkatta- 1990, जहाँगीर आर्ट गैलरी मुम्बई- 1991 एवं महाकौशल कला परिषद, रायपुर- 1999 तथा नूतन कला निकेतन बालाघाट मध्य प्रदेश-2003
सेमिनार कैम्प
अखिल भारतीय कला शिक्षक कैम्प जबलपुर 1972, आर्ट कार्निवाल कैम्प मुम्बई- 1963, ग्राफिक एण्ड मॉडलिंग वर्कशाप, रीजनल कॉलेज भोपाल- 1979, 1981, अखिल भारतीय पेंटिंग केम्प माण्डच- 1986 तथा ललित कला राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी एम.एल.बी. कॉलेज, भोपाल- 1993
विशिष्ट पुरस्कार एवं सम्मान
राष्ट्रीय पुरस्कार एवं सम्मान- 1992 में कला का उत्कृष्ट शिक्षण कार्यों के लिये महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित, ऑल इण्डिया फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट सोसायटी, नई दिल्ली द्वारा राष्ट्रीय सम्मान- 1999, संस्कार भारती संस्था भोपाल- 1995, माध्यमिक शिक्षा मण्डल, मध्य प्रदेश भोपाल- 1993, लायंस क्लब, भोपाल- 1993, छत्तीसगढ़ साहित्य समिति- 1993 महाकौशल कला परिषद -1999
आपके द्वारा सृजित चित्र देश-विदेशों में संग्रहित हैं। इंग्लैण्ड, कनाडा, अमरीका तथा देश के अनेक स्थानों पर है। इस प्रकार श्री गिरधारी लाल चौरागड़े ने स्वयं की मेहनत के बल पर अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। कला और पर्यावरण निर्माण के विकास में सहयोग प्राप्त कर मध्य प्रदेश को उच्च स्थान दिलाया।
डॉ. लक्ष्मीनारायण भावसार
डॉ. लक्ष्मीनारायण भावसार आधुनिक कलाकरों में मध्य प्रदेश के ख्याति प्राप्त कलाकार थे। आप प्रसिद्ध चित्रकार, चिन्तक और साधक हैं। दृश्य चित्रकार के रूप में जाने जाते हैं। साथ ही संयोजन में भी आपका हस्तक्षेप रहा है। अतः यह कहा जा सकता है कि आपको प्रकृति और आकृति दोनों से ही प्रेम है।
जीवन परिचय
डॉ. लक्ष्मीनारायण भावसार का जन्म 01 सितम्बर 1939 को मध्य प्रदेश के शाजपुर में हुआ था। आपके पिता कपड़े के व्यापारी थे। आपका रुझान चित्रकला की ओर बचपन से ही था। कला की प्रेरणा आपको अपनी माताजी से मिली। वे अपने घर का अलंकरण करने के लिये भूमि को ‘माण्डने’ से सजाती थीं और दीवारों पर ‘चित्रण’ से अलंकृत करती थीं। आपका बालमन लोककला की ओर आकर्षित हुआ। आपके पिता ने भी इस क्षेत्र में आगे बढ़ने में सहायता की। उन्होंने कला गुरुओं की बात मानकर चित्रकला की विधिवत शिक्षा लेने की ओर अग्रसर किया।
शिक्षा
आपकी प्रारम्भिक शिक्षा मालवांचल के शाजापुर में हुई। बचपन में अधिकांश समय मिट्टी के खिलौने बनाने, नदी की लहरों को देखने और खेलने में जाता। आप प्रारम्भिक शिक्षा के पश्चात कला की विधिवत शिक्षा के लिये जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स मुम्बई गए। वहाँ से जी.डी. आर्ट्स डिप्लोमा की उपाधि प्राप्त की तथा एम.ए. चित्रकला विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से किया। शोध की विद्या वाचस्पति (ph.d) की उपाधि इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ से प्राप्त की। इसमें आपका विषय- ‘मालवा क्षेत्र में चित्रावर्णों और माण्डनों का कलात्मक और सांस्कृतिक विवेचन’ रहा।
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में श्री चिन्तामणी, श्री हरि खाण्डिलकर, डॉ. विष्णु चिंचालकर और डॉ. आर.सी. भावसार जी से कला की शिक्षा ग्रहण की।
डॉ. आर.सी. भावसार आपके बड़े भाई हैं जो कि माधव कॉलेज उज्जैन से प्राध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। इन कला गुरुओं की मदद से ही आप कला साधना की ओर अग्रसर हुए और आज भी इस क्षेत्र में क्रियाशील हैं।
एम.ए. चित्रकला विषय में करने के पश्चात आप किला मैदान, इन्दौर में सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। इस महाविद्यालय में मो. अफजल पठान ने शैक्षणिक कार्यों में सहयोग प्रदान किया। यहाँ शैक्षणिक सेवा देने के पश्चात सन 1980 में भोपाल के महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय, भोपाल आये और सन 1982 में शासकीय हमीदिया कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष के रूप में पदस्थ हुए और 30 अगस्त, 2001 में इसी कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए। शासकीय सेवा में रहते हुए आपने कॉलेज के विकास में सहयोग प्रदान किया। साथ ही कलात्मक कार्य के लिये चित्रकला कैम्प और सेमिनार आयोजित किये। आपने अनेकों कैम्प और सेमिनारों में हिस्सेदारी कर स्वयं की कला को मुखरित किया। भारत सरकार के शिक्षा और सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा सर जे.जे. स्कूल ऑफ बाम्बे में आयोजित कार्यशाला और सेमिनार में मध्य प्रदेश के प्रतिनिधि प्रोफेसर के रूप में भागीदारी की।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली के सहयोग से इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में ललित कलाओं के लिये आयोजित सेमिनार और कार्यशाला में स्थापित कलाकार के रूप में शिरकत की। आपको लोक कलाओं में विशेष योगदान और चित्र प्रतिभा के लिये ‘मानवरत्न’ उपाधि से सम्मानित किया।
लक्ष्मीनारायण भावसार एक सधे हुए कलाकार हैं, जिन्होंने प्रकृति और भला धर्म के अध्ययन के लिये समूचे भारत की यात्रा की। हिमालय से कन्या कुमारी, द्वारिका से जगन्नाथपुरी, नेपाल, काठमाण्डू के काष्ठ मण्डल, पोखरा से मानसरोवर, ऋषिकेश, बनारस, ओंकारेश्वर, गंगा और नर्मदा के कई धार्मिक स्थलों की यात्रा कला के उद्देश्य से की।
देश-विदेश की कला दीर्घाओं और कला संग्रह में देश के महानगरों की विभिन्न संस्थाओं में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर में आपकी कलाकृतियाँ सुशोभित हैं। अनेक पत्र पत्रिकाओं जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, इलस्ट्रेटेड वीकली, कला वार्ता तथा अनेकों पत्र पत्रिकाओं में चित्र एवं रेखाचित्र प्रकाशित हुए हैं। दूरदर्शन और आकाशवाणी में कला-वार्ता प्रसारित हुई है। आप भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल अध्ययन मण्डल के अध्यक्ष रह चुके हैं। इसके अलावा अनेकों प्रतियोगिताओं में निर्णायक के रूप में ससम्मान आमंत्रित किये जाते हैं।
आपकी पहचान सिर्फ आपके चित्रों से ही नहीं होती बल्कि आपके शिष्यों की कृतियों में भी उसी कलाशैली के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि आपने स्वयं को एक अच्छे गुरू के रूप में स्थापित किया। आपके शिष्य विभिन्न शासकीय एवं अशासकीय पदों पर रह कर सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं। शिष्यों को अग्रसर करने के लिये सदा प्रेरित करते रहते हैं।
लोक कला आपका प्रिय विषय रहा है। मालव अंचल के लोक जीवन को समीप से निहारने और आत्मसात करने का अवसर मिला। मालवा के चित्रावण, मांडने, लोकगीत संस्कार, तीज-त्योहार और उसमें पूजे जाने वाली कलाओं का गहन अध्ययन कर अपना शोध कार्य पूर्ण किया।
आज आप मध्य प्रदेश के प्रतिष्ठित कलाकारों में से एक हैं। आपको किसी भी एक विधा में बंध कर कार्य करना पसन्द नहीं है। आपने सभी माध्यमों (जल रंग, पेस्टल, तेल रंग और चारकोल) में कार्य किया है। साथ ही आकृति संयोजन, दृश्य चित्रण या पोर्ट्रेट सभी में समान रूप से श्रेष्ठता के साथ कार्य करते हैं।
प्रकृति चित्रण में पर्वतों के समस्त रूपों को देखा वहीं तालाब का सौन्दर्यपूर्ण तरीके से चित्रण किया। आप जल के चितेरों के रूप में देश में ही नहीं विदेशों में भी पहचाने जाते हैं। जल की गहराई, जल का छिछलापन, स्वच्छ जल, लहराता पानी, डोला पानी आदि आपकी कला के प्रति गहन चिन्तन दृष्टि का परिणाम है।
जल का पर्यावरणीय रंगों से परिवर्तनशील होना, प्रकाशीय गुणों का प्रभावशील होना आपके चित्रों में परिलक्षित होता है।
आपने कभी पारम्परिक शैली की अनुकृति नहीं की, जो भी बनाया स्वयं की कल्पना के बलबूते पर बनाया। आप प्रकृति के बहुत समीप रहे। आपने प्रकृति की शीतलता ही नहीं, सूर्य की रोशनी की उष्णता को भी भोगा। आपके चित्रों में रंगों के माध्यम से शीतलता और उष्णता दोनों के दर्शन होते हैं। आपको दृश्य चित्रण करना बहुत पसन्द है। आपने पेड़- पौधों, आकाश, बादल, पहाड़, पानी तथा विभिन्न वनस्पतियों का सुघड़ता से चित्रण किया। आपके चित्रों में पर्यावरणीय पंचतत्वों के दर्शन होते हैं। यदि आप शीतल रंगों में दृश्य चित्र बनाते हैं तो उस दृश्य में निहित मानवाकृतियों को गर्म रंग में बनाकर आकर्षक दृश्यात्मकता उपस्थित करते हैं। आपके दृश्य चित्रों में प्राकृतिक काव्य के दर्शन होते हैं। रंगों तथा रेखाओं में गति तथा लयात्मकता निहित है। आपने पारदर्शी रंगों तथा छाया प्रकाश का उचित ढंग से प्रयोग किया है। भाव, माधुर्य तथा औज चित्रों के प्रमुख गुण हैं।
आपने देश के सम्माननीय व्यक्तियों के पोर्ट्रेट, लाइफ चित्र बनाये हैं जिसमें नेहरू जी, गाँधी जी, इन्दिरा गाँधी, भूतपूर्व राष्ट्रपति एवं श्री शंकरदयाल शर्मा प्रमुख हैं।
इसके अलावा आपने संयोजनों को भी बनाया है, जिसमें सामान्यतया ग्रामीण विषयों को चुना है। जिसमें आकृतियों की सहजता, सौम्य चेहरा, ग्रामीण परिधान दिखाई देता है। इसके अलावा आपने स्वतंत्रता सेनानी सम्बन्धित चित्र भी बनाये हैं।
आप अनेकों प्रदर्शनियों में अपनी कृतियों को सम्मिलित कर पुरस्कृत भी हुए। आपने अनेकों समूह और एकल प्रदर्शनी आयोजित की। आज भी आप कला साधना में तल्लीन हैं।
श्री सचिदा नागदेव
श्री सचिदा नागदेव का जन्म 25 अक्टूबर, 1939 को उज्जैन में हुआ। चित्रकार के गुण इनके बाल्यकाल से ही दिखाई देने लगे थे। गोपाल मन्दिर के आस-पास लगने वाली दुकानों में मेंहदी, हींगुल के विभिन्न रंग, वस्त्रों की दुकानों में वस्त्रों के विभिन्न रंगों ने इनके बाल्य-मन को आकर्षित किया। इन रंगों की मोहकता में ऐसे रम गए कि आज भी उसे भुला न पाये। उनके पास इन दुकानों की स्लाइड देखने को मिल सकती है। रंगों का मोह बदलते समय और रंग संयोजन में साथ-साथ परिवर्तित होता गया।
इनके चित्रकार जीवन की शुरुआत बचपन में एक साइनबोर्ड पेंटर के रूप में हुई। इनके मामा श्री शंकरराव पेंटर थे। श्री नागदेव उनके पास अपने पिताजी के साथ अक्सर जाया करते थे उस समय सिनेमा के पोस्टर काले सफेद रंगों के विभिन्न रंगतों में बने होते थे। इसका निर्माण वे घरों में जाने वाली चिमनी अथवा लालटेन के धुएँ से इकट्ठे होने वाले काजल से करते थे। इनका सम्पर्क उज्जैन के जाने-माने सिने-पेंटर श्री जगमोहन से हुआ और उनके सहायक के रूप में कार्य किया। वे घर में आकर भी ड्राइंग कॉपी में बनाया करते थे। उनके इस प्रकार के चित्रों को स्कूल शिक्षक श्री केशव रामचन्द्र अम्बेडकर ने देखा और मार्गदर्शन किया। 13 वर्ष की उम्र में वे मास्टर्स पेंटर की कापी करने लगे थे।
शिक्षा
इनकी स्कूली शिक्षा उज्जैन में ही हुई। इनकी शिक्षा और चित्रकारिता की शुरुआत साथ-साथ हुई। 09 वर्ष की अवस्था में वे साइनबोर्ड पेंटर बन गए। इन्होंने ललित कला का अध्ययन भारती कला भवन, उज्जैन में डॉ. वी.एस. वाकणकर पुरातत्व विद्वान एवं चित्रकार के निर्देशन में किया और उनके द्वारा खोजे गए प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की अनुकृति। श्री वाकणकर नगर में कम जंगलों और गुफाओं की खोज में अपना समय व्यतीत करते थे। श्री नागदेव इनके साथ ही इस भ्रमण चित्रण में शामिल होते थे। साथ ही वे उज्जैन के घाट का भी चित्रण किया करते थे। उस समय उज्जैन के चित्रकारों का एक समूह बन गया था, जिसमें श्री रामचन्द्र भावसार, डॉ. शिवकमारी जोशी, मुजफ्फर कुरैशी, रहीम गुट्टी आदि शामिल थे। इन्होंने सन 1954 में जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई से जी.डी. आर्ट की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन 1962 में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से चित्रकला विषय में एम.ए. किया। मध्य प्रदेश शासन की ओर से अमृता शेरगिल फेलोशिप प्रदान की गई और शासन ने 1997 में India Senior Artist Fellowship प्रदान की।
कला कार्य
ये अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार हैं। इन्होंने कला गुरू श्री वाकणकर के साथ जहाँ भीमबेटका के गुफा चित्रों की अनुकृति की, वहीं दूसरी ओर इन्दौर के प्रसिद्ध चित्रकार डी.जे.जोशी की प्रभाववादी कला की छाप भी दिखाई देती है। यात्रा के शौकीन श्री नागदेव ने देश-विदेश की यात्रा की। नेपाल, यूरोप, जापान की यात्रा की। कश्मीर से कन्याकुमारी और अरूणाचल प्रदेश व मेघालय के दुर्गम आदिवासी इलाकों की यात्रा की। यहाँ का विस्तृत अध्ययन व चित्रण किया। कश्मीर की यात्रा के दौरान उन्हें भंयकर तूफान का सामना करना पड़ा और बोट में ही कुछ दिन गुजारने पड़े। उसी समय इन्होंने प्रसिद्ध चित्र ‘जूनी द मून’ बनाया। वहाँ के बहुत से दृश्य चित्रण उस तूफानी मौसम में चित्रित किये। लकड़ी के मकान लबादेदार वस्त्र पहने स्त्री पुरुष बड़ी आँखें सुडौल चेहरा उनके चित्रों की विशेषता है। आपने अजन्ता एलोरा गुफा- चित्रों की अनुकृति की।
महाराजावाड़ा उच्चतर विद्यालय, उज्जैन के प्राचार्य श्री लालगे थे। उनको कलात्मक चीजों से लगाव था। श्री सचिदा नागदेव को भोपाल लाने का श्रेय भी डॉ. लालगे साहब को है। इन्हें भोपाल में मॉडल स्कूल बनाने का कार्य सौंपा गया। तब इन्होंने श्री नागदेव सर को भोपाल बुलाया और अध्यापन का कार्य सौंपा। किसी कारण से कुछ समय के लिये चित्रकला विषय इस स्कूल में बन्द भी करना पड़ा। इन्होंने विदायक हरिभाऊ जोशी के एम.एल.ए. रेस्ट हाउस की खिड़की से भोपाल की मीनारों, तालाब, पहाड़ियों, मैदान आदि का चित्रण किया। इस प्रकार वे भोपाल में ही बस गए और निरन्तर कला कार्य में तल्लीन हो गए। बीच-बीच में इन्होंने दक्षिण भारत, लद्दाख, पंजाब, कश्मीर, यूरोप की यात्रा कर कलात्मक कार्यों को और अधिक प्रशस्त किया।
इनके चित्रों की विशेषता कैनवास पर गहरे रंगों की पृष्ठभूमि पर दृश्य के विस्तार और विभिन्न Tones का प्रयोग देखने को मिलता है। इनके चित्रों में लाल रंग का आकर्षक प्रयोग देखने को मिलता है। सफेद रंग के लिये Texture White का प्रयोग नाइफ या ब्रश से किया है। सांची, खजुराहो में मूर्तिशिल्प के रेखांकन किये, वहीं एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग को जल रंगों से चित्रित किया। इनके चित्रों में लघु चित्रों की छाप भी दिखाई देती है। जिन्हें अमूर्तता के साथ प्रस्तुत किया है। बाद के अमूर्त चित्रों में चिड़ियों का आगमन हुआ। बाँसुरी वाद के चित्र को नाम दिया। इसमें एक चित्र को तीन भागों में बाँटा है। जिसमें रात का दृश्य लिया गया है। राधा-कृष्ण सीरिज 2’x2’ कैनवास पर बनी हुई है। जापान में ‘सुबह और शाम’ नामक चित्र काफी प्रशंसित रहा है। जिसमें एक ओर सुबह तथा दूसरी ओर शाम दर्शायी है। बीच में चाँद में दो चिड़ियाँ दिखाई दे रही हैं। सड़कों के स्थान पर वहाँ नदियाँ ही हैं जिनमें नाव से सफर किया जाता है। इनके प्रमुख चित्रों में निम्नलिखित चित्र प्रमुख हैं-
1. रवीन्द्रनाथ की प्रतिच्छाया कविता पर आधारित चित्र- 1961
2. कश्मीर में बाढ़- 1959
3. कांगड़ा शैली में लड़की का स्केच- कुल्लू घाटी के स्केच- 1962
4. गूजर जाति की लड़की का स्केच- कांगड़ी हाथ में लिये हुए
5. कन्याकुमारी के दृश्य- यथार्थवादी चित्र जिसमें Blue Coconut Tree दर्शाये हैं।
6. भोपाल गैस ट्रेजडी- 1984- अमूर्त कृति
7. बुरखा ओड़े स्त्रियाँ एवं चार मीनार- हैदराबाद- पेस्टल कलर
8. काठमाण्डू की आकर्षक गलियाँ- 1967
9. उदयपुर की पिछोला झील का दृश्य पीछे किला दिखाई देता है।
10. उज्जैन की झील (नदी)
11. ‘मारविजय’ गुफा चित्र की अनुकृति
12. जापान में चेरी ब्लॉसम का समय
13. ‘काश्मीरी घोड़े वाला’ आदि
14. द डेथ सीरीज तथा गैस ट्रेजडी सीरीज
15. रेलवे प्लेटफार्म पर शेर की कल्पना
पुरस्कार एवं सम्मान
1. शंकर्स इंटरनेशनल चिल्ड्रेंस आर्ट कॉम्पटिशन, न्यू दिल्ली 1954 और 1955
2. ऑल इण्डिया टैगोर आर्ट एक्जीबिशन, इन्दौर- 1961
3. स्टेट आर्ट एक्जीबिशन मध्य प्रदेश 1960, 1962 मेरिट अवॉर्ड
4. ऑल इण्डिया आर्ट एक्जीबिशन- ग्वालियर- 1959- मेरिट
5. ऑल इण्डिया कालिदास प्रदर्शनी- उज्जैन- 1967- मेरिट
6. राज्य कला प्रदर्शनी- 1973- बेस्ट अवॉर्ड
7. All India Fam Charit Manes Exhibition, Bhopal- 1976
8. Yamiure Telecasting Award, Osaka, Trennale 90 Japan- Prize- 15 Lakh Japani Yen.
9. Honour- Shikhar Samman, M.P.Govt,- 1997
एकल प्रदर्शनी
इन्होंने अनेक स्थानों पर एकल प्रदर्शनी लगाई है जैसे-
गैलरी जेन बंगलुरु-2002, गैलरी मुलर एण्ड प्लेट म्युनिख जर्मनी- 2001 आर्ट वर्ल्ड चेन्नई- 2002, धूमिनाल गैलरी दिल्ली- 1999, भारत भवन, पण्डोल आर्ट गैलरी बाम्बे 1982, 86, 90, 95, सरला आर्ट सेंटर मद्रास 1979, 80, 87, Sister Art Gallery, Bangalore- 1987, एलियांस फ्रान्सिसको बंगलुरु- 1990, साइमरोजा आर्ट गैलरी मुम्बई- 1973, जहाँगीर लॉज- मुम्बई, कला परिषद भोपाल, स्कूल ऑफ आर्ट इन्दौर, भारती कला भवन उज्जैन, गैलरी कसाहारा ओसाका जापान- 1987, इण्डियन स्पोर्ट क्लब दुबई जर्मनी, Chamonix, फ्रांसए काठमाण्डू, नेपाल आदि। स्वराज भवन भोपाल- 2012
Artist Camp
इन्हें ऑल इण्डिया आर्टिस्ट कैम्प भोपाल- 1976, मांडू- 1986, मसूरी- 1992, बीजापुर- 1994, भारत भवन- 1996, चेन्नई- 1997, टाटा नगर- 1998, अन्तरराष्ट्रीय कैम्प गुलबर्ग (कर्नाटक) - 1993, अरोधन गैलरी एण्ड शेरेख होटल, अरोधन गैलरी एण्ड ताज कृष्ण- 2001, हैदराबाद, Art World and Rotary Club at Pandicherry, कला परिषद भोपाल- 2001.
स्वराज भवन द्वारा जनजातीय राज्य संग्रहालय में स्वतंत्रता सेनानियों पर आधारित कैम्प- 2013.
संग्रह
अनेक स्थानों पर इनके चित्र संग्रहित है जिनमें कन्टेम्परेरी आर्ट म्यूजियम ओसाका जापान, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट दिल्ली, गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट जयपुर, बिरला आर्ट अकादमी कोलकाता चित्रालय, आर्ट म्यूजियम केरल, रुपंकर- भारत भवन, एयर इण्डिया कलेक्शन मुम्बई, यूबी हाउस टाइटन बंगलुरु, विधान सभा भोपाल एवं बहुत सी प्राइवेट फैक्ट्रियों में इनकी कलाकृतियाँ संग्रहित हैं।
(भेंट वार्ता पर आधारित एवं शासकीय हमीदिया कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के चित्रकला विभाग में Slide Show)
श्री सुरेश चौधरी (जीवन परिचय)
मध्य प्रदेश के राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नामचीन कलाकारों में श्री सुरेश चौधरी का विशिष्ट स्थान है। आपकी कला पर घरेलू वातावरण और प्राकृतिक वातावरण दोनों का ही प्रभाव पड़ा। प्रकृति से पर्यावरण निर्मित हुआ। ईश्वर प्रदत्त पर्यावरण ने कलाकारों को अपनी और आकर्षित किया। इसे आत्मसात करते हुए विभिन्न माध्यमों से कलाकारों ने अभिव्यक्त किया। इसी प्रकार सुरेश चौधरी ने चित्रों के माध्यम से देश-विदेश के कला प्रेमियों को आश्चर्य में डाल दिया।
श्री सुरेश चौधरी का जन्म 1943 में इन्दौर (मध्य प्रदेश) में हुआ। बचपन में आपने अपनी माँ और चाची को चाक और गेरू से भूमि एवं दीवारों पर अलंकरण करते हुए देखा। इस प्रकार आप में कला के प्रति रुचि जागृत हुई। आप एक मध्यमवर्गीय सम्भ्रान्त परिवार से रहे हैं। आपकी सामान्य शिक्षा इन्दौर में ही हुई। ललित कला संस्थान, इन्दौर से ललित कला में डिप्लोमा प्राप्त किया। इन्दौर में अध्ययन करने के बाद सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट बाम्बे से डिप्लोमा किया।
स्नातकोत्तर चित्रकला विषय इन्दौर के महाविद्यालय में न होने से आप भोपाल आ गए। महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय, भोपाल में चित्रकला का अध्ययन कर एम.ए. की उपाधि पाई। इस समय स्व. सुमित पाल चित्रकला के विभागाध्यक्ष थे। इसके साथ ही आपको गायन और वादन में रुचि थी। आपने आष्टे वाले सितार वादक से सितार बजाना सीखा। फुरसत के क्षणों में सितार बजाने से आपको सुकून मिलता था।
इन्दौर शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तो आपमें श्री डी.जे.जोशी के गुण आने लगे, क्योंकि आपको उनका लगातार साथ मिल रहा था। श्री डी.जे.जोशी के अलावा श्री रामनारायण दुबे ने भी कला की शिक्षा प्रदान की। उन्होंने आपके आन्तरिक कलात्मक गुणों में निखार उत्पन्न किया। विष्णु चिंचालकर के कर के सानिध्य से भी आपको प्रकृति के प्रति प्रेम की दृष्टि मिली। आपने कला को एक पूजा या साधना की तरह ही अपनाया और स्वयं के जीवन को कला की सेवा में समर्पित कर दिया।
जब वे कैनवास के साथ नहीं होते हैं तो भी कुछ-न-कुछ सृजनात्मक कार्य कर रहे होते हैं। वास्तुकला में नवीनता लाने का प्रयास करते हैं, बगीचे को अपने अनुसार डिजाइन करते हैं। हरे भरे बगीचे में इंग्लिश घास पर चहल कदमी करना विभिन्न प्रकार के पौधों तथा फूलों के गुच्छे को देखने से आनन्द की प्राप्ति होती है। तालाब और पंचवटी गार्डन आपके मन-मस्तिष्क को उत्प्रेरित करते हैं।
फुरसत के क्षणों में सितार बजाना आपको शान्ति प्रदान करता है। चित्र बनाना आपके मूड पर निर्भर करता है। जब आपका मन मस्तिष्क चित्र बनाने के लिये तैयार होता है तभी वे कैनवस तथा रंगों को छूते है। आपका मानना है कि प्रकृति में हम जो भी चीज देखते हैं वह किसी-न-किसी रूप में हमें प्रभावित करती ही है। उसका प्रतिबिम्ब ही कला के रूप में उभर कर आता है।
आपने अपने उद्गारों को व्यक्त करने के लिये चित्रकला को चना। इसके अन्तर्गत आपने सभी माध्यमों में कार्य किया। जैसे जल रंग/ टेम्परा तेल रंग, एक्रेलिक तथा चारकोल आदि। आपके चित्र रंगों की एक कविता समान प्रतीत होते हैं। आपने दृश्य चित्र बहुतायत बनाये हैं। प्रारम्भ में दृश्य चित्र जल रंग और तेल रंग में प्रभावशाली शैली में बनाये हैं। जल रंग में अपारदर्शी विधि में चित्रण करना पसन्द है। इन चित्रों पर डी.जे. जोशी की चित्र शैली का प्रभाव स्वाभाविक रूप से पड़ा। लेकिन कुछ अन्तराल पश्चात आप अमूर्त शैली की ओर मुड़ गए और इसी में आपने निजी पहचान बनाई। ये चित्र अमूर्त शैली में होने के बावजूद कहीं-न-कहीं यथार्थ के करीब थे। इन चित्रों में दृश्यों का आभास होता है। आपके द्वारा सृजित प्रारम्भिक दृश्य चित्र चटक रंगों में थे किन्तु बाद के दृश्य चित्र जब अमूर्त शैली को अपनाया तो वे सौम्य और धूसर रंगों में परिवर्तित हो गए। कुछ चित्र Monocrome तरह से बनाये गए हैं। चित्रण की दृष्टि आपको अपने आस-पास के पर्यावरण से भी प्राप्त हुई। आपके घर के पास एक अस्तबल भी था। घोड़ों की गतिशील आकृतियों ने भी आपको आकर्षित किया। आपने घोड़ों की विभिन्न आकृतियों का अध्ययन कर चित्रण कार्य किया। जिस प्रकार स्व. एम.एफ. हुसैन घोड़ों के चित्रण के लिये जाने जाते हैं उसी प्रकार श्री सुरेश चौधरी ने भी घोड़ों के चित्रण से अपनी पहचान बनाई। सन 1962 में श्री रुस्तम जी ने आपके घोड़ों के चित्र को देखा तो आश्चर्यचकित हो गए। अब आपकी पहचान कलाजगत में ‘Rythmatic-Horse’ के रूप में बन गई।
आप चित्रण कार्य व्यवस्थित ढंग से करना पसन्द करते हैं। यही कारण रहा कि आपने अपना स्टूडियों प्रकाशयुक्त 14 फीट ऊँचा x 18 फीट चौड़ा x 28 फीट लम्बा बनवाया है। इसमें दिन में नैसर्गिक प्रकाश होने से पर्याप्त रोशनी रहती है। आप अपने स्टूडियों में सृजन कार्य करते रहते हैं।
आपने प्राकृतिक दृश्य और पुराने स्मारकों के चित्र बनाये हैं। जिसमें माण्डव और बनारस के दृश्य चित्र प्रमुख हैं। आप जहाँ भी जाते हैं, चित्रण सामग्री साथ होती है। मुम्बई में समुद्र किनारे हवाओं की सरसराहट, तूफानी हवाओं की गत्यात्मकता, समुद्र के रौद्र और शान्त स्वरूप को महसूस किया और कल्पनाओं को कैनवस पर स्थाई रूप प्रदान किया। आपका कहना है कि-
‘कलाकृति में जो दिख रहा है और उसके पीछे जो दिख रहा है उसे भी देखने का प्रयास करना चाहिए।’
अमूर्त कला इन्हीं वाक्यों को सार्थक करती है। आपने यथार्थवादी और अमूर्त शैली दोनों मेंं ही चित्रण कार्य किया है। आपने अनेकों प्रदर्शनियों, प्रतियोगिताओं और कार्यशालाओं में भाग लिया। इनके अतिरिक्त अनेकों आर्ट सोसायटी के सदस्य और सलाहकार भी रहे। कला जगत में सक्रिय भागीदारी करते हुए अनेकों पुरस्कारों और सम्मानों से अंलकृत हुए। आपको फेलोशिप भी प्राप्त हुई। जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है-
Awards
अहमदाबाद 1966, महाराष्ट्र 1963, जम्मू कश्मीर 1968, मध्य प्रदेश स्टेट एक्जिबिशन इन्दौर 1967, भोपाल 1968 एवं ग्वालियर 1968, ऑल इण्डिया पोस्टर कॉम्पटीशन- 1971, 1972, 1973.
Fellowship
1. Awarded Senior Fellowship in Creative Painting by Govt. of India 2000-01
2. Awarded Fellowship in Creative Painting by Govt. of India 1984-85 2. Awarded Amrita Shergil Fellowship by Govt. ot M.P. 1978-79.
Exhibition
1. जहाँगीर आर्ट गैलरी, मुम्बई- 2007, 2001,1996, 1993, 1988, 1986, 1984, 1982, 1977, 1975
2. ताज आर्ट गैलरी, मुम्बई- 1998, 1996, 1992, 1985, 1982, 1980, 1976
3. धूमिल आर्ट गैलरी, नई दिल्ली- 2010, 2003, 1999, 1995, 1987, 1986
4. Gallery Art Walk, Oberoi Mumbai- 2001
5. ललित कला आर्ट सेन्टर, भुवनेश्वर- 1989 (समूह प्रदर्शनी)
6. जेनेसिस आर्ट गैलरी, कोलकाता- 1989, 1988 (समूह प्रदर्शनी)
7. चित्रकूट आर्ट गैलरी, कोलकाता- 1987
8. भारत भवन, भोपाल- 2010, 1985, 1982 (समूह प्रदर्शनी)
9. अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स, कोलकाता- 1980, 1989
10. सरल आर्ट सेन्टर, चेन्नई- 1980
11. त्रिवेणी आर्ट गैलरी, नई दिल्ली- 1978
12. मध्य प्रदेश कला परिषद, भोपाल- 1977, 1975, 1974, 1970
13. श्री धरणी आर्ट गैलरी, न्यू दिल्ली- 1976, 1974
14. सेन्टर म्यूजियम, इन्दौर- 1976
15. टाउन हॉल, इन्दौर- 1988
16. वेंकट भवन, रीवा- 1981
17. बी.एस.एफ अकादमी टेकनपुर- 1974 (समूह प्रदर्शनी)
18. एलियांस फ्रांसिस- 2011
Camp
1. मध्य प्रदेश कला परिषद, भोपाल द्वारा ऑल इण्डिया आर्टिस्ट कैम्प- 1976
2. ललित कला अकादमी, न्यू दिल्ली- चित्रकला, मूर्तिकला, ग्राफिक्स और सेरेमिट आर्टिस्ट कैम्प- 1976, 1977
3. कालिदास अकादमी, उज्जैन मध्य प्रदेश द्वारा आर्टिस्ट कैम्प- 1982
4. भारत भवन, भोपाल द्वारा ग्राफिक्स कैम्प- 1983
5. माण्डू आर्टिस्ट कैम्प- 1986
6. ललित कला अकादमी न्यू दिल्ली द्वारा भुवनेश्वर में ऑल इण्डिया आर्टिस्ट कैम्प
7. ललित कला केन्द्र, पटना (बिहार)- 1993
8. भारत भवन भोपाल द्वारा आयोजित आर्टिस्ट कैम्प- 1995
Member
1. जनरल काउंसिल, ललित कला, न्यू दिल्ली
2. साउथ सेन्ट्रल जोन, सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर
3. सलाहकार समिति राष्ट्रीय कला केन्द्र, लखनऊ
4. ललित कला अकादमी, न्यू दिल्ली की नेशनल एक्जीबिशन में जूरी मेम्बर- 1995
Collection of Painting
एयर इण्डिया बाम्बे, भारत अर्थ मूवर लि. बंगलुरु, भारतीय अन्तरराष्ट्रीय केन्द्र न्यू दिल्ली, माडर्न आर्ट राष्ट्रीय गैलरी भारत भवन, ललित कला अकादमी दिल्ली, सिप्ला मुम्बई, मध्य प्रदेश भवन दिल्ली, हुडको नई दिल्ली, इण्डियन ऑयल मुम्बई, जुहू सेन्टर होटल मुम्बई, बैंक ऑफ अमरीका (मुम्बई, न्यू दिल्ली, कोलकाता), लारसेन एण्ड टूब्रो, नई दिल्ली
Private Collection in India and abroad NIIT, USA, England, France, Japan, West Germany, USSR, Switzerland, Canada.
Participate
आपने अनेकों राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी की। जिनमें Aifacs Golden Jubilee 7th International Contemporary Art Exhibition, New Delhi, राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी दिल्ली, ऑल इण्डिया आर्ट एक्जिबिशन, बाम्बे आर्ट सोसायटी एवं कोलकाता, ट्रेड फेयर दिल्ली, गुजरात ललित कला अकादमी, मध्य प्रदेश के युवा चित्रकार की समूह प्रदर्शनी, विनाले ऑफ इण्डिया आर्ट, भारत भवन भोपाल, अर्थक्वेक विक्टिस ऑफ महाराष्ट्र तथा ललित कला दिल्ली द्वारा बंगलुरु में 43 नेशनल एक्जिबिशन ऑफ आर्ट आदि प्रमुख हैं।
स्व. एल.एस.राजपूत (09 अक्टूबर 1909 से 02 सितम्बर 1984)
स्व. लक्ष्मी शंकर राजपूत ‘शिखर सम्मान’ प्राप्त कलाकार थे। जिन्हें यह विशिष्ट सम्मान मरणोपरान्त 03 फरवरी, 1986 को मध्य प्रदेश शासन द्वारा रूपंकर कला के लिये प्रदान किया। आप चित्रकार के साथ ही एक अच्छे कला शिक्षक के रूप में जाने जाते हैं।
श्री लक्ष्मी शंकर राजपूत का जन्म 09 अक्टूबर 1909 को इन्दौर मध्य प्रदेश में हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में हुई। चित्रकला के प्रति बचपन से ही रुझान था। कला की शिक्षा प्रख्यात कलागुरू डी.डी. देवलालीकर से प्राप्त करने के पश्चात 1935 में 26 वर्ष की अवस्था में सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स मुम्बई से चित्रकला में विशेष योग्यता सहित जी.डी. डिप्लोमा प्राप्त किया। आपके समकालीन कलाकारों में विश्वामित्र वासवानी, श्री मनोहर गोधने, श्री रूद्रहंजी, श्री यू. कुमार, विष्णु चिंचालकर, डी.जे. जोशी एवं श्री सोलेगाँकर आदि थे। आप हुसैन, बेन्द्रे, मनोहर जोशी, प्रभाकर माचवे आपके सहपाठी थे। ग्वालियर में शासकीय ललित कला संस्थान की स्थापना कला गुरू डी.डी. देवलालीकर द्वारा 1954 में हुई। लेकिन आपकी वृद्धावस्था के कारण 1956 में ललित कला संस्थान के प्राचार्य पद का भार एल.एस. राजपूत ने सम्भाला। आप इसी संस्थान से 1977 में सेवानिवृत्त हुए। आपके प्रिय शिष्यों में विश्वामित्र वासवानी, देवेन्द्र जैन, कुसुम अनवेकर, इशरत नाज, जी.जे. साल्वी, श्री शोधने, कान्हेडे आदि थे। आप स्वयं को कलाकार से अधिक कला-शिक्षक मानते थे। यही कारण था कि चित्र सृजन तो करते थे किन्तु स्वयं के चित्रों के प्रदर्शन के प्रति जागरूक नहीं थे। यही कारण रहा कि जीवन के पूर्वाद्ध में एकल प्रदर्शनियाँ कम लगीं, लेकिन उत्तरार्द्ध में ग्वालियर, भोपाल, जबलपुर, दिल्ली, मुम्बई, इन्दौर तथा उज्जैन में एकल प्रदर्शनी आयोजित की गई।
श्री राजपूत की चित्र प्रदर्शनियाँ देश सहित विदेशों में भी लगीं।
प्रदर्शनियाँ
1. श्रीधर आर्ट गैलरी, दिल्ली
2. 1981 जहाँगीर आर्ट गैलरी
3. 1981 मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा सम्भागीय उत्सव शृंखला जबलपुर
4. 1983 देवलालीकर कला वीथिका
5. अनुराधा बारोसिया द्वारा जीवाजी विश्वविद्यालय- ग्वालियर 2010 को प्रस्तुत शोध प्रबन्ध- पृष्ठ- 138
5. चित्रकला परिषद, बंगलुरु
6. 1967 टोक्यो- बियेनास
7. 1966- 68 और 1982- राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी
8. 1969, 1982 एवं 1983- अखिल भारतीय कालिदास चित्र एवं मूर्तिकला प्रदर्शनी उज्जैन
सम्मान एवं पुरस्कार
1. 1986 मध्य प्रदेश शासन द्वारा रूपंकर कला के लिये मरणोपरान्त ‘शिखर सम्मान’
2. 1959 वारदा उकील पुरस्कार
3. 1959 से 1964 तक प्रतिवर्ष आपके द्वारा बनाई झांकियों को प्रथम राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए।
4. 1983 एकल प्रदर्शनी
संग्रह
आपकी कलाकृतियाँ दिल्ली, चण्डीगढ़, पटियाला, गवालियर, भोपाल की कला दीर्घाओं में सुशोभित हैं। इसके अलावा विदेशों में बुखारेस्ट, रोमानिया, लास एंजिल्स, कैलीफोर्निया तथा नाइजीरिया की आर्ट गैलरी में आपकी पेंटिंग शोभायमान है।
आपने गणतंत्र दिवस के अवसर पर निकलने वाली झाँकियों में भी मध्य प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया है। प्रख्यात पेंटर मकबूल फिदा हुसैन, बेन्द्रे, मनोहर जोशी और साहित्यकार डॉ. प्रभाकर माचवे आपके सहपाठी रहे हैं। आपने फिल्मों के पोस्टर भी बनाये। मकबूल फिदा हुसैन के साथ भी पोस्टर निर्माण कार्य किया। चरित्र अभिनेता जीवन के साथ भी आपने कार्य किया। लेकिन यह कार्य आपको पसन्द नहीं आया। फिर आप उज्जैन आ गए। यहाँ अनेक कलाकारों, संगीतज्ञों से परिचय हुआ, परन्तु यहाँ भी आपको स्थायित्व प्राप्त नहीं हुआ और आप ग्वालियर आ गए।
श्री राजपूत चित्रकार से अधिक शिक्षक थे। अपने गुरू देवलालीकर से दूसरों को अनुभव बाँटने की शिक्षा प्राप्त हुई थी। अतः आपने समकालीन कलाकारों, मित्रों और शिष्यों से अपने अनुभव बाँटे। स्वतंत्र भारत में ग्वालियर में आर्ट स्कूल खोलने में अपना अवदान दिया और 1954 में ललित कला महाविद्यालय की स्थापना हुई। आचार्य देवलालीकर के बाद प्राचार्य पद को आपने सुशोभित किया।
कलात्मकता
श्री राजपूत ने कला के पाठ विख्यात कलागुरू श्री देवलालीकर से सीखे। शुरुआती सालों में उन्होंने यथार्थवादी शैली में चित्र बनाये। फिर धीरे-धीरे अमूर्तन की ओर प्रवृत्त होते गए। क्योंकि वे परम्परावादी कला के समर्थक नहीं थे। नये-नये प्रयोग करना उनकी विशेषता थी। आपने लगभग सभी माध्यमों में कार्य किया। जल रंग और तेल रंग का भरपूर प्रयोग किया। आपने मनमोहक रंग-संगति का प्रयोग किया है। आपने विशिष्ट शैली वेगासी-वाश में चित्रण किये हैं, जिसमें सफेद रंग का प्रयोग नहीं किया जाता, किन्तु आपने सफेद रंग का प्रयोग प्रयोगधर्मी सृजनशीलता और कुशलता के साथ किया है। आपके चित्र आकर्षक हैं जो दर्शक को अपनी ओर खींचते हैं। उनमें लालित्य का गुण विद्यमान है। आपने भारतीय पारम्परिक शैली से अमूर्त शैली तक का सफर स्वयं का प्रदर्शन न करते हुए सहजता से तय किया। इन्ही सब गुणों के कारण आप एक सफल कलाकार के रूप में स्थापित हो सके।
श्री देवेन्द्र जैन
श्री देवेन्द्र जैन का जन्म अशोक नगर जिले के मुंगावली ग्राम में 10 नवम्बर 1942 में हुआ। बचपन से ही आपको चित्र बनाने का शौक था यही शौक आगे चलकर व्यवसाय बन गया। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा मुंगावली में ही हुई, किन्तु चित्र बनाना ग्वालियर आकर शुरू किया। सन 1957 में हुई चित्रकला प्रतियोगिता में आपको प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इसी कारण आपकी भेंट विख्यात चित्रकार विश्वामित्र वासवाणी से हुई, जो फाइन आर्ट कॉलेज, ग्वालियर में विख्यात थे। श्री वासवाणी के आदेश पर ही आपने इस संस्थान में प्रवेश लिया। यहाँ आपने पाँच वर्षीय एडवांस डिप्लोमा इन फाइन एण्ड एप्लाइड आर्ट्स मध्य प्रदेश तकनीकी शिक्षा मण्डल, भोपाल से 1964 में प्रथम श्रेणी व प्रथम स्थान के साथ, एम.ए. चित्रकला 1973 में प्रथम श्रेणी में जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से उत्तीर्ण किया।
श्री जैन का जीवन सादगीपूर्ण तरीके का है। उनके व्यक्तित्व के अनुरूप ही उनकी कला में भी सादगी के दर्शन होते हैं। उन्होंने अपने गाँव को अपने चित्रों में स्थान दिया। उनमें मुंगावली की खुशबू, वहाँ का जनजीवन और घरेलू जिन्दगी की चहल-पहल दिखाई देती है। नैसर्गिक लोक जीवन और ग्रामीण परिवेश की ओर आप आकृष्ट हुए। श्री जैन के चित्र भी इसी भूमि से ओत-प्रोत हैं। प्रबुद्ध वर्ग से लेकर ग्रामीणजन तक के मन मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ने वाले उनके रसमयी चित्र विद्यमान हैं। सन 1972 में आपकी नियुक्ति फाइन आर्ट कॉलेज, ग्वालियर में निदेशक के पद पर हुई थी। आपने शासकीय ललित कला संस्थान, जबलपुर एवं इन्दौर में प्राचार्य पद को सुशोभित किया। उस समय पाठ्यक्रमानुसार परम्परागत शैली में कला के मूल सिद्धान्त, क्ले मॉडलिंग और प्रिंट मेकिंग का अध्ययन करते थे। आपके मार्गदर्शन छात्र-छात्राओं को इन सबके मिले-जुले प्रयोग और सैद्धान्तिक पक्ष को सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। कला गुरू मदन भटनागर, एल.एस. राजपूत, डी.पी. शर्मा से आपने क्रमशः जल रंग में ‘टेम्परा’ और ‘वॉश’, तेल चित्रण में पोर्ट्रेट, फुल लाइफ और संयोजन की बारीकियाँ सीखी। आपके द्वारा बने तेल चित्र आपको आकर्षित करते हैं। उनका स्ट्रोक लगाने का तरीका या जल रंग में रंग को रखकर मिक्स करने का तरीका अद्भुत छाप छोड़ता था।
श्री देवेन्द्र जैन ने चित्रकला के साथ-साथ मूर्तिकला में भी कार्य किया है। इनमें सीमेंट, प्लास्टर ऑफ पेरिस, क्ले (मिट्टी) आदि का प्रयोग किया गया है। आप कला के ऐसे चितेरे हैं, जिन्होंने परम्परा और आधुनिकता का योग कर कला की एक नई धारा प्रवाहित करने का प्रयास किया है। यही कारण है कि उनके चित्रों में विविधता दिखाई देती है जैसे नेचर स्टडी, लैण्डस्केप कम्पोजीशन, लाइफ तथा स्टिल लाइफ आदि। आप जितने योग्य कलाकार उतने ही प्रभावशील अध्यापक भी। आपके कार्यकाल में जहाँ कलात्मक गतिविधियाँ उपलब्धियों के रूप में सामने आईं, वहीं छात्रों अध्यापकों की समूह या एकल चित्र प्रदर्शनी भी संस्थान का नाम रोशन कर रही हैं। आपने शिक्षक के साथ-साथ व्यक्तिगत कला साधना भी की और अनेक प्रदर्शनियाँ आयोजित की। इस प्रकार स्वयं को और संस्थान तथा नगर का गौरव बढ़ा कर प्रसिद्ध चित्रकार के रूप में जाने गए।
पुरस्कार
1. 1960 में मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा आयोजित चित्रकला प्रदर्शनी चित्र ‘कुएँ पर’ श्रेष्ठ विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित
2. 1959-60 में महारानी लक्ष्मीबाई स्नातकोत्तर महाविद्यालय की चित्रकला प्रदर्शनी में द्वितीय पुरस्कार
3. सन 1965 में ग्वालियर में आयोजित सम्भागीय चित्र एवं मूर्तिकला प्रदर्शनी में श्रेष्ठ पुरस्कार
4. सन 1967 में रीजनल आर्ट प्रदर्शनी में श्रेष्ठ पुरस्कार से सम्मानित
5. सन 1973 में कॉलेज (शासकीय ललितकला महाविद्यालय) का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित
6. सन 1965 व सन 1966 में मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा आयोजित अखिल भारतीय चित्र एवं मूर्तिकला प्रदर्शनी में श्रेष्ठ पुरस्कार से पुरस्कृत
7. सन 1979 में ग्वालियर जेसीज इंटरनेशनल द्वारा शहर का ‘टाउन आउट स्टैंडिंग यंग परसन अवॉर्ड’ से सम्मानित जो कलात्मक विकास में विशेष योगदान के लिये दिया गया।
8. सन 1979 में इण्डियन अकादमी ऑफ फाईन आर्ट्स, अमृतसर में गोल्डन जुबिली अखिल भारतीय चित्रकला प्रदर्शनी में श्रेष्ठ पुरस्कार से पुरस्कृत कर सम्मानित
9. सन 1968, 1978, 1982 में राजकीय चित्रकला प्रदर्शनी में चित्र पर श्रेष्ठ पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित। तीन बार स्टेट अवॉर्ड हासिल करने का गौरव प्राप्त किया।
चित्रों का प्रदर्शन देश की कई अखिल भारतीय प्रदर्शनियों जैसे इण्डियन अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स कोलकाता, आई फैक्स नई दिल्ली, अखिल भारतीय कालिदास, प्रदर्शनियाँ उज्जैन एवं कई अन्य अखिल भारतीय एवं राज्य स्तरीय प्रदर्शनियाँ
एकल प्रदर्शनीः ग्वालियर 1966-1980 भोपाल मध्य प्रदेश कला परिषद के सहयोग से 1979
कला शिविरः
1. मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा भोपाल एम.एल.ए. रेस्ट हाउस में आयोजित अखिल भारतीय कला शिविर में शिरकत की व देश के शीर्ष कलाकारों पद्मश्री के. के. हैब्बर, एन.एस.बेन्द्रे, डी.जे.जोशी, विष्णु चिंचालकर, एस.राजपूत एवं सच्चिदानंद नामदेव आदि के साथ कार्य किया।
2. 1979 में जबलपुर में आयोजित अखिल भारतीय यूनिटरी समर स्कूल कैम्प फॉर आर्ट टीचर्स में शिरकत।
3. 1980 में मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा कला वीथिका में आयोजित कलाकार शिविर में भाग लिया।
4. 2003 में ग्वालियर मेला प्राधिकरण की गोल्डन जुबली पर अखिल भारतीय चित्र एवं मूर्तिकला शिविर में, जो मेला प्रागंण में आयोजित किया गया शिरकत की।
5. 2005 कमला राजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में आयोजित 03 दिवसीय कला शिविर में भाग लिया व डिमोंस्ट्रेशन दिया।
चित्रों का संग्रह
1. मध्य प्रदेश कला परिषद भोपाल
2. इण्डियन तिब्बतन फोर्स, शिवपुरी
3. बंगलुरु माधव कॉलेज उज्जैन, नगर निगम, ग्वालियर
4. राजमाता विजयाराजे सिंधिया, ग्वालियर
5. व अनेकानेक निजी संग्रहकर्ताओं के पास
अन्य
1. पाँच वर्ष इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में बोर्ड ऑफ स्टडीज के मेम्बर रहे।
2. पाँच वर्ष माध्यमिक शिक्षा मण्डल, भोपाल में (फाईन आर्ट्स में ) वार्ड ऑफ स्टडीज के मेम्बर रहे व चेयर परसन (अध्यक्ष) रहे।
साक्षात्कार दिनाँक 18.07.2014 एवं बायोडाटा अनुसार।
श्री रणजीत शिन्दे
श्री रणजीत शिन्दे ग्वालियर के ख्यात कलाकारों में से हैं। जिन्होंने मध्य प्रदेश को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलवाई। आपका जन्म 05 जून, 1952 को पान पत्ते की गोठ, ग्वालियर में हुआ। आपको बचपन से ही चित्रकला के प्रति प्रेम था। अल्पवय में ही आपकी माता के दिवंगत होने से आपकी बड़ी दीदी स्व. प्रमिला शिन्दे ने पालन पोषण किया। उन्हीं की छत्र छाया में आपने चित्रकला और मूर्तिकला का प्रशिक्षण लिया। आपने 1973 में ग्वालियर से एडवांस डिप्लोमा इन फाइन आर्ट्स किया। श्री मदन भटनागर को आप अपना गुरू मानते हैं।
ललित कला संस्थान, ग्वालियर में स्व. एल.एस. राजपूत, स्व. विश्वामित्र वासवाणी, स्व. विजय सिंह मोहिते, दादा कान्हडे, स्व. डी.पी. शर्मा, श्री हरि भटनागर, श्री देवेन्द्र जैन और मदन भटनागर के मार्गदर्शन में आपकी कलायात्रा विकसित होती गई। आपने सभी माध्यमों जल रंग, तेल रंग, पेस्टल, एक्रेलिक आदि में चित्रण कार्य किया। आपने स्टिल लाइफ, प्राकृतिक चित्रण, क्रियेटिव कम्पोजिशन और दृश्य चित्र बनाये। दृश्य चित्रण में आपको विशिष्टता हासिल है। आप यथार्थवादी, पारम्परिक और अमूर्त शैली में समान रूप से कार्य करते हैं। रग संयोजन और तूलिका पर आपकी विशेष पकड़ है। आपकी कलाकृतियाँ राष्ट्रीय स्तर की प्रदर्शनियों में अनेक बार पुरस्कृत हो चुकी हैं। ग्वालियर के श्रेष्ठ चित्रकारों में आपकी गणना होती है। चित्रकला में रेखाओं रंगों का बहुत महत्व है उनके चित्र इस महत्व के कारण दर्शक को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। चित्र की रेखाएँ उनके समग्र भाव को प्रकट करती है। आपके संयोजन मुख्यतः दृश्य चित्रण और व्यक्ति चित्रण पर केन्द्रित रहे हैं। आपके ज्यामितीय आलेखनों में कल्पना, प्रवाह, सन्तुलन, बल, गति और सजीवता परिलक्षित होती है। आपने अनेकों एकल और सामूहिक प्रदर्शनियाँ आयोजित की। ग्वालियर में 1976 से 1980 तक और भोपाल में 1980 में मध्य प्रदेश कला परिषद के सहयोग से एकल प्रदर्शनी की। आपने सामूहिक प्रदर्शनियों में भी हिस्सेदारी की। 1975-1978 एवं 1989 में सफलतापूर्वक सामूहिक प्रदर्शनी में हिस्सा लिया। अनेकों कला शिविरों में भी आपने शिरकत की। जिनमें चित्रकला शिविर, ललित कला केन्द्र ग्वालियर 1975, म्यूरल कैम्प, कैंसर हॉस्पिटल ग्वालियर 1977, ग्राफिक्स शिविर, ललित कला केन्द्र ग्वालियर 1977, चित्रकला कैम्प ग्वालियर में ललित कला अकादमी दिल्ली द्वारा 1991, चित्रकला कैम्प ग्वालियर, रिद्म आर्ट सोसाइटी भोपाल द्वारा 1993, नगर निगम म्यूजियम द्वारा चित्रकला शिविर 1994, ग्वालियर शताब्दी वर्ष समारोह मेला ग्वालियर तथा संस्कृति विभाग भारत भवन भोपाल 2004 आदि प्रमुख हैं।
उपलब्धियाँ/ पुरस्कार
1. अखिल भारतीय मानव चतुर्सदी समारोह प्रदर्शनी 1975
2. बी.आई.सी. क्लब प्रदर्शनी बिरला नगर, ग्वालियर 1975
3. मध्य प्रदेश कला प्रदर्शनी 2001
4. ग्वालियर विकास समिति (मध्य प्रदेश) ग्वालियर, शिक्षक सम्मान- 1995
संग्रह
मध्य प्रदेश कला परिषद भोपाल, नगर निगम म्यूजियम ग्वालियर, अर्जुन सिंह (भूतपूर्व मुख्यमंत्री म.प्र) रिद्म आर्ट सोसायटी भोपाल, फिलेक्स कम्पनी मालनपुर, ग्वालियर रेस्ट हाउस तथा अन्य स्थानों पर।
वर्तमान में भी आप चित्र कार्यों में लगातार संलग्न हैं।
साक्षात्कार दिनाँक 18.07.2014 और बायोडाटा के आधार पर
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. भाण्ड लक्ष्मण- मध्य प्रदेश में चित्रकला- जनसम्पर्क मध्य प्रदेश बाण गंगा, भोपाल, पृष्ठ-85
2. सम्पादक- अभी चरण- ललित चित्रावण- कलावर्त न्यास, उज्जैन 2003 अंक 5, पृष्ठ- 21
3. डी.जे. जोशी- श्री राम तिवारी, प्रकाशन अधिकारी मध्य प्रदेश कला परिषद रवीन्द्रनाथ ठाकुर मार्ग, भोपाल
4. 1981 में शासन द्वारा प्रदान किये शिखर सम्मान अलंकरण पर लिखित प्रशस्ति पत्र
5. Google Search- Video recording
6. भाण्ड लक्ष्मण- मध्य प्रदेश में चित्रकला- संचालक जनसम्पर्क मध्य प्रदेश, बाणगंगा, भोपाल 2006, पृष्ठ- 86
7. Website: google search
8. दैनिक भास्कर रस रंग- कलासाहित्य- पृष्ठ- 3
9. पुनरावलोकी प्रदर्शनी- अवांगार्द उज्जैन- 7 अप्रैल 1986
10. विशाल रफीक एवं निशीथ शरण- दैनिक भास्कर रसरंग- पृष्ठ- 3
11. अनीस नियाजी- चित्रावण- पृष्ठ- 86
12. दिनाँक 16.03.2011 के साक्षात्कार के आधार पर
13. जूही सोमवंशी- पश्चिमी और भारतीय परम्परागत शैली के मालव कलाकार- एक तुलनात्मक अध्ययन- शोध प्रबन्ध- 2013- विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र) पृष्ठ- 242
14. स्वानुभूति जैन- इन्दौर के ललित कला संस्थान की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक गाथा- लघु शोध- पृष्ठ- 68
15. जूही- पश्चिमी एवं भारतीय मानव परम्परागत शैली के मालव कलाकार- एक तुलनात्मक अध्ययन- विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन- 2012, पृष्ठ- 275
16. डॉ. आर.सी.भावसार से प्राप्त Bio-data के आधार पर
17. चित्रावण- मालवा की कला- इन्दौर (म.प्र) पृष्ठ- 73
18. भारत भवन द्वारा प्रकाशित ब्रोशर- 2013
19. www.abhivyakti-hindi.org/lekhak/p/prabhujoshi.htm
20. www.hindiwebdunia.com/litreture-interview
21. समावर्तन 2009- अमृतलाल वेगड़ से शान्तिलाल जैन की बातचीत- नर्मदा के सौन्दर्य से आख्यानकर्ता से एक मुलाकात- पृष्ठ- 23
22. व्यक्तिगत साक्षात्कार दिनाँक- 4.7.2011- निवास स्थान
23. समकालीन कला- अंक 23 (जुलाई से अक्टूबर 2007) आत्मकथ्य अमृतलाल वेगड़ - ‘मेरी कला नर्मदा के लिये’ पृष्ठ- 25
24. वेगड़ अमृतलाल- ‘अमृतस्य नर्मदा’ - मध्य प्रदेश हिन्दी गन्थ अकादमी, भोपाल 2009, पृष्ठ- 185
25. समावर्तन 2009- अमृतलाल वेगड़ से शान्तिलाल जैन की बातचीत नर्मदा सौन्दर्य के आख्यानकर्ता से एक मुलाकात - पृष्ठ- 25 एवं 26
26. दैनिक भास्कर रसरंग- 13 फरवरी 2011 पृष्ठ- 2
27. Website- www.rammanoharsinha.com
28. मध्य प्रदेश शासन संस्कृति विभाग के शिखर सम्मान 1990-91 (रूपंकर कलाएँ) प्रशस्ति पत्र से
29. रूपंकर भारत भवन के तीसवीं वर्षगांठ पर आयोजित एकाग्र पुनरावलोकी प्रदर्शनी संसृति- 13 फरवरी- 11 मार्च 2012
30. www.saatchion.com/abrsinha
31. साक्षात्कार पर आधारित- दिनाँक 28.06.11
32. भारद्वाज विनोद- वृहद आधुनिक कला कोश- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली- पृष्ठ- 241
33. 45-6-12 व्यक्तिगत चर्चा पर आधारित
34. भाण्ड लक्ष्मण- मध्य प्रदेश में चित्रकला- जन सम्पर्क संचालनालय बाणगंगा, भोपाल- 2006
35. भाण्ड लक्ष्मण- मध्य प्रदेश में चित्रकला- जन सम्पर्क संचालनालय बाणगंगा, भोपाल- पी- 87
36. सप्त रंग- संस्कृति संचालनालय, भोपाल- 2008 में आयोजित चित्र कार्यशाला में कैटलॉग पर आधारित
37. आपके द्वारा दिया गया जीवन परिचय से
38. शासकीय दस्तावेज- शासकीय हमीदिया कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, भोपाल
39. Info@Suresh Choudhary.comwww.Suresh Choudhary.com