मीठी नदी का कोप


प्रतिबन्ध का यह मामला पर्यावरण को बचाने का नहीं, अपने अपराधों को छिपाने का है। सत्तासीन लोग जीवन से जुड़ी हरेक चीज पर आधिपत्य जमाना चाहते हैं। सारी सुविधाओं को कुछ लोगों तक सीमित कर देना चाहते हैं। तभी तो अमेरिका दुनिया भर को पर्यावरण का पाठ पढ़ाता है लेकिन जब क्योटो प्रोटोकाल की शर्तों को मानने की बात आती है तो हर बार इनकार कर देता है। अगर पर्यावरण को बचाना है तो इस खेल की पेचीदगियों को समझना होगा।

मुम्बई को शंघाई बनाने का महाराष्ट्र सरकार का दावा तब कमजोर होता दिखने लगा, जब वहाँ लगातार हुई बारिश ने महानगर को तबाह कर दिया। पूरा शहर जलमग्न हो गया और जल निकासी की व्यवस्था पूरी तरह ठप्प पड़ गई। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर किये गए विकास का दम्भ तब टूट गया। जब वहाँ गगनचुम्बी इमारतों में पानी का पहरा आठों पहर लगा रहा। इस प्राकृतिक विपदा का कारण जानने की कोशिश की गई तो पता चला कि यहाँ बहने वाली मीठी नदी सहित उल्हास, वालधुनी, दहिसर और ओशविरा नदियों के तटों का अतिक्रमण कर लिया गया है। यही वजह है कि बारिश के पानी के निकास की कोई गुंजाईश नहीं रह गई है।

मुम्बई नरगपालिका की लापरवाहियों की पोल खुलकर सामने आई तो उसने अतिक्रमण के लिये झुग्गीवासियों को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मीठी नदी के तट का अतिक्रमण झुग्गीवासियों ने किया है, पर मुम्बई हवाई अड्डे के कारण भी मीठी नदी के बेसिन का संकुचन हुआ है। मीठी नदी पर भवन निर्माण कम्पनियों ने बहुमंजिली इमारतें बना दी। इस नदी तट से अतिक्रमण हटाने की बात जब जाँच समिति ने सुझाई तो झुग्गी वालों को उजाड़ने की योजना बनाई गई। ऐसे में सवाल है कि मुम्बई में बाढ़ से हुए अरबों रुपए के नुकसान के लिये क्या सिर्फ झुग्गीवासी जिम्मेदार हैं?

झुग्गीवासियों पर आरोप लगता है कि वे प्रदूषण फैलाते हैं, पर सच्चाई यह है कि रिहायशी इलाकों में बसी झुग्गियों से अधिक कचरा फैलाने के लिये जिम्मेदार बहुमंजिली इमारतों, रासायनिक उद्योगों और दूसरे कल-कारखानों में समुचित कचरा प्रबन्धन का न होना है। आज भी रिहाइशी इलाकों की साफ-सफाई, कूड़ा-करकट और घरेलू कचरा उठाने की जिम्मेदारी नगर निगम पर है, मगर साधनों की कमी की वजह से वह इस जिम्मेदारी का सही तरीके से निर्वाह नहीं कर पाती है। नतीजतन, सूखा कचरा सड़कों और गलियों में बिखरा रहता है और बरसात में बहकर खुली नालियों और सीवरों में जमा हो जाता है।

कल-कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ और व्यवहार में लाये जा रहे पानी के निकास का कभी भी सही ढंग से प्रबन्धन नहीं होता है। सरकार कभी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ और दूषित जल-मल प्रदूषण में इजाफा कर रहा है।

मीठी नदी जहाँ सागर में मिलती है, वहाँ कभी मैंग्रोव का घना जंगल हुआ करता था। महाराष्ट्र सरकार ने इस जंगल को उजाड़कर और मीठी नदी में मिट्टी भरकर बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स बनवाया। हवाई पट्टी का एक कोना भी इस अतिक्रमण का हिस्सा है। हजारों एकड़ जमीन नदी के बेसिन और जंगल से छीनकर राज्य सरकार की दो कम्पनियों - सिडको और महाडा - को दे दी गई। आज वहाँ देशी और विदेशी बड़ी कम्पनियों के बहुत सारे दफ्तर हैं। चमड़ा शोधन और रासायनिक उद्योग भी अपना कचरा मीठी नदी में प्रवाहित करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि इन कचरा फैलाने वालों में कोई छोटा उद्योग नहीं है। महाराष्ट्र के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता विलास सोनवणे का कहना है कि झुग्गीवासी यहाँ इमारतों के निर्माण कार्य के लिये आये थे। निर्माण का कार्य पूरा हो गया है। अब यहाँ ये श्रम करके अपना पेट पालते हैं तो पर्यावरण का बहाना करके इन्हें उजाड़ने की बात होने लगी है।

नदियों का हाल हर जगह बुरा है। आगरा, मथुरा, कानपुर में भी चमड़ा उद्योग और दूसरे कल-कारखानों से निकलने वाला कचरा ही इसके लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। तमिलनाडु के आंबूर और रानीपेट शहरों में चमड़ा शोधन के करीब 250 सौ कारखाने हैं। ये उद्योग अपनी सारी गन्दगी बगैर शोधित किये बहाए चले जा रहे हैं। इस कारण पैदावार काफी घट गई है। पीने लायक पानी नहीं बचा है। साँस और त्वचा सम्बन्धी रोगों की शिकायतें बढ़ती जा रही है।

मुनाफे की होड़ में सरकार और उद्योगपति अपनी जिम्मेदारी की अनदेखी करते हैं। सरकार गरीब मछुआरों के जाल डालने पर प्रतिबन्ध लगाती है। उसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि मछलियों के मारे जाने से पारिस्थितिकीय सन्तुलन बिगड़ जाएगा जबकि गरीब मछुआरों का मछली और जाल के साथ पारम्परिक और सांस्कृतिक रिश्ता होता है। दूसरी ओर उद्योगपति बड़े ट्रालरों से मछली मारते हैं। उनके जाल में छोटी-बड़ी सारी मछलियाँ फँस जाती हैं। उनकी जरूरत से अतिरिक्त जो मछलियाँ होती हैं, उन्हें तट पर मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। ये बरसात में भी मछलियाँ मारने का काम करते हैं, पर कभी यह सुनने में नहीं आता कि बड़े ट्रालरों से मछली मारने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।

प्रतिबन्ध का यह मामला पर्यावरण को बचाने का नहीं, अपने अपराधों को छिपाने का है। सत्तासीन लोग जीवन से जुड़ी हरेक चीज पर आधिपत्य जमाना चाहते हैं। सारी सुविधाओं को कुछ लोगों तक सीमित कर देना चाहते हैं। तभी तो अमेरिका दुनिया भर को पर्यावरण का पाठ पढ़ाता है लेकिन जब क्योटो प्रोटोकाल की शर्तों को मानने की बात आती है तो हर बार इनकार कर देता है। अगर पर्यावरण को बचाना है तो इस खेल की पेचीदगियों को समझना होगा।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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