मोकामा टाल के लिये ‘गाज’ बनी गंगा की गाद

त्रिमुहान, यहीं से हरोहर नदी शुरू होती है
त्रिमुहान, यहीं से हरोहर नदी शुरू होती है

21 अप्रैल 1975 को 150 करोड़ रुपए से अधिक की लागत से फरक्का बैराज बनकर तैयार हुआ था। उस वक्त माना जा रहा था कि यह विकास की नई इबारत लिखेगा।

चार दशक गुजर जाने के बाद अगर यह सवाल पूछा जाये कि क्या इससे लोगों को फायदा हो रहा है, तो इसका जवाब नहीं में ही मिलेगा। छोड़ दीजिए इस सवाल को, अगर यही पूछ लिया जाये कि जिन उम्मीदों को पूरा करने के लिये फरक्का बैराज बना था, उन पर क्या यह खरा उतर रहा है, तो इसका जवाब भी ना ही होगा।

दरअसल, फरक्का बैराज का निर्माण इसलिये किया गया था कि इससे होकर गंगा से प्रति सेकेंड 40 हजार क्यूबिक फीट पानी हुगली नदी में आएगा। इसके पीछे इंजीनियरों की सोच थी कि प्रति सेकेंड 40 हजार क्यूबिक फीट पानी आने से हुगली नदी से गाद स्वतः निकल जाएगा और कोलकाता पोर्ट की ड्रेजिंग नहीं करनी पड़ेगी।

फरक्का बैराज बनाने का सुझाव बैराज बनने से करीब 100 वर्ष पहले ब्रिटिश हुकूमत में सिंचाई इंजीनियर रहे ऑर्थर कॉटन ने दिया था, लेकिन उस वक्त इस पर काम नहीं हुआ। सन 47 में देश की आजादी के बाद पश्चिम बंगाल की उस वक्त की सरकार ने कॉटन के सुझाव को गम्भीरता से लिया और बैराज को लेकर योजना तैयार की जाने लगी। 1975 में देखते-ही-देखते 2240 मीटर लम्बे व 109 गेट वाले इस विशालकाय बैराज की तामीर कर दी गई। उस वक्त किसी ने बैराज से होने वाले फायदे के बरक्स क्या-क्या नुकसान हो सकता है, इस पर विचार नहीं किया, सिवाय एक व्यक्ति के। वह व्यक्ति थे कपिल भट्टाचार्य।

मोकामा टाल में लगी फसलभट्टाचार्य 60 के दशक में पश्चिम बंगाल सरकार में सिंचाई निदेशालय के इंजीनियर के पद पर थे। वह बैराज बनाने के खिलाफ थे। उनका मानना था कि बैराज बनने से गाद जमेगा क्योंकि गर्मी के मौसम में बहुत कम पानी रहेगा। उनका कहना था कि पानी इतना कम हो जाएगा कि वह हुगली से गाद हटाने की जगह उसमें और गाद डालेगा। उन्होंने बैराज से बिहार में बाढ़ की विभीषिका बढ़ने की आशंका भी जाहिर की थी। उस वक्त उनकी बातों को अनसुना कर दिया गया था, लेकिन आज उनकी आशंका सच साबित हो रही है।

हुगली नदी से गाद हटाने के लिये बना यह बैराज गंगा में गाद जमाने लगा है, जिससे बिहार और पश्चिम बंगाल में कमोबेश हर साल बाढ़ का कहर बरपता है।

गंगा बिहार की एक बड़ी आबादी के लिये जीवनरेखा का काम करती है, गाद के कारण इस आबादी का जनजीवन प्रभावित हो रहा है। ऐसी ही एक आबादी मोकामा टाल क्षेत्र में रहती है। मोकामा टाल क्षेत्र 106200 हेक्टेयर में पसरा हुआ है।

अक्टूबर से फरवरी के दरम्यान मोकामा टाल बाईपास की सड़क से आप गुजरेंगे, तो इसकी दोनों तरफ आपकी नजर जहाँ तक जाएगी, खेतों में हरियाली की चादर ही नजर आएगी। इस हरियाली के बीच-बीच में मटर व सरसों के फूल देख लगता है कि चादर पर नक्काशी की गई हो।

यह देखकर बजाहिर लगता है कि यहाँ सबकुछ ठीकठाक होगा, लेकिन ऐसा नहीं है।

‘दाल का कटोरा’ नाम से मशहूर मोकामा टाल क्षेत्र में गंगा में गाद के कारण खेती पर बुरा असर पड़ रहा है। मोकामा टाल क्षेत्र में बख्तियारपुर टाल (16800 हेक्टेयर), बाढ़ टाल (13200 हेक्टेयर), फतुहा टाल (5200 हेक्टेयर), मोकामा टाल (20000 हेक्टेयर), मोर टाल (21500 हेक्टेयर), बड़हिया टाल (17100 हेक्टेयर) और सिंघौल टाल (12400 हेक्टेयर) क्षेत्र आते हैं। मोकामा टाल क्षेत्र करीब 110 किलोमीटर लम्बाई और 6 से 15 किलोमीटर की चौड़ाई में फैला हुआ है।

मोकामा से होकर गुजरती गंगा नदीइस भूखंड में केवाल (काली) मिट्टी पाई जाती है, जो दाल की पैदावार के लिये सबसे उपयुक्त है। इसलिये यहाँ भारी मात्रा में दाल खासकर मसूर का उत्पादन होता है। मसूर के अलावा किसान चना, मटर, राई की भी खेती करते हैं।

एक अनुमान के मुताबिक मोकामा टाल क्षेत्र से दो लाख किसान और करीब पाँच लाख खेतिहर मजदूरों की रोजी-रोटी जुड़ी हुई है। गंगा की गाद इस क्षेत्र के लिये ‘गाज’ बन गई है। गाद के कारण मोकामा टाल क्षेत्र में निर्धारित समय से अधिक वक्त तक पानी जमा रहता है और यदा-कदा सूखे का सामना भी करना पड़ता है। निर्धारित समय से अधिक वक्त तक पानी के ठहराव के कारण टाल क्षेत्र में दलहन की बुआई देर से होती है।

असल में मोकामा टाल क्षेत्र के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की वजह यह है कि यहाँ के खेत में पानी का ठहराव और समय से उसका निकल जाना गंगा पर ही निर्भर करता है। इस क्षेत्र में दलहन की बुआई और बंपर उत्पादन के लिये यह बहुत जरूरी होता है कि समय पर पानी यहाँ आ जाये और समय पर निकल भी जाये। यह चक्र अगर टूटता है, तो खेती पर इसका बहुत प्रभाव पड़ता है।

मोकामा टाल क्षेत्र में खेती करने वाले किसान रामनारायण सिंह कहते हैं, ‘यहाँ के 70 फीसदी किसान मसूर की खेती करते हैं। मसूर की बुआई के लिये जरूरी है कि सितम्बर के आखिर तक खेतों से पानी पूरी तरह उतर जाये। लेकिन, कुछ सालों से पानी के निकलने में देरी हो रही है। इससे बुआई समय पर नहीं हो पाती है, जिस कारण उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित होता है।’

बादपुर के किसान सुनील कुमार बताते हैं, ‘पिछले एक दशक से ऐसा देखने को मिल रहा है। कई बार तो अक्टूबर तक पानी ठहरा रह जाता है, जबकि अक्टूबर तक मसूर की बुआई खत्म हो जानी चाहिए।’

गंगा में गाद जमने का असर टाल क्षेत्र की जीवनरेखा मानी जाने वाली हरोहर नदी में भी देखने को मिल रहा है। हरोहर नदी की तलहटी में भी गाद जम गया है। नदियों पर लम्बे समय से काम करने वाले डॉ दिनेश मिश्र कहते हैं, ‘गंगा नदी में गाद मोकामा टाल क्षेत्र के लिये निश्चित तौर पर बहुत बड़ी समस्या है। इसका स्थायी समाधान निकाला जाना चाहिए।’

उल्लेखनीय है कि पूरे टाल क्षेत्र में मोरहर, लोकायन, पंचाने, सेइवा, कुम्हरी समेत एक दर्जन से अधिक छोटी नदियाँ बहती हैं। इन नदियों का उद्गम स्थल बिहार का दक्षिणी पठारी क्षेत्र व झारखण्ड है। इन नदियों की लम्बाई करीब 200 किलोमीटर है। नदियों से 100 से अधिक पईन जुड़े हुए हैं, जिनसे होकर टाल क्षेत्र के खेतों में पानी पहुँचता है। ये नदियाँ और पईन आपस में मिलती हुई त्रिमोहान के पास एक धारा बन जाती है, जिसे हरोहर नदी कहा जाता है। हरोहर नदी लखीसराय में पहुँचकर किउल नदी से मिलती है। यहाँ से इसका नाम किल्ली हो जाता है। यह आगे चलकर गौरीशंकर धाम में गंगा में समा जाती है।

बारिश के दिनों में इन नदियों से होकर पानी टाल क्षेत्र के खेतों में अपना ठिकाना बनाता है। सितंबर में गंगा नदी का जलस्तर जब कम होने लगता है, तो इन नदियों व पईन के रास्ते पानी हरोहर नदी में पहुँचता है और हरोहर नदी से होकर पानी गंगा में गिरता है। हरोहर और गंगा नदी में गाद जम जाने के कारण इनकी जल संचयन क्षमता घट गई है। यही वजह है कि टाल क्षेत्र में पानी निर्धारित अवधि से अधिक समय तक जमा रह जाता है।

टाल विकास समिति के संयोजक आनंद मुरारी इस सम्बन्ध में कहते हैं, ‘नदियों के साथ पईन की लम्बाई को जोड़ दें, तो करीब 500 किलोमीटर में ये नसों की तरह पूरे टाल क्षेत्र में फैले हुए हैं। पानी की निकासी का एक मात्र जरिया हरोहर नदी है। इस नदी में गाद जमा हुआ है। हरोहर नदी से पानी किसी तरह निकल भी जाये, तो वह गंगा में नहीं जा पाता क्योंकि गंगा में भी गाद की मोटी चादर बैठ गई है।’

स्थानीय किसानों के अनुसार, पिछले 25-30 सालों से हरोहर नदी में ड्रेजिंग नहीं हुई है जिससे यह समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

आनंद मुरारी बताते हैं, ‘पहले 15 से 20 दिनों में टाल क्षेत्र से पानी निकल जाया करता था, लेकिन अब एक महीना से भी अधिक समय लग जाता है। इससे मसूर की बुआई 15 से 30 दिन देरी से होती है जिससे दाल का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।’

मोकामा टाल क्षेत्र की बनावट ऐसी है कि कम बारिश हो, तो उल्टी तरफ से यानी गंगा से हरोहर नदी के रास्ते टाल क्षेत्र में पानी आ जाता है, लेकिन गाद के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। इससे यहाँ के किसानों को सूखे का सामना भी करना पड़ता है।

स्थानीय किसान बताते हैं कि गाद के कारण ही 2015 में सूखा पड़ा था जिस कारण हजारों बीघा खेत में बुआई हो नहीं पाई थी। इसी तरह वर्ष 2016 और 2017 में भी टाल क्षेत्र में बुआई प्रभावित हुई थी।

टाल क्षेत्र की मिट्टी काफी उर्वर है इसलिये एक हेक्टेयर में औसतन दो टन से अधिक दाल का उत्पादन हुआ करता था, लेकिन गाद के कारण पैदावार में कमी आई है।

आनंद मुरारी ने बताया कि कभी सूखा तो कभी ज्यादा दिनों तक टाल क्षेत्र में जलजमाव रहने से दाल के उत्पादन में 25 से 30 प्रतिशत तक की गिरावट आ गई है।

यहाँ यह भी बता दें कि मोकामा टाल क्षेत्र की प्रकृति ऐसी है कि साल में एक ही फसल की खेती हो पाती है – रबी के सीजन में। बाकी समय यहाँ पानी की किल्लत रहती है। इस वजह से यह वृहत्तर भूभाग 6 महीने तक यों ही उदास पड़ा रहता है। किसान चाहते हैं कि कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जाये, ताकि वे खरीफ सीजन में भी खेती कर सकें।

उल्लेखनीय है कि तीन दशक पहले टाल क्षेत्र के विकास के लिये एन. सान्याल की अध्यक्षता में मोकामा टाल टेक्निकल-कम-डेवलपमेंट कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी का काम टाल क्षेत्र के विकास के लिये योजना तैयार करना था। बताया जाता है कि इस कमेटी ने मार्च 1988 में एक रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में प्रायोगिक तौर पर पानी में उगने वाली खरीफ फसलों की वैराइटी मोकामा टाल क्षेत्र में उगाने का प्रस्ताव दिया गया था। रिपोर्ट में ट्यूबवेल और गंगा से पम्प के जरिए पानी लाकर सिंचाई का विकल्प तलाशने की बात भी कही गई थी, ताकि किसानों को किसी तरह की दिक्कत न झेलनी पड़े। इन प्रस्तावों का क्या हुआ, पता नहीं, लेकिन सरकार अगर चाहे, तो जल संचयन की व्यवस्था कर दो बार खेती का विकल्प मुहैया करा सकती है।

पिछले साल राज्य सरकार ने 125 करोड़ रुपए की एक योजना को मंजूरी दी थी। इसके अन्तर्गत टाल क्षेत्र में 15 एंटी फ्लड स्विस गेट बनाए जाएँगे ताकि जल संचयन किया जा सके। परियोजना 30 महीने में पूरी हो जाएगी। सम्भव है कि इससे किसानों को थोड़ी राहत मिल जाये, लेकिन जब तक गंगा में गाद की समस्या का स्थायी समाधान नहीं तलाशा जाता, समस्या से निजात सम्भव नहीं लगता है।

कृषि विशेषज्ञों की राय है कि गाद की समस्या दूर करने के साथ ही टाल क्षेत्र में पईन में पानी के ठहराव की अगर मजबूत व्यवस्था कर दी जाये, तो किसानों को इससे बहुत फायदा मिलेगा। इससे वे दो फसल की खेत कर सकेंगे। वहीं, पईन में मछली पालन भी किया जा सकता है।

वैसे, सीएम नीतीश कुमार कई मौकों पर फरक्का बैराज से बिहार को होने वाले नुकसान की ओर इशारा करते हुए इसके स्थायी समाधान की माँग कर चुके हैं। नीतीश कुमार ही नहीं दूसरे विशेषज्ञों की भी यही राय है। अब देखना यह है कि केन्द्र सरकार का इस पर क्या रुख होता है।

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