मल प्रबंधन में जुटी जीवाणुओं की फौज


बायोडाइजेस्टर टॉयलेट (फोटो साभार - फोटो साभार - wockhardtfoundation)सियाचिन, लद्दाख से आगे काराकोरम पर्वत श्रृंखला; और उसमें मौजूद 75 कि.मी. लम्बी 2-8 कि.मी. चौड़ा बर्फीला क्षेत्र। लगभग 10,000 वर्ग कि.मी. का यह एक ‘शीत मरुस्थल’ है। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ, प्राणिजात का कोई नामों निशान नहीं। चारों तरफ फैली हुई हजारों फीट बर्फ की मोटी परत। तापमान -40 डिग्री सेन्टीग्रेट से भी नीचे। भारत-तिब्बत सीमा के करीब जम्मू-कश्मीर के उत्तर में स्थित यह निर्जन, वीरान और ठण्डा हिमनद अचानक गर्म होने लगा। 1984 में पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन अबादील’ शुरू किया और पूरे सियाचीन इलाके पर कब्जा करने की कोशिश की। जवाब में भारत को ‘ऑपरेशन मेघदूत’ शुरू करना पड़ा। पाकिस्तानी विश्वासघात की कहानी का परिणाम है कि आज इस पूरे इलाके में भारत की 29 चौकियाँ हैं और दस हजार से ज्यादा भारतीय जवान बर्फीले तूफान में भी डटे हुए हैं।

पर गौरव गाथा का ‘मानव-मल प्रबन्धन में जुटी जीवाणुओं की फौज’ से आखिर क्या लेना देना है। दस हजार से ज्यादा जवानों की फौज को नियमित रसद की व्यवस्था करने में तो सरकार सक्षम रही। पर उनके मल का क्या किया जाए, यह सवाल गम्भीर होता गया। -40 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान यानी बर्फ में तो मल भी जम जाता है। मल का कम्पोस्ट भी नहीं हो सकता था क्योंकि इतनी बर्फ में ऐसा कोई बैक्टीरिया जिन्दा ही नहीं बच पाता था जो मल को कम्पोस्ट कर सके। चूँकि इस पूरे इलाके में जल ठोस अवस्था में ही है, ऐसे में पीने के पानी के लिये भी पिघली हुई बर्फ पर ही निर्भर रहना पड़ता है। तो ऐसे में मानव-मल को बर्फ बनने के लिये छोड़ देना कोई अक्लमंदी नहीं थी।

जवानों की संख्या बढ़ने से समस्या बढ़ती गई। ऐसे में समस्या के समाधान के लिये कई संगठनों की मदद ली गई। कई तकनीकों से निपटान की कोशिशें की गईं जैसे- रसायनों से कम्पोस्ट करने की कोशिश की गई, लेकिन इस पद्धति की समस्या ये थी कि वह रसायन भी बर्फ में मिल जाने का खतरा बढ़ने लगा। किसी ने मल को जला देने की तरकीब सुझाई, पर इसके लिये खूब केरोसिन की जरूरत पड़ती थी और केरोसिन का ट्रांसपोर्ट ही एक नई समस्या बन गई, यह तरकीब भी बहुत काम न आई। अब यह समस्या ‘रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ)’ के पास आई। वह साल 1989 का था। डीआरडीओ की ग्वालियर यूनिट को यह काम सौंपा गया क्योंकि यह यूनिट ‘जैविक युद्ध तकनीकी और प्रणालियों’ पर काम करती है। लेकिन मानव मल पर माइक्रोबाइलॉजिस्ट और वैज्ञानिकों का काम करना इतना सरल न था। मल पर काम करते समय पूरे लैब में बदबू फैल जाती थी और यह किसी भी वैज्ञानिक के लिये बहुत प्रतिष्ठा की बात भी नहीं थी। अपने कैरियर में वह मल के कम्पोस्टिंग पर काम किया है, वह कहलवाना भी पसन्द नहीं करना चाहते थे। साथ ही ग्वालियर के वातावरण में खोजे गये बैक्टीरिया सियाचिन जैसे ठण्डे वातावरण में कैसे प्रतिक्रिया करेंगे, इसकी निश्चितता भी नहीं थी। लेकिन दूसरी ओर सवाल यह भी था कि मल जैसी चीज पर कोई काम करने के लिये तैयार नहीं था तो ऐसे में माइक्रोबायोलॉजिस्ट लोकेंद्र सिंह ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने अपने वरिष्ठ वैज्ञानिकों को मना लिया। हालाँकि वे भी तब मानते थे कि इसमें सिर्फ पाँच प्रतिशत ही सफलता की सम्भावना है और वे अनमने से पाँच प्रतिशत के इस रास्ते पर रोशनी की एक किरण खोजने निकल पड़े।

डीआरडीओ में जैव विज्ञान के निदेशक लोकेंद्र सिंह कहते हैं कि हम लोग सूक्ष्मजैविकी से जुड़े हुये थे, इसलिये हमने इस समस्या को जीवाणुओं की कम्पोस्ट क्षमता से जोड़कर देखना शुरू किया। जीवाणुओं की कम्पोस्ट क्षमता को हम जानते थे। कम्पोस्ट क्षमता का मतलब था कि जीवाणुओं की ऐसी फौज जो मल को कम्पोस्ट कर दे यानी हमें चाहिए था बायोडाइजेस्टर (जैव शौचालय)। खोज शुरू हुई। बहुत से परीक्षण हुये आखिरकार 5 साल बाद 1994 में डीआरडीओ ने लद्दाख में बायोडाइजेस्टर तकनीक का पहला टॉयलेट लगाया। तब से डीआरडीओ लगातार इस तकनीक के संवर्धन पर लगा हुआ है। अभी तक बायोडाइजेस्टर ऊँचाई वाले क्षेत्रों जैसे लेह, द्रास, कश्मीर, सिक्किम, तवांग आदि में छावनियों में लगाये गये हैं। शुरू में तो यह केवल सैन्य क्षेत्रों में लगाया गया। पर नगरीय इलाकों की भी ये शोभा बन रहे हैं। मैदानी भागों में दिल्ली, ग्वालियर, तेजपुर और लक्षद्वीप के कुछ शहरों और रेलों में बायोडाइजेस्टर लगाये गये हैं। फिलहाल नौ रेलों में लगभग पाँच सौ बायोडाइजेस्टर लगाये गये हैं। लक्षद्वीप में 12,000 और लेह में 932 लगाने की प्रक्रिया में है। सभी बायोडाइजेस्टर बेहतर तरीके से काम कर रहे हैं और लोग इससे संतुष्ट हैं।

जीवाणुओं की मल की कम्पोस्ट करने वाली फौज हमेशा मौजूद रही है। पर उन जीवाणुओं को चिन्हित करना बड़ा काम था कि कौन से वे जीवाणु हैं जो भारत के हर वातावरण में सहजता से काम कर सकें। साथ ही यह भी जरूरी था कि मल को कम्पोस्ट करने वाले जीवाणुओं का संवर्धन भारी मात्रा में कैसे किया जाय। 18-20 साल बाद अब एक विकसित बायोडाइजेस्टर टॉयलेट डीआरडीओ की शान बन चुका है। बायोडाइजेस्टर टॉयलेट ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के लगभग हर भाषण का अंग बन चुका है।

बायोडाइजेस्टर टैंक एक ऐसा उपकरण है जो ऑक्सीजन रहित परिस्थितियों में मानव-मल को परिष्कृत करता है। इसे शौचालय या बहुत सारे शौचालयों के साथ जोड़ा जाता है। शौचालय को बायोडाइजेस्टर टैंक के ऊपर भी बनाया जा सकता है अलग से भी बना सकते हैं। बायोडाइजेस्टर टैंक में एक इनलेट होता है जिससे मल टैंक में आता है। फिर जीवाणुओं के घर रूपी शीट होती है। उसके बाद आउटलेट पाइप और एक गैस का पाइप होता है। जीवाणुओं के घर रूपी शीट ऐसी बनी होती है कि जो विभिन्न तापमानों पर और विभिन्न विषैले रसायनों की उपस्थिति में भी मानव-मल को जैविक प्रक्रिया द्वारा खत्म कर सकती है। जैसे ही मल इन बैक्टीरिया के सम्पर्क में आता है। वह विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरते हुये मीथेन और पानी में बदल जाता है। मल को मीथेन और पानी बदलने के दौरान चार प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है- हाइड्रोलीसिस, ऐसिडोजैनिसिस, ऐसिटोजैनिसिस और मीथैनोजैनिसिस। दूसरा वह टैंक जिसमें बैक्टीरिया की मदद से किण्वन की प्रक्रिया होती है, उसे बायोडाइजेस्टर कहते हैं।

बायोडाइजेस्टर टॉयलेटबायोडाइजेस्टर टॉयलेट (फोटो साभार - फोटो साभार - wockhardtfoundation) बायोडाइजेस्टर टैंक चोकोर या गोल हो सकता है। इसे अलग-अलग सामग्री जैसे – प्लास्टिक, कंक्रीट, स्टील, एफआरपी आदि से बनाया जा सकता है। इसी में ऑक्सीजन रहित (ऐनारॉबिक) परिस्थितियों में मानव-मल का किण्वन होता है। जैसे-जैसे शौचालय का इस्तेमाल किया जाता है मल खाने वाले ये जीवाणु संख्या में बढ़ते रहते हैं। पानी के साथ जितने बैक्टीरिया बाहर निकलते रहते हैं। उतने ही बैक्टीरिया टैंक में फिर से पनप जाते हैं।

मानव-मल के निपटारे के लिये कई प्रक्रियायें मौजूद हैं। खुले में शौच से लेकर सैप्टिक टैंक तथा पिट टॉयलेट तक। लेकिन वे ऑक्सीजन आधारित हैं। जिसमें बहुत सारी ऊर्जा लगती है। क्योंकि उस प्रक्रिया में दबाव के साथ ऑक्सीजन छोड़े जाना बहुत जरूरी होता है। लेकिन ठीक इसके विपरीत बायोडाइजेस्टर तकनीक में किसी बाहरी ऊर्जा की जरूरत नहीं होती उल्टे यह बायोगैस या मीथेन के रूप में खुद ही ऊर्जा का निर्माण करता है। ऐरोबिक प्रक्रिया में बहुत सारा अपशिष्ट बनता है और महीनों तक शौचालयों को बिना साफ किये छोड़ा नहीं जा सकता। जबकि बायोडाइजेस्टर; अपशिष्ट जल, डीओडी, सीओडी दुर्गंध रंग आदि की दृष्टि से कहीं अधिक बेहतर होता है। इसमें पैथोजीन की मात्रा भी कम होती है। दूसरा प्रचलित सिस्टम सैप्टिक टैंक है। यह भी आंशिक रूप से एनारॉबिक व्यवस्था ही है। इसका टैंक आकार में बड़ा होता है। बनाने के लिये बहुत सारी जगह की जरूरत होती है। यह न सिर्फ महँगा पड़ता है बल्कि समय-समय पर सफाई भी करवानी पड़ती है। इसके अलावा इसका अपशिष्ट भी बायोडाइजेस्टर के मुकाबले उतना अधिक गुणवत्ता वाला नहीं होता।

बायोडाइजेस्टर ऐसे ग्रामीण इलाकों के लिये एक बेहतर विकल्प है। जहाँ बिजली, पानी की समस्या है। क्योंकि इस तकनीक में किसी ऊर्जा या बिजली की जरूरत नहीं है। यह तकनीक ‘लगाओ और भूल जाओ’ के सिद्धान्त पर काम करती है। पानी की जरूरत भी इसमें बहुत कम पड़ती है। केवल धोने या शौचालय की सफाई आदि के लिये ही पानी की जरूरत होती है। मुख्य टैंक में वॉटर सील भी लगी होती है। जो फ्लश लैट्रीन की दुर्गंध रहित व्यवस्था का मजा भी देती है। इतना ही नहीं पानी की कमी वाले इलाकों में बायोडाइजेस्टर से निकलने वाले अपशिष्ट जल से ही शौचालय की सफाई की जा सकती है। मल के पोषक तत्त्व बचे रहते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा बायोडाइजेस्टर को अतिरिक्त पानी की जरूरत नहीं होती बल्कि यह पानी बचाता है।

बायोडाइजेस्टर मानव-मल में मौजूद बीमारी फैलाने वाले विषाणुओं को भी 99 प्रतिशत तक मार देता है। इसलिये जल से पैदा होने वाली बीमारियाँ भी 100 फीसदी कम हो जाती हैं। जाँच के बाद यह पाया गया है कि बायोडाइजेस्टर से निकलने वाला अपशिष्ट जल संक्रमणहीन और विषरहित होता है।
 

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