मिटने की कगार पर गौरवशाली परंपरा

19 Jul 2011
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प्रत्येक अंचल की अपनी एक खास खुशबू होती है जो वहीं की आबो-हवा से बनती और संवरती है। झारखंड राज्य का संथाल परगना क्षेत्र वहां के आदिवासियों की गृहभूमि है। इस पहाड़ी अंचल की कई सांस्कृतिक परंपराएं हैं। इस मामले में यह अंचल बड़ा विशिष्ट है।

भाषा, रहन-सहन एवं दैनिक गतिविधि के आधार पर इसकी एक अलग पहचान है। इसका स्वर्णिम अतीत है। सन् 1855 में सिद्धू-कान्हू नामक भाईयों ने अंग्रेजों और स्थानीय महाजनी शोषण प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह किया था। इस घटना ने संथाल परगना क्षेत्र को इतिहास में प्रतिष्ठित कर दिया। विद्रोह का परिणाम तो अधिक फलदायक नहीं रहा। लेकिन, इसने जनजातियों की एकनिष्ठता को प्रमाणित कर दिया। इसी एकता के बूते अंग्रेजों को इस अंचल के वास्ते अलग से नीति बनानी पड़ी। ‘संथाल परगना’ को विशेष क्षेत्र का दर्जा दिया गया। खैर! अब ये पुरानी बातें हैं। आजाद भारत में साठ वर्ष गुजारने के बाद भी यहां के निवासियों की स्थिति नहीं बदली है। हां, इतना जरूर हुआ है कि ये आदिवासी जंगल और जमीन से दूर अपनी आजीविका के लिए अपनी जीवन-शैली बदलने को मजबूर हो रहे हैं। इलाका भी बदल रहा है।

1983 ई. में संथाल परगना प्रमंडल सृजित किया गया। वर्तमान में इसके अन्तर्गत छ: जिले (देवघर, दुमका, गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़ और जामताड़ा) हैं। उल्लेखनीय है कि संथाल जनजाति की बहुलता के कारण इस प्रमंडल का नाम ‘संथाल परगना’ रखा गया था। ‘परगना’ से तात्पर्य है प्रशासकीय इकाई का निर्माण। इसका क्षेत्रफल 14,207 वर्ग किलोमीटर है जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 17.8 प्रतिशत है और इस अंचल की जनसंख्या राज्य की कुल आबादी की 20.4 प्रतिशत है। स्मरण रहे कि यहां सन् 1951 में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या कुल आबादी की 44.67 प्रतिशत थी जो क्रमश: 1971 ई. में 36.22 प्रतिशत, 1981 ई. में 36 प्रतिशत और 1991 ई. में 31.88 प्रतिशत रह गयी है।

ये आंकड़े बताते हैं कि जनजातीय आबादी घटी है। जंगल कम हुए हैं। सच का एक पहलू यह भी है कि क्षेत्र में गैर जनजातीय आबादी का बाहर से खूब आना हुआ है। इससे भी जनजातीय लोगों का प्रतिशत कम होता चला गया। कई सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावजूद आज इस क्षेत्र में जनजातीय और गैर जनजातीय लोगों की स्थिति में ज्यादा अन्तर नहीं है। दोनों समुदायों के लोग गरीब, शोषित खेतिहर मजदूर और औद्योगिक मजदूर हैं। भूमि स्वामित्व में असमानता और सूदखोरी की समस्या दोनों के लिए विकट है। फिर भी दोनों समुदाय इस क्षेत्र की राजनीतिक गतिविधि को दिशा दे रहे हैं।

संथाल परगना में तीन लोकसभा और 18 विधानसभा चुनाव क्षेत्र हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से अस्थिर प्रदेश का जो भाग दूसरे राज्य की सीमा से लगा होता है वह हिस्सा सटे राज्य की मजबूत राजनैतिक चेतना से प्रभावित हो जाता है। जैसे संथाल परगना में मधुपुर, नाला आदि चुनाव क्षेत्र पश्चिम बंगाल की सीमा पर हैं। वह क्षेत्र वामपंथी विचारों से ज्यादा प्रभावित है। इनका जनाधार वहां मजबूत है। जबकि बिहार से लगी सीमा पर राजद, कांग्रेस की स्थिति बेहतर है। संथाल परगना का जो क्षेत्र बिहार से लगा है वहां बांग्लादेशी घुसपैठियों की अधिक संख्या है।

ये आबादी कांग्रेस का हाथ मजबूत करती है। इस प्रकार सभी राजनैतिक पार्टियों का हस्तक्षेप इस क्षेत्र में है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का जनाधार संथाल परगना के ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत है तो भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) का शहरी क्षेत्र में। सन् 1973 में स्थापित झामुमो के चार संस्थापकों में केवल सीबू सोरेन ही जनजातीय समुदाय से थे। इसका उन्होंने खूब फायदा उठाया।

खैर! यहां संथाल जनजाति कुल जनजातीय आबादी का 36.7 प्रतिशत है। जबकि, अन्य में माल पहड़िया जनजाति मात्रा 1.30 प्रतिशत है। संथाल जनजाति झामुमो का समर्थन करती है तो माल पहड़िया भाजपा का समर्थन करती है। वास्तविकता यह है कि माल पहड़िया संख्या में कम हैं। इससे झामुमो का जनाधार कमजोर नहीं होता है। हाल ही में बाबू लाल मरांडी ने भाजपा का साथ छोड़ अपनी नयी पार्टी ‘झारखंड विकास मोर्चा’ (झा.वि.मो) बना ली है। भाजपा से अलग होने पर भी मरांडी को पहड़िया जनजाति का समर्थन मिल रहा है। शहरी क्षेत्रों में भी समर्थन उनकी साफ छवि के कारण मिल रहा है। इस प्रकार यह पार्टी ग्रामीण एवं शहरी इलाके में विकल्प प्रदान कर सकती है। यह विकल्प झामुमो का जनाधार कम कर सकता है।

किसी भी प्रदेश की संस्कृति मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर ही विकसित होती है। ये तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं-रोटी, कपड़ा और मकान। रोटी अर्थात भोजन। संथालों का मुख्य भोजन डाका-उरद (दाल-भात) तथा सब्जी है। इसके अभाव में ये माड़-भात भी खाते हैं। उनका भोजन जोन्डरा ढाका (मकई की दलिया) और सत्तू भी है। पर्व-त्योहारों में ये लोग चूड़ा तथा मूड़ी बड़े शौक से खाते हैं।

ग्रामीण संथाल कृषि से ही अपनी आजीविका चला रहे हैं। वैसे, इस इलाके में आदिवासी के लिए कृषि अब जोखिम भरा काम है क्योंकि यहां समय के साथ अनेक समस्याएं जुड़ती जा रही हैं।

इस इलाके की कृषि मानसून पर निर्भर करती है। मानसूनी वर्षा ही इस क्षेत्र की जीवन रेखा है। यहां की लगभग 10.4 प्रतिशत कृषिभूमि को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। शेष भूमि में खेती मानसून पर ही निर्भर है। यद्यपि इस क्षेत्र में कई वृहत, मध्यम एवं लघु सिंचाई परियोजनाएं शुरू की गयीं थी। लेकिन, विडंबना यह है कि सभी परियोजनाओं का 90 प्रतिशत से अधिक भाग अभी तक अपूर्ण है। जिससे इन परियोजनाओं का अपेक्षित लाभ कृषि को नहीं मिल पा रहा है।

इस अंचल की कृषि मृदा अपरदन की समस्या से जूझ रही है। ‘मृदा अपरदन’ को रेंगती हुई मृत्यु कहा जाता है क्योंकि, यह धीरे-धीरे मिट्टी के पोषक तत्वों को हटाकर उसे अनुत्पादक बना देता है। इस अनुत्पादकता का एक कारण और भी है, वो ये कि यहां के किसान लगातार एक ही भूमि पर अनुपयुक्त तरीके से खेती करते हैं। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है। कोमल परत का कटाव शुरू हो जाता है। समस्या यह है कि खेतों को कभी भी परती नहीं छोड़ा जा सकता है। परती छोड़ने पर भुखमरी की समस्या जन्म ले लेती है।

वनों की अंधाधुंध कटाई ने भी इस समस्या को बढ़ाया है। आंकड़े बताते हैं कि साहेबगंज में मात्रा 2.3 प्रतिशत वन रह गये हैं तो पाकुड़ एवं गोड्डा वन विहिन क्षेत्र हैं। इस कारण यहां जमीन की ऊपरी परत का कटाव अधिक है। इस समस्या के अन्य कारणों में एक कारण ‘झूम कृषि’ है। इसके अन्तर्गत एक जगह खेती आरंभ की जाती है और जब वहां की उर्वरता समाप्त होने लगती है तो दूसरी जगह कृषि भूमि की तलाश की जाती है। यह तलाश वनों की अंधाधुध कटाई के लिए जिम्मेदार है।कपड़ा दूसरी मूलभूत आवश्यकता है। यह पहनावे की ओर इंगित करता है। यहां की जनजातियों का मुख्य पहनावा कुपनी, कांचा, पंची, परहंड, दहड़ी तथा पाटका आदि है। पंची तथा परहंड संथाली औरतें पहनती हैं। पंची शरीर के ऊपरी भाग का वस्त्र है तो परहंड घाघरे की तरह का वस्त्र है जो कमर से नीचे पहना जाता है। पुरुष जिस कपड़े को धारण करते हैं उसे भगवना कहा जाता है। दरअसल नये फैशन ने इन पर भी अपना प्रभाव डाला है। इसका मुख्य कारण पलायन एवं आस-पास नगरों का फैलाव होना है। पलायन के कारण ही इस प्रदेश की महिलाओं को दिल्ली जैसे शहरों में दिहाड़ी मजदूर और नौकरानी के रूप में देखा जा सकता है। आर्थिक जरूरत को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के ईंट भट्टों में एवं असम के चाय बगानों में ये संथाल मजदूरी करने जाते हैं। दैनिक जरूरत की वजह से इनके पहनावे भी बदलने लगे हैं। अब तो संथालों में परंपरागत पहनावों का चलन खत्म होता जा रहा है।

मकान स्थायित्व का सूचक है और तीसरी मूलभूत आवश्यकता भी है। संथालों का घर परिवार के सदस्यों के अनुसार विभिन्न कमरों में बंटा होता है। वैसे तो आदिवासी समाज नगरीय सभ्यता से दूर रहने की कोशिश करता रहा है किन्तु बदलते परिवेश में उन्होंने अपने बसेरे का ढंग बदला है। प्रत्येक घर के आन्तरिक भाग में पूर्वजों के लिए विशिष्ट स्थान होता है तथा परिवार में मुखिया द्वारा यहां ‘ओसकबोंगा’ की पूजा की जाती है।

संथाल लोगों का ग्राम संगठन अपने आप में पूर्ण तथा व्यवस्थित होता है। गांव की सामाजिक व्यवस्था में स्पष्ट क्रम दिखायी पड़ता है। क्योंकि, केस्कुहेड-राजा, मुरूमहेड-पुजारी, सारेनहेड-सैनिक तथा मारूंडीहेड-किसान के रूप में स्थापित हैं। यह सामाजिक व्यवस्था स्पष्ट करती है कि हिन्दू संस्कृति के वर्णाश्रम का कुछ प्रभाव संथाल समाज में भी है। कई गांवों का समूह एक प्रशासकीय ईकाई का निर्माण करता है जिसे परगना कहा जाता है। इसका प्रशासन ‘परगनायत’ द्वारा देखा जाता है जो गांव के सभी सामाजिक कार्यों का संरक्षक होता है। इसके आदेश के बिना कोई विवाद सुलझाया नहीं जा सकता है। यह गलत कार्य करने वाले व्यक्ति को दण्डित करने का अधिकार भी रखता है। ‘परगनायत’ के अलावा मांझी, परमाणिक, नायक तथा गोरायत जैसे प्रशासनिक पद संथाल समाज में पाये जाते हैं, जो जरूरत के हिसाब से अपनी व्यवस्था का संचालन करते हैं।

यह समाज पितृ प्रधान समाज है। यहां पैतृक संपत्ति पर पहला अधिकार पुत्रों का फिर अविवाहित पुत्रियों का और अन्नत: पट्टीदारों का होता है। परिवार एकाकी और संयुक्त होते हैं। इनमें विवाह की अनेक प्रथाएं मिलती हैं जिन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है जैसे- किरिंगबाहु, धरदेजवाइ, किरिंगजवाइ, निरबोलक इत्यादि। संथालो में कन्यादान देने की प्रथा पायी जाती है। विवाह की प्रथाओं में किरिंगबाहु सबसे अधिक प्रचलित है जिसके अन्तर्गत आपसी बातचीत से विवाह निश्चित किया जाता है। संथालों में सगोत्रीय विवाह निषिद्ध है। साथ ही एक विवाह की प्रथा मौजूद है। यहां बाल विवाह का प्रचलन नहीं है परन्तु, विधवा विवाह की अनुमति है। संथाल जनजाति मुख्यत: प्रकृति पूजक हैं। उनके प्रमुख देवता - ’ठाकुरजिऊ’ और ‘मरानवरू’ माने जाते हैं।

यहां पर्व-त्योहार सामुहिक रूप से मनाया जाता है। प्रमुख पर्व एरोक, हरियार, जापाड़, सोहराम, सोकरात, भागसिम, वाहा आदि हैं। ‘एरोक’ पर्व अषाढ़ मास में मनाया जाता है और इस अवसर पर ‘जाहेरथान’ में देवी-देवताओं की पूजा होती है। ‘वाहा’ फाल्गुन मास में साल-वृक्षों में फूल आने पर मनाया जाता है। यह तीन दिवसीय उत्सव इनका वसंतोत्सव है।

संथाल जनजाति समुदाय आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इन लोगों के रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, परम्पराओं में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। आज इनके समक्ष पहचान की समस्या उत्पन्न हो गयी है। इस समस्या को जन्म देने में अनेक कारक उत्तारदायी रहे हैं, जिनमें नगरीकरण, औद्योगीकरण, खनन, ईसाई मिशनरियों का प्रभाव, अन्य संस्कृतियों से संपर्क, शिक्षा का असैद्धांतिक प्रसार, परिवहन तथा संचार के साधनों का असंतुलित विकास प्रमुख है।
 

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