मृदा संरक्षण से खाद्य सुरक्षा

पानी तेज रफ्तार जहां मिट्टी की कटान करती है, वहीं दूसरी तरफ पानी रुक न पाने के कारण सिंचाई भी नहीं हो पाती। इस दोतरफा नुकसान से बचने के लिए लोगों ने मेड़बंदी की प्रक्रिया अपनाई और अपने खेतों की सुरक्षा की।

संदर्भ


नैसर्गिक सम्पदाओं से परिपूर्ण होने के बावजूद विंध्य क्षेत्र उबड़-खाबड़ भूमि के कारण खेती संबंधी समस्याओं से जूझता ही रहता है। यहां नदी, नाले तो हैं, वर्षा का पानी भी ठीक-ठाक स्तर तक रहता है, परंतु उबड़-खाबड़ ज़मीन होने के कारण पानी रूक नही पाता। फलतः उसका लाभ नहीं मिल पाता। जनपद चंदौली का विकास खंड नौगढ़ इस तरह की समस्या को मुख्यता से जेलता है। जंगली क्षेत्र होने के कारण यहां खेती योग्य भूमि ऊंची-नीची है। यहां स्थित गाँवों के एक तरफ पहाड़ तथा दूसरी तरफ नदी होने के कारण बरसात का पानी पहाड़ से सीधे नदी में उतर जाता है। इस प्रकार खेती योग्य भूमि बरसात के बाद भी सूखी ही रहती है। हां! यह अवश्य होता है कि पानी की तेज रफ्तार मृदा कटान तेजी से करती है और अपने साथ उपजाऊ भूमि भी बहा ले जाती है एवं पीछे छोड़ती है- पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़े, जिससे खेती योग्य भूमि पथरीली भूमि में बदलती जा रही थी। इस चिंताजनक स्थिति ने लोगों को सोचने पर विवश किया और मृदा व उर्वरता संरक्षण हेतु लोग मेड़बंदी की प्रक्रिया को तकनीकी ढंग से अमली जामा पहनाने की ओर तत्पर हुए।

प्रक्रिया


पूर्व स्थिति का आकलन
जनपद चंदौली, विकास खंड नौगढ़ के ग्राम धोबही के लोगों का मुख्य पेशा खेती है, परंतु उक्त समस्याओं को झेलते ये किसान अपनी 41 एकड़ खेती (65 बीघा खेती) पर टड़िहन खेती कर अपना जीवनयापन करते थे। पूर्णतः वर्षा आधारित खेती होने के कारण मात्र खरीफ की फसल ले पाते थे। शेष समय में मजदूरी एवं जंगल की लकड़ी बेचकर अपनी आजीविका सुनिश्चित करते थे। आर्थिक विपन्नता झेलते इस गांव में पेपुस संस्थान ने वर्ष 1997 के पूर्वार्ध में एक खुली बैठक रखी, जिसमें खेती की विषम स्थितियों, किसानों का खेती से विमुख होना, जीवनयापन हेतु अन्य विकल्पों की तलाश आदि चर्चा के मुख्य विषय थे। बैठक में यह स्पष्ट हुआ कि मिट्टी की कटान एवं बरसात का जल न रुकने से समस्या अधिक विकराल हुई है। यदि इन दोनों समस्याओं का निराकरण किया जाये तो निश्चित तौर पर समस्या की गंभीरता को कम किया जा सकता है।

मेड़बंदी प्रक्रिया


उपरोक्त दोनों समस्याओं से निपटने हेतु मेड़बंदी एक उपयुक्त विकल्प था। इस पर आम सहमति भी बनी, परंतु किसानों की आर्थिक दयनीयता इस कार्य में बाधक बन रही थी। तत्पश्चात् संस्था आगे आयी और उसने किसानों से कहा कि – मेड़बंदी कार्य में लगने वाले पूरे व्यय का आधा हिस्सा संस्था व्यय करेगी। तय हुआ कि शेष आधी धनराशि खेत का मालिक वहन करेगा। इस सहमति के बाद वर्ष 1998 में धोबही गांव के किसानों ने अपने खेतों पर खेत की ढाल के अनुसार दो या तीन भागों में विभाजित करके मेड़ डालने का काम शुरू किया तथा रबी सीजन के अंत तक मेड़ तैयार हो गयी। तैयार मेड़ की ऊंचाई 0.75 मीटर से 1.5 मीटर तक रखी गयी। किसानों ने अपने यहां पानी के बहाव तथा आमद को देखते हुए मेड़ों की चौड़ाई भी 8 से 15 फुट रखी । इन्होंने मेड़ों पर पानी के अतिरिक्त निकास के लिए आउटलेट बनाया। संस्था सहयोग से कुल 14.4 एकड़ की मेड़बंदी कराई गयी, जबकी किसानों ने अपने स्वयं के प्रयास से 20 एकड़ खेत की मेड़बंदी की।

प्रसार


धोबही गांव में हो रहे इस प्रयास एवं उसके सफल परिणाम को देखकर अगल-बगल के समान परिस्थिति वाले 16 अन्य गाँवों में किसानों ने स्वयं के प्रयास से कुल 640.4 एकड़ खेत की मेड़बंदी की, जो अपने-आप में एक अनुकरणीय उदाहरण है। ये प्रयास छोटे, सीमांत किसानों द्वारा अपनी छोटी-छोटी जोत पर किये गये, पर उनका सम्मिलित समीकरण इस प्रयास को बड़ा व महत्वूर्ण बनाता है।

किसानों द्वारा मृदा एवं जल संरक्षण की दिशा में किये जा रहे मेड़बंदी के इस कार्य को देखकर किसानों को और अधिक प्रोत्साहित करते हुए भूमि संरक्षण विभाग द्वारा प्रत्येक गांव में बह रहे नाले के पानी को रोकने के लिए छोटी-छोटी बंधियों का निर्माण कराया गया।

लागत


इस पूरे कार्य में संस्था ने 36000.00 रुपये का योगदान किया, जबकि किसानों ने श्रम लगाया, जिसका मूल्य आंकलन करने के दौरान इसे पैसे में देखा जाये, तो 36000.00 खर्च हुआ। एक बीघा खेत की 3 फीट चौड़ी व 1-1.25 फीट ऊंची मेड़बंदी एक व्यक्ति द्वारा 20 दिन में की गयी, जिसमें खर्च आया कुल रु. 1000.00 खर्च का विवरण इस प्रकार था-एक खंती मिट्टी डालने पर 50 रु. मजदूरी देय होती थी। अर्थात् 100 घन फुट मिट्टी का काम करने पर रु. 50 दिया जाता था। मेड़बंदी में आधा खर्च संस्था व आधा स्वयं किसान द्वारा देय होता था।

लाभ


मृदा संरक्षण की यह प्रक्रिया लंबी थी और इससे होने वाले लाभ को रुपये में आंकना मुश्किल है। फिर भी कहा जा सकता है कि –

इसके दीर्घकालिक परिणाम अब परिलक्षित हो रहे हैं जब किसान अपनी भूमि में साल भर तक खाने के लिए अनाज उत्पादित कर ले रहे हैं।

अगले सीजन में मेड़बंदी वाले खेतों में पानी रुकने की वजह से एक तो खेतों में नमी संरक्षित हुई, जिससे खरीफ की फसल तिल, अरहर, सेड़ी, साठी आदि की उपज मात्रा में वृद्धि हुई। तुलनात्मक तौर पर देखा जाये तो मेड़बंदी से पहले एक एकड़ में इन फसलों की उपज मात्रा 2.5-3 कुंतल थी, जबकि मेड़बंदी के बाद उसी खेत में समान फसल का उत्पादन दुगुना के लगभग अर्थात् 5-6 कुंतल होने लगा।

पहले जहां किसान सिर्फ सांवा या तिल की खेती ही करते थे। उनकी खेती सिर्फ एक फसली थी। अब वे खरीफ में धान की फसल भी ले पाते हैं और रबी सीजन में गेंहूं की खेती भी कर ले रहे हैं।

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