मिट्टी एवं जल संरक्षण : परिभाषा महत्त्व समस्याएँ एवं उपचार के विकल्प

18 Aug 2018
0 mins read
Soil
Soil



2.1 प्रस्तावना
ईश्वर ने मानव जगत को जल, वायु, भूमि (मृदा) के रूप में सच्चा आशीर्वाद प्रदान किया है। समस्त ब्रह्माण्ड में से केवल पृथ्वी पर ही प्राणी जगत का उद्भव एवं विकास सम्भव हो सका है। प्राचीन काल से ही धरती पर विभिन्न सभ्यताओं ने जन्म ऐसे स्थानों पर लिया है जहाँ जल उपलब्ध था अर्थात प्राचीन सभ्यताएँ नदी/घाटियों में ही विकसित हुई है, चाहे सिन्धु घाटी सभ्यता हो या हड़प्पा मोहनजोदड़ो या आधुनिक मिश्र में विकसित सभ्यताएँ। यह दर्शाता है कि जीवन वहीं सम्भव है जहाँ स्वच्छ जल, शुद्ध वायु तथा पोषक तत्वों से भरपूर मिट्टी उपज हेतु उपलब्ध हो। समय के साथ-साथ सभ्यताएँ विकसित होती गई, मानव जनसंख्या बढ़ती गई तथा हमारे बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों पर भाव बढ़ने लगा। मनुष्य द्वारा वर्तमान पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए जल का उपयोग दोहन तथा मृदा से अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करने के प्रयास किये जाते रहे। पर्यावरण के सम्बन्ध में इसके संरक्षण हेतु प्रयास नहीं किये गये। इसके लिये आधुनिक जीवन शैली तथा औद्योगिक क्रान्ति भी जिम्मेदार है। मिट्टी हमारे भरण-पोषण का महत्त्वपूर्ण माध्यम है। यह गौरतलब है कि एक से.मी. मिट्टी को बनने में हजारों साल लग जाते हैं तथा हमारे कुप्रबंधन से अथवा प्राकृतिक कारणों से कुछ ही समय में टनों मिट्टी बर्बाद हो जाती है अथवा अपरदन से नदी, नालों, समुद्र में जाकर व्यर्थ हो जाती है।

यह हमारा सर्वप्रथम दायित्व है कि भूमि एवं जल के उपयोग, संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण संतुलन/संरक्षण/विकास पर व्यापक जनचेतना जगाये तथा इनके संरक्षण में प्रभावी भूमिका निभाये। इस अध्याय में हम विस्तार से मृदा अपरदन के बारे में, उनसे होने वाले प्रभावों के बारे में अध्ययन करेंगे। जलग्रहण विकास अथवा जलग्रहण प्रबंधन अध्ययन की यह प्रथम पायदान है।

2.2 मृदा अपरदन
सामान्य शब्दों में अपरदन से तात्पर्य मृदा एवं मृदा कणों के ऐसे विस्थापन और परिवहन से होता है, जो जल, वायु हिम या गुरुत्व (Gravity) बलों की सहायता से सम्पन्न होता है। मृदा अपरदन को सम्पन्न करने वाले इन बलों में से जल और वायु सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं। बाढ़ द्वारा बने मैदान और सागर तटीय मैदानों का निर्माण पर्वतों के अपक्षीय होने से होता है। पर्वतीय भागों के अपक्षीण होने की यह प्राकृतिक क्रिया निरंतर और मन्द गति से होती रहती है। यद्यपि यह क्रिया देखने में विनाशकारी नहीं लगती है तथापि इससे अपरदन होता रहता है। इसीलिये इसको प्राकृतिक अपरदन या भूगर्भीय अपरदन कहा जाता है। भूगर्भीय अपरदन मानव के कल्याण की दृष्टि से हानिकारक नहीं होता है और यह मानवीय नियंत्रण के परे होता है। इसके विपरीत, जब कभी प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है अर्थात मृदा अपरदन प्राकृतिक रूप से मृदा बनने की दर से अधिक होता है तो अपेक्षाकृत अधिक हानियाँ होती है। प्रकृति का संतुलन प्रायः बड़े पैमाने पर वनों की कटाई से, अधिक मात्रा में जुताई से और खेती के लिये या अन्य कारणों से भू-आकृतियों को समान बनाने से होता है। ऐसी अवस्थाओं में मृदा अपरदन की तीव्रता बहुत अधिक बढ़ जाती है।

आमतौर से भूपृष्ठ की एक इंच की मृदा का निर्माण हजारों वर्षों में हो पाता है, जो मृदा, अपरदन की विनाशलीला से एक वर्ष में समाप्त हो जताी है। प्रकृति के स्वाभाविक रूप से होने वाले कार्य-व्यापार में मानव के बिना सोचे-समझे किए गए हस्तक्षेपों से बहुत नुकसान होता है। मानव हस्तक्षेप के फलस्वरूप तीव्र मृदा अपरदन होता है। सामान्य रूप से जब हम अपरदन कहते हैं तो उसका आशय तीव्र अपरदन से होता है।

जैसा ऊपर बताया गया, मृदा अपरदन की प्रकिया में मृदा कण भूमि की ऊपरी परत से विस्थापित होते हैं। इसलिये इसे मृदा की ऊपरी सतह से मृदा कणों के विस्थापन की प्रक्रिया कहा जाता है। इस प्रक्रिया में विस्थापित मृदा कणों को एक स्थान से दूसरे या दूर ले जाने या दूर बहा ले जाने के लिये किसी स्रोत की आवश्यकता होती है। सामान्य रूप से मृदा अपरदन में विस्थापन तथा बहाकर ले जाना दोनों प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती है। मृदा कणों को विस्थापित करने में पानी, हवा, हिम या गुरुत्व बलों का योगदान प्रमुख रूप से उल्लेखनीय होता है। ये भिन्न-भिन्न बल मृदा कणों के आकार के आधार पर अपनी भूमिका निभाते हैं उदाहरण के लिये 1. मिट्टी में पानी रिसता है, रिसने वाला यह बल मृदा कणों के आयतन के समानुपातिक होता है तथा 2. मृदा कणों को चिपकाने या स्थिर करने वाले बल मृदा कणों के पृष्ठ क्षेत्र के समानुपातिक होते हैं। इस दृष्टि से हम जब विचार करते हैं तो पाते हैं कि मृदा कण जितने छोटे होते हैं, उतने ही अधिक मात्रा में अधिक स्थायी होते हैं। मृदा कण चिपकने वाले बलों के कारण मिट्टी के भू-भाग से लगे रहते हैं। जब मृदा कणों का समुच्चय आकार घटता है तो इस बल में कमी आती है और रिसने वाले बल के कारण मृदा कण विस्थापित होते जाते हैं। फलस्वरूप मृदा का अपरदन होता है।

तलछट के परिवहन में मृदा कणों के छोटे-छोटे अंश या कण अधिक आसानी से बह जाते हैं, दूसरे शब्दों में एक स्थान से दूसरे स्थान को विस्थापित हो जाते हैं। रिसने वाले बलों के अतिरिक्त मृदा कणों को विस्थापित करने वाले बलों में कई यांत्रिक बल सम्मिलित होते हैं। जो मृदा कणों को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाते हैं। उदाहरण के लिये जब तेज वर्षा होती है तो वर्षा की तेज बूँदों के प्रभाव से मृदा कणों का कटाव होता है। इसी तरह पानी के प्रवाह से मिट्टी का कटाव होता है। इस तरह कटाव का बल भी उल्लेखनीय है। इस सम्बन्ध में सबसे अधिक उल्लेखनीय बहते पानी में उत्पन्न कटाव करने वाला बल है। यह सम्भवतः सही है कि पानी के तीव्र बहाव के बिना मृदा अपरदन तीव्रता से नहीं होता है और यदि अपरदन के क्षेत्र में पानी के बहाव को बन्द कर? दिया जाये तो अपरदन की क्रिया भी घट जायेगी।

2.3 जल द्वारा मृदा अपरदन
इसमें भूमि की ऊपरी सतह से मिट्टी का एक स्थान से दूसरे स्थान तक विस्थापन और निष्कासन जल की क्रियाओं द्वारा होता है। इस तरह के मृदा अपरदन में भूमि के पृष्ठ से मृदा कणों का पहले विस्थापन होता है और फिर वे मृदा कण उस स्थान से हट कर दूसरे स्थान तक प्रवाहित हो जाते हैं। सामान्य रूप से वर्षापात और नदी-नाले के प्रवाह आदि के माध्यम से मृदा कण दूर बह जाते हैं। जब वर्षा अधिक होती है तो वर्षापात का जल मिट्टी में रिस जाता है तथा अतिरिक्त जल अपवाहित होकर मृदा का अपरदन करता है। आमतौर से मृदा का विस्थापन और परिवहन इसी जल के अपवाह के कारण और इसी के माध्यम से होता है। यदि मृदा के भीतर जल के अन्तः स्पंदन की दर वर्षापात की दर से अधिक होती है तो जल का अपवाह नहीं के बराबर होता है और ऐसी अवस्था में मृदा की हानि या मृदा अपरदन नहीं होता। यह स्पष्ट रूप से समझने की बात है कि केवल जल अपवाह से मिट्टी भूमि-पृष्ठ से तब तक विस्थापित नहीं हो सकती, जब तक कि जल के अपवाह में मिट्टी घुल नहीं जाती है। इसलिये मृदा अपरदन मुख्यतया मृदा कणों को बिखेरने वाली और विस्थापित करने वाली क्रिया के कारण होता है तथा जल के प्रवाह से मृदा कण एक स्थान से दूसरे स्थान तक चले जाते हैं।

वर्षापात की प्रकृति और मात्रा पर तो निर्भर करता ही है, साथ ही मृदा की प्रकृति, मृदा ढाल, वनस्पतियों और जल अपवाह के वेग पर भी निर्भर करता है। वर्षापात के दौरान बूँदों के गिरने की दर जितनी तीव्र होती है उतनी ही मात्रा में मिट्टी के कण इधर-उधर बिखरते हैं और मृदा समुच्चय प्रभावित होते हैं। मृदा समुच्चय जब भंग हो जाता है अर्थात मृदा कण अलग-अलग होकर बिखर जाते हैं और फिर बहने वाले पानी में निलम्बित हो जाते हैं और जल प्रवाह के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। मृदा विस्थापन और उसके परिवहन के बारे में संक्षेप में नीचे विवरण दिए जा रहे हैं।

2.3.1 मृदा विस्थापन
मृदा कणों का विस्थापन सामान्य रूप से वर्षा की बूँदों के प्रभाव के कारण होता है। जब वर्षा तेज होती है तो मृदा कण भूमि सतह से अलग हो जाते हैं, मृदा कण उछल कर दूर गिर जाते हैं। मृदा कणों के इस तरह उछलने से भारी मात्रा में मृदा का अपरदन होता है और अपरदन प्रक्रिया में अपरदन का यह पहला चरण समझा जाता है। वनस्पति-विहीन मृदा पृष्ठ भारी वर्षा द्वारा प्रति एकड़ की दर से मृदा कणों का इस प्रकार उच्छलन 100 गुना अधिक होता है। वर्षा के लगभग दो-तीन मिनट बाद मृदा कणों का उछलना सबसे अधिक होता है। उस समय भूमि पृष्ठ पानी की एक पतली परत से ढक सी जाती है। जैसे ही मृदा कणों का आकार बढ़ता है मृदा कणों की विस्थापनशीलता बढ़ जाती है। इस तरह से यह स्पष्ट हो जाता है कि रेत के कणों की अपेक्षा मटियार या मृत्तिका कण देर से या कठिनाई से विस्थापित होते हैं।

मृदा कणों का विस्थापन अपवाह जल के माध्यम से भी होता है। जल मृदा कण अपवाह जल में प्रवाहित होते हैं तो मृदा पृष्ठ के सम्पर्क के साथ खिंचते चले जाते हैं। इस तरह का मृदा अपरदन भूमि पृष्ठ पर होने वाली प्रवाह की ऊर्जा पर निर्भर करता है। इसके साथ यह मृदा की विस्थापनशीलता जल प्रवाह में बही जा रही मृदा की मात्रा आदि पर निर्भर करती है।

2.3.2 मृदा परिवहन
मृदा कण वर्षा की बूँदों के प्रभाव से अपने स्थान से विस्थापित होकर बिखर जाते हैं। मृदा कण अपवाह जल में घुलकर पृष्ठ अपवाह द्वारा स्थानान्तरित हो जाते हैं। अपवाह जल दो मुख्य रूपों में बहता है। अपवाह जल मृदा पृष्ठ पर एक उथली परत के रूप में बहता है। इस तरह के प्रभाव में जिस पृष्ठ या सतह पर पानी बहता है उसमें कोई अवनलिकाएं नहीं होती है। इस तरह के अपवाह को परत प्रवाह कहा जाता है। इस प्रकार का मृदा परिवहन काफी मात्रा में होने पर भी दिखाई नहीं देता। जब प्रवाह छोटी अवनलिकाओं के रूप में हो सकता है तो इसे रिल या अवनालिका प्रवाह कहा जाता है।

गिरती हुई वर्षा की बूँदों से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है। उसकी तुलना में बहते जल की ऊर्जा काफी कम होती है, क्योंकि सतह पर बहने वाले जल का प्रवाह सामान्य रूप से वेगहीन होता है। जिन स्थानों में भूमि की सतह चिकनी होती है वहाँ जल का प्रवाह प्रति क्षण 8 से.मी. से भी कम होता है। ऐसा सामान्य रूप से खाईयों या नालियों के बाहर भूमि पर होता है। इसके अलावा पृष्ठ अपवाह के प्रवाह का वेग समतल भूमि पर अधिक नहीं होता, जबकि छोटे और गहरे ढालों पर जल प्रवाह तेज होने के कारण भूमि का क्षरण अपेक्षाकृत अधिक होता है। प्रवाहित जल जब अधिक ढाल या नालियों और खाईयों के माध्यम से बहता है तो बड़ी नाली, नालें या छोटी नदी का रूप ले लेता है। इस तरह सतह पर होने वाले जल प्रवाह से ढाल के आधार पर सबसे अधिक भूमि का कटाव होता है। जल प्रवाह के बल से जो हानि होती है, वह प्रवाह के वेग और उसकी मात्रा पर निर्भर करती है।

भूमि सतह के प्रवाह की ऊर्जा बहते हुये जल के वेग और संहति के फलस्वरूप होती है। किसी भी दी हुई संहति वेग का सम्बन्धित प्रवाह के मार्ग की लम्बाई द्वारा प्रभावित होता है। ऐसा प्रवाह सम्बन्धित ढाल से भी प्रभावित होता है और अलग अलग इकाइयों में प्रवाह अलग-अलग पड़ता है। इसी तरह से प्रवाह मार्ग की लम्बाई और मार्ग में आने वाली बाधाओं में अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। वेग की संहति में यदि कोई कमी होती है। तो सम्बन्धित ऊर्जा में भी कमी हो जाती है। इसी तरह जल के सतह पर प्रवाह होने वाली ऊर्जा में यदि वृद्धि होती है तो उसकी मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता में भी वृद्धि होती है, जिसके फलस्वरूप मृदा अपरदन की दर में वृद्धि हो जाती है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि वर्षा बूँदों के प्रभाव से बहने वाले जल की मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता में वृद्धि होती है। इसके साथ ही खड़े जल में मिट्टी बैठने की क्षमता भी बढ़ जाती है।

ढलवां भूमि पर होने वाले प्रवाह के कारण एक पतली परत के रूप में मिट्टी का जो एक समान निष्कासन होता है, उसे परत अपरदन या शीट अपरदन कहा जाता है। यह एक प्रकार की आदर्श संकल्पना है, जबकि सामान्य रूप से ऐसा नहीं देखा जाता है। समय गुजरने के साथ और तीव्र गति से लिये गये छाया चित्रों के अध्ययन से पता चलता है कि मिट्टी के निष्कासन के साथ-साथ मृदा कणों का संचलन भी होता रहता है, जिससे सूक्ष्मदर्शी रिल अपरदन होता है। दूसरे शब्दों में, इससे सूक्ष्म नलिकाएं बन जाती है, जिनसे अपरदन होता है। यद्यपि ये सूक्ष्म नलिकाएं स्थिति के परिवर्तन के कारण सामान्य रूप से दिखाई नहीं पड़ती, परत के रूप में होने वाला यह जल प्रवाह उल्लेखनीय है। मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता जल अपवाह के वेग और गहराई पर निर्भर करती है। साथ ही यह सम्बन्धित मृदा के लक्षणों पर भी निर्भर करता है। मृदा की परिवहनशीलता मृदा के कणों के आकार के घटने के साथ-साथ बढ़ती जाती है अर्थात मटियार मिट्टी के कण जो सूक्ष्म या छोटे होते हैं, आसानी से जल प्रवाह के साथ बह जाते हैं।

जिन भू-भागों में सतह पर होने वाला प्रवाह मात्रा में और वेग में बढ़ता है, वहाँ रिल अपरदन अधिक होता है। जिन भू भागों में तेज तूफानी हवाएँ चलती है, जल का अपवाह अधिक होता है तथा जहाँ भूमि की ऊपरी मिट्टी ढीली होती है, वहाँ रिल अपरदन सबसे अधिक होता है। रिलों से कृषि यन्त्रों को गुजरने में कोई असुविधा नहीं होती। रिल अपरदन की अधिक हानिकारक और बढ़ी हुई अवस्था को गली अपरदन कहा जाता है। गली अपरदन के क्षेत्र में नलिकाएँ या नालियाँ रिल अपरदन के भू-भागों से बड़ी होती है और इनमें कृषि यंत्रों को गुजरने में असुविधा होती है और इनमें मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता सबसे अधिक होती है। मृदा कणों का संचलन अपवाह जल में होता है। अपवाह जल में मिट्टी घुल घुलकर बह जाती है और सतह पर पतली परत के रूप में चिपक जाती है, वहीं बहाव के साथ बह जाती है। संक्षेप में इनका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

2.3.3 निलम्बन
आमतौर से बहते पानी से या भरे हुए जल में मिट्टी जल में बैठती है और निलंबित तलछट के रूप में जम जाती है। यह प्रक्रिया जल प्रवाह के सम्पर्क के बिना एक निश्चित अवधि में होती रहती है। मृदा कण दो तरीके से पानी की संचलनशील या गतिशील धारा में निलंबन के रूप में आ जाते हैं पहला-बहते हुए पानी की पतली धारा के ऊपर गिरती हुई वर्षा बूँदों के बल के प्रभाव के कारण ऐसा होता है, क्योंकि वर्षा बूँदों के बौदारी प्रभाव से मिट्टी के कण उछलते हैं। दूसरे-मृदा की सतह के ऊपर जब तेज प्रवाह से जल गुजरता है तो मृदा कण नीचे से उठकर ऊपर आ जाते हैं और मिट्टी की सतह से प्रवाह वेग के साथ बह जाते हैं।

आमतौर से ऐसे भूभागों में मिट्टी की सतह उबड़खाबड़ होती है, जिसके कारण क्षैतिज वेग में कमी आती है और मृदा की सतह से बहाव में बाधा पड़ती है। जबकि मृदा की सतह से थोड़ा ऊपर पानी का बहाव कुछ अधिक वेग लिये हुए होता है। वेग में इस अन्तर के कारण परतों के बीच दाब अन्तर पैदा हो जाता है जिससे परी परतों में भिन्नताएं रहती है। इस तरह के जल प्रवाह के अन्तरों के कारण मृदा कणों में अनेक प्रकार की गतिशीलता पैदा हो जाती है। सम्बन्धित वेग, तलछट के सांद्रण और विभिन्न गहराइयों पर इनके निष्कासन में अनेक भिन्नताएं पाई जाती है और इनके बीच एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध बनता है। तलछट के सान्द्रण और प्रवाह वेग में गहराई के अनुसार भिन्नताएं पाई जाती है। तलछट के निष्कासन या निकासी की मात्रा में वेग और सान्द्रण के कारण अन्तर पाये जाते हैं। यद्यपि नाली के फर्श पर वेग न्यूनतम होता है और धारा की सतह के निकट तलछट के अधिकतम सान्द्रित होने के कारण तलछट की निकासी अधिकतम होती है। इसी तरह नाली के तल के ठीक ऊपर बारीक तलछट का विवरण गहराई के अनुसार लगभग मोटी तलछट की तुलना में एक समान होता है।

2.3.4 उच्छलन
उच्छलन द्वारा तलछट का संकलन ऐसे क्षेत्रों में होता है जहाँ नदी-नाले या सरिता अथवा जल प्रवाह के किनारे-किनारे मृदा कण उछलते है। मृदा कणों के उछलने की ऊँचाई मृदा कणों के घनत्व एवं बाढ़ के घनत्व के अनुपात के सीधे समानुपाती होती है। मृदा कणों के बने कुल तलछट के परिवहन की तुलना में मृदा कणों के उच्छलन की प्रक्रिया को सापेक्ष रूप से कम महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

2.3.5 पृष्ठ विसर्पण अथवा तल का भार
सरिता, नदी, नाले या जल प्रवाह के तल के लगातार सम्पर्क में रहने से मृदा कण संचलित होते हैं। प्रवाह के तल खिंचवा के साथ-साथ मृदा कण ढाल के नीचे की ओर बह जाते हैं।

2.4 वायु द्वारा अपरदन
वायु द्वारा मृदा का अपरदन शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में सबसे अधिक होता है तथा इस प्रकार का मृदा अपरदन आदि क्षेत्रों या नम भूभागों में भी पाया जाता है। वायु द्वारा होने वाला मृदा अपरदन निश्चित रूप से शुष्क मौसम के प्रभाव से होने वाली एक प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया तब और तीव्र हो जाती है,

1. जब सम्बन्धित भू-भाग की मृदा ढीली होती है, सुखी होती है तथा पर्याप्त मात्रा में मृदा कण बारीक प्रभावों में विभाजित होते हैं
2. जब सापेक्ष रूप से मृदा की सतह या भूमि की ऊपरी परत चिकनी होती है तथा भूमि पर वानस्पतिक आवरण या तो बिल्कुल नहीं होता है या बहुत कम होता है।
3. जब सम्बन्धित भू-भाग पर्याप्त रूप से बड़ा होता है।
4. उस क्षेत्र में वायु का वेग काफी तीव्र होता है जिससे मृदा संतुलित हो जाती है।

ऐसे भू-भागों में हवाओं के तेज चलने से गीली और सूखी मृदा उड़-उड़ कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर चली जाती है। यद्यपि वायु भू-वैज्ञानिक युगों से ही मृदा, के अपरदन का कारण रही है तथापि भूमि के अकुशल एवं दोषपूर्ण प्रबंध से भी मृदा का अपरदन होता है। वायु द्वारा भूमि का जो अपरदन होता है वह एक सम्मिश्र और जटिल प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया पर वायु की दशाओं, मृदा तथा अन्य सम्बन्धित कारकों का प्रभाव पड़ता है। जैसा ऊपर बताया गया है, मिट्टी जब सूखी हालत में होती है, ढीली होती है, इसके कण अत्यन्त बारीक प्रभाजों के रूप में बिखरे होते हैं तथा भूमि की सतह पर ये कण समूह ऐसी स्थिति में होते हैं कि वायु से उड़-उड़ कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं, तभी वायु से अपरदन की मात्रा अधिक होती है। मृदा की ढीले और सूखा होने पर मृदा कण भूमि पृष्ठ से उछल-उछल कर भूमि पृष्ठ के किनारे-किनारे लुढ़कते हुए वाहिए हो जाते हैं तथा मृदा अपरदन की तीव्रता भी बढ़ती है। अपरदन होने के लायक आकार के जो मृदा कण होते हैं उनका वायु द्वारा एक निश्चित (दिए गए) वेग द्वारा परिवहन होता है, इस तरह का मृदा कणों का संचलन भूमि की सतह पर खुले पड़े गैर-अपरदनशील प्रभाजों के बीच की दूरी और उनकी क्रान्तिक ऊँचाई पर निर्भर करता है।

2.4.1 वायु की सक्रियता द्वारा मृदा का संचलन
मृदा का संचलन वायु द्वारा दो चरणों के सम्पन्न होता है। पहला चरण है- मृदा का विस्थापन द्वारा संचलन और दूसरा वायु की सक्रियता द्वारा मृदा कणों का परिवहन है। वायु वेग में यह प्रवणता वायुबल के परिमाण का निर्धारण करती है। भूमि की सतह के निकट के किसी बिन्दु पर, वायुवेग शून्य रहता है। इस स्तर के ऊपर बहुत थोड़ी दूरी के लिये वायु का प्रवाह सरल और स्तरीय/पटलीय होता है तथा अपेक्षाकृत ऊँचाई पर तीव्र और अशान्त हो जाता है। वायु के इस तीव्र और अशान्त वेग से ऐसा बल उत्पन्न होता है जिससे मृदा का संचलन हो जाता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, मृदा कणों के संचलन के प्रारम्भ होने के लिये वायु वेग की कुछ निश्चित न्यूनतम मात्रा की आवश्यकता पड़ती है। वायु के जिस वेग पर सबसे अधिक अपरदनशील मृदा कण संचालित होते हैं, उसे न्यूनतम तरल देहली वेग के रूप में जाना जाता है।

2.4.2 मृदा कणों का परिवहन
सतह से विस्थापित मृदा कणों का परिवहन वायु के विभिन्न वेग स्तरों पर निर्भर करता है। सामान्य रूप से वायु के प्रभाव से मृदा कणों का तीन प्रकार से संचलन होता है-

1. उच्छलन
2. निलम्बन, और
3. पृष्ठीय सर्पण

1. उच्छलन
मृदा कणों पर तथा अन्य कणों के साथ मृदा कणों के टकराव पर वायु के प्रत्यक्ष दाब के प्रभाव के फलस्वरूप उच्छलन होता है। मृदा कण भूमि की सतह के किनारे-किनारे उछलते हैं। वायु द्वारा भूमि की सतह के किनारे धकेल दिए जाने के बाद कण अचानक उच्छलन-संचलन की प्रथम अवस्था में आमतौर से ऊर्ध्वाधर रूप से उछाल भरते हैं। कुछ कण केवल थोड़ी दूरी पर उठते हैं जबकि अन्य कण भूमि से उछाल के वेग के अनुसार 30 से.मी. या इससे अधिक तक उठ जाते हैं।


सीधे प्राकृतिक जल प्रवाह में निलम्बित तलछट का वितरणसीधे प्राकृतिक जल प्रवाह में निलम्बित तलछट का वितरण उच्छलन द्वारा संचलित मृदा में बारीक कण 0.1 से 0.5 मिमी. व्यास तक के होते हैं। वायु अपरदन सम्बन्धी अध्ययनों से पता चलता है कि 50 से 75 प्रतिशत तक मृदा कण उच्छलन द्वारा संचलित होते है। संक्षेप में उच्छलन की प्रक्रिया नीचे दी जाती है।

2. निलम्बन
बहुत बारीक धूल के कणों के परिवहन की क्रियाविधि वायु द्वारा वास्तविक निलम्बन में सम्पन्न होती है। वायु अपरदन सम्बन्धी अध्ययनों से पता चला है कि मृदा संचलन का अधिकतर भाग भूमि के निकट होता है और यह अधिकतर 90 से.मी. की ऊँचाई तक होता है। इस ऊँचाई से ऊपर मृदा कण संचलन निलम्बन द्वारा घटित होता है। मृदा अपरदन द्वारा जो हानि होती है। उसमें निलम्बन से 3 से 36 प्रतिशत तक की हानि देखी जाती है। उच्छलन के दौरान मृदा कण भूमि की सतह से अलग हट जाते हैं और वायु की तीव्रता से ऊपर की ओर उठते है। इसके बाद, बारीक, मृदा कण वायु के प्रवाह के साथ निलम्बन में चले जाते हैं।

3. पृष्ठ सर्पण
पृष्ठ सर्पण मृदा कणों का ऐसा संचलन है, जो उच्छलन के दौरान मृदा कणों के पतन के प्रभाव होता है। पृष्ठ सर्पण द्वारा मृदा कणों के संचलन से भूमि की सतह प्रभावित होती है तथा मृदा समुच्चय भंग हो जाते हैं। उदाहरण के लिये क्वार्टज कण जो 0.5 से 1 मि.मी. व्यास के होते हैं, उच्छलन द्वारा संचलित नहीं होते, लेकिन सतह के किनारे-किनारे पृष्ठ सर्पण द्वारा संचलित हो जाते हैं। साधारण तौर पर 7 से 15 प्रतिशत मृदा पृष्ठ सर्पण द्वारा संचरित हो जाती है। तीनों प्रकार की मृदा संचलन सामान रूप से साथ-साथ सम्पन्न होती है।

2.4.3 मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक
मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारकों में जलवायु, मृदा गुण, स्थलाकृति, वनस्पति मृदा प्रबंध और अन्य सम्बन्धित कारक उल्लेखनीय है, जिनका संक्षिप्त विवरण आगे दिया गया है-

जलवायुः
अपरदन को प्रभावित करने वाले जलवायु, परिवर्तियों या कारकों में वर्षण, वायुवेग तापमान, आर्द्रता आदि उल्लेखनीय है। वर्षण सबसे प्रबल कारक है, जिससे उच्छलन और पृष्ठ अपवाह के माध्यम से अपरदन होता है।

मृदा की सतह पर गिरने वाले वर्षा बूँदों का बूँदों के आकार के अनुसार पर्याप्त प्रभाव और बल पड़ता है, बूँदों का आकार जितना बड़ा होगा उसका प्रभाव भी उतना ही अधिक होगा। बड़ी बूँदों के प्रभाव से, जो भूमि पर तेजी से गिरती है, मिट्टी के कण सतह से अलग हो जाते हैं और उछल कर इधर-उधर हो जाते है और मृदा अपरदन होता है। यह उल्लेखनीय है कि अपवाह बिना अपरदन के हो सकता है लेकिन अपरदन कभी भी बिना अपवाह के नहीं होता। जिस अपवाह से अपरदन होता है, वह मात्रा अवधि तीव्रता और वर्षा की आवृत्ति पर तथा वर्ष के मौसम पर निर्भर करती है। तीव्र वर्षा से अधिकतम अपवाह होता है। प्रेक्षणों से पता चलता है कि 5 से.मी. दिन से अधिक वर्षा होने पर सदा अपवाह होता है जबकि 1.25 से.मी. दिन से कम वर्षा से अपवाह कभी-कभी होता है या नहीं के बराबर होता है।

उच्छलन में रेत के आकार वाले प्रभाजों का बाहुल्य रहता है, इसलिये यह उल्लेखनीय है कि रेत का प्रतिशत जितना अधिक होता है, भूमि क्षेत्र की अपरदनशीलता वायु अपरदन की दृष्टि से उतनी ही अधिक होती है। यह बात एक मि.मी. व्यास से कम सभी रेत प्रभाजों पर लागू होती है। इसके अलावा भू-भागों में जैव पदार्थ, मृत्तिका और सिल्ट के न्यून मात्रा में होने से ढेला बनने की प्रक्रिया कठिन हो जाती है। सामान्यतः किसी भी प्रक्रिया से जिससे मिट्टी का समुच्चयन कम होता है अपरदनशीलता बढ़ाती है।

स्थलाकृतिः
भूमि क्षेत्र में ढाल पाये जाने से अपरदन शीघ्र हो जाते हैं। इससे जल का वेग बढ़ जाता है, भूमि क्षेत्र के ढाल में थोड़े से अन्तर से भी बड़ी हानियाँ देखी जाती है। सामान्यतः ढाल की डिग्री में जब चौगुनी वृद्धि हो जाती है, तो बहने वाले जल के वेग में दोगुनी वृद्धि हो जाती है और अपरदन करने वाले बल में इससे चौगुनी तेजी आ जाती है, जिसके फलस्वरूप अपवाह जल की सिल्ट ले जाने की क्षमता 32 गुनी बढ़ जाती है। ढाल की भिन्नताओं, लम्बाई, सूक्ष्म स्थलाकृति तथा अन्य स्वरूपों का मृदा अपरदन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। सामान्य रूप से जब ढाल की लम्बाई दोगुनी हो जाती है तो मृदा की हानि प्रति इकाई क्षेत्र के हिसाब से डेढ गुनी बढ़ जाती है।

शुष्क क्षेत्रों में शुक जलवायु होती है और वहाँ वायु से होने वाला अपरदन अधिक होता है। शुष्क और अर्द्धशुष्क भागों में कार्बनिक पदार्थ कम पाया जाता है, जिससे वहाँ की मिट्टी जल और वायु से प्रभावित हो जाती है। तापमान की दृष्टि से जब हम जलवायु पर विचार करते हैं तो क्षेत्रों को उष्ण कटिबंधी, उपोष्णकटिबन्धी, शीतोष्ण कटिबन्धी, आर्कटिक और उप आर्कटिक आदि भागों के रूप में जाना जाता है। भूमध्य रेखा के पास वर्षा तीव्र होती है क्योंकि वहाँ की गरम हवा अधिक पानी सोख लेती है। अतः यह स्पष्ट है कि उष्ण कटिबन्धी और उपोष्ण कटिबन्धी प्रदेशों में जल से मृदा अपरदन अधिक होता है।

मृदा गुण:
किसी क्षेत्र की अपरदनशीलता मृदा और उसके गुणों पर निर्भर करती है। मृदा की अपरदनशीलता मुख्य रूप से क्षेत्र की मिट्टी के संगठन, संरचना, जैव पदार्थ - और मटियार मिट्टी की प्रकृति पर निर्भर करती है। इसके अलावा मिट्टी में पाये जाने वाले लवणों की मात्रा और उनके प्रकार भी उल्लेखनीय होती है। ऐसा देखने में आया है कि आमतौर से बारीक गठन वाली लवणीय मिट्टियाँ अधिक अपरदित होती है। जिन मृदाओं में जल धारण क्षमता अधिक होती है, उनमें अपवाह घट जाता है। भूमि के ढाल की रचना चाहे उत्तल हो या अवतल हो, का मृदा अपरदन पर अल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये शीट अपरदन उत्तल ढालों पर अवतल ढालों की अपेक्षा अधिक गम्भीर होता है। इसके कारणों से भूमि के सूखने की दर, मृदा की गहराई, ढलवांपन आदि उल्लेखनीय हैं, जिससे वहाँ अपवाह के वेग की दर अधिक हो जाती है।

वनस्पतिः
जैसा पहले बताया गया है, खेती करने से तथा विभिन्न प्रकार के फसलोत्पादन और अत्यधिक भूमि उपयोगों से अपरदन अधिक होने लगता है और भूमि पर वनस्पति के रहने से अपरदन रुकता है। कृषि फसलों की अपेक्षा वन और घासें भूमि को अधिक संरक्षण प्रदान करते हैं। प्राकृतिक वनस्पति और पेड़-पौधों वर्षा कणों की तेजी को रोकते हैं, जल प्रवाह का वेग इससे कम रहता है। वायु की तेजी घटी है। वनस्पति विहीन भूमि में ये क्रियाएँ तेज हो जाती है जिससे अपरदन बढ़ता है।

अन्य कारक:
अनेक बार मवेशी पशुओं तथा जानवरों के आने-जाने चलने से मिट्टी का अपरदन होता है, भूमि की सतह, मवेशी पशुओं तथा बकरियों तथा अन्य जानवरों के खुरों से ऊबड़-खाबड़ हो जाती है तथा इनके अधिक मात्रा में अनियन्त्रित रूप से चरने के कारण मिट्टियों को भारी मात्रा में हानि होती है, वानस्पतिक अवशेष की हानि होती है। वायु तथा जल अपरदन बढ़ जाता है। मानव एवं पशुओं की पगडंडियों तथा रास्तों से क्षेत्र में बड़ी-बड़ी नालियां बन जाती है, पशुओं के चरने, चलने-फिरने से प्रारम्भिक वायु प्रवाह से ही हानियाँ होने लगती है और पूरे क्षेत्र पर प्रभाव बढ़ता जाता है।

कृषि क्षेत्र में जुताई से भी अपरदन को बढ़ावा मिलता है, क्योंकि इससे सीधे मिट्टी विस्थापित होती है तथा मिट्टी का जैव पदार्थ भी आॅक्सीकृत होता रहता है। जितनी जुताई अधिक की जाएगी ये क्षमताएँ घटती जाएँगी। जुताई से भूमि में जुताई की एक कड़ी परत बन जाती है, जिससे अन्तःस्पंदन क्षमता घटती है, फिर अपवाह अधिक होता है और अपरदन बढ़ता है। कभी-कभी जुताई के उपकरणों से मिट्टी को ढीला बनाने में मिट्टी वर्षा जल से अधिक प्रभावित हो सकने योग्य बन जाती है, जिससे अपरदन बढ़ता है।

2.5 मृदा अपरदन के प्रभाव
2.5.1 मिट्टी की क्षति

जैसा ऊपर बताया गया है, अपरदन के दौरान मिट्टी अपने स्थान से कट कर पानी के साथ बह कर दूरदराज के स्थानों पर चली जाती है और वहाँ जमा हो जाती है। मिट्टी के सीमान्तरित होने की यह दूरी कुछ से.मी. से लेकर सैकड़ों किमी तक देखी गई है। ऐसा देखा गया है कि असंरक्षित भूमि पर मृदा अपरदन से बहुत अधिक हानि होती है। यहाँ तक कि प्रतिवर्ष प्रति एकड़ 50 टन तक की हानि हो जाती है। यह हानि अधिकतम स्तर तक 120 टन/एकड़ वर्ष तक हो सकती है। प्रकृति को एक इंच ऊपरी मृदा के निर्माण में 400 से लेकर 1000 वर्ष तक लगते हैं और किसी क्षेत्र में एक इंच ऊपरी मृदा का अपरदन से नुकसान होने का मतलब है प्रकृति के हजारों वर्ष में पूरे किए गए कार्य का नुकसान होना।

2.5.2 मृदा गठन का परिवर्तन
वर्षापात के प्रभाव से मृदासमुच्चय जैसे ही फिर जाते हैं, रेत, सिल्ट और मृत्तिका कण जैव पदार्थ के साथ तथा अन्य जोड़ने वाले कारक अपवाह जल के साथ तलछट के रूप में बह जाते हैं। अपवाह के वेग में कमी से ढाल के तल पर तलछट जम जाते हैं। अपवाह जल की मात्रा में कमी से या किसी अन्य कारण से भी तलछट जमा हो जाता है लेकिन अगले तूफान में या तेज वर्षा से वह तलछट तथा साथ में अन्य सामग्री और रेत के कण पीछे छूट जाते हैं। मृदा अपरदन एवं तलछट/ अवसादन के संयोजन से मृदा गठन बिखर जाता है और मृदा के कण अपनी जगह से विस्थापित हो जाते हैं।

इसी प्रकार वायु से होने वाले अपरदन का भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है तथा बारीक कण सिल्ट मृत्तिका जैव पदार्थ आदि विस्थापित हो जाते हैं और मृदा की मूल संरचना खराब हो जाती है।

2.5.3 पोषकों की हानि
अपरदित मृदा सामग्री में अधिकतर ऊपरी मृदा होती है। इसमें उर्वर पदार्थ, पोषक पदार्थ और जैव पदार्थ होते हैं, जो बाढ़ से बहकर अन्यत्र जमा हो जाते हैं। बाढ़कृत मृदा का अपरदन से भूमि में कुछ आवश्यक पोषक पदार्थ बह जाते हैं। भूमि में फास्फोरस की हानि से उर्वरता की तीव्र क्षति होती है। प्रति वर्ग सामान्य रूप से 533 मीट्रिक टन मृदा बह जाती है और इसके साथ लगभग 6 मीट्रिक टन पोषक बह जाते हैं। जो इस समय प्रयुक्त उर्वरकों की कुल मात्रा से भी ज्यादा है।

2.5.4 जलाशयों मे तलछट का जम जाना
प्रायः अपवाह जल के साथ सिल्ट बहकर जलाशयों में जमा हो जाती है। सरिताओं, नदियों या नालों के रास्ते में जो जलाशय मिलते हैं, उनमें इस प्रकार की जल जमा होती रहती है। जलाशय का पानी शांत होता है इसलिये नदी नालों द्वारा लाई गई मिट्टी उसमें बैठ जाती है, निलम्बन में मिलकर जैव पदार्थ, मृत्तिका और पर्याप्त मात्रा में सिल्ट जलाशय के निचले भाग में पहुँच जाते हैं। चूँकि तलछट का अधिकांश भाग सिल्ट का होता है इसलिये पूरे अवशोषण को सिल्ट कहा जाता है। जलाशय कितनी जल्दी तलछट से भर जाते हैं यह बात उस क्षेत्र की मृदा की अपरदनीयता क्षेत्र की मृदा की स्थलाकृति, जलावायु कृषि का स्वरूप आदि पर निर्भर करती है। इसके अलावा जलाशय के आयतन और जलभरण क्षेत्र के आकार के बीच रहने वाले अनुपात का भी प्रभाव पड़ता है।

2.5.5 बाढ़
जब कभी भौगोलिक दृष्टि से असामान्य मात्रा में अपरदन की दर बढ़ जाती है तो अवसादन की मात्रा बढ़ जाती है और नदियों के किनारे तलछट का जमना प्रारम्भ हो जाता है। प्राकृतिक दशाओं में सामान्य रूप से तलछट नदी-नालों, नहरों में जमा होती है, वह बाढ़ के कारण बह जाती है। तीव्र अवसादन की दशाओं में नदियों में तलहटी के अन्दर मोटी रेत और बजरी आदि जमा हो जाती है जो आसानी से निकाली या हटायी नहीं जा सकती है क्योंकि उसमें कुछ न कुछ वनस्पतियाँ उग जाती है, जिससे नदियों की तलहटी भरती जाती है और अपवाह के बहने से नदियाँ उफन कर बाढ़ पैदा करती है। वनों के कटने, वनस्पति के समाप्त हो जाने आदि का प्रभाव हानिकारक पड़ता है और इससे बाढ़ आती है तथा अपरदन बढ़ता है।

2.5.6 फसलों की हानि
जल के अपवाह या तीव्र वायु अपरदन से प्रारम्भिक अवस्था में ही फसलों की हानि प्रायः काफी हो जाती है। अनेक बार तीव्र वर्षा और आंधी चलने से खड़ी फसलें बर्बाद हो जाती है। सम्बन्धित क्षेत्र की मृदा पौधों के उखड़ जाने से खराब होती है। शुष्क और अर्धशुष्क भागों में मिट्टी के विस्थापित हो जाने से बड़ी हानियाँ होती हैं। ऐसे भागों में मिट्टी को पकड़ने वाली घासों, झाड़ियों और पेड़-पौधों को लगाने से लाभ होता है।

2.5.7 अन्य कारक
धूल भरी आंधियाँ बहुत हानिकारक होती है। इससे न केवल मानव और पशुओं के स्वास्थ्य को दीर्घकालीन नुकसान होता है, बिमारियाँ फैलती है, वरन आस-पास के घरों खाद्यान्नों आदि को भी नुकसान होता है। इसके अलावा चारदिवारियों खाइयों व नहरों को भी नुकसान होता है। रेलवे लाइनों, सड़कें, रेत और मिट्टी से कट-फट जाती है। परिवहन के लिये प्रयुक्त मीटरों और ट्रैक्टरों और अन्य वाहनों को भी इससे हानि होती है और क्षेत्र में प्रदूषण फैलता है। जलाशयों में मिट्टी जमा होती है और मछलियाँ मर जाती है।

भारत में मृदा अपरदन से हुई क्षति का कोई सही आकलन इस समय सुलभ नहीं है, फिर भी अनुमानतः यह गणना की जाती है कि मृदा संरक्षण की दृष्टि से 810 लाख एकड़ भौगोलिक क्षेत्र में लगभग 200 लाख एकड़ क्षेत्र मृदा अपरदन से प्रभावित है। भारतीय योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश में 103.6 लाख एकड़ भूमि गली अपरदन से, 10 लाख एकड़ भूमि पृष्ठ अपरदन से, 163.8 लाख एकड़ भूमि वायु अपरदन से, 203 लाख एकड़ भूमि, हिमनद अपरदन से भावित है। इसके अलावा, 410 किलोमीटर की लम्बाई वाला समुद्रतटीय क्षेत्र भी अपरदन से प्रभावित है।

2.6 जल द्वारा अपरदन
वर्षा का जल मृदा कणों को विस्थापित करके, पृष्ठ से कणों को लेकर सामान्य रूप से ढाल की ओर बहता है। जिन क्षेत्रों में भूमि वनस्पतिहीन और असंरक्षित होती है, वहाँ तूफानी वर्षा का अपरदनकारी प्रभाव सबसे अधिक देखने में आता है। मृदा का जल द्वारा होने वाला अपरदन एक जटिल प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया वर्षापात की मात्रा, तीव्रता और अवधि के साथ-साथ सतह पर होने वाले प्रवाह के वेग और मात्रा, सम्बन्धित भू-भाग और ढाल के स्थलाकृति प्रकृति और स्वरूप, मृदा की प्रकृति और भूमि पर संरक्षी आवरण आदि से भी प्रभावित होती है। ये क्रियाएँ पानी के उच्छलन, तीव्र वर्षा, अपवाह जल के वेग आदि के फलस्वरूप सम्पन्न होती है। वर्षा तीव्रता की ऊर्जा का प्रभाव कणों पर ऐसा पड़ता है कि वे अपने स्थान से विस्थापित हो जाते हैं। बहते हुए जल की ऊर्जा सतह के समानान्तर क्रिया करती है, जिससे मृदा कण विस्थापित होकर बह जाते है। यह उल्लेखनीय है कि गिरते हुए वर्षा बूँद और अपवाह जल मिट्टी अलग-अलग प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

यांत्रिक दृष्टि से इन ऊर्जाओं की चर्चा उल्लेखनीय है। हम यह जानते हैं कि यांत्रिक ऊर्जा दो रूपों में व्यक्त होती है गतिक ऊर्जा और विभव ऊर्जा। गतिक ऊर्जा पदार्थ में गति के कारण निहित होती है तथा यह गतिशील द्रव्यमान के उत्पाद और गतिशीलता या संचलन के वेग के आधे के समानुपाती होती है। इसे निम्न समीकरण में दर्शाया गया है-

E = 1/2mv2
इसमें
E = गति ऊर्जा
m = जल की संहति या द्रव्यमान
v = जल की संहति का वेग

विभव ऊर्जा किसी पदार्थ में उसकी स्थिति के कारण निहित होती है तथा इसे निम्न रूप में व्यक्त किया जाता है-

Ep = mgh
इसमें
Ep = जल की संहति की विभव ऊर्जा
m = सम्बन्धित जल की संहति
g = गुरुत्व के कारण तीव्रता
h = संदर्भित स्तर के ऊपर जल संहति की ऊँचाई

अपरदन में सहायक सुलभ विभव ऊर्जा की अंतिम मात्रा का निर्धारण अपरदन के आधार स्तर के ऊपर मृदा संहति की ऊँचाई द्वारा होता है। यह उस निम्नतम ऊँचाई का प्रतिनिधित्व करती है जहाँ तक मृदा प्रवाहित की जा सकती है। सामान्य रूप से यह स्तर सागर का स्तर होता है।

वर्षा के अपरदनकारी प्रभाव अथवा क्षमता की निर्भरता अलग-अलग बूँदों या बूँद प्रति इकाई क्षेत्र के हिसाब से ऊर्जा पर आधारित होती है। गिरती हुई बूँद की गतिक ऊर्जा गिरने या टकराने के बल को निर्धारित करती है, जो प्रभाव के प्रत्येक स्थान पर अवशोषित हो जानी चाहिए, जबकि बूँद की क्षैतिज स्थिति सम्बन्धित मृदा की मात्रा का निर्धारण करती है, जिस पर वह बल पड़ता है। वर्षापात का जो प्रभाव पड़ता है या उससे जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, उससे मृदा के कण बिखर जाते हैं।

अपरदन के प्रकार
जल द्वारा मृदा अपरदन कई प्रकार से हो सकता है, जिनमें निम्न मुख्य उल्लेखनीय हैं- 1. उच्छलन, 2. परत या पृष्ठ अपरदन, 3. सरिताओं द्वारा-अवनलिका अपरदन, रिल अपरदन, गली अपरदन, 4. जल प्रपात, 5. भूस्थलन द्वारा तथा 6. सागर तटीय अपरदन इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।

2.6.1 उच्छलन
वर्षा के तीव्र प्रभाव से मृदा के कण बिखर जाते हैं, ढीले पड़ जाते हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान को वाहित हो जाते हैं। यहाँ पर वर्षा बूँदों के भूमि से टकराने पर बल और प्रभाव उल्लेखनीय है। बूँद के सिरे की ओर दाब प्रमाणता निर्मित हो जाती है जिसके कारण मृदा कण बिखरते हैं। प्रतिक्षण 75 से.मी. की दर से जो बूँदे गिरती है वे अपने भार से लगभग 14 गुना अधिक बल निर्मित करने में सक्षम होती है। गिरती हुई बूँदों से जो हानि होती है। उसकी मात्रा सम्बन्धित गतिक ऊर्जा के समानुपातिक होती है, जो पृष्ठ प्रवाह की क्रियात्मक क्षमता के 1000 से लेकर 100000 गुणा तक अधिक प्रभावी होती है। जब वर्षा की बूँदे अनावृत मृदा को प्रभावित करती है या उससे टकराती है तो इसका प्रभाव विस्फोट की तरह पड़ता है। इसी तरह का प्रभाव भूमि पर फैली जल की पतली चादर पर भी पड़ता है। वर्षा बूँदे जब तीव्रता से पड़ती है तो उच्छलन की प्रक्रिया के माध्यम से भूमि के बारिक कण उछलते हैं ये बारिक कण 62 से.मी. से लेकर क्षैतिज रूप से व 50 से.मी. या इससे अधिक उठ जाते हैं। समतल भूमि पर जब बूँदे ऊर्ध्वाधर रूप में गिरती है तो उच्छलित सामग्री सभी दिशाओं में समान रूप से बिखर जाती है। ऐसे मामलों में भीतर और बाहर की ओर होने वाला उच्छलन परस्पर एक दूसरे को संतुलित करता है लेकिन जब इस प्रकार की तेज वर्षा और इससे होने वाला उच्छलन ढाल वाली भूमि पर होता है तो उच्छलित मृदा कणों का अधिकांश भाग ढाल के नीचे की ओर चला जाता है और सिल्ट युक्त मृदा का गठन आसानी से बिखर जाता है।

उच्छलन की प्रक्रिया पर कई बातों का प्रभाव पड़ता है जो इस प्रकार है, 1. वर्षा बूँदों की संहति और वेग, 2. मृदा के गुण जैसे मृदा के स्थल की आकृति, उबड़-खाबड़पन पृष्ठ का ढाल, जलीय चालकता, नमी की मात्रा, मृदा कण का आकार, सुघट्य तथा सतह का संबद्ध द्रव्यमान आदि।

ऐसी मृदाएँ जिनके मृदा कण परस्पर मजबूती से जुड़े रहते हैं। उनमें अपेक्षाकृत बारीक कण देर से या कठिनाई से अलग होते हैं। इसलिये ऐसे क्षेत्रों में तीव्र वर्षा और उच्छवन के अधिक बल की अपरदन हेतु आवश्यकता होती है। शुष्क क्षेत्रों में मृदा कण बड़े दाने के और स्थूल होते हैं। इसलिये ऐसे भू-भागों में वर्षापात के अधिक तीव्र होने पर ही अपरदन होता है। मृदा के संतृप्त होने पर मृदा में चिपकने वाला बल कम होता है और रिसने की प्रवृत्ति घटती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भूमि पर पानी की पर्याप्त मोटी परत के रहने से (समतल भूमि में) तीव्र वर्षा से मृदा को सुरक्षा मिलती है।

मृदा की हानि, उच्छलन अपरदन से कितनी होती है, यह बात सम्बन्धित भू-भाग के ढाल की मात्रा पर निर्भर करती है।

2.6.2 पृष्ठ या परत अपरदन
जब अपवाह जल किसी भूमि क्षेत्र से, जहाँ सामान्य और चिकना ढाल पाया जाता है एक समान गहराई वाले पानी की परत के रूप में बहता है तो उससे शीट या परत अपरदन होता है। ऐसी दशाओं में सापेक्ष रूप से लगभग एक समान मात्रा में ढाल होता है, मिट्टी के सभी भागों में एक समरूप मात्रा में मृदा की हानि होती है।

परत अपरदन जल से होने वाले मृदा अपरदनों में सबसे अधिक हानिकारक है। अनेक बार यह जानना कठिन होता है कि किसी भू-भाग से किस तरह का मृदा का अपरदन हुआ है, लेकिन जब यह प्रक्रिया बार-बार सम्पन्न होती है तो पता चलता है कि पृष्ठ मृदा का अधिकांश भू-भाग गायब हो गया है और अवमृदा ऊपर आ गई है, जो पादप वृद्धि के लिये अच्छी नहीं होती है। शीट अपरदन से गहरी मृदाओं की अपेक्षा उथली मृदाओं की उत्पादकता अधिक प्रभावित होती है। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ ऊपरी मृदा कट जाती है, काफी हानियाँ देखी गई है।

2.6.3 नाली या नलिका अपरदन
पृष्ठ अपरदन के विपरीत नाली या नलिका अपरदन ऐसे भू-भागों में पाया जाता है जहाँ पानी काफी मात्रा में जमा हो जाता है और अपवाह के रूप में बहकर मृदा को विस्थापित करके एक स्थान से दूसरे स्थान को बहा ले जाता है। नाली या नलिका अपरदन को रिल अपरदन या गली अपरदन और नदी या नाले से होने वाले अपरदन के रूप में जाना जाता है।

2.6.4 रिल अपरदन
रिल अपरदन के अन्तर्गत अपवाह जल के द्वारा मृदा का निष्कासन होता है। रिल अपरदन से मृदा का निष्कासन उथली नालियों के बन जाने से होता है। भूमि में उथली नालियाँ सामान्य जुताई से भर जाती है। अपवाह जल के जमा हो जाने से नलिकाएँ विकसित होती है और उनसे अपरदन होता है। ढाल वाले क्षेत्रों में अपवाह जल सिल्ट के साथ छोटी-छोटी नलिकाओं (अंगुलियों के आकार की) के माध्यम से अपरदन होता है। ऊपर की भूमियों में इस तरह अपरदित मृदा अपवाह जल के साथ छोटी नलिकाओं से बहकर नीचे चली जाती है। भूमि के भीतर भी छोटी-छोटी नलिकाएँ बन जाती है और रिल अपरदन की प्रारम्भिक प्रक्रिया इन्हीं भीतरी छोटी नलिकाओं द्वारा सम्पन्न होती है जिससे मृदा विस्थापित होकर एक स्थान से दूसरे स्थान को चली जाती है। अपवाह जल के सांद्रित प्रभाव के कारण रिल अपरदन पृष्ठ के निकट होता है। वर्षा बूँदों के प्रभाव से इसमें तेजी आ जाती है।

वर्षापात के दौरान तीव्रता से प्रवाह सूक्ष्म नालियों में केन्द्रित हो जाता है जो बाद में बड़ी नालियों से होता हुआ अपरदन करता है। इन छोटी और बड़ी नालियों से अपरदन क्षेत्र में एक नलिका तंत्र बन जाता है और तीव्र वर्षा से मृदा इन नलिकाओं के अपरदनकारी प्रभाव के कारण कटती रहती है। सामान्य रूप से रिल अपरदन के कारण गली अपरदन होता है। सामान्य रिल अपरदन से प्रभावित भूमि को जुताई आदि से बराबर कर सकते हैं। सामान्य तौर पर रिल कटाव कृषि यंत्रों के चलने में बाधा प्रस्तुत नहीं करता है।

2.6.5 गली अपरदन
ढाल वाली भूमियों में वर्षा की तीव्रता और अपवाह जल के अधिक वेग से छोटी-छोटी नालियाँ बड़ी-बड़ी नालियों में परिवर्तित हो जाती है। ऐसे भू-भागों में जहाँ छोटी नालियाँ बहुत गहरी हो जाती है, वहाँ जुताई नहीं की जा सकती। भूमि क्षेत्र में गड्ढ़ों, निचले भू-भागों तथा बैलगाड़ी व पशुओं के चलने से भी गहरे मार्ग बन जाते हैं। जिनका लम्बे समय तक सुधार नहीं करने से बड़ी नालियाँ बन जाती है। कभी-कभी ऐसे भागों में बड़ी खाइयाँ और खड्डे भी बन जाते हैं। इनकी गहराई 16 से 33 मीटर गहरी तक पाई जाती है।

गली अपरदन की दर मुख्यतः अपवाह पर निर्भर करती है। जल अपवाह का स्वरूप और प्रभाव सम्बन्धित जलग्रहण क्षेत्र, मृदा लक्षण, क्षेत्र की बड़ी नालियों का आकार और आकृति तथा बड़ी नालियों आदि पर निर्भर करता है। ऐसे भू-भाग जहाँ ढीली, खुली और अच्छी जल निकासी वाली ढलवा मृदा पाई जाती है, उन क्षेत्रों में जब तीव्र वर्षा का जल जमा हो जाता है तो अपवाह से गली अपरदन का रूप धारणा कर लेता है। दूसरी ओर भारी और संघनित मृदा में प्रायः नलियों से अपरदन कम होता है क्योंकि इस भू-भाग में अपवाह में रुकावटें अधिक पैदा होती है। गली अपरदन क्षेत्रों में कभी-कभी नलियों की गहराई 6 से 12 मीटर तक देखी गई है। गली कटाव सामान्य कृषि यंत्रों के प्रयोग में बाधक होते हैं।

2.7 गली निर्माण के सम्बन्ध में निम्न अवस्थाएँ उल्लेखनीय हैं।

2.7.1 निर्माण अवस्था
इस प्रारम्भिक अवस्था के दौरान ऊपरी या पृष्ठ मृदा में सामान्य ढाल की दिशा में जब अपवाह जल केन्द्रित होता है तो अपरदन की प्रारम्भिक अवस्था उत्पन्न होती है। इस अवस्था में अपरदन सामान्यतः प्रारम्भ में होता है और पृष्ठ मृदा अपरदन का प्रतिरोध करती है।

2.7.2 विकास की अवस्था
इस अवस्था के दौरान प्रारम्भिक अवस्था में बनी नालियाँ जल प्रवाह के कारण अधिक गहरी और चौड़ी हो जाती हैं। नालियाँ ‘सी क्षैतिज’ आकार में कट जाती है और जल प्रवाह के साथ तीव्रता से मूल द्रव्य का भी निष्कासन हो जाता है।

2.7.3 तृतीय अवस्था
इस अवस्था के दौरान अपरदन क्षेत्र में बनी नालियों में वनस्पति और घासें उगना प्रारम्भ कर देती है जिससे नालियाँ मजबूत होती जाती है।

2.7.4 स्थिर अवस्था
इस अवस्था के दौरान अपरदन क्षेत्र में बनी नालियाँ एक स्थायी प्रवणता के स्तर पर पहुँच जाती है। नालियों की दीवारें स्थायी ढाल वाली बन जाती है। इन दीवारों में और नालियों के आस-पास वनस्पति और घासें उग जाती है और पूरे क्षेत्र में वनस्पति का आवरण बन जाता है।

सामान्य रूप से गली का विभाजन भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न है। एक उदाहरण निम्न प्रकार से प्रस्तुत है-

प्रारूप

विवरण

विशेषताएँ

जी 1

बहुत छोटी गली

3 मीटर तक गहरी और तल की चौड़ाई 18 मीटर से कम, ढाल परिवर्तन

जी 2

छोटी गली

3 मीटर तक गहरी और तल की चौड़ाई 18 मीटर से अधिक, पार्श्व समरूप ढंग से 8 प्रतिशत से लेकर 150 प्रतिशत तक ढाल होते हैं

जी 3

मध्यम गली

गहराई 3 से 9 मीटर तक और चौड़ाई 18 मीटर या अधिक, पार्श्व समरूप ढंग से 8 से 15 प्रतिशत तक ढाल होते हैं।

जी 4

गहरी और संकरी गली

(क) 3 से 9 मीटर गहराई तक की चौड़ाई 18 मीटर संकरी गली से कम तथा पार्श्व के ढाल परिवर्तनशील

(ख) इस प्रकार की गली की गहराई 9 मीटर से अधिक होती है, तल की चौड़ाई परिवर्तनशील होती है या भिन्न-भिन्न पाई जाती है। अधिकतर गहरी ढाल वाली यहाँ तक की ऊर्ध्वाधर य खड़ी पाई जाती है।

2.8 सरिता अपरदन :
सरिता अपरदन में सरिता की तलहटी से मृदा सामग्री का कटाव होता है तथा बहने वाले जल के प्रवाह से जोर से सरिता के तटबंध टूट जाते हैं। इसी तरह खेतों में जो बंध या बांध आदि बनाये जाते हैं वे छोटी-छोटी सरिताओं के प्रवाह के बल से टूट जाते हैं। अपवाह जल के प्रवाह की तीव्रता के कारण सरिता के किनारे पर उगी वनस्पतियाँ, निकट के जुते हुये खेत आदि कटकर बह जाते हैं। प्रवाह के वेग और दिशा, सरिता की गहराई और चौड़ाई तथा मृदा गठन आदि कारकों का इस अपरदन से सीधा सम्बन्ध है। नदियां और सरिताएँ प्रायः अपना रूख बदल देती है और निकट के खेतों में सिल्ट तथा रेत आदि जमा कर जाती है। देखा यह गया है कि अचानक आने वाली बाढ़ों से अनुमान से कई गुना अधिक नुकसान होता है।

2.9 जल प्रपात द्वारा अपरदन:
पृष्ठ अपरदन करने वाला अपवाह क्षेत्र ढलवां भूमि में कभी-कभी छेद कर देता है, ऐसे छेद जब बड़े हो जाते हैं तो वहाँ पानी काफी मात्रा में सीधे गिरने लगता है और तब छोटे जल प्रपात और झरने बन जाते हैं। जब अपवाह जल ढलवां भूमि के ऊपर से गुजरता है तो ऊपरी मृदा को तथा आधार मृदा को काटता हुआ नीचे चला जाता है। इस तरह के छोटे-छोटे जल प्रपातों का नियंत्रण किया जाना आवश्यक होता है।

सागर तटीय भागों में अपरदन:
सागर तटीय भू-भागों में ज्वारभाटे से जल प्रवाह विस्तृत भू-भाग में मृदा कटाव करता है। बढ़ी हुई नदियाँ निकट के भू-भागों में सिल्ट और कीचड़ आस-पास जमा कर देती है। जब नदी अपने तटबंधों को तोड़ देती है। उस समय ऐसी दशाओं में तटीय भाग कट जाते हैं और बर्बाद होकर खार आदि में बदल जाते है।

भू-स्थलन या स्लिप अपरदन:
भू-स्खलन या स्लिप अपरदन ढाल के आगे या पीछे खिसक जाने से होता है। यह क्रिया ऐसे भू-भागों में होती है जहाँ प्राकृतिक चट्टानें मृदा भराव की मिट्टी या इन्हीं से मिश्रित पथरीली या रेतीली मिट्टी होती है। भूस्थलन का मुख्य कारण मौजूदा ढाल के आकार के कट जाने से होता है। इसके अलावा मृदा का मंद गति से होने वाला बिखराव तथा प्रवेश परतों में रन्ध्र जल दाब में वृद्धि भी महत्त्वपूर्ण कारण है। पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क के किनारे या नालियों के किनारे स्लिपेज या भू-स्खलन सामान्य रूप से जलीय दाब से होता है।

2.10 सारांश
स्वच्छ जल, शुद्ध वायु तथा पोषक तत्वों से भरपूर मिट्टी उपज हेतु उपलब्ध होना मानव जीवन के लिये परम आवश्यक है। मृदा अपरदन जो जलवायु के द्वारा होता है को रोकना, उसका विस्थापन, परिवहन का उचित प्रबंध आवश्यक है, क्योंकि मृदा अपरदन से मिट्टी की क्षति, पोषक पदार्थ की हानि, जलाशयों का तलछट से जल्दी भर जाना, बाढ़ आना व फसलों की हानि होती है। जल द्वारा अपरदन से गली निर्माण होता है।

2.12 संदर्भ सामग्री
1. जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग के वार्षिक प्रतिवेदन
2. भू-एवं जल संरक्षण - प्रायोगिक मार्गदर्शिका शृंखला श्री एस.सी. महनोत एवं श्री पीके सिंह
3. प्रशिक्षण पुस्तिका - जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी
4. जलग्रहण मार्गदर्शिका - संरक्षण एवं उत्पादन विधियों हेतु दिशा निर्देश - जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी
5. जलग्रहण विकास हेतु तकनीकी मैनुअल-जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी
6. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय जलग्रहण विकास परियोजना के लिये जलग्रहण विकास पर तकनीकी मैनुअल
7. वाटरशेड मैनेजमेंट - श्री वी.वी ध्रुवनारायण, श्री जी. शास्त्री, श्री वी.एस. पटनायक
8. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी जलग्रहण विकास - दिशा निर्देशिका
9. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी जलग्रहण विकास - हरियाली मार्गदर्शिका
10. इन्दिरा गांधी पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास संस्थान द्वारा विकसित संदर्भ सामग्री - जलग्रहण प्रकोष्ठ
11. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी वरसा जन सहभागिता मार्गदर्शिका
12. जलग्रहण का अविरत विकास - श्री आर.सी.एल.मीणा
13. जलग्रहण प्रबंधन - श्री बिरदी चन्द जाट
14. मृदा अपरदन एवं भूमि संरक्षण - डॉ. रमेश प्रसाद त्रिपाठी, डॉ. तुलसी राम राठौड, डॉ. हरिप्रसाद सिंह

जलग्रहण विकास - सिद्धांत एवं रणनीति, अप्रैल 2010

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जलग्रहण विकास-सिद्धांत एवं रणनीति

2

मिट्टी एवं जल संरक्षणः परिभाषा, महत्त्व एवं समस्याएँ उपचार के विकल्प

3

प्राकृतिक संसाधन विकासः वर्तमान स्थिति, बढ़ती जनसंख्या एवं सम्बद्ध समस्याएँ

4

जलग्रहण प्रबंधन हेतु भूमि उपयोग वर्गीकरण

5

जलग्रहण विकासः क्या, क्यों, कैसे, पद्धति एवं परिणाम

6

जलग्रहण विकास में जनभागीदारीःसमूहगत विकास

7

जलग्रहण विकास में संस्थागत व्यवस्थाएँःसमूहों, संस्थाओं का गठन एवं स्थानीय नेतृत्व की पहचान

8

जलग्रहण विकासः दक्षता, वृद्धि, प्रशिक्षण एवं सामुदायिक संगठन

9

जलग्रण प्रबंधनः सतत विकास एवं समग्र विकास, अवधारणा, महत्त्व एवं सिद्धांत

10

पर्यावरणःसामाजिक मुद्दे, समस्याएँ, संघृत विकास

11

राजस्थान में जलग्रहण विकासः चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ

TAGS

definition of soil and water conservation in hindi, soil and water conservation methods in hindi, importance of soil and water conservation in hindi, soil and water conservation pdf in hindi, importance of soil and water conservation in agriculture in hindi, soil and water conservation ppt in hindi, introduction to soil and water conservation pdf in hindi, soil and water conservation measures in hindi, soil erosion in hindi, soil erosion effects in hindi, types of soil erosion in hindi, prevention of soil erosion in hindi, soil erosion solutions in hindi, soil erosion and conservation in hindi, 3 major causes of soil erosion in hindi, soil erosion by water in hindi, effects of soil erosion on the environment in hindi, Soil erosion by water in hindi, soil erosion effects in hindi, 3 major causes of soil erosion in hindi, types of soil erosion in hindi, prevention of soil erosion in hindi, causes of soil erosion wikipedia in hindi, soil erosion by water pdf in hindi, causes of water erosion in hindi, causes of soil erosion pdf in hindi, Soil Displacement in hindi, Soil Transport in hindi, solute transport in soil pdf in hindi, transported soil wikipedia in hindi, soil transportation definition in hindi, transported soil types in hindi, transported soil example in hindi, soil transported by gravity is called in hindi, solute transport in soil ppt in hindi, examples of transported soil in hindi, Soil suspension in hindi, soil suspension meaning in hindi, suspension examples in hindi, suspension solution in hindi, is soil a solution suspension or colloid in hindi, examples of suspensions in everyday life in hindi, properties of suspension in hindi, suspension biology in hindi, Soil erosion by air in hindi, causes of soil erosion pdf in hindi, what is wind erosion in hindi, causes of wind erosion in hindi, water erosion in hindi, causes of water erosion in hindi, types of soil erosion in hindi, wind erosion examples in hindi, Circulation of soil by activation of air in hindi, Transport of Soil Particles in hindi, Factors Affecting Soil Erosion in hindi, factors affecting soil erosion pdf in hindi, factors affecting soil erosion ppt in hindi, five factors of soil erosion in hindi, factors affecting soil erosion wikipedia in hindi, factors affecting water erosion pdf in hindi, explain four factors responsible for soil erosion in hindi, climatic factors affecting soil erosion in hindi, factors that cause soil erosion in hindi, Effects of Soil Erosion in hindi, effects of soil erosion wikipedia in hindi, effects of soil erosion on the environment in hindi, effects of soil erosion on agriculture in hindi, negative effects of soil erosion in hindi, harmful effects of soil erosion in hindi, prevention of soil erosion in hindi, causes of soil erosion wikipedia in hindi, types of soil erosion in hindi, Soil damage in hindi, what causes soil damage in hindi, soil damage definition in hindi, how can soil be damaged in hindi, how can soil be lost in hindi, soil erosion in hindi, soil degradation in hindi, effects of soil erosion in hindi, causes of soil erosion pdf in hindi, Change of soil formation in hindi, how is soil formed short answer in hindi, types of soil formation in hindi, soil formation definition in hindi, process of soil formation in hindi, what is soil formation in hindi, soil forming processes and factors in hindi, how is soil formed class 5 in hindi, how is soil formed class 3 in hindi, Loss of nutrients in hindi, loss of nutrients in soil in hindi, factors responsible for loss of soil nutrients in hindi, how does soil lose its nutrients in hindi, ways in which soil nutrients are lost in hindi, how does soil lose nutrients in hindi, six causes of loss in soil fertility in hindi, causes of decline in soil fertility in hindi, how does soil lose its fertility in hindi, soil losing nutrients in hindi, Fossil accumulation in reservoirs in hindi, Loss of crops, crop loss definition in hindi, crop losses to pests in hindi, effects of pests on crop yield in hindi, crop loss meaning in hindi, types of crop losses in hindi, effects of diseases on crops in hindi, crop loss due to pests in hindi, crop losses due to insect pests in hindi, Effect of Rainfall Irradiation in hindi, Effect of Rainfall erosion in hindi, how does rainfall cause soil erosion in hindi, effect of rainfall on soil erosion in hindi, soil erosion due to rainfall in hindi, rainfall erosion definition in hindi, effect of rainfall on the environment in hindi, good effects of rainfall in hindi, three positive effects of rainfall in hindi, Types of erosion in hindi, types of erosion pdf in hindi, types of erosion control in hindi, types of water erosion in hindi, types of soil erosion ppt in hindi, what are the 4 types of erosion in hindi, causes of erosion in hindi, types of soil erosion class 10 in hindi, what is erosion in hindi, loss of soil in hindi, soil erosion effects in hindi, prevention of soil erosion in hindi, soil erosion solutions in hindi, soil erosion and conservation in hindi, 3 major causes of soil erosion in hindi, effects of soil erosion on the environment in hindi

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading