मिलानकोविच चक्र एवं हिमाच्छादित पृथ्वी

13 Oct 2016
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मिलानकोविच चक्र के आधार पर जलवायु परिवर्तन क्रर्मिक रूप से सालों साल इसी तरह होता रहेगा। आगे भी कई ऐसी प्रवस्थाएं आएंगी जो पृथ्वी को हिमाच्छादित कर दें। अत: प्राकृतिक गतिविधियाँ ही मनुष्य की गतिविधियों की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी रूप से जलवायु के परिवर्तन में कार्यरत हैं। मानव जाति केवल उत्प्रेरक का कार्य कर रही हैं।

इस परिवर्तनशील संसार में, केवल परिवर्तन ही अपरिवर्तनीय है। वर्तमान परिक्षेप में, आज हम जलवायु को लें तो वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सत्यापित होता है।

जलवायु परिवर्तन क्रमिक है और संभवत: मिलान कोविच चक्र पर आधारित है। भूवैज्ञानिक समय सारणी में यदि देखें तो हम पाते हैं कि पृथ्वी अनेकों बार जलवायु परिवर्तन के चरम तक पहुँची है और हिमाच्छादित भी हुई है। पृथ्वी इस तरह बर्फ से ढकी, कि वह पूर्णत: एक बर्फ के गोले के सामान हो गई और वैज्ञानिकों ने इस स्थिति को ‘सशबॉल’, ‘स्नोबॉल’ इत्यादि नाम दे दिया।

पृथ्वी के हिमाच्छादित होने के अनेकों प्रमाण भी उपलब्ध हैं। भूवैज्ञानिक दृष्टि से भूमध्य रेखा के पास अनेक प्रकार के शैल अवक्षेपित हैं जो हिमनदों के होने की पुष्टि करते हैं। यदि किसी एक समय विशेष में इन सभी प्रमाणों का मैदानी फैलाव ज्यादा पाया जाता है तो यह कहा जा सकता है कि हिमनदों ने पूरी पृथ्वी को ही ढक लिया था। ये अवक्षेपण निम्नलिखित हैं :-

1. कैप कार्बोनेट : कार्बोनेट शैलों की वो परत जो हिमनदों द्वारा बनाई गई ‘डायमिक्टाईट’ के ऊपर अवक्षेपित हो जाती है। ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव के चलते, वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा और तापमान अत्यधिक बढ़ने से अम्लीय वर्षा होती है जिससे कार्बोनेट बढ़ी मात्रा में समुद्र में जमा हो जाता है। समुद्र की क्षारीयता बढ़ने से कार्बोनेट अवक्षेपण हो जाता है।

2. ‘डायमिक्टाइट’ : अलग-अलग नाप के और अवर्गीकृत शैलों के टुकड़े ‘ड्रॉपस्टोन’ आदि जब महीन मैट्रिक्स में पाये जाते हैं तो उन्हें डायमिक्टाइट कहा जाता है। हिमनदों द्वारा बनाए गए डायमिक्टाइट ‘मेडिन’ कहे जाते हैं। हिमनदों की गति से घर्षण द्वारा नीचे की शैल से अनेक टुकड़े निकल आते हैं जो कि हिमनद के अंत में बीच में या फिर किनारे में जमा हो जाते हैं।

3. सूक्ष्म जीवाश्म : कुछ जीवाश्म अत्यंत कठिन और ठंडी/ताप परिस्थितियों में भी स्वयं को ढाल लेते हैं। ऐसे जीवाश्म जलवायु की पूर्ण परिस्थिति को दर्शाते हैं, जैसे कुछ जीवाश्म हिमाच्छादन से पूर्व नहीं मिलते वरन ठीक हिमाच्छादन से शुरू होते हैं कई अन्य जीव हिमाच्छादन के समय ही बने, पनपे और उत्क्रानित पाई।

4. कार्बन एक्सकर्सन : हिमाच्छादन के समय के अवसादों के कार्बन समस्थानिकों का विश्लेषण बताता है कि कार्बनिक पदार्थों की कमी के कारण काबर्न एक्सकर्सन हिमाच्छादन के समय ऋणात्मक होता है जबकि ग्रीष्म जलवायु होने पर यह धनात्मक होता है।

भूवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोधों को देखें तो प्राचीन समय से अब तक के समय के अंतरालों में, प्रोटेरोजोइक से लेकर क्वाटर्नरी तक अनेकों बार हिमाच्छादित होने के प्रमाण हैं। प्रोटेरोजोइक में मैरिनोअन, स्ट्रशियन तो क्वाटर्नरी में प्लीस्टोसीन ग्लशिऐशन के नाम से हम इन प्रखंडों को चिन्हित करते हैं।

समस्त प्रमाणों से हम हिमाच्छादन को बड़े पैमाने में देखकर पृथ्वी के बर्फ से ढके होने की बात तो कहते हैं पर आखिर इसके पीछे कारण क्या था? क्यों जलवायु का परिवर्तन इस चरम तक भी हो रहा है? यह आज भी एक शोध का विषय है। परंतु आज तक के शोध के फल स्वरूप हम इसके लिये मिलानकोविच चक्र को जिम्मेदार कह सकते हैं।

मिलानकोविच चक्र क्या है? : मिलानकोविच चक्र का नाम एक साइवेरियन गणितज्ञ मिलुतन मिलानकोविच पर पड़ा है। उन्होंने ध्रुवीय हिमखण्डों के बढ़ने और वापस जाने की प्रक्रिया को तीन चक्रों पर आधारित बताया, जोकि इस प्रकार हैं :-

उत्केन्द्रीयकरण : उत्केन्द्रीयकरणता का मापक है एपिहीलियन और पैरिहीलियन के बीच का संबंध जोकि इस सूत्र द्वारा निर्धारित किया जाता है –

E = (a-p) / (a+P)
E = उत्केन्द्रीयकरण
a = एपिहीलियन
p = पैरिहीलियन

एपिहीलियन : किसी खगोलीय पिण्ड की कक्षा में वह स्थान या बिंदु जो सूर्य से अधिकतम दूरी पर होता है। जैसे 4 जुलाई को पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य से 15.2 करोड़ किलोमीटर की दूरी पर होती है।

पैरिहीलियन : किसी खगोलीय पिंड की अपनी कक्षा में सूर्य से निकटतम स्थिति। इसमें पृथ्वी 3 जनवरी को आती है और सूर्य से उसकी दूरी 1473 करोड़ किलोमीटर होती है।

यदि e = o आए तो ग्रह पथ वृतीय होगा और यदि e एक की ओर जाने लगे तो ग्रह पथ दीर्घवृताकार हो जाता है। इसी प्रकार e ज्यादा होने पर सूर्य से आने वाली ऊर्जा या विकिरण का अंतर भी ज्यादा होगा।

उत्केंद्रीयकरण हर 1,00,000 सालों में बदलता है।

घूर्णन : घूर्णन पृथ्वी और सूर्य के बीच के गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से होता है। ध्रुवीय तारा और वेगा तारे के स्थान को देखकर भी हम घूर्णन का सरलता से अंदाजा लगा सकते हैं। हर 13000 सालों में इन दोनों सितारे के बीच अपनी जगह बदलती है। पृथ्वी का अक्ष घूर्णन 26000 सालों में चक्रिय रूप से परिवर्तित होता है। घूर्णन द्वारा एपिहीलियन और पैरिहीलियन के सापेक्ष पृथ्वी के अक्ष की दिशा बदल जाती है।

त्रियकता : अपने गृह पथ तल के सापेक्ष पृथ्वी की अक्ष का झुकाव/नत त्रियकता है। दिसंबर माह में यह अक्ष सूर्य की ओर होता है। यदि त्रियकता का मान शून्य होगा तो मौसम बदलेंगे ही नहीं। चक्रीय रूप से त्रियकता हर 40,000 सालों में परिवर्तित होती है। यदि त्रियकता में अंतर ज्यादा होगा, तो मौसम के तापमान में भी स्वयं अंतर ज्यादा हो जाता है।

जलवायु परिवर्तन की यह प्रक्रिया करोड़ों सालों से इसी प्रकार होती आ रही है। चक्रीय रूप से पृथ्वी कभी हिमाच्छादित हो जाती है तो कभी अत्यंत ताप से ग्रसित। तापमान का परिवर्तन स्वयं मिलानकोविच चक्रों पर आधारित है।

उत्केंद्रीयकरण, त्रियकता आदि घूर्णन के ऐसे मानक हैं जो तापमान के बदलाव को समझा सकते हैं। सूर्य से आने वाली विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा पृथ्वी पर किस प्रकार फैलती है और किस प्रकार तापमान पर और जलवायु पर इसका असर होता है, यह जानने के लिये हमें करोड़ों सालों पुराने शैलों (मुख्यत: अवसादी शैलों) का अध्ययन करना पड़ेगा। आज भूवैज्ञानिकों के शोधों द्वारा यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी का तापमान चक्रिय रूप से घटता एवं बढ़ता है। अनेकों अवसादी शैलों और आइसोटोपों के प्रमाणों द्वारा यह कहा जा सकता है कि आज अंतर -हिम- आच्छादित पृथ्वी का समय है।

मिलानकोविच चक्र के आधार पर जलवायु परिवर्तन क्रर्मिक रूप से सालों साल इसी तरह होता रहेगा। आगे भी कई ऐसी प्रवस्थाएं आएंगी जो पृथ्वी को हिमाच्छादित कर दें। अत: प्राकृतिक गतिविधियाँ ही मनुष्य की गतिविधियों की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी रूप से जलवायु के परिवर्तन में कार्यरत हैं। मानव जाति केवल उत्प्रेरक का कार्य कर रही हैं।

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हर्षिता जोशी
वा. हि. भूवि. सं., देहरादून


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