महिलाएं ही बचा सकती हैं खेती को

3 Jul 2012
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यह कहा जा सकता है कि कृषि में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। खासतौर पर जंगल और पहाड़ में खेती उन पर ही निर्भर है। नई रासायनिक और आधुनिक खेती में जो अभूतपूर्व संकट आया है उससे जंगल व परंपरागत खेती भी प्रभावित हो रही है।

परंपरागत कृषि का अधिकांश कार्य महिलाओं पर निर्भर है। वे खेत में बीज बोने से लेकर उनके संरक्षण - संवर्धन और भंडारण तक का काम बड़े जतन से करती हैं। पशुपालन से लेकर विविध तरह की हरी सब्जियां व फलदार वृक्ष लगाने व उनके परवरिश का काम करती हैं। जंगलों से फल-फूल, पत्ती के गुणों की पहचान करना व संग्रह करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही है। वे जैव विविधता की जानकार और संरक्षक हैं। यानी वे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से लेकर खाद्य सुरक्षा का महत्वपूर्ण काम करती रही हैं।

लेकिन जबसे खेती में मशीनीकरण हुआ है तबसे महिलाओं की भूमिका सिमटती जा रही है। जबकि पूर्व में खेती में सिर्फ हल-बक्खर चलाने को छोड़कर महिलाएं सभी काम करती थीं। बल्कि छत्तीसगढ़ में तो कुछ जगह हल भी चलाती हैं। पारंपरिक खेती में बीजों का चयन, बीजोपचार, बुआई, निंदाई-गुड़ाई और कटाई-बंधाई तक की पूरी प्रक्रिया में महिलाएं जुड़ी थीं। खेतों में फसल की रखवाली, मवेशियों की परवरिश और गोबर खाद बनाने जैसे खेती से जुड़े काम उनके जिम्मे थे। हालांकि पहाड़ और जंगल पट्टी में अब भी महिलाएं खेती के काम में संलग्न हैं।

कड़कड़ाती ठंड हो या मूसलाधार बारिश या फिर चिलचिलाती तेज धूप महिलाएं सभी परिस्थितियों में खेती का काम करती रही हैं। खेती के विकास में उनका योगदान महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, भोजन के लिए ईंधन जुटाना, खाना बनाना, ढोरों को खेतों से घास लाना और फिर खेतों में काम करने जाना और फिर खेत से आकर घर का काम करना आदि उनकी जिम्मेदारी में शामिल है।

निंदाई-गुड़ाई के दौरान विजातीय पौधे और खरपतवार को फसल से अलग करना भी उनके काम का हिस्सा हुआ करता था। जब पौधों में फूल आ जाते हैं तब वे ऐसे विजातीय पौधों को आसानी से पहचानकर अलग कर देती थीं। निंदाई-गुड़ाई तीन-चार बार करनी पड़ती थी। खरपतवारनाशक के बढ़ते इस्तेमाल से उनकी भूमिका कम हो गई।

बीजों के चयन में उनकी खास भूमिका होती थी। पहले खेतों में ही बीजों का चयन हो जाता था, इसमें देखा जाता था कि सबसे अच्छे स्वस्थ पौधे किस खेत में हैं। किस खेत के हिस्से में अच्छी बालियां हैं। वहां किसी तरह के कमजोर और रोगी पौधे नहीं होने चाहिए। अगर ऐसे पौधे फसलों के बीच होते थे तो उन्हें हटा दिया जाता था। फिर अच्छी बालियों को छांटकर उन्हें साफ कर और सुखा लिया जाता था। इसके बाद बीजों का भंडारण किया जाता था। इन सब कामों में महिलाएं ही मदद करती थीं।

बीज भंडारण पारंपरिक खेती का एक अभिन्न हिस्सा है। अलग-अलग परिस्थिति और संस्कृति के अनुरूप किसानों ने बीजों की सुरक्षा के कई तरीके और विधियां विकसित की हैं। मक्का के बीज को घुन और खराब होने से बचाने के लिए चूल्हे के ऊपर छींके पर रखते हैं और सतपुड़ा अंचल में खुले में मक्के के भुट्टे को खंबे को छिलका समेत उल्टे लटकाकर रखते हैं। छिलका बरसाती का काम करता है और बारिश का पानी भी उन्हें खराब नहीं कर पाता।

मिट्टी की बड़ी कोठियों में, लकड़ी के पटाव पर, मिट्टी की हंडी में व ढोलकी में बीज रखे जाते थे। इसके अलावा, तूमा (लौकी की एक प्रजाति) बांस के खोल में बीजों का भंडारण किया जाता था। इसी प्रकार बीजों को धूप में सुखा कर, कोठी या भंडारण के स्थान पर धुंआ किया जाता था, जिससे पतंगे या घुन नहीं लगता। कीड़ों से बचाव के लिए लकड़ी या गोबर से जली राख या रेत भी बीजों में मिलाते हैं।

बीज के अभाव में बीजों का आदान-प्रदान हुआ करता था। कई बार महिलाएं अपने मायके से ससुराल बीज ले आती थी। खासतौर से सब्जियों के बीज की अदला-बदली रिश्तेदार और परिवारजनों में होना आम बात थी। मायके में खेती के काम सीखकर आने वाली लड़कियों की ससुराल में इज्जत होती थी।

धान रोपाई का काम तो महिलाएं करती हैं। जब वे रंग-बिरंगे कपड़ों में गीत गाते हुए धान रोपाई करती हैं तो देखते ही बनता है। इनमें कई स्कूली लड़कियां भी होती हैं। वे स्कूल में भी पढ़ती हैं और खेतों में भी जमकर काम करती हैं। लड़कियां कृषि में ज्ञान और कौशल सीखती हैं। सतपुड़ा अंचल में धान रोपाई को स्थानीय भाषा में लबोदा कहा जाता है।

हमारे देश में गांवों से शहरों की ओर पलायन की जनधारा बह रही है। पुरुष गांव छोड़कर शहरों में काम की तलाश में चले जाते हैं तो खेती के पूरे काम का बोझ महिलाओं पर आ जाता है। यद्यपि वे पहले से भी खेती का काम कर रही होती हैं।

पहले हर घर में बाड़ी हुआ करती थी, जिसे जैव विविधता का केन्द्र हुआ करती थी। इसमें कई तरह की हरी सब्जियां, मौसमी फल और मोटे अनाज लगाए जाते थे। जैसे भटा, टमाटर, हरी मिर्च, अदरक, भिंडी, सेमी (बल्लर), मक्का, ज्वार आदि होते थे। मुनगा, नींबू, बेर, अमरूद आदि बच्चों के पोषण के स्रोत होते थे। इसमें न अलग से पानी देने की जरूरत थी और न खाद की। जो पानी रोजाना इस्तेमाल होता था उससे ही बाड़ी की सब्जियों की सिंचाई हो जाती थी। लेकिन इनमें कई कारणों से कमी आ रही है। ये सभी काम महिलाएं ही करती थीं। न केवल भारत में बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में महिलाएं खेती व जैव विविधता संरक्षण में संलग्न हैं।

एफ.ए.ओ. (फुड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन) की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाएं, वैज्ञानिकों के मुकाबले पौध जैव विविधता, फिर वह उगाई जाती हो या प्राकृतिक हो की अधिक जानकार होती हैं। नाइजीरिया में महिलाएं अपने घरेलू बगीचे में 57 प्रकार की पौध प्रजातियां उगाती हैं। उप सहारा क्षेत्र में महिलाएं 120 विभिन्न पौधे उपजाती हैं। ग्वाटेमाला में दस से अधिक तरह के वृक्ष और फसलें मिल जाती हैं। इसी प्रकार सतपुड़ा अंचल में भी बाडियां में कई तरह की सब्जियां और फलदार वृक्ष महिलाएं लगाती हैं।

जंगल क्षेत्र में रहने वाले लोगों की आजीविका जंगल पर ही निर्भर है। खेत और जंगल से उन्हें काफी अमौद्रिक चीजें मिलती हैं, जो पोषण के लिए निःशुल्क और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। ये सभी चीजें उन्हें अपने परिवेश और आस-पास से मिल जाती है। जैसे बेर, जामुन, अचार, आंवला, महुआ, मकोई, सीताफल, आम, शहद और कई तरह के फल-फूल, जंगली कंद और पत्ता भाजी सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। यानी खेती एक तरह की जीवन पद्धति है जिसमें जैव विविधता का संरक्षण होता है। मिट्टी, पानी और पर्यावरण का संरक्षण होता है और इन सबमें महिलाओं की भूमिका अहम है।

पिपरिया के पास डोकरीखेड़ा की महिला किसान कमला बाई कहती हैं कि हमने अपने मायके परासिया में खेती का काम अपने मां-बाप से सीखा था। अब ससुराल में वही कर रही हैं। उन्होंने कहा कि पहले हम मिलवां फसलें बोते थे लेकिन अब उसकी जगह पर एक ही फसल बोने लगे हैं। खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं।

देशी बीजों के संरक्षण में लगे बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि महिला और पुरुष दोनों खेती के अंग थे। एक दूसरे के पूरक थे। अगर पुरुष खेत में हल चलाता था तो महिलाएं घर से कलेऊ (नाश्ता) लेकर जाती थीं। खेत की जुताई पुरुष करते हैं तो महिलाएं गाय के लिए घास छीलती हैं। अगर फसल आने पर खेत की पूजा होती हैं तो महिलाएं वहां कलश लेकर खड़ी रहती हैं।

हाल ही में विदेश से अध्ययन कर लौटे सुरेश कुमार साहू कहते हैं कि आमतौर पर सरकारी आंकड़े खेती में महिलाओं के श्रम बल को कम करके बताते हैं लेकिन वे खेती का अधिकांश काम करती हैं। हमारे देश में गांवों से शहरों की ओर पलायन की जनधारा बह रही है। पुरुष गांव छोड़कर शहरों में काम की तलाश में चले जाते हैं तो खेती के पूरे काम का बोझ महिलाओं पर आ जाता है। यद्यपि वे पहले से भी खेती का काम कर रही होती हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि कृषि में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। खासतौर पर जंगल और पहाड़ में खेती उन पर ही निर्भर है। नई रासायनिक और आधुनिक खेती में जो अभूतपूर्व संकट आया है उससे जंगल व परंपरागत खेती भी प्रभावित हो रही है। ऐसे में मिट्टी-पानी और देशी बीजों की हल-बैल की परंपरागत खेती को बचाना जरूरी है और ऐसी परंपरागत खेती को वे ही बचा सकती हैं क्योंकि उनके पास बरसों से संचित परंपरागत ज्ञान, कौशल व अनुभव है।

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