मध्य प्रदेश में पानी सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा

27 Oct 2018
0 mins read
सीहोर जिले के मुहाई में जल संकट
सीहोर जिले के मुहाई में जल संकट


इस महीने यानि नवम्बर, 2018 में मध्य प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में पानी सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरता जा रहा है। कमोबेश पूरे प्रदेश में पीने और खेती के लिये पानी का संकट आम है और चुनाव से पहले मतदाता सबसे ज्यादा जोर अपने-अपने इलाके में पानी उपलब्ध कराने पर दे रहे हैं। प्रदेश के बुन्देलखण्ड, बघेलखंड, निमाड़ और मालवा में तो पानी की जबर्दस्त किल्लत है। लगातार पाँच सालों से बारिश की कमी से सूखे की स्थिति का सामना कर रहे लोग अब इस विकराल संकट से तंग आ चुके हैं। गाँव से लेकर शहरों तक की यही कहानी है।

जमीन के भीतर का पानी खत्म होने की कगार तक पहुँचकर पाताल में सिमटता जा रहा है। गहरे और गहरे जमीन में उतरते जाने के बाद भी ट्यूबवेल रीते हैं। नदियाँ अभी से सूख रही हैं। ताल-तालाब, कुँए-कुण्डियाँ सब आखिरी साँसे गिन रहे हैं। इस बार प्रदेश के कई हिस्सों में औसत से आधी बारिश भी नहीं हुई है। सामान्य से भी कम बारिश ने इस साल अभी से लोगों की नींद उड़ा दी है। आने वाली गर्मियों के दिनों में प्रदेश के हालात क्या होंगे, यह सोचकर चिन्ताएँ और भी बढ़ जाती हैं। इसलिये इस चुनाव में पहली बार पानी एक बड़े मुद्दे की तरह सामने आ रहा है। हालांकि कुछ जगह पानी का संकट होते हुए भी पानी का मुद्दा चेहरे और जाति के मुद्दों से पीछे खड़ा नजर आता है।

बुन्देलखण्ड के लोग पानी के नाम से ही काँप उठते हैं। वे बीते पाँच सालों से लगातार पानी के संकट से रूबरू हो रहे हैं। सरकारी प्रयास और सूखा राहत के काम जमीन पर उस तरह नजर नहीं आते, जितने सुनहरे शब्दों में वे कागजों पर सजे-संवरे होते हैं। कई गाँवों में लोगों को गर्मियों के दौरान पलायन तक करना पड़ता है। शहरों में भी अन्य जल-स्रोतों से वैकल्पिक व्यवस्था करना पड़ रही है, लेकिन यह भी नाकाफी ही है।

उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे टीकमगढ़ और नया जिला बना निवाड़ी में बीते कई सालों से लोग लगातार सूखे के हालात का सामना कर रहे हैं। यहाँ खेतों की तो बात ही नहीं, पीने के पानी तक की भयावह किल्लत है। यहाँ के किसान लम्बे समय से केन-बेतवा लिंक योजना के विस्तार से उम्मीदें सँजोए बैठे हैं। बरसों बीत गए लेकिन यह योजना कागज से उतरकर जमीन पर नहीं आ सकी है। रोजी-रोटी की तलाश में लोग परिवार सहित बाहर जाने को मजबूर हैं। ओरछा में राजा राम का प्रसिद्ध मन्दिर होने तथा विदेशियों का खास आकर्षण होने से एक तरफ बड़ी-बड़ी होटलें हैं तो दूसरी तरफ स्थानीय रह-वासियों की माली हालत उनकी झोपड़ियों से ही झाँकती है। जतारा मार्ग पर छोटे से गाँव घटिया में लोगों को एक से दो किमी पैदल चल कर पानी लाना पड़ता है। गाँव की औरतें बताती हैं कि सरपंच ने गाँव में हैन्डपम्प लगवाया है लेकिन सूखा पड़ने पर दो किमी दूर सिमरधा तलैया से पानी का जुगाड़ करना पड़ता है। अभी तो बरसाती नाले की झिरियों से थोड़ा-बहुत पानी मिल जाता है। लेकिन कुँए-कुण्डियाँ सूखने लगे हैं। भौगोलिक परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि बारिश का पानी ज्यादा दिन चलता नहीं और जमीन में पानी बहुत नीचे चला गया है। गाँव के लोग अभी तो पानी के मुद्दे पर ही वोट देने की बात करते हैं लेकिन चुनाव के वक्त वे इस मुद्दे को कितना महत्व देंगे, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।


मप्र में जल संकटमप्र में जल संकट सागर शहर में दो से तीन दिनों में एक बार ही नल आ पाता है। बीते साल गर्मियों में बहुत परेशानी रही। जिस सागर की मुख्य पहचान ही यहाँ शहर के बीच बनी झील से होती रही है, आज उनमें पानी की जगह महज गन्दा कीचड़ ही दिखाई देता है। सागर के समान विस्तृत झील के कारण ही इसे सागर नाम दिया गया। कहा जाता है कि इस झील को एक बंजारे ने बनवाया था। लाखा बंजारा झील या सागर झील काफी प्राचीन है। राजा ऊदनशाह ने 1660 में छोटा किला बनवाकर पहली बस्ती बसाई, तो भी तालाब पहले से यहाँ था। किंवदंतियाँ प्रचलित हैं कि लाखा बंजारा के बहू-बेटे के बलिदान से यह पानी से भरा जा सका था। कहते हैं कि एक बंजारा दल घूमता-फिरता सागर आया। सरदार ने देखा कि यहाँ पानी का भीषण संकट है। तब स्थानीय लोगों की मदद से उन बंजारों ने भूमि की खुदाई कर यह झील तैयार करवाई थी ताकि लोगों को कभी पानी के संकट से नहीं जूझना पड़े। लेकिन आज यह पहले की तरह विस्तृत नहीं रही है। छोटे और बड़े दोनों ही तालाबों पर जमकर अतिक्रमण किया गया है।

स्थानीय लोग चुटकी लेते हुए कहते हैं कि तीन बत्ती चौराहे के पास तालाब अब सैप्टिक टैंक की तरह गन्धाता रहता है। इस साल यह पूरा भरा भी नहीं और अभी दो महीने में ही इसका पानी पूरी तरह से सूखकर कीचड़ में बदल गया है। आधे से ज्यादा शहर की नालियों का गन्दा पानी तालाब में आकर मिलता है। इसकी सुन्दरता बढ़ाने के लिये इस पर घाट बना दिए हैं लेकिन न तो गन्दगी के नाले रोके गए और न ही बरसाती पानी को रोकने की कोई कवायद की गई... 25 साल पहले इसके संरक्षण के लिये 21 करोड़ की लागत से एक बड़ी योजना बनाई गई थी लेकिन काम शुरू नहीं हो सका और राशि लौट गई। बीते साल ड्रेजिंग मशीन से गाद को पानी में घोलकर तालाब से बाहर करने का कुछ काम जरूर हुआ है। लेकिन इस साल बारिश कम रही। लोग कहते हैं कि यहाँ शहर के पीने का पानी सबसे बड़ा मुद्दा है।

नर्मदा मध्य प्रदेश की जीवन रेखा मानी जाती है लेकिन पूरे प्रदेश में इसकी दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। नर्मदा इन कुछ सालों में सियासत के केन्द्र में आ गई है। सत्ता और विपक्ष दोनों ने ही नर्मदा को अपनी-अपनी तरह से भुनाने की कोशिश की है। बीते साल जोर-शोर से नर्मदा सेवा यात्रा निकाली गई पर इसका कोई फायदा नदी तंत्र पर दिखाई नहीं देता। रेत खनन, बाँधों ड्रेनेज के गन्दे पानी की निकासी और नर्मदा के पानी के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से नदी का प्राकृतिक तंत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है और सदियों से सदानीरा रही नर्मदा अब जगह-जगह सूखने लगी है। जबलपुर, हरदा और होशंगाबाद में रेत खनन इतनी बड़ी तादाद में होता है कि यहाँ नर्मदा छलनी हो चुकी है। पानी के ठहराव से कई जगह जलकुम्भी तथा काई होने लगी है। पानी सड़ने लगा है। नदी के जीव-जन्तु लगातार कम होते जा रहे हैं। नर्मदा किनारे के लोग पूरे प्रदेश में नदी की इस हालत पर चिन्ता जताते हैं।

अनूपपुर जिले में नर्मदा के उद्गम अमरकंटक में भी स्थिति बदतर है। यहाँ मैकल पर्वत श्रेणी के एक कुंड से पतली धार के रूप में निकलने वाली नर्मदा ही आगे लगातार विस्तृत होते हुए प्रदेश के सोलह जिलों से गुजरती जीवन-रेखा बन जाती है। इस पर छोटे-बड़े दो दर्जन से ज्यादा बाँध बने हैं। नर्मदा का यहाँ मन्दिर बना हुआ है लेकिन सफाई की व्यवस्था बहुत ही लचर है। उदगम कुंड में ही फूल, पत्ते और दीपक सहित पूजन सामग्री नजर आती है। मन्दिर परिसर में जगह-जगह गन्दगी पसरी पड़ी है। यहाँ स्वच्छता के लिये कोई कर्मचारी या स्वयंसेवक मौजूद नहीं है। विशेष प्राधिकरण के कस्बे में 30 सफाई कर्मी हैं, जिनमें से दो-तीन आकर सुबह मन्दिर की सफाई करते हैं फिर पूरे दिन श्रद्धालु यहाँ गन्दगी करते रहते हैं। मंदिर के पुजारी कहते हैं कि बीते साल नर्मदा यात्रा के नाम पर खूब नगाड़े बजाए गए, पीएम-सीएम ने यहाँ आकर आरती की लेकिन क्या बदला। कुछ नहीं हुआ। नेता यह तक नहीं सोच रहे कि नर्मदा नहीं रहेगी तो प्रदेश कैसे बचेगा। चुनाव से पहले सैकड़ों नेता टिकट और जीत की कामना को लेकर यहाँ आते हैं। पूजा पाठ एवं अनुष्ठान कराते हैं और चुनाव जीतते ही नर्मदा को भूल जाते हैं।


बैलगाड़ियों पर ढोकर लाते हैं पानीबैलगाड़ियों पर ढोकर लाते हैं पानी उद्गम स्थल से कानूनन 300 मीटर तक कोई निर्माण नहीं हो सकता पर खुद प्रशासन ही महज 25 मीटर की दूरी पर शौचालय बनवा रहा हैं। मन्दिर के पीछे से आने वाली एक सहायक नदी अब गंदले नाले में तब्दील हो चुकी है। कुंड से 200 मीटर की दूरी पर इस नाले में पूरे कस्बे का सीवेज बहकर आता है। बात तो सरकार ने नर्मदा में एक भी गन्दा नाला नहीं मिलने देने की, की थी लेकिन यहाँ तो नर्मदा की यात्रा शुरू होने के साथ ही गन्दगी बहाई जा रही है। इसकी बदबू गर्मियों की शुरुआत में खड़ा तक नहीं रहने देती। लोग नाक पर रुमाल लगाते हैं।

केन्द्र में जल संसाधन मंत्री रही उमा भारती के इलाके में भी पानी की लगभग यही स्थिति है। सेमरा गाँव का तालाब सहेजने के लिये कई बार किसान विधायक और सांसद तक गुहार लगा चुके पर कुछ नहीं हुआ। यह पान की खेती के लिये मशहूर इस इलाके में सिंचाई का एकमेव जरिया है। बीते कुछ सालों में पानी की कमी से पान की खेती का रकबा तेजी से घटा है। इसी तरह उमरिया के जंगलों में आदिवासी इलाके पानी और रोजगार से महरूम हैं। वन अधिकार पट्टे की बरसों से माँग करते रहे आदिवासियों को न पट्टा मिला न पानी।

छिंदवाड़ा शहर में पीने के पानी की दिक्कत है तो ग्रामीण भी पानी के लिये परेशान हैं। अभी नवम्बर की शुरुआत से ही पानी की त्राहि-त्राहि शुरू हो गई है। आने वाले कुछ महीनों में यह और भी बढ़ जाएगी। इसी जिले के 80 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला पातालकोट इलाका है, जहाँ जमीन से काफी गहरे करीब 12 हजार फीट नीचे उतरकर पहुँचा जाता है। पानी की कमी पातालकोट में इस तरह है कि लोगों को कुँए और नालों का दूषित पानी पीने को मजबूर होना पड़ रहा है। भारिया और गौंड जनजाति के लोगों को रोजगार के अभाव में जंगल से लकड़ी के गट्ठर लाकर बेचना पड़ता है। इसके अलावा उनके पास रोजगार का कोई वैकल्पिक साधन नहीं है। हर दिन घंटों की मशक्कत से एक गट्ठर लकड़ी बेचने के लिये 20 किमी दूर छिंडी जाना पड़ता है। यह दूरी ज्यादातर पैदल ही तय करते हैं क्योंकि एक गट्ठर लकड़ी बेचने पर 50 से 60 रुपए मिलते हैं और बस का किराया 30 रुपए है। अगले महीने तक नाले और कुओं का पानी सूख जाएगा। हर साल कुआँ सूखने के बाद इन्हें नाले में झिरियाँ खोदकर पानी का इन्तजाम करना पड़ता है।

कमोबेश यही स्थिति इस जिले के पहाड़ों पर रहने वाले गाँवों की भी है। एक हजार फीट ऊपर अमरवाड़ा के गाँवों में भी पानी नहीं है। ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी की कमी का सीधा असर उनके सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर भी पड़ता है। इस इलाके के कई गाँवों में कुँआरे लडकों की तादाद बढ़ती जा रही है। कोई भी अपनी बेटी का ब्याह ऐसी जगह नहीं करना चाहता, जहाँ दूर-दूर से पानी लाना पड़ता है। यही स्थिति सतना जिले के परसमनिया की पहाड़ियों पर रहने वाले आदिवासी परिवारों की है। इन्हें भी चट्टानों से रिसकर आने वाले पानी को बूँद-बूँद इकट्ठा करना पड़ता है। सीहोर जिले के बुधनी क्षेत्र में मुहाई गाँव की औरतों को खेतों पर बने कुओं से पानी लाना पड़ता है। यहाँ घर-घर नल लगे हैं लेकिन पानी नहीं होने से कोई काम नहीं आ रहे।

सिवनी के लखनादौन इलाके में जल, जंगल और जमीन के कई मुद्दे हैं लेकिन आज तक कभी इन मुद्दों पर वोट नहीं पड़े। इस बार खासकर युवाओं का फोकस इन मुद्दों पर ही है। बरगी बाँध के टापू पर रहने के बाद भी इन्हें पीने का पानी नहीं मिल पाता। आस-पास अथाह पानी है लेकिन इनके घर के मटकों में पानी लाने के लिये औरतों को सिर पर बड़े-बड़े घड़े उठाकर लम्बी चढ़ाई चढ़ते हुए डेढ़ से दो किमी का रास्ता रोज तय करना होता है। विडम्बना यह भी है कि गाँव से थोड़ी ही दूरी पर 600 मेगावाट बिजली बनाने के कारखाने को पानी पहुँचाया जा रहा है लेकिन यहाँ गाँव के लिये पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।


दूर खेतों से लाना पड़ता है पानीदूर खेतों से लाना पड़ता है पानी मालवा में धार जिले में शहरों से लेकर गाँवों और आदिवासी इलाके तक पानी की मारामारी है। धार शहर, तिरला, तीसगांव, कलसाडा, नालछा, पीथमपुर सहित कुक्षी के आदिवासी गाँवों में सुबह से शाम तक पानी की आस में भटकते लोगों को देखा जा सकता है। धार शहर को सीतापाट तालाब और पाडलिया से पानी मिलता रहा है। इस बार बारिश की कमी से दोनों तालाब अधूरे ही भरे हैं। आने वाले महीनों में शहर को पीने का पानी कहाँ से और कैसे मिलेगा, यह बड़ा सवाल है। जयस के आन्दोलनों से जुड़े आदिवासी युवक दिनेश मकवाना बताते हैं कि गाँव-गाँव में प्रशासन ने शौचालय तो बनवा दिए पर इनका इस्तेमाल ही नहीं हो पा रहा। इसका बड़ा कारण है पानी की कमी। पीने तक के लिये पानी नहीं है तो शौचालय के लिये कोई कहाँ से पानी लाए।

इंदौर में करोड़ों की लागत से नर्मदा के तीसरे चरण में पानी फिलहाल तो मिल रहा है लेकिन गर्मियों में क्या होगा, इसकी गूँज अभी से सुनाई देने लगी है। उज्जैन में अभी से पानी साथ छोड़ने लगा है। क्षिप्रा को जैसे-तैसे नर्मदा-क्षिप्रा लिंक योजना के पानी से भरा रखा जा रहा है। गम्भीर डैम में भी इस साल पानी काफी कम है। यहाँ भी पानी एक बड़ा मुद्दा है। देवास और शाजापुर में भी करीब-करीब यही हालात हैं। दोनों ही जिलों में भू-जल स्तर गहरा होने से खेती के साथ पीने के पानी का भी बड़ा संकट है। हाटपीपल्या, बागली और कन्नौद में पानी का संकट सबसे ज्यादा है। उपजाऊ जमीनें होने के बाद भी किसान हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इलाके में बड़ी तादाद में बोरिंग बैठ गए हैं यानी उनमें अब पानी नहीं बचा। देवास के उद्योगों को बचाने के लिये पहले 110 किमी दूर नेमावर से नर्मदा का पानी खींचकर और अब नर्मदा-क्षिप्रा लिंक से पानी दिया जा रहा है। यहाँ कभी ट्रेन से पानी लाना पड़ा था। बीते 20 सालों से यह शहर पानी के संकट से जूझ रहा है और अब जल संकट इसकी स्थाई पहचान बन चुका है। आगर मालवा इलाके में पानी की कमी से किसानों को सन्तरे के बगीचों में से कई पेड़ काट देने पड़े हैं। इस बार सन्तरा उत्पादकों को बहुत नुकसान हुआ है।

नीमच-मंदसौर में बीते साल आन्दोलन कर रहे किसानों की पुलिस फायरिंग में हुई मौत के बाद इस बार बारिश ने फिर से किसानों को आक्रोशित कर दिया है। यहाँ राजस्थान पास होने से मजदूर तो आसानी से मिल जाते हैं पर पानी की कमी ने सब-कुछ चौपट कर दिया। यहाँ सत्ता और विपक्ष दोनों ने ही खेती को लाभ का धन्धा बनाने की कसम खाई थी पर साल भर से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी एक कदम किसी ने आगे नहीं बढ़ाया। कई गाँवों में तो अब तक खराब फसलों का मुआवजा तक नहीं बंटा है।

निमाड़ के बुरहानपुर, बडवानी, खंडवा और खरगोन में तो हालात और भी बदतर हैं। ताप्ती नदी के किनारे कभी मुगलिया शान ओ शौकत का प्रतीक रहे बुरहानपुर में करीब चार सौ साल पहले अब्दुल रहीम खानखाना ने दूर विन्ध्य की पहाड़ियों से पानी के अपलिफ्ट से खूनी भंडारा का निर्माण कर शहर की प्यास बुझाई थी। आज यही शहर बाल्टी-बाल्टी पानी को मोहताज है। इस शहर की आधी आबादी को पानी नहीं मिल पा रहा है जबकि नगर निगम सबसे जल कर (water tax) के पैसे वसूल कर रही है। कई बार नल से गन्दा पानी आता है। बीते साल जिले के कई किसानों की केले की फसल कम बारिश की वजह से नष्ट हो गई। मुआवजे के नाम पर बहुत कम राशि मिली। यहाँ से विधायक और मंत्री रहीं अर्चना चिटनिस ने पानी बचाने के लिये बीते साल एक बड़ी जागरुकता यात्रा भी निकाली थी और लोगों को इसके लिये प्रेरित भी किया था पर इसका कोई जमीनी असर फिलहाल तो नजर नहीं आता।

खंडवा में प्रदेश की पहली निजी जल वितरण व्यवस्था लागू की गई है लेकिन यहाँ के लोग इससे खासे परेशान हैं। सीएम के आश्वासन के बावजूद नल कनेक्शन पर मीटर लगाए गए हैं। इसमें नर्मदा का पानी तो आ रहा है पर कभी भी और कितना भी कम-ज्यादा हो सकता है। कई बार गन्दा पानी ही सप्लाई कर दिया जाता है। लोगों ने करीब 6 हजार रुपए देकर कनेक्शन लिया है फिर भी पानी नहीं मिलता। कभी एक दिन छोड़कर तो कभी दो दिन छोड़कर। रामनगर, गुलमोहर कॉलोनी, एलआईजी, पंजाब कॉलोनी आदि में सबसे ज्यादा किल्लत है। काली मिटटी से सफेद सोना कहे जाने वाले कपास की बम्पर पैदावार करने वाले इस इलाके में पानी की कमी का बुरा असर खेती पर भी हो रहा है। जिनिंग फैक्ट्रियाँ और दाल मिलें बन्द हो जाने से कई लोग बेरोजगार हो चुके हैं। किसानों को अब अपना गन्ना, कपास और दालें महाराष्ट्र की मंडियों में बेचने जाना पड़ता है।


मध्य प्रदेश में जल संकटमध्य प्रदेश में जल संकट बडवानी वैसे ही जल संकट वाला क्षेत्र है। ज्यादातर आदिवासी काम की तलाश में गुजरात जाते हैं। 15 साल पहले सरदार सरोवर के डूब प्रभावित विस्थापित बस्तियों में पानी का कोई संसाधन नहीं है। इन सालों में हर साल वे दूर-दूर से पानी का इन्तजाम करते रहे हैं। कसरावद, हरसूद, छनेरा, राजघाट सहित नई बसाहटों की लगभग यही कहानी है। 1995 से यहाँ बसे चाय की गुमटी चलाने वाले दशरथ सिंह मानते हैं कि आस-पास बाँध का खूब पानी है पर हमारे किस काम का। जल-स्तर कम-ज्यादा होने से फसल भी नहीं ले सकते। इसी कारण कई बार लोगों की फसलें खराब हो चुकी हैं।

इस तरह पूरे प्रदेश में पानी एक बड़ा मुद्दा है। हर जगह की अपनी माँगे अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन सबके मूल में पानी ही है। यदि चुनाव तक कोई बड़ा मसला नहीं आता है तो दोनों ही पार्टियों के लिये पानी पर लोगों को सहमत करना आसान नहीं होगा। लोग कई बार आश्वासन पर मान जाते रहे हैं लेकिन उनके धैर्य की भी एक सीमा है। पानी का मुद्दा प्रदेश की करीब डेढ़ सौ से ज्यादा सीटों पर असर डाल सकता है।

 

 

 

TAGS

assembly elections in madhya pradesh in Hindi, water shortage main issue in elections in Hindi, water crisis in bundelkhand in Hindi, baghelkhand in Hindi, nimaad in Hindi, malava in Hindi, decreasing groundwater level in the region in Hindi, ken-betwa river linking project in Hindi, rampant encroachment of water bodies in Hindi, narmada lifeline of madhya pradesh in Hindi, amarkantak in Hindi, sardar sarovar project in Hindi

 

 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading