मृदा एवं जल संरक्षण

पाठ -5

अभियान्त्रिक एवं वानस्पतिक उपाय



मृदा एवं जल संरक्षण (समस्या, सिद्धान्त एवं तकनीक)


मिट्टी का महत्व
1. पोषक पदार्थ 2. हवा 3. पानी 4. सहारा

चट्टानों के टूटने के मुख्य कारक
1. तापमान 2. पानी 3. हवा 4. जैविक पदार्थ 5. रासायनिक प्रक्रियाएँ

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मिट्टी की बनावट (Texture) : मिट्टी की बनावट उसमें उपस्थित विभिन्न आकार के कर्णों के अनुपात से निर्धारित की जाती है।

मिट्टी की बनावट निर्धारित करने की विधियाँ
1. छलनी परीक्षण (Sieve Analysis)
2. फील्ड पर मिट्टी की जाँच (अनुभव आधारित)

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भूमि कटाव के कारण


1. प्राकृतिक (वानस्पतिक) बचाव का तेजी से विनाश।
2. खेती के गलत तरीके।

भूमि कटावा के मुख्य कारक जिन पर भूमि कटाव निर्भर करता है


1. मौसमी कारकों (हवा, पानी) की तीव्रता।
2. भूमि की आकृति।
3. वनस्पति।

मृदा संरक्षण क्यों ?


भू-क्षरण के मुख्यतः दो कारक हैं - हवा और पानी।
यह क्षति भूमि की ऊपरी सतह से होती है।

ऊपरी सतह की विशेषता
1. ऊपरी सतह करीब 8 इंच तक का होता है।
2. बराबर खाद पड़ते रहने से इसमें पौधों के लिए पोषक तत्व ज्यादा होते हैं।
3. गोबर खाद पड़ने से इसकी नमी को रोककर रखने की क्षमता अधिक होती है।
4. बराबर जुताई करने से इसमें हवा का आवागमन बना रहता है जो, पौधों के विकास के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
5. मिट्टी में एक उचित तापमान बनाकर रखती है।

मिट्टी की क्षति से नुकसान


1. फसल की उत्पादकता में कमी।
2. अधिक खाद की जरूरत यानि अधिक खर्चीला।
3. मिट्टी की पानी रोक कर रखने की क्षमता में कमी (पानी की उपलब्धता में कमी)।
4. पानी का सतही बहाव ज्यादा होगा जिससे ज्यादा मिट्टी कटेगी।
5. जलाशयों में पानी की उपलब्धता में कमी होगी।
6. सतही बहाव ज्यादा होने के कारण भू-जल रीचार्ज नहीं होगा।

पानी द्वारा मृदा क्षरण की प्रक्रिया


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भूमि पर ऐसे उपाय करने चाहिए जिससे स्पलैश और शीट क्षरण कम हो, परन्तु रिल की स्थिति नहीं आने दें अन्यथा यह गली का रूप ले लेगी और भूमि संरक्षण कार्य बहुत कठिन एवं महँगा हो जायेगा।
मृदा क्षरण पानी की तीव्रता, भूमि की ढाल एवं मिट्टी की बनावट पर निर्भर करता है।

मृदा एवं जल संरक्षण के सिद्धान्त


1. बहाव के जल को क्षरण वेग तक पहुँचने से पहले ही रोक देना।
- ढाल को कम करना।
- बहाव के रास्ते में रूकावट डालना।

2. पानी के बहाव के रास्ते को लम्बा करना।
- सीधे बाहव को रोकना।
- रास्ते में बाधा डालना।

3. पानी के सतही बहाव की मात्रा को कम से कम करना।
- बहाव जल को तालाब या बाँध बनाकर इकट्ठा कर लेना।
- पानी को जमीन के अन्दर जाने का ज्यादा अवसर देना जिससे पानी सतह पर धीरे-धीरे ज्यादा देर तक बहे एवं पानी जमीन के अन्दर आसानी से प्रवेश कर सके।

4. वर्षा जल को जलागम से निकासी के पूर्व ज्यादा से ज्यादा समय तक रोका जाए।
5. जमीन का उसकी क्षमता के अनुरूप उपयोग हो।
6. सतही बहाव सुरक्षित वेग एवं सुरक्षित रास्ते से ही निकले।

मिट्टी की ऊपरी सतह का उत्पादकता पर प्रभाव


(तीन साल का औसत आँकड़ा)
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आर्थिक नुकसान (रु./हेक्टेयर)


3 ईंच की मिट्टी निकालने पर लगभग 6,000 रु.
6 ईंच की मिट्टी निकालने पर लगभग 10,000 रु.
9 ईंच की मिट्टी निकालने पर लगभग 12,000 रु.
एक ईंच मिट्टी बनने में 500 से 1000 साल लग जाते हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति


देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल- 329 मिलियन हेक्टेयर

भूमि उपयोग         - 304 मिलियन हेक्टेयर

जोत वाली जमीन- 141 मिलियन हेक्टेयर

कृषि योग्य बंजर- 25 मिलियन हेक्टेयर

चरागाह, सिविल सोयम इत्यादि- 31 मिलियन हेक्टेयर

कृषि अयोग्य भूमि- 40 मिलियन हेक्टेयर

जंगल-  67 मिलियन हेक्टेयर

विभिन्न समस्याओं से प्रभावित क्षेत्र

वायु एवं जल द्वारा मिट्टी क्षरण-  158 मिलियन हेक्टेयर

(इसमें गली,  रिवाइन के 4 मिलियन हेक्टेयर और झूम या टोरेन्ट के 4 मिलियन हेक्टेयर शामिल है।)

जल जमाव- 9 मिलियन हेक्टेयर

क्षारीयता एवं अम्लीयता- 8 मिलियन हेक्टेयर

175 मिलियन हेक्टेयर

 



यह आँकड़ा उपयोग वाली भूमि का लगभग 60 प्रतिशत है।
भारत में प्रति वर्ष 550 करोड़ टन (55 करोड़ ट्रक) भू-क्षरण होता है।
यदि भू-क्षरण क्षेत्र को देखें तो भू-क्षरण 35 टन/हेक्टेयर है।
यदि पूरे उपयोग वाली भूमि को देखें तो भू-क्षरण 18 टन/हेक्टेयर है।
इस भू-क्षरण की वजह से प्रति वर्ष 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फोरस और 26 लाख टन पोटाश की हानि हो रही है। फलस्वरूप हमें रासायनिक उर्वरक के रूप में प्रतिवर्ष 110 लाख टन नाइट्रोजन, 30 लाख टन फास्फोरस और 26 लाख टन पोटाश का उपयोग करना पड़ता है।

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कृषि एवं वानिकी उपाय वानिकी से सम्बन्धित जानकारियाँ


वानिकी से सम्बन्धित जानकारियाँ
अ - पौधशाला की स्थापना
किसान का चयन - ऐसे इच्छुक किसान का चयन किया जाए जो पौधशाला के बारे में कुछ जानकारी रखता हो तथा दी गई जानकारियों का अनुसरण करता रहे।

स्थान का चयन: ऐसे स्थान का चयन किया जाए जहाँ पौधशाला के लिये पर्याप्त पानी मिले तथा प्रस्तावित पौधारोपण क्षेत्र के नजदीक हों।

बीज एकत्रीकरण: पौधशाला के लिये स्वस्थ एवं परिपक्व पौधों का चयन करके समयानुसार बीजों का संग्रहण करते रहें।

क्यारी /बैड का निर्माण: खेत की गहरी जुताई, गुड़ाई व निराई के उपरान्त 1 मी.-चौड़ी 6 ईंच ऊँची तथा लम्बाई खेत की स्थिति अनुसार ही रखें।

बीज की बुवाई: बीज बोने से पूर्व बीज की ग्रेडिंग करना आवश्यक है। ग्रेडिंग के लिये बीजों को ठण्डे पानी में भिगो दें, जिससे खराब बीज उपर तैरने लगेंगे जिन्हें निकाल कर फैंक दे तथा अच्छे बीज जो तली में बैठ जाऐंगे उन्हें बोने से पूर्व फफूँदी व कीट नाशक रसायन (बावस्ट्रीन, क्लोरोपाइरीफाँस या इण्डोसल्फान) के 1 प्रतिशत घोल से जरूर उपचारित करें। कड़े आवरण वाले बीजों को बोने से पूर्व बताई गई विधि के अनुसार उपचारित करके बुवाई करें।

मल्चिंग: बुवाई के पश्चात क्यारियों/बैड में घास-फूस व पुराल आदि से मल्चिंग करें।

शहतूत की कलम बैड में: कलम की लम्बाई 4 से 6 ईंच होनी चाहिए व कलम का ऊपर का हिस्सा तिरछा एवं नीचे का गोल कटा होना चाहिए, कलम की रोपाई बैड में तिरछा करके लगभग 3 ईंच गहरी तथा 6 गुणा 6 ईंच दूरी में हो। शहतूत के पौधे बीज द्वारा भी तैयार किये जाते हैं।

पॉली बैग भराई: पॉली बैग का आकार 8 गुणा 5 ईंच का होना चाहिए। बैग को भरने से पहले मिट्टी और गोबर का अलग-अलग छान कर 4:2 के अनुपात में अच्छी तरह मिलाएँ यदि मिट्टी चिकनी है, तो 1 अनुपात रेत भी मिलाएँ। बैग को अच्छी तरह भरें व बैड के आकार में रखें। बैड को चारों ओर से मिट्टी से कवर करें।

पौध- प्रत्यारोपण पॉली बैग में तथा बैड से बैड में: बीज अंकुरण के पश्चात पौधों में 2 या 3 पत्तियाँ निकलने या 2 से 3 ईंच ऊँचाई होने पर ही पौधों का प्रत्यारोपण करें। पौध-प्रत्यारोपण करने से 4 घण्टे पहले दोनों बैड या पॉली बैग की सिंचाई करें, जिससे पौधा निकालने व लगाने में आसानी होगी। पौधारोपण का कार्य तेज धूप में न करें। अधिकतर शाम के समय ही करें तो उपयुक्त होगा।

छप्पर निर्माण: धूप, पाला व ओलावृष्टि, इत्यादि से बचाव हेतु घास, पत्ती व पुराल के छप्पर का निमार्ण करें।

घास की नर्सरी: घास की नर्सरी तैयार करने के लिये खेत की अच्छी तरह जुताई, गुड़ाई व निराई करें और सड़ी हुई गोबर खाद मिलाकर बैड बनवाएँ तथा 6 गुणा 6 ईंच की दूरी पर घास की जड़ें व कलम की रोपाई करें। पौधशाला में घास की अधिकतम ऊँचाई 6 ईंच से ज्यादा नहीं होनी चाहिए जिसके लिये घास को समय-समय पर काटते रहना आवश्यक है।

निराई-गुड़ाई व सिंचाई: समय-समय पर पौधशाला की निराई-गुडाई करते रहें तथा आवश्यकतानुसार सुबह व शाम सिंचाई करते रहें।

पौध ग्रेडिंग: पौधरोपण करने से पहले पौधों की ग्रेडिंग करना आवश्यक है क्योंकि 1 फीट से कम ऊँचाई के पौधे, पौधरोपण के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं। रोगग्रस्त व कमजारे पौधों को अलग रखें। कुछ प्रजाति के पौध जैसे बाँझ/बान, बाँस, आँवला, रींगाल व देवदार आदि का पौधरोपण डेढ़ वर्ष की आयु में ही करें।

ब-प्रस्तावित वनीकरण क्षेत्र की तैयारी


क्षेत्र की घेराबंदी तथा अवांछनीय पौधों को हटनाः प्रस्तावित वनीकरण क्षेत्र को पौधरोपण से 6 माह पहले बंद करना चाहिए तथा उसमें उगे अवांछनिय पौधों का हटाने के लिये उपभोक्ता समूह के साथ चर्चा होनी चाहिए।

कम्पोस्ट पिट निमार्ण: प्रत्येक प्रस्तावित वनीकरण क्षेत्र में एक-एक कम्पोस्ट पिट निमार्ण करें, जिससे प्राप्त खाद का उपयोग उसी क्षेत्र के पौधों के लिये किया जाएगा।

नालों में वानस्पतिक उपचार (स्टंपिग): भूमि कटाव को रोकने के लिये नालों में गेबियन, लूज बोल्डर चैक डैम, सुरक्षा दीवार के साथ-साथ नालों के दोनों किनारों में बाँस, रींगाल, बेंस, उतिश, नील कांटा, केला व अन्य स्थानीय पौधे तथा घास लगायें।

कन्टूर ट्रैंच: यदि प्रस्तावित हो तो कन्टूर ट्रैंच का निर्माण पौधरोपण से 3 माह पहले ही करें।

गड्ढों की खुदाई: गड्ढों का माप 3 से 5 घन फीट से कम नहीं होना चाहिए, गड्ढों की दूरी क्षेत्र में मौजूद पौधों के घनत्व व प्रजाति के अनुसार निर्धारित करें। गड्ढों की खुदाई का कार्य पौधरोपण से 3 माह पूर्व करें।

गड्ढों की भराई: पौधरोपण से एक माह पूर्व गड्ढों की भराई का कार्य पूर्ण होना चाहिए तथा गोबर खाद को मिलायें।

स- वनीकरण


पौधरोपण : पौधशाला से पौधे ले जाते समय पॉलीबैग की मिट्टी नहीं गिरनी चाहिए व पौधों को टूटने से बचाना चाहिए।

गड्ढ़ों व पौधों की गिनती : पौधरोपण से पूर्व गड्ढ़ों की गिनती चूना या राख डालकर उपभोक्ता समूह और एन-आर-एम-टी के सदस्य मिलकर करें। प्रत्येक 6 माह बाद (दिसम्बर-जून) पौधों की गिनती करें।

घास की रोपाई : घास की रोपाई कन्टूर ट्रैंच की मेड़ पर 6-9 ईंच की दूरी पर करें या बीज की बुवाई भी की जा सकती है।

द - रख-रखाव


निराई-गुड़ाई व गोबर खाद डालना: पौधों की निराई-गुड़ाई का कार्य समय-समय पर करते रहें तथा सर्दियों में थावला/तौलिया बनाकर गोबर-खाद अवश्य मिलायें।

गैप फिलिंग: पौधरोपण के पश्चात मरे हुए पौधों के स्थान पर समयानुसार पौधरोपण करें। दिसम्बर व जनवरी में कटाई-छंटाई का कार्य करें।

आँकड़ों का संग्रह: पौधरोपण क्षेत्र से घास-पत्ती की कटाई के आँकड़ों का संग्रह करें।

व - प्रबन्धन


सामाजिक सुरक्षाः पौधरोपण से पहले जून माह में जलागम समिति, ग्राम विकास समिति, महिला मंगल दल, वन पंचायत तथा उपभोक्ता समूह के साथ बैठक करके उस क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी, वह किस तरह व्यवस्था करेंगे व लाभों का बँटवारा कैसे होगा, इसकी नियमावली पहले ही बनानी होगी।

वानस्पतिक सुरक्षा दीवार: पौधरोपण क्षेत्र के चारों तरफ घेरबाड़ के लिये एक-एक फीट की दूरी पर रामवांस, सुबाबूल, बेंस, कंटीली झाड़ियाँ तथा अन्य स्थानीय पौधों को लगायें, इसे पत्थर या तार बाढ़ के साथ-साथ भी लगायें।

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