महुआ ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सदाबहार पोषक

महुआ पेड़ की पत्तियाँ
महुआ पेड़ की पत्तियाँ
वनस्पति जगत में ऐसे पेड़-पौधे बहुत कम हैं जिनका हर भाग व अंग जैसे तना, छाल, पत्तियाँ, फूल, फल व बीज किसी-न-किसी रूप में न केवल इंसानों के बल्कि विभिन्न प्रजाति के जीव-जन्तुओं के लिये बहु उपयोगी होते हैं।

भारत में भी एक ऐसा छायादार वृक्ष मौजूद है जिसके लगभग सभी अंग न केवल बहु उपयोगी हैं बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पोषित एवं सुदृढ़ भी करते हैं। कल्प वृक्ष की भाँति यह वृक्ष और कोई नहीं बल्कि हमारे ग्रामीण परिवेश व वनों में पाया जाने वाला सदाबहार महुआ है जो विषम परिस्थितियों में भी जीवित रहता है।

वनस्पतिशास्त्र में इसका वैज्ञानिक नाम मधुका लोंगफोलिआ है जो पादपों के सपोटेसी परिवार से सम्बन्धित वृक्ष है। परन्तु संस्कृत में इसे मधूक या गुडपुष्प व अंग्रेजी में बटर ट्री नाम से जानते हैं।

महुआ रेगिस्तानी इलाकों के अलावा देश के लगभग सभी भू-भागों में देखने को मिल जाते हैं। लेकिन उत्तर व मध्य भारत के मैदानी क्षेत्रों व वनों में ये बहुतायत में मिलते हैं। चूँकि यह उष्णकटिबंधीय वृक्ष हैं अर्थात कम पानी होने के बावजूद यह हल्की नमी होने पर भी तेजी से बड़ा हो जाता है। इसकी ऊँचाई 20 मीटर तक की हो सकती है।

महुआ के ताजा फूलमहुआ के ताजा फूल (फोटो साभार - विकिपीडिया)शुष्क वातावरण में भी इसके बीज राकड़ अथवा पथरीली जैसी पड़त भूमि में आसानी से उग जाते हैं। इसके बीजों को फैलाने का काम परिंदे, गिलहरियाँ, लंगूर व शाकाहारी घरेलू व जंगली जानवर कर देते हैं। इसीलिये महुआ के पेड़ कहीं पर भी उगे मिलते हैं।

दरअसल इसके फल (डोरमा) गुदायुक्त, स्वादिष्ट व मीठे होने से पशु-पक्षी इनको बड़े चाव से खाते हैं। इन फलों का गुदायुक्त भाग पशुओं में आसानी से पच तो जाता है लेकिन इनके बीजों का आवरण शख्त होने से ये पच नहीं पाते और पशु के गोबर अथवा मल के साथ ये साबुत ही बाहर निकल आते हैं। पशु जहाँ-जहाँ भी गोबर करते हैं वहाँ-वहाँ इसके बीज फैल व उग जाते हैं।

पक्षी इन फलों को दूर-दूर ले जाकर एकान्त जगहों में खाते हैं और इनसे निकले बीज यहाँ-वहाँ उग जाते हैं। यही वजह है कि महुआ को लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। जिनके पास पड़त व राकड़ भूमि हो वहाँ पौधे लगाए जा सकते हैं। परन्तु कृषि भूमि में इन्हें नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि इनके नीचे न तो फसलें और न ही पेड़-पौधे पनप पाते हैं।

महुआ के फूलों की गंध का जैविक महत्त्व-

बसंत ऋतु से लेकर होली तक पतझड़ में महुआ की पत्तियाँ झड़ जाती हैं। परन्तु नई कोपलों के फूटने के पूर्व इसकी डालियाँ फूलों से लकदक होने लगती हैं। जब इसके फूल (महुआ या मऊड़ा) पूर्ण यौवन पर होते हैं तब इनसे मदमस्त करने वाली मीठी-मीठी गंध सूर्योदय पूर्व आस-पास के वातावरण व जंगलों में धीरे-धीरे पसर जाती है। यह महक न केवल कामुकता को प्रेरित करती है बल्कि यह दूर-दराज के कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, लंगूरों व गिलहरियों को जबरदस्त आकर्षित भी करती है।

महुए के फूल कमाल के रसीले और मीठे होते हैं। इनको चूसने के लिये कीट-पतंगों में जबरदस्त होड़ लगी रहती है वहीं इन्हें खाने को विभिन्न प्रजाति के पशु-पक्षी दूर-दूर से खींचे आते हैं। ये फूल फोटोट्रॉपिक होते हैं अर्थात सूर्य की रोशनी के प्रति ये संवेदनशील होते हैं और ये सूर्य की रोशनी में ही खिलते हैं।

महुआ के सूखे फूलमहुआ के सूखे फूल (फोटो साभार - विकिपीडिया)सूर्योदय के साथ ही ये फूल एक-एक करके पेड़ से टपकने लग जाते हैं और दोपहर तक इनका टपकना अमूमन बन्द हो जाता है। यह क्रम लगभग महीने भर चलता है। जमीन पर बिखरे पड़े फूलों का नजारा दूर से बड़ा ही खूबसूरत लगता है और ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे ढेरों सफेद मोती जमीन पर बिखरे पड़े हों। कीट-पतंगे न केवल इन फूलों से अपनी भूख मिटाते हैं बल्कि बदले में ये परागण जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य भी करते हैं। यह सब प्रकृति की अकलमंदी है।

महुए की बहु उपयोगिता:

महुआ कमाल का सदाबहार छायादार वृक्ष है। इसके हर भाग व अंग न केवल मनुष्यों के लिये बल्कि छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं के लिये भी उपयोगी होते हैं। तपती गर्मी में इसकी ठंडी छाँव में मनुष्य व वन्यजीव सुकून से आराम करते हैं। यह कई पक्षियों का सुरक्षित आश्रय है जहाँ ये बिना किसी भय से अपनी वंश वृद्धि करते हैं। यह वृक्ष प्राणवायु का बड़ा व बेहतरीन स्रोत है। इसके आस-पास के वातावरण में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन होती है।

गरीब तबके के लोगों को महुआ से साल भर के लिये ईंधन हेतु जलाऊ लकड़ी मिल जाती है। इसकी छाल, फल व फूल में औषधिय गुण होने से इनका उपयोग आयुर्वेदिक उपचार में किया जाता है। भोजन करने के लिये इसके पत्तों से पत्तल व दोने बनाए जाते हैं जो प्रदूषण रहित होते हैं। इसकी पत्तियाँ व फूल पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं इसलिये ये पशुओं के लिये बेहतरीन पौष्टिक आहार होते हैं। इनको खिलाने से पशु में दूध की गुणवता व मात्रा दोनों में ही बढ़त होती है। इसके सूखे फूलों से देशी मदिरा बनती है। इसको पीकर लोग अक्सर अपनी थकान मिटाते हैं।

ग्रामीण व वनवासी लोग सूखे फूलों का संग्रहण भी करते हैं। जरुरत पड़ने पर इनका उपयोग आपातकालीन भोजन के रूप में भी किया जाता है। इसके कच्चे फलों की बनाई सब्जी पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होती है। इसके पके फलों का गूदा खाने में मीठा व स्वादिष्ट होता है। इसके बीजों (डोरमा) का तेल त्वचा की सौन्दर्यता, खाद्य पदार्थों के तलने, साबुन बनाने, वनस्पति मक्खन बनाने इत्यादि हेतु काम में लिया जाता है। इसकी मजबूत लकड़ी घर के दरवाजे, फर्नीचर इत्यादि बनाने के काम आती है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सदाबहार पोषक

इसमें कोई संशय नहीं कि ग्रामीणों एवं वनवासियों को साल भर महुआ के पेड़ों से अतिरिक्त आय होती है। चूँकि महुआ भारतीय वनों का बेशकीमती एवं महत्त्वपूर्ण वृक्षों में से एक है जिससे सरकार को प्रतिवर्ष करोड़ों का राजस्व प्राप्त होता है। लोग इसकी सुखी लकड़ियाँ एवं पत्तियों को बाजार में बेचते हैं जिससे इनको दैनिक आमदनी हो जाती है।

महुआ बीजमहुआ बीज (फोटो साभार - विकिपीडिया)वनवासी लोग घरेलू खर्च हेतु इसके फूलों से देशी शराब बनाकर ऊँचे दामों में बेचते हैं। यद्यपि यह शराब सेहत के लिये अच्छी नहीं होती बावजूद गरीब लोग इसका ज्यादा मात्रा में सेवन करते है। महुआ के बीजों के तेल की अधिक माँग होने से लोगों को इसकी अच्छी कीमत मिल जाती है।

महुआ के पेड़ों पर बड़ी सारंग मधुमक्खियों के कई छत्ते होते हैं। एक छत्ते से लगभग साठ पोंड शहद निकलता है और इसकी बाजार में साल भर जबरदस्त माँग रहती है। इसको बेचने से ग्रामीणों को अच्छी आमदनी हो जाती है। यद्यपि इन छत्तों से शहद एकत्रित करना जोखिम का काम है क्योंकि ये मधुमक्खियाँ अत्यधिक आक्रामक व गुस्सैल प्रवृत्ति की होती हैं तथा इनके डंक भी विषैले होते हैं। यही वजह कि इसका पालन नहीं करते हैं। इन छत्तों से काफी मात्रा में मोम भी निकलता है जिसको बेचने से अच्छा मूल्य मिल जाता है। घरेलू स्तर पर इसकी मोमबत्तियाँ भी बनाई जाती हैं।

प्रो. शांतिलाल चौबीसाप्रो. शांतिलाल चौबीसा महुआ बहुउपयोगी व दैनिक आय का सदाबहार स्रोत है बावजूद वर्तमान में इनकी स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है। चालीस वर्ष पूर्व ये बहुतायत में पाये जाते थे। लेकिन बढ़ते अनियंत्रित शहरीकरण तथा वन क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण से इनकी संख्या कम हो रही है।

दरअसल सड़कों के निर्माण के दौरान इनके सैकड़ों पेड़ अंधाधुंध काट दिये जाते हैं। कहीं ये प्रजाति खतरे में न पड़ जाये इसके लिये जरूरी है, इनके पेड़ वन क्षेत्रों, सड़कों के दोनों ओर व पड़त जमीनों पर वैज्ञानिक तरीके से अधिक-से-अधिक लगाने की जरुरत है। इससे न केवल वनों का पारिस्थितिकी तंत्र सुदृढ़ होगा बल्कि इसके विभिन्न घटकों में आपसी सन्तुलन भी बना रहेगा। शहरी लोग भले ही इस महुआ के बारे में अनभिज्ञ हों लेकिन ग्रामीण इस शानदार वृक्ष को आज भी आदरभाव से देखते हैं वहीं वनवासी लोग इसे देववृक्ष समझ कर पूजते हैं जो भारतीय संस्कृति का प्रकृति प्रेम का बेहतरीन उदाहरण है।

लेखक, प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्रकृति प्रेमी हैं।

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