मजदूरों की मजबूत लाठी


भारत समृद्ध हो इसे कौन नहीं चाहेगा-लेकिन कैसे? गरीबी हटाओ का नारा इन्दिरा गाँधी ने दिया, 21वीं सदी का नारा राजीव गाँधी ने दिया। इस दिशा में काम भी किया। आजादी से पूर्व महात्मा गाँधी ने संयम, अवज्ञा, अहिंसा, स्वावलम्बन और स्वदेशी का नारा दिया और शोषणकारी दमनात्मक सत्ता को उखाड़ फेंका था। नेहरू और पटेल सरीखे नेताओं ने भी भारत को समृद्ध किया, तीन करोड़ विस्थापित लोगों का पुर्नवास किया। गाँधी जब प्रकृति संरक्षण या शरीर श्रम की बात करते थे तो उसे सतत समृद्ध करते थे।

यूपीए एक की सरकार ने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम बनाकर देश के ग्रामीण मजदूरों के लिये कुछ शर्त के साथ रोजगार की गारंटी दी। बाद में कुछ खामियों को दुरुस्त करने और राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सुझाव, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहले तो ठुकरा दिया था, परन्तु बाद में सोनिया गाँधी एवं राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के कहने, पर मनरेगा में सेक्शन 6 (2) लग गई वरना मनरेगा की मजदूरी 60 रुपए ही होती।

मनरेगा पूरे देश में कहीं नहीं चलता, लेकिन 6 (1) कहती है कि केन्द्र सरकार मनरेगा की मजदूरी तय कर सकती है। यह किसी भी क्षेत्र के लिये कुछ भी हो सकती है; परन्तु 60 रुपए से कम नहीं होनी चाहिए। इस बीच, कर्नाटक हाईकोर्ट के एक फैसले को स्टे देने से मना कर दिया। सरकार ने केवल कर्नाटक में न्यूनतम मजदूरी दी। एक और अन्य जगह पर 47 दिनों के लम्बे आन्दोलन के बाद वहाँ भी मनरेगा की मजदूरी को महंगाई से जोड़ दिया गया।

बहरहाल, सरकार के तमाम दावों के बावजूद असंगठित क्षेत्र में 100 दिन के रोजगार सृजन की गारंटी योजना के बदले मात्र 48 दिनों तक ही कार्य मिल पा रहा है। तमाम ऐसी शर्तें सरकार की हैं जिनमें मजदूर लगातार 90 दिन कार्य करे तो उसका लाभ उसे मिलेगा वरना नहीं।

योजनाओं का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पा रहा। सामाजिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, दुर्घटना बीमा योजना, मातृत्व लाभ, औजार-कारीगर लाभ, ग्रामीण स्वास्थ्य लाभ, ईपीएफ लाभ सिर्फ कागजों की शोभा बढ़ा रहे हैं। या फिर भ्रष्टाचारियों की चपेट में हैं। मनरेगा के करोड़ों रुपयों के वेल्फेयर फंड का सही उपयोग नहीं हो पा रहा।

खेतिहर मजदूर जिस किसान जमात के बीच में अपनी मजदूरी प्राप्त करता है, वहाँ का ताना-बाना उपेक्षा के कारण चरमरा गया है। ग्रामीण क्षेत्र की स्वायत्ता व आत्मनिर्भरता अधिक कमजोर हुई है। शहरों से मनीऑर्डर गाँवों में आना बन्द हो गया है। शहरी समृद्धि, शहरी सभ्यता, शहरी उपभोक्तावाद और बाजारवाद ग्रामीण श्रमिकों का शोषण कर रहे हैं।

यूपीए दो ने किया निराश


एनडीए सरकार भाग एक में शाइनिंग इण्डिया का नारा दिया था। यूपीए भाग एक का कार्यकाल जितना प्रगतिशील रहा उतना ही दूसरा कार्यकाल निराशाजनक। कारण, वामपंथ पहले साथ था, तो सरकार ने जनोन्मुखी नीति से चली, दूसरे कार्यकाल में अलग होने के कारण उसका फल निराशाजनक रहा तो देश में भ्रष्टाचार कुशासन, घोटालों का पहाड़ खड़ा हो गया।

महंगाई और भ्रष्टाचार से तंग जनता नए बाजीगरों के झाँसे में आ गई। 60 वर्षों के शासन काल को 5 वर्षों में स्वर्णिम युग में बदल डालने की अति महत्त्वपूर्ण व्याख्या की गई। सबका साथ, सबका विकास, दूरदर्शी सुशासन, पारदर्शी, कालाधन विदेश से लौटा लाने जैसे नारों के बाद अब 15 साल की ओर बढ़ने का नारा दिया जा रहा है। मेक इन इण्डिया, स्किल्ड इण्डिया, स्वच्छ भारत, डिजिटल इण्डिया आदि न जाने कितने नए नारे लगने लगे हैं।

भारत समृद्ध हो इसे कौन नहीं चाहेगा-लेकिन कैसे? गरीबी हटाओ का नारा इन्दिरा गाँधी ने दिया, 21वीं सदी का नारा राजीव गाँधी ने दिया। इस दिशा में काम भी किया। आजादी से पूर्व महात्मा गाँधी ने संयम, अवज्ञा, अहिंसा, स्वावलम्बन और स्वदेशी का नारा दिया और शोषणकारी दमनात्मक सत्ता को उखाड़ फेंका था। नेहरू और पटेल सरीखे नेताओं ने भी भारत को समृद्ध किया, तीन करोड़ विस्थापित लोगों का पुर्नवास किया।

गाँधी जब प्रकृति संरक्षण या शरीर श्रम की बात करते थे तो उसे सतत समृद्ध करते थे। उनके ‘मनसा वाचा कर्मणा’ में एक दर्शन था। सबसे गरीब के आँसू पोंछने का संकल्प था। आज तमाम नियोजित विकास के बावजूद भारत में 36 करोड़ लोग निरक्षर हैं और 10 प्रतिशत परिवारों में एक भी साक्षर नहीं है। आईटीई अधिनियम का भी देश में केवल 8 प्रतिशत स्कूलों में उपयोग हो रहा है।

सरकार इसके लिये क्यों नहीं डिजिटल इण्डिया की ही तरह ‘डिजिटल लिटरेसी’ लाती। क्यों नहीं सोचती कि एक वक्त का खाना 40 करोड़ परिवार खाये बगैर भूखे सो जाते हैं। क्यों नहीं सोचती कि न्यूनतम जीवन जीने लायक चीजों से देश के 53 करोड़ परिवार महरूम होकर दरबदर बन्धुआ जिन्दगी जीने को मजबूर हैं।

मनरेगा की गारंटीशुदा मजदूरी ने असंगठित क्षेत्र के खेतिहर मजदूरों को ताकत दी है। स्त्री-पुरुष मजदूरों को एकसमान काम का अवसर दिया है, खासकर दलितों, आदिवासियों और अति सीमान्त किसानों, पिछड़े वर्ग के मजदूरों को दो वक्त की रोटी का प्रबन्ध किया है। लेकिन लचर व्यवस्था व भ्रष्टाचारियों के कारण नित नए घोटाले हो रहे हैं, कोई देखने वाला नहीं है।

आँकड़े नहीं सरकारों के पास


विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन से कुल कितनी जमीन मिली, कितनी अभी पट्टों में लटकी हैं। यह आँकड़ा किसी भी सरकार ने पास नहीं है। 20 सूत्री कार्यक्रमों के अन्तर्गत भी मनरेगा की ही तरह ग्रामीण मजदूरों को और भूमिहीनों को गाँव में आवास व रोजगार की गारंटी दी गई थी। आज डिजिटल इण्डिया के सौदागरों को इनकी कोई फिक्र नजर नहीं आती है।

आज भी देश के विभिन्न मठों, मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, जमींदारों के पास तमाम जमीनें हैं। लेकिन किसी भी सरकार की इच्छाशक्ति नहीं है कि वे जरूरतमन्द कमाऊ पूत माने जाने वाले श्रमिकों में बाँटकर उस पर उत्पादन कराए। जबकि उत्तर प्रदेश में 60 प्रतिशत दलित आबादी भूमिहीन है और 40 प्रतिशत के पास घर बनाने के लिये जमीन भी नहीं है। हाशिए पर खड़े देश भर के इस समाज को मनरेगा ने एक उम्मीद और ताकत दी है, वह यदि ढंग से लागू हो जाये तो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को रोजगार के और अवसर मिल जाएँगे।

देश में है पचास प्रतिशत मजदूरी


कृषि देश का सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता क्षेत्र है, जहाँ आज भी देश की 50 प्रतिशत श्रमशक्ति लगी हुई है। भले ही इसकी हालत दयनीय है। सरकार का 4 प्रतिशत से ज्यादा का निवेश इस क्षेत्र में नहीं हो रहा है। बजट का 2 प्रतिशत से कम ही होता है। ग्रामीण विकास की तमाम योजनाएँ भयंकर कटौती के दौर से गुजर रही हैं। समूचा ग्रामीण भारत बड़े उद्योगों के लिये विस्थापन की पीड़ा झेल रहा है जबकि 80 प्रतिशत उद्योगों में निवेश के बावजूद भी वहाँ मात्र 6 प्रतिशत रोजगार मिल रहा है।

डिजिटल इण्डिया कारपोरेट्स के मुनाफे की विस्तार योजना का नाम है। भारत के प्राथमिकताओं और यहाँ के आम नागरिकों के हितों की उपेक्षा है। कृषि विस्तार, असंगठित क्षेत्र में गरीबी-उन्मूलन, आधारभूत संरचना विस्तार जैसे कोई मुद्दे अहमियत नहीं रखते हैं। ‘‘भारत को ज्ञान-विज्ञान के नए सौहार्द्र के विचारों से लैस होकर ही बढ़ना होगा तभी मनरेगा जैसे कार्यक्रमों में भागीदारी की और गुंजाइशें पैदा होंगी जो देश को सशक्त करेगा।

भारत में सनातनी सत्य पर आधारित एक लोकतंत्री ढाँचा है, जो अन्दर से मजबूत है, वह किसी भी तरह के पाखण्ड को, दोगलेपन को और मुनाफाखोरी की नीतियों के सामने कभी भी घुटने नहीं टेकेगा, वह सर्व गुणोत्तर भारत की ओर बढ़ेगा संविधान पथ प्रदर्शक है।” आज जरूरत है गैरजरूरी मुद्दों से निगाहें हटाकर अन्तिम व्यक्ति के आँसू पोछने पर टिकाया जाये।

संसद की सीढ़ियों पर माथा टेकने से जरूरी है। कोटि-कोटि भारतीयों के हाथ-पाँव मजबूत किये जाएँ। मनरेगा एक औजार है, ग्रामीण भारत को सबल भारत बनाने का। भटको मत जनादेश का सम्मान करो, सबका विकास करो खासकर कमजोर वर्ग पर ध्यान दो यही आज का राष्ट्रधर्म है।

लेखक गाँधीवादी कार्यकर्ता हैं।

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