मेरठ की क्रान्तिधरा से बजा जल संरक्षण का बिगुल

21 Apr 2016
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मीठे पानी व उसकी प्रचुर उपलब्धता के लिये प्रसिद्ध गंगा-यमुना का दोआब में भी अब पानी का संकट सिर उठाने लगा है। इसी के साथ गाँवों में जल प्रदूषण भी एक गम्भीर समस्या बन चुका है। इन दोनों समस्याओं की जड़ में यहाँ के तालाबों का मिटना व गदला होना है।

स्वार्थ के वशीभूत होकर जहाँ तालाबों पर अतिक्रमण कर लिया गया है वहीं जो तालाब बचे हैं उनमें गन्दगी के अम्बार लगे हैं। यही कारण है कि जो तालाब गाँव का जीवन हुआ करते थे वे गाँववासियों के लिये धीमी मौत बन रहे हैं। गाँव-गाँव में जानलेवा बीमारियाँ बढ़ रही हैं और भूजलस्तर पाताल में सिखक रहा है। धीरे-धीरे मीठे व भूरपूर पानी का क्षेत्र पानी के अभाव व उसके जहरीले होने का दंश झेल रहा है।

ऐसे कठिन समय में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जल संवर्धन व पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाने का कार्य कर रहे संगठन नीर फाउंडेशन ने समस्या की गम्भीरता को समझते हुए तालाब बचाओ-तालाब बनाओ अभियान छेड़ा हुआ है। इस अभियान के तहत जहाँ नए तालाब बनाने का कार्य किया जा रहा है वहीं पुराने तालाबों को पुनर्जीवित करने के प्रयास लगातार जारी हैं।

इस अभियान के तहत सैंकड़ों तालाबों को कब्जा मुक्त कराया जा चुका है और दर्जनों नए तालाब बनाए जा चुके हैं। इस कार्य हेतु नीर फाउंडेशन ने जल दूत बनाए हुए हैं। ये जल दूत जहाँ गाँव-गाँव तालाबों की समस्या का समाधान करते हैं वहीं नए तालाब बनाने के लिये किसानों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने का कार्य करते हैं। नए तालाब बनाने के इच्छुक किसानों की तालाब खुदाई में तकनीकी व आर्थिक सहायता तथा तालाब को नहर के पानी से जोड़ने की व्यवस्था भी करते हैं।

तालाब बचाओ-तालाब बनाओ के कारवाँ में मेरठ जनपद के करनावल के किसान सतीश कुमार ने एक अनूठी मिशाल प्रस्तुत की है। सतीश कुमार करनावल के प्रमुख भी हैं और संस्था के जलदूत भी। सतीश ने अपनी 25 बीघा जमीन में स्वयं ही तीन बड़े-बड़े तालाब खोद दिये हैं। आज ये तीनों तालाब पानी से लबालब भरे हैं। सतीश के इस साहसिक प्रयास को देखकर अन्य किसान भी उनसे सम्पर्क करने लगे हैं। सतीश पिछले दस वर्षों से संस्था के साथ जुड़कर कार्य कर रहे हैं।

सतीश कुमार ने अपने खेतों में तीन तालाब खुदवाए हैंदेश में एक ओर जहाँ जीवन का पालना कहा जाने वाला पानी देश के कुछ हिस्सों में ढूँढे नहीं मिल रहा, वहीं सतीश जैसे किसान जल संकट की आहट को सुन रहे हैं और उसकी रोकथाम में लग गए हैं। कुएँ के पानी को लेकर हो रहे संघर्षों की ध्वनियाँ अब सुनाई देने लगी हैं। पानी के निजीकरण का रोग दुनिया भर के देशों को अपनी चपेट में लेने को आतुर है। यही कारण है कि पानी का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व विश्व निगमों (विश्व बैंक व डब्ल्यूटीओ) के खिलाफ स्वयंसेवी संस्थाएँ लामबन्द होने लगी हैं।

वर्तमान में पानी को संरक्षित करने के नए-नए तरीके सुझाए व अपनाएँ जा रहे हैं। इसके बेतहाशा होते दुरुपयोग को रोकने के लिये लोगों को जागरूक किया जा रहा है। भारत में नदियों को जोड़ने का बीड़ा भी सरकार द्वारा उठा लिया गया है, हालांकि गैर-सरकारी संगठन इस मुद्दे पर सरकार से असहमत हैं। गोष्ठियों, सम्मेलनों, कार्यशालाओं, नुक्कड़ नाटकों, प्रदर्शनों, पोस्टरबाजी व नारेबाजी के जरिए पानी के प्रति जागृति लाने के प्रयास लगातार जारी हैं।

भविष्य के संकट को समय से पहले भाँपते हुए गंगा-यमुना के दोआब में तालाब बचाने की मुहिम पिछले आठ वर्षों से चला रहा है। संस्था के जल दूत कस्बों व शहरों के तालाबों को बचाने तथा वहाँ सभी से वर्षाजल संरक्षण को अपनाने का आह्वान कर रहे हैं।

नीर फाउंडेशन अपने ताल-तलैया बचाने के अभियान के तहत किसानों व अन्य इच्छुक व्यक्तियों को प्रोत्साहन व तकनीकी सहायता प्रदान करता है। इसमें सरकारी योजनाओं का अगर कहीं इस्तेमाल किया जा सके तो उसकी व्यवस्था भी संगठन द्वारा की जाती है। तालाबों को कब्जा मुक्त कराने हेतु किसान लगातार संगठन के जल दूतों के सम्पर्क में रहते हैं और अपने-अपने तालाबों आदि की समस्याओं निजात पाने के लिये संगठन का सहयोग लेते हैं।

संस्था द्वारा जल संरक्षण के क्षेत्र में तालाब बचाना, नए तालाब बनाना, तालाबों को कब्जामुक्त कराना, वर्षाजल संरक्षण व जल जागरुकता जैसे कार्य नियमित रूप से किये जा रहे हैं। सतीश कुमार द्वारा तीन तालाबों का बनाया जाना बढ़ते कदमों की आहट है। ऐसे बहुत से किसान लगातार सम्पर्क में हैं जो अपनी जमीन पर नए तालाब बनाने की मुहिम में जुड़ रहे हैं।

मेरठ के प्राकृतिक जलस्रोतों सम्बन्धी रिपोर्ट के अनुसार मेरठ जनपद के कुल क्षेत्रफल 2564 वर्ग किलोमीटर में 663 गाँव, कस्बे व मेरठ शहर बसा हुआ है। सभी में राजस्व अभिलेखों के अनुसार कुल 3062 जोहड़ व तालाब होने का रिकॉर्ड मिलता है, लेकिन कुछ स्वार्थी, लालची व दबंग व्यक्तियों के चलते वर्तमान में मात्र 1944 जोहड़ व तालाब ही देखने को मिलते हैं। बाकि बचे 1118 जोहड़ व तालाबों का नामोनिशान तक मौजूद नहीं है। अगर खसरा नम्बर से उनकी जानकारी करें तो पता चलता है कि मिट चुके 1118 जोहड़ व तालाबों पर कृषि का कार्य किया जा रहा है या फिर उन पर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिये गए हैं। दुखद यह भी है कि बचे हुए 1944 जोहड़ व तालाबों में से 1543 पर आंशिक रूप से लोगों ने कब्जा जमाया हुआ है। हम यह कह सकते हैं कि वर्तमान में मात्र 401 जोहड़ व तालाब ही बचे हुए हैं।

रिपोर्ट का यह पक्ष हमें और भी सोचने पर मजबूर करता है कि कुल बचे हुए 1944 जोहड़ व तालाबों में से 1229 जोहड़ व तालाबों में कुछ या भरपूर पानी है जबकि 715 पूर्णतः सूखे हुए हैं, अगर उन्हें सूखा हुआ गड्ढा कहा जाये तो ज्यादा बेहतर होगा। काश ये 3062 तालाब आज मौजूद होते और पानी से लबालब भरे होते तो शायद ही मेरठ जनपद को भूजल के गिरते स्तर का दंश झेलना पड़ता।

तालाब बचाओ-तालाब बनाओ के कारवाँ में मेरठ जनपद के करनावल के किसान सतीश कुमार ने एक अनूठी मिशाल प्रस्तुत की है। सतीश कुमार करनावल के प्रमुख भी हैं और संस्था के जलदूत भी। सतीश ने अपनी 25 बीघा जमीन में स्वयं ही तीन बड़े-बड़े तालाब खोद दिये हैं। आज ये तीनों तालाब पानी से लबालब भरे हैं। सतीश के इस साहसिक प्रयास को देखकर अन्य किसान भी उनसे सम्पर्क करने लगे हैं। सतीश पिछले दस वर्षों से संस्था के साथ जुड़कर कार्य कर रहे हैं।इन प्राकृतिक जलस्रोतों की स्थिति ऐसी तब है जब भारत के माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 2001 में हिंचलाल तिवारी बनाम कमला देवी नामक मामले में साफ तौर पर कहा गया है कि किसी भी प्राकृतिक जलस्रोत पर अवैध रूप से कब्जा किया जाना दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आता है तथा न ही इन प्राकृतिक जलस्रोतों की जमीन को किसी को दान के रूप में आवंटित किया जा सकता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में तो ये दोनों कार्य धड़ल्ले से जारी हैं। भूजल के अत्यधिक दोहन, प्राकृतिक जलस्रोतों के मिटने व वर्षा के कम होने के कारण धरती के नीचे का पानी लगातार कम होता जा रहा है। हमें यह जानकर और भी दुख होगा कि भूजल स्तर को बढ़ाने में सहायक प्राकृतिक जलस्रोत जहाँ मिटते जा रहे हैं वहीं भूजल के दोहन के कार्य में तेजी आ रही है।

गौरतलब है कि अकेले मेरठ जनपद में निजी व सरकारी करीब 55000 हजार ट्यूबवेल मौजूद हैं जिनके माध्यम से सिंचाई हेतु भूजल निकाला जाता है।

जनपद की कुल कृषि भूमि 2,03,350 हेक्टेयर में सिंचाई के कार्य में करीब 85 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल किया जाता है। जबकि मात्र 15 प्रतिशत पानी ही नहरों व अन्य माध्यमों से लिया जाता है। इसके अतिरिक्त पेयजल व अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिये जो प्रत्येक घर में एक से दो निजी व इण्डिया मार्का हैण्डपम्प लगे हुए हैं उनसे कितना पानी रोजाना खींचा जाता होगा इसको बस आँकड़ों में ही समझा जा सकता है। भूजल स्तर के लगातार नीचे खिसकने के कारण हालात यह बन चुके हैं कि अधिकतर हैण्डपम्प व ट्यूबवेल ठप्प हो चुके हैं। इनके विकल्प के रूप में समर्सिबल पम्प लगाए जा रहे हैं लेकिन अगर हालात यही रहे तो समर्सिबल के बाद क्या होगा?

इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्त में छिपा है। समस्या इतनी विकराल इसलिये होती जा रही है क्योंकि एक और तो मेरठ जनपद में कुल तालाबों के क्षेत्रफल 1238.087 हेक्टेयर में से करीब 50 प्रतिशत भाग पर कब्जा किया जा चुका है या फिर कम वर्षा के कारण उसका इस्तेमाल जल संरक्षण के लिये नहीं हो पा रहा है, वहीं दूसरी ओर इतने अधिक ट्यूबवेलों व हैण्डपम्पों के माध्यम से लगातार भूजल खींचा जा रहा है। अर्थात हम भूजल में डाल कुछ भी नहीं रहे हैं उल्टे उससे भरपूर मात्रा में निकाल रहे हैं। या यूँ कहें कि हमने लेन-देन के रिश्ते को गड़बड़ा दिया है।

जोहड़ व तालाबों जैसा ही हाल कुओं का भी बना हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार जनपद में कुल 2086 कुएँ ही देखने को मिले जिसमें से 1541 कुएँ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मौजूद हैं तथा मात्र 545 कुओं में ही पानी देखने को मिलता है। तथाकथित आधुनिक होते समाज ने कुओं को कूड़े-दान में बदल दिया है।

जिन कुओं से खींचकर पानी पिया जाता था उनमें आज कूड़ा-कचरा भरा है या फिर उनमें शौचालयों के पाइप जोड़ दिये गए हैं। जिन कुओं का सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक महत्त्व होता था उनको शौचालयों से जोड़ देना आखिर कौन से आधुनिक समाज की देन है?

जब घर परिवार में शादी-विवाह की रस्म अदायगी की जाती थी या फिर नवजात बच्चे के पैदा होने की खुशी में, इन दोनों ही शुभ व खुशी के कार्यों में कुआँ पूजन की प्रथा रही है। लेकिन कुओं के न बचने के कारण इन मान्यताओं को कराव के रूप में ही किया जा रहा है। शहर में तो और भी बुरी हालत है। मन्दिरों तक में कुएँ न होने के कारण सरकारी हैण्डपम्पों से धार्मिक मान्यताओं को पूरा किया जा रहा है।

नीर फाउंडेशन के संयोजक रमन त्यागीहमें आज यह भी जान लेना आवश्यक है कि हमारे पूवर्जों की आखिर वह क्या सोच रही होगी कि उन्होंने इतने अधिक जलस्रोतों का निर्माण किया और क्यों किया। वे आज के वैज्ञानिकों से भी अधिक समझदार रहे होंगे जो उन्होंने निचले स्थानों पर तालाबों व जोहड़ों का निर्माण किया तथा ऊँचे स्थानों पर कुओं का। ऐसा इसलिये किया गया कि बहाव का पानी तालाबों में एकत्र हो जाये जिसका इस्तेमाल पशुओं को पानी पिलाने व नहलाने, धोबी घाट आदि के लिये तथा सिंचाई के लिये इस्तेमाल किया जाता था तथा ऊँचे स्थानों पर कुओं का निर्माण इसलिये किया गया ताकि इनमें गाँव का गन्दा पानी प्रवेश न करने पाये।

एक बात और खास होती थी कि वर्ष भर तालाब व कुओं का जलस्तर समान रहता था। तालाबों की मिट्टी से घर की दीवारों की लिपाई की जाती थी तथा बरसात से पहले घर की छतों पर उस चिकनी मिट्टी को डाला जाता था। तालाबों से मिट्टी निकालने की प्रथा प्रत्येक वर्ष अपनाई जाती थी जिसमें कि घर की महिलाएँ एक दिया लेकर गीत गाते हुए गाँव के बाहर बने तालाब से मिट्टी निकालने की प्रथा को अंजाम देती थीं। पशुओं को प्रतिदिन इनमें पानी पिलाने व नहलाने के लिये ले जाया जाता था जिससे आज हैण्डपम्प खींचा हुआ भूजल बचता था तथा पशु भी स्वस्थ्य रहते थे।

ट्रेनों से पानी पहुँचाना, पाइपों से नहरों का पानी दूसरे राज्यों या शहरों में पहुँचाना तथा टैंकर से पानी पहुँचाना, इन तीनों उपायों में से कोई भी दूरगामी नहीं है। तुरन्त राहत के लिये इनमें से किसी विकल्प को स्थिति के अनुसार अपनाया जा सकता है लेकिन तब क्या होगा जब ट्रेन में भरे हुए पानी का मालिक (जिस राज्य या स्थान से ट्रेन में पानी भरा गया है) विरोध करेगा कि हम भी तो संकट में हैं तो हम अपनी जमीन के नीचे का पानी दूसरी जगह क्यों जाने दें? ऐसा कठिन व डराने वाला समय न आये, इसीलिये हमें समस्या वाले स्थानों पर ही समाधान खोजने होंगे। वहाँ बरसने वाली बूँदों को वहीं के भूगर्भ में पहुँचाना होगा। यही स्थायी समाधान होगा। नहीं तो भविष्य में झगड़े बढ़ने व मार-काट मचने की सम्भावना से इनकार करना कठिन होगा।

मनु स्मृति से लेकर इसी प्रकार कुरान, बाईबिल व वेदों में भी पानी को गन्दा न करने व उसको संरक्षित करने पर जोर दिया गया है। अमृतसर में मौजूद सिखों का धार्मिक स्थान स्वर्ण मन्दिर के ताल को प्रत्येक वर्ष सेवकों द्वारा साफ किया जाना व उस तालाब की मौजूदगी सिख धर्म में पानी के महत्त्व को अपने आप बयान कर देती है। अगर राजस्थान, महाराष्ट्र व बुन्देलखण्ड जैसे हालातों से महफूस रहना है तो हमें शीघ्र-अतिशीघ्र चेतना होगा तथा अपने जलस्रोतों को बचाना होगा।

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