मस्कवा नदी के देश में

मुझे बुद्धिप्रसाद ने जानकारी दी कि चौदह अक्तूबर को मेरे लिए अखिल संघीय कृषि विज्ञान अकादमी में चर्चा का कार्यक्रम रखा है। इस जानकारी से मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी, अगली सुबह मैंने एक प्रश्नावली बना दी थी जिन पर चर्चा करनी थी, बुद्धिप्रसाद ने बताया कि अनुवादक का काम स्वयं करेंगे, दूतावास वालों के पास इस दिन अनुवादक खाली नहीं है। मैंने बुद्धिप्रसाद से कहा कि फिर तो मैं गढ़वाली में ही बात करुंगा। इससे मुझे अधिक सरलता होगी। अगले दिन हम ठीक समय पर कृषि विज्ञान अकादमी पहुंच गए। वहां पर गेट पर अंतरराष्ट्रीय विभाग के अधिकारी ने हमारा स्वागत किया। साईबेरिया के जंगलों के बारे में बहुत सुना तथा पढ़ा भी था। इतनी अकूत वन संपदा होने के बाद हर वर्ष पेड़ लगाने का उपक्रम राष्ट्रीय स्तर पर होता है जिसमें सभी नागरिक भाग लेते हैं। यह बात मेरा भतीजा बुद्धिप्रसाद भट्ट मुझे सुनाया करते थे, बुद्धिप्रसाद मेरे बाल सखा एवं हम उम्र भी था, जो मास्को में कार्यरत थे, वे जब भी अवकाश पर गोपेश्वर आते तो मुझे मास्को आने का निमंत्रण देते थे। वर्ष 1970 में हमारे यहां अलकनंदा नदी में प्रलयंकारी बाढ़ आई थी। उसमें राहत पुनर्वास में इतने व्यस्त रहे कि दो साल बीत गया फिर 1972 से 1974 तक चिपको आंदोलन एवं बद्रीनाथ मंदिर आंदोलन की व्यस्तता के कारण समय ही नहीं मिला। अलकानंदा की प्रलयंकारी बाढ़ की व्यथा, कथा तथा उससे जुड़े प्रतिकार के अंकुर के बारे में लिखना चाहता था, पर समय ही नहीं निकाल पाता था। बुद्धिप्रसाद ने मुझे फिर स्मरण दिलाया। निमंत्रण दिया था सितंबर 1974 के प्रथम सप्ताह में मुझे वीजा भी मिल गया। पर सवाल दिल्ली से मास्को तक के हवाई जहाज़ के टिकट का था। श्री सुंदरलाल जी के कहने पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हेमवंती नंदन बहुगुणा जी ने मेरे टिकट के लिए धनराशि अवमुक्त की। इस प्रकार मैं 17 सितंबर को मास्को जाने के लिए दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंच गया।

पहली बार जब मैं एयरपोर्ट के अंदर गया तो चकरा गया, मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि अंदर क्या-क्या करना है। हमारे एक दूर के रिश्तेदार जोशी जी एयरपोर्ट अथॉरिटी में चीफ कंट्रोलर थे, उनसे भाई मित्रानंद जी ने जो मुझे भेजने के लिए दिल्ली आए थे मुझे जहाज़ में बिठाने का सहयोग करने को कहा था। कुछ देर बाद जोशी जी मेरे पास आए, टिकट और पासपोर्ट लेकर सब औपचारिकताएं पूरी कर मुझे ऐरोफ्लोत जहाज़ में बिठा दिया तथा पायलट से भी मेरे बारे में बात कर दी। जहाज़ में बैठना यह पहली बार था, नीले रंग के इस विमान के अंदर देखकर मैं चौंधिया गया। यहां व्यौम बालाएं चहल कदमी कर रही थी उनकी ड्रेस भी नीली थी। मेरे हाथ का बोर्डिंग पास लेकर के मुझे अंतिम सीट पर बिठा दिया, तीन सीटों में मेरे अलावा कोई नहीं था। मेरी कमर पेटी भी स्वयं बांध दी तथा उसको खोलने की विधि भी समझा दी। वे बार-बार मेरे पास आकर के पूछ लेती थी इससे मुझे बहुत झेप हो रही थी। उनकी फुर्ती से मैं काफी प्रभावित हुआ, बातचीत में भी बहुत नम्र लग रही थी। पायलट ने उनसे मेरा ध्यान रखने के लिए कह दिया था।

4 बजे प्रातः उद्घोषणा हुई। क्षण भर में जहाज़ ऊपर की ओर उड़ने लगा। मुझे एक बार तो कंप-कंपी जैसे होने लगी। फिर मैंने अपने को संभाल लिया। अब धरती नीचे की और हम ऊपर को जा रहे थे। अब जहाज़ स्थिर-सा लग रहा था। मेरी सीट दायीं ओर थी, मैं खिड़की से बाहर निहार रहा था। पूरब की ओर लाली छायी हुई थी। धीरे-धीरे किरणें भी दिखाई दे रही थी, किरणें लगातार हमारे जहाज़ के साथ बनी रही, लगता तो यही था कि सूर्योदय अब हुआ तब हुआ, लेकिन सूर्योदय होने में तीन-चार घंटे लग गए।

बीच में व्यौम बालाएं गिलास में रसयुक्त चीज देने लगी। मैंने लेने से मना कर दिया। मुझे तो बस यही बात सता रही थी कि कहीं शराब न हो, नाश्ते के लिए भी मैंने न कह दिया। फिर वे सलाद ले आई, जिसे मैंने बड़े चाव से खाया, साथ ही मेरे आगे दो सेब भी रख दिए। पायलट बीच-बीच में रशियन और हिंदी में ऊंचाई एवं स्थान विशेष के बारे में जानकारी देता रहा। उसके मुंह की टूटी-फूटी हिंदी बहुत अच्छी लग रही थी। हमारा जहाज़ हिचकिचियां भर रहा था। ऐसा लग रहा था कि हम नीचे को आ रहे हैं। खिड़की से मैं बाहर झांक रहा था, अब बाहर उजाला हो गया था। जहाज़ काफी नीचे था, नीचे हरा ही हरा दिख रहा था, जहां तक नजर जा रही थी, बाद में देखा कि यह जंगल का सागर है, मेरा मन प्रफुल्लित हो रहा था। मेरे साथ कोई बतियाने वाला तो था नहीं, इसलिए मैं एकटक नीचे धरती को निहारता रहा, अब रेखा कि तरह नदियां भी बीच-बीच में दिखने लगी। खेत और मकान भी माचिस की डिब्बियों की तरह, कुछ ही क्षणों में हमारा जहाज़ बड़ी-बड़ी इमारतों के ऊपर से गुज़र रहा था। पायलट ने उद्घोषणा की कि हम मास्को पहुंचने वाले हैं, थोड़ी देर में हमारा जहाज़ मास्को के सेरतेयेवा हवाई अड्डे पर उतर गया। उस समय सुबह के आठ बजकर पंद्रह मिनट वहां के समय के अनुसार होने की जानकारी दी गई।

जोशी जी ने मुझे दिल्ली में यह सब जानकारी दी थी कि मुझे मास्को हवाई अड्डे पर क्या-क्या करना है। मैं अपने साथी यात्रियों का अनुसरण करने लगा, मेरे पासपोर्ट पर जल्दी ही ठप्पा लग गया था, कुछ देर में सामान भी आ गया था, मैंने देखा कि लोगों का सामान देखा जा रहा है। मैंने भी एक टेबूल पर अपना सामान अटैची से निकाल कर रख दिया। मेरे पास पहनने के कपड़ों के अलावा मसाले, पापड़, आचार और एक मिठाई का डिब्बा था, बुद्धिप्रसाद ने यही लाने को कहा था। कस्टम वाले सामान चैक करते रहे। कुछ लोगों से सामान निकलवाने, किसी-किसी से जानकारी ले रहे थे, मेरे पास से गुज़रे तो मैं सामान दिखाने लगा। उसने सामान एवं अटैची पर एक नजर दौड़ाई, कह दिया कि दोम-दोम, मैंने सोचा कि कह रहा है कि रुको रुको, क्योंकि औरों का सामान वे टटोल भी रहे थे। इस सबका सामान देख चुके थे। वे जब भी मेरे पास आते-जाते तो मैं फिर अपना सामान देखने के लिए इशारा करता, वे बार-बार वहीं कहते, कभी दस विदानिये भी कह कर आगे बढ़ जाते। अब मुझे कंपन होने लगी कि जाने क्या बात है। मन में कभी लगता था कि सर्वोदय कार्यकर्ता होने के या चिपको आंदोलन से संबद्ध होने के कारण तो नहीं रोक रहे हैं। मेरे मन में लगातार उधेड़बुन हो रही थी। मेरे देर तक बाहर न आने के कारण बुद्धिप्रसाद मेरे पास आकर कहने लगा कि कका जी क्या हो गया। उसकी आवाज़ सुनते ही मेरी सांस में सांस आई, हम दोनों एक-दूसरे के गले लिपट गए। इस बीच कस्टम का वही आदमी दिखा, बुद्धि ने उसे रशियन में पूछा तो उसने उन्हें पहला वाला ही जवाब दिया। प्रसाद जी ने सामान अटैची में रखते हुए पूछा की कका जी आप क्यों रुक गए! मैंने कहा कि वह दोम-दोम कह कर रुकने के लिए कह रहा है। बुद्धिप्रसाद हंसने लगा और कस्टम वाले को बुलाकर कहा कि इन्होंने सोचा कि रुकने के लिए कह रहे हैं तुम्हारा सामान बाद में चैक करेंगे। इस पर दोनों ठहाके मारने लगे, बुद्धि ने बताया कि इसका मतलब है कि घर चले जाओ।

आगे हमारी टैक्सी मास्को की चौड़ी सड़कों पर दौड़ रही थी, हम हवाई अड्डे की बात को लेकर के रास्ते भर हंसते रहे, इतनी चौड़ी सड़क मैंने पहले नहीं देखी थी। अलग-अलग रंग ढंग की कारें, बसें दौड़ रही थी। हमारे बाएं-दाएं गगनचुम्बी इमारतें पीछे छूटती जा रही थी। बुद्धिप्रसाद उन मार्गों और भवनों का नाम बताते जा रहा था। यह मस्कवा होटल है जहां लोग खड़े है वहां से मेट्रो का रास्ता है इसके बारे में सुना तक भी नहीं था न यह मालूम था यह रेल की ही तरह है। आखिर में हमारी टैक्सी वन्ये पैरुलोक में रुकी, वहां सामने दस मंजिला मकान था, उसके मुख्य दरवाज़े पर लिफ्ट लगी थी एक दो लोग वहां पर पहले से रुके थे। लिफ्ट के रुकते ही हम अंदर खड़े हो गए, बटन दबते ही हम ऊपर की ओर जाने लगे। मेरे लिए यह सब किसी आश्चर्य से कम नहीं था। लिफ्ट आठवीं मंजिल पर रुकी, मुख्य दरवाज़े के खुलते ही हमने दरवाज़े में प्रवेश किया। कमरा गरम था, मैं इत्मिनान से बैठा, इधर-उधर देखा कि कमरा कैसे गरम हो रहा है। हीटर आदि कुछ देखा नहीं, उन्होंने बताया कि ऊपर से जो पाईप घुमे हुए दिख रहे हैं उनमें गरम पानी प्रवाहित हो रहा है उसकी गरमी से कमरे गरम है। यह केंद्रीय गरम पानी के टैंकों से जुड़ा है जो मौसम एवं तापमान के अनुसार छोड़ा जाता है। 15 सितंबर से यह सिस्टम चालू हो गया है। बुद्धि फिर मुझे अपने भोजनालय में ले गया, वहां भी उन्होंने मुझे बताया कि पानी के दो नल हैं एक नल में गरम पानी है यह भी केंद्रीय गरम पानी के भंडार से जुड़ा है, उन्होंने यह भी जानकारी दी कि भोजन गैस से बनता है यह भी सीधे केंद्रीय लाईन से जुड़ा है, मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी, मैंने देखा कि जिस कमरे में हम ठहरे थे, उसके फर्श एवं अंदर की चाहर दीवारी पर पूरी तरह से लकढ़ी लगी है। बहुत साफ करके इसलिए बिस्तर ज़मीन में ही लगते हैं बुद्धिप्रसाद ने बताया कि यहां तथा सभी बड़े शहरों में मकानों के अंदर लकढ़ी बिछी हई है। जिससे कमरे गरम रहते हैं। मैंने सवाल किया कि इससे इनके जंगल नष्ट नहीं हो रहे हैं। उसने कहा कि यहां साईवेरिया जैसे अकूल वन क्षेत्र हैं जो अभी तक छुए तक नहीं गए हैं। यह भी जानकारी मिली कि इस फ्लैट का किराया चौदह रूबल प्रति माह है उस समय तक रूबल हमारे दस रूपये के आस-पास था। डालर का मूल्य भी लगभग इतना ही था, दो कमरे, किचन, बाथरूम भी जुड़ा था, पता चला कि मकान व्यक्तियों के हिसाब से आबंटित होते हैं, हमारी गपशप पूरी होने के बाद प्रसाद जी ने मुझे सब्जी का हलका-सा सूप पिलाया जिसके बाद मुझे गहरी नींद आ गई।

पिछली रात भर जागने से मेरी आंखे लगातार झपक रही थी। बुद्धिप्रसाद प्रगति प्रकाशन में अनुवादक का कार्य करते थे। वे भारत से पीएच.डी. कर के गए थे दो साल बाद ही रेडियो में हिंदी वाचक का काम किया, बाद में प्रगति प्रकाशन में स्थाई रूप से जुड़ गए। वे काफी प्रतिभाशाली थे। भारतीय थे। भारतीय समाज पर उनका अच्छा प्रभाव था, इसके अलावा विश्वविद्यालयों में मुख्य रूप से पूर्वी भाषा विभाग के विद्वानों एवं अकादमिशियनों में उनका अच्छा परिचय था। उनका मेरा बहुत बातों में मत भिन्नता थी, कई बार तर्क चरम पर पहुंच जाता था, इस सबके बावजूद हमारा आपसी प्रेम और सद्भाव में कोई कमी नहीं आई, न विचारधारा के कारण हमारे बीच कोई मन-मुटाव हुआ था। अपने मित्रों एवं दोस्तों से मेरा परिचय सर्वोदय एवं गांधी विचारधारा वालें है से करते थे, चिपको आंदोलन के सौम्यतम प्रतिकार को लेकर के जानकारी देते थे।

18 अक्तूबर 1974 को भारतीय दूतावास के श्री एस.सी. प्रभू जो आर्थिक मामलों के काउंसलर के साथ सर्वोच्च सोवियत संघ के वन मंत्रालय गए। हमारे साथ दूतावास की अनुवादिका थी। इस चर्चा में बी.जी. ईवंतसोय, चीफ विदेश संपर्क विभाग, ए.एन. पावलोव, चीफ प्लानिंग और डेवलपमेंट, न्यू फोरेस्ट तथा ए.एन. खारान्सोभ चीफ फोरेस्ट प्रोटेक्शन ने भाग लिया। इनके साथ वनों के विकास के उस तरीकों पर चर्चा हुई। लेकिन ये लोग अधिकांशतः हमें आकड़ों में ही उलझाते रहे। मैंने देखा कि जिस प्रकार निकोलाई अनुचिन ने ज़मीन से केंद्र तक के सवालों का समाधान किया तथा अपने कार्यक्रमों में जो कमियाँ है उन्हें स्वीकारा, साथ ही सुधार की बात की, उससे मैं प्रभावित हुआ था। मास्को में भारतीय राजदूत डॉ. सेलवेन्कर से भी उन्होंने मेरी भेंट करवाई थी, डॉ. सेलवेन्कर को चिपको आंदोलन के बारे में पहले से पता था। उन्होंने उपदेशात्मक ढंग से कहा कि यहां अकूत वन संपदा हैं, यहां पर जितने जंगलों का दोहन होता है उससे दुगुने क्षेत्र में जंगल का संवर्द्धन किया जाता है, आगे कहते गए कि जंगल की नहीं शहरों में भी वृक्षों के द्वारा सुंदरतम् हरियाली स्वास्थ्य लाभ के लिए लगाई गई है। पहले तो अधिक अन्यथा कम से कम प्रत्येक शहर में प्रति व्यक्ति एक पेड़ तो है ही, मैंने उनसे अनुरोध किया कि मेरे लिए यहां कि वन व्यवस्था एवं जंगलों को देखने और समझने का प्रबंध कर दीजिए, उन्होंने बताया कि भारत और सोवियत सरकारों की आपस में संधि की शर्तों के अनुसार प्राईवेट व्यक्ति को सहायता करने में असमर्थ हैं। आगे कहा कि फिर भी यात्रा का उद्देश्य, स्थानों का नाम एवं भारत में चल रहे काम की जानकारी पर नोट दीजिए उसके आधार पर वे मदद करने की कोशिश करेंगे।

मैं दूसरे दिन मस्कवा नदी के किनारे से होते हुए क्रेमलिन के पास से गुजरा, इसी प्रकार लेनिन पहाड़ी पर स्थित मास्को विश्वविद्यालय देखने भी गया। इस पहाड़ी से मास्को शहर, नदी एवं उसके तटों पर बने हुए स्टेडियम आदि का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

मुझे बुद्धिप्रसाद ने जानकारी दी कि चौदह अक्तूबर को मेरे लिए अखिल संघीय कृषि विज्ञान अकादमी में चर्चा का कार्यक्रम रखा है। इस जानकारी से मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी, अगली सुबह मैंने एक प्रश्नावली बना दी थी जिन पर चर्चा करनी थी, बुद्धिप्रसाद ने बताया कि अनुवादक का काम स्वयं करेंगे, दूतावास वालों के पास इस दिन अनुवादक खाली नहीं है। मैंने बुद्धिप्रसाद से कहा कि फिर तो मैं गढ़वाली में ही बात करुंगा। इससे मुझे अधिक सरलता होगी। अगले दिन हम ठीक समय पर कृषि विज्ञान अकादमी पहुंच गए। वहां पर गेट पर अंतरराष्ट्रीय विभाग के अधिकारी ने हमारा स्वागत किया। उसके बाद हम दोनों सभा कक्ष में गए। वहां पर कुछ ही क्षणों में तीन व्यक्तियों ने प्रवेश किया। वे लंबे लबादे पहनकर आए थे, उनमें से पहला व्यक्ति अधेड़ उम्र के थे तथा गंभीर लग रहे थे। उनमें से जो सबसे पीछे से था इसने आगे आकर के परिचय करवाया। पहला व्यक्ति अकादमिशियन डॉ. निकोलाई अनुचिन जो कि अखिल संघीय कृषि विज्ञान अकादमी के सदस्य एवं विश्व वनपालों की स्थाई अंतरराष्ट्रीय संघ के सदस्य एवं दूसरे व्यक्ति कृषि विज्ञान अकादमी के फॉरेस्टरी के उपाध्यक्ष थे। बुद्धिप्रसाद ने मेरा परिचय तथा चिपको के बारे में जानकारी दी। हमसे मिलने पर उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की।

उन्होंने बताया कि उनके देश में जंगल लाने और बढ़ाने के काम में मज़दूर, विद्यार्थी, नौजवान, कर्मचारी, वन विभाग के कर्मचारियों की मदद करते हैं। उन्होंने कृषि और जंगल के अंतर संबंधों के बारे में एक महान रूसी कृषि विज्ञानी के लिखे वाक्यों को दुहराया कि “अनाज और घास वहीं पर अच्छा होता है जहां पास में या बीच में जंगल हो”, आगे उन्होंने खरसोन प्रांत का उदाहरण देते हुए कहा कि यहां के एक इलाके में 70 हजार से ज्यादा हेक्टेयर भूमि में ससना प्रजाति के पेड़ रोपे गए, जो जंगल बन गए हैं। इन जंगलों की वजह से गेहूं की पैदावार 10 क्विंटल के स्थान पर 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बढ़ गई हैं और आस-पास फलों तथा अंगूर का जाल-सा बिछ गया है।

आगे उन्होंने मेरी जिज्ञासा के बारे में जवाब दिया कि वैज्ञानिक तकनीकी क्रांति के युग में वनों और वनोद्योगों के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा हो सकता है। तकनीकी साधनों की सहायता से मनुष्य का प्रकृति में आवश्यकता से अधिक और अविचारित हस्तक्षेप स्वयं मानव समाज के जीवन के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। किस प्रजाति के पेड़ लगाये जाने चाहिए, इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि जंगल लगाने में यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि एक साथ कई प्रजाति के पेड़ लगाये जाएं, जो स्थानीय वनों के अनुकूल हो, मिली-जुली वनस्पतियां, प्राकृतिक कुप्रभावों को रोकने में कहीं अधिक सक्षम होती हैं बजाय एक ही तरह की वनस्पति के, हमने उन्हें पूर्व में उनके द्वारा ससना के जंगल लगाने एवं उससे उत्पादन बढ़ाने को दोहराया, कहा कि क्या यह एकल प्रजाति का रोपण सही था? उन्होंने बताया कि खैरसोन प्रांत में जो 70 हजार हेक्टेयर में ससना का जंगल बनाया। उसके बीच-बीच में अन्य प्रजाति के पेड़ भी है लेकिन मुख्यतः ससना है यह बात सही है। कई जगह हमने देखा कि एकल प्रजाति के पेड़ों का दुष्प्रभाव यह हुआ कि तेज हवा में सब उखड़ गए या रोग से एक साथ नष्ट हो गए। अब इसमें बदलाव किया गया है। अब मिश्रित प्रजाति के जंगल खड़े किए गए हैं।

इस प्रकार निकोलाई अनुचिन की टीम के साथ एक घंटा पैंतालीस मिनट तक बातचीत हुई, इस चर्चा के दौरान एक बात दिलचस्प हुई, जिस गोल मेज के आर-पार हम बैठे थे उसमें आठ बोतलें तथा पांच गिलास रखे थे। बुद्धि जी ने कहा कि कका जी आज तो आपको बोदका पीनी ही पड़ेगी, नहीं तो शिष्टाचार के खिलाफ है। मैंने कहा कि मेरा शिष्टाचार यही कि मैं नम्रतापूर्वक कहूंगा कि यह पेय मैं नहीं पी सकता हूं। बाद में पता चला कि ये बोतलें खनिज जल (मिनरल वाटर) की है। हमें पता नहीं था कि जो तीसरा व्यक्ति अनुवादक है उसे हिंदी भी आती है। हमें तब पता चला जब हम नाश्ते के बारे में बतिया रहे थे। यह शाकाहारी है या नहीं, वह पूछ बैठा कि आप लोग किस भाषा में बात कर रहे हैं, हमने बताया कि गढ़वाली बोली में।

18 अक्तूबर 1974 को भारतीय दूतावास के श्री एस.सी. प्रभू जो आर्थिक मामलों के काउंसलर के साथ सर्वोच्च सोवियत संघ के वन मंत्रालय गए। हमारे साथ दूतावास की अनुवादिका थी। इस चर्चा में बी.जी. ईवंतसोय, चीफ विदेश संपर्क विभाग, ए.एन. पावलोव, चीफ प्लानिंग और डेवलपमेंट, न्यू फोरेस्ट तथा ए.एन. खारान्सोभ चीफ फोरेस्ट प्रोटेक्शन ने भाग लिया। इनके साथ वनों के विकास के उस तरीकों पर चर्चा हुई। लेकिन ये लोग अधिकांशतः हमें आकड़ों में ही उलझाते रहे। मैंने देखा कि जिस प्रकार निकोलाई अनुचिन ने ज़मीन से केंद्र तक के सवालों का समाधान किया तथा अपने कार्यक्रमों में जो कमियाँ है उन्हें स्वीकारा, साथ ही सुधार की बात की, उससे मैं प्रभावित हुआ था।

जब मैं पहली बार भूमिगत (रेल) मेट्रो से सफर करने गया तो अंदर जाते हुए लोहे के कुंडों को क्रास किया तो क्षण भर की देरी के कारण कुंडो के झटके से घुटनों पर चोट लगी। फिर स्वचालित सीढियों में भी फिसलने लग गया था, तो बुद्धि ने संभाल लिया। मेट्रो मैंने पहली बार देखी, मेरी आंखे चौंधिया गई। मैट्रो इतने कम समय तक रुकी कि हम बैठ ही नहीं पाए। पांच मिनट बाद दूसरी मेट्रो रुकी तो इसमें चढ़ने के लिए पहले से तैयार थे, मुझे लगा कि इतने कम समय में इसमें बैठना-उतरना विशेष प्रकार का प्रशिक्षण ही है। रेल मेट्रो साफ-सुथरी, चुप-चाप सीटों पर बैठना कहीं शोर नहीं, जो दूर के स्टेशनों पर उतरने वाले हैं पुस्तकों को पढ़ने में व्यस्त हो जाते हैं। पता चला कि मास्को शहर में मेट्रो के 97 स्टेशन हैं। सबका डिज़ाइन अलग-अलग है। सुंदर कलात्मक ढंग से सजाए गए हैं। दो-तीन बार के बाद मैं अपने आवास के सामने के स्टेशन को उसकी कलाकृति को पहचान कर उतरता था। इसके लिए कभी भूल नहीं हुई।

हमने टेलीविजन पर बर्फ पर हाकी का खेल देखा था। अगले दिन हमने स्टेडियम में जाकर 10 रूबल के टिकट लेकर के इस खेल को देखा, बर्फ की हाकी नाम से इस खेल को मैंने पहली बार सूना था और देखा था। बर्फ की हाकी की टीम में बताया गया 22 खिलाड़ी होते हैं, एक बार में एक ओर से 6 खिलाड़ी खेलते हैं। पैरों पर बर्फ में चलने के लिए लोहे की गरारी होती है, मैदान में बर्फ जमाई जाती है। इस खेल में खिलाड़ी की रफ्तार 60-70 किलोमीटर प्रति घंटे की होती है। हर चार-पांच मिनट में खिलाड़ी बदलते रहते हैं। इस खेल में मारपीट भी देखी गई। 20-20 मिनट के तीन चांस होते हैं।

मैं लुमुम्वा विश्वविद्यालय भी गया था, यहां पर कुछ विद्यार्थियों से बुद्धिप्रसाद ने चर्चा भी करवाई थी, अधिकांश विद्यार्थी अफ्रीका महाद्वीप के बताए गए हैं लेकिन कुल मिलाकर दुनिया भर के विद्यार्थी यहां पढ़ने को आते हैं, लुमुम्वा विश्वविद्यालय के आस-पास घने जंगल है, इस इलाके में तथा शहर में मेरे जाने पहचाने पेड़ देखने को मिले, मुख्य रूप से कांचुला (मैंपल), पांगर (चैसनेट), कपासी (हेजलनट), गढ़पीपल (पोपुलस) कहीं-कहीं भोजपत्र (वर्च) के पेड़ भी दिखाई दिए। पेड़ों पर पतझर के पूर्व की लाली मनमोहक थी।

अगले दिन बोल्सोई रंगमंच देखने गए, फूलों की क्यारियां, लिडन और सेब के पेड़ों तथा नीलक की झाड़ियों से भरे बाग से आगे लाल ग्रेनाईट के फव्वारे और पेड़ों की हरियाली के पीछे एक शानदार इमारत है। रंगमंच के अग्र भाग में सफेद स्तंभों के ऊपर एक तिकोने तोरण पर रथ है जिसे एपोली के घोड़े खींच रहे हैं। रंगमंच में 2300 दर्शक बैठ सकते थे। वहां वेले नृत्य (तीजेल) हो रहा था, इस नृत्य में एक ग्रामीण नव युवती से फॉरेस्ट गार्ड प्रेम करता है। साथ ही एक राजकुमार भी किसान का छद्मवेश रख कर उससे प्रेम करता है। बाद में राजकुमार की मंगेतर आती है उसे जैसे ही पता चलता है कि वह पागल हो जाती है और मर जाती है, परियां आती हैं उनसे उसकी छाया राजकुमार की रक्षा करती है।

एक दिन हम मस्कवा नदी की यात्रा पर निकले, रेंचनाई बग्जाद से रकेता से मस्कवा नदी के दृश्यों को देखते हुए पनसियोनात पहुंचे। यह स्थान तीस किलोमीटर दूर स्थित है, आधे घंटे में पहुंच गए थे। मास्कोवा नदी के दोनों किनारों पर सघन शंकूधारी वृक्षों के जंगल है जो स्थान खाली है, वहां भी वृक्षारोपण किया गया है। सुंदरता के साथ इन सघन वनों के कारण भूक्षरण भी नहीं दिखा।

हमने अंतरिक्ष यात्रियों के सम्मान में बने स्मारक को भी देखा। साथ ही आर्थिक एवं औद्योगिक प्रदर्शनी को देखा। यहां पर वन एंव अंतरिक्ष के बारे में विभिन्न जानकारी मिली। एक दिन हम बस से सफर कर रहे थे, बस में टिकट के लिए मशीन लगी होती है जिसमें कुपके डालकर गंतव्य में उतर जाते, न टिकट देने वाला न चैकिंग करने वाला। एक दस वर्षीय बालक की नजर सभी मुसाफिरों पर थी, उसने देखा कि एक व्यक्ति ने टिकट नहीं निकाला है। जब वह बाहर जाने लगा तो उस बच्चे ने उसे रोककर टिकट लेने तथा जुर्माना देने के लिए बाध्य किया।

मास्को से पनसियोनात तक राकेता का किराया 50 कुपेक था। इसके आस-पास आराम गृह बने हुए हैं। रेस्तरां भी बने हुए हैं। हम भी एक रेस्तरां में जलपान के लिए बैठ गए थे, यहां पर गोताखोरों की एक टोली बियर पी रही थीं, उन्होंने बुद्धिप्रसाद से मेरे बारे में पूछा कि कहां के हैं इंडिया सुनकर बहुत खुश हुए। फिर चिल्लाने लगे, रूसी-इंडियन भाई-भाई, हमें बियर पीने के लिए बाध्य कर रहे थे। बड़ी मुश्किल से बुद्धि ने उनसे पीछा छुड़वाया, गोताखोरों में उनका चीफ भी था, इसका नाम निकोलाई था, ह्रष्ट-पुष्टो युवक था। वह बार-बार मुझसे हाथ मिलाता रहा, जब हम लौटने लगे सबने हमारे हाथों में हाथ रखे। चीफ कहने लगा कि हम अलग-अलग जाति के होने के बावजूद भी सब भाई है। धीरे-धीरे ये नशे में धूत होते जा रहे थे, इस बीच राकेता का हॉर्न बजा, हम वापस उसमें चढ़ गए, देर शाम मास्को पहुंच गए।

इस बीच बुद्धिप्रसाद का छोटा भाई दिगंबर प्रसाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए मास्को आ गए थे, जब तक वह पॉवर इंस्टीट्यूट के छात्रावास में नहीं गया, हम दोनों मास्को और उसके बाहर के इलाके को देखने के लिए निकल जाते थे। दिगम्बर बुद्धिमान और होशियार था, कभी-कभी हम शहर के बीच में स्थित पार्कों में बैठ जाते थे, वहां से आगंतुकों के प्रश्न के उत्तर देने में असमर्थ होते, क्योंकि दिगम्बर जी को भी तब तक रशियन में बातचीत करना नहीं आता था। ये पार्क वृक्षों से भरे होते, इन पार्कों में जगह-जगह पर बैठने के लिए तुमड़ी बनी हुई थी। पार्कों में शाम-सुबह अधिकांश समय बड़े-बूढ़े ही देखे जाते थे, बाद में दिगम्बर प्रसाद पॉवर इंस्टीट्यूट के छात्रावास में ही रहने लगा, बताया गया कि पॉवर इंस्टीट्यूट में 27 हजार इंजीनियरिंग के छात्र पढ़ते हैं। दिगु बीच में जब भी समय मिलता तो हमारे पास आ जाते। हम दोनों घूमने निकल जाते। खाने का सामान सस्ता था। स्थानीय सब्जी तो सस्ती थी किंतु आयातीत सब्जी महंगी। कभी-कभार अपना बाजार में अलग-अलग व्यक्ति अपने घरों में बगीचे के सब्जी बेचने आ जाते थे। वह सस्ती तथा सुस्वादु होती थी किंतु यह कम मात्रा में होती थी। सब्जी और फलों के दुकानों में काफी भीड़ सुबह शाम लगी रहती।

हमने अंतरिक्ष यात्रियों के सम्मान में बने स्मारक को भी देखा। साथ ही आर्थिक एवं औद्योगिक प्रदर्शनी को देखा। यहां पर वन एंव अंतरिक्ष के बारे में विभिन्न जानकारी मिली। एक दिन हम बस से सफर कर रहे थे, बस में टिकट के लिए मशीन लगी होती है जिसमें कुपके डालकर गंतव्य में उतर जाते, न टिकट देने वाला न चैकिंग करने वाला। एक दस वर्षीय बालक की नजर सभी मुसाफिरों पर थी, उसने देखा कि एक व्यक्ति ने टिकट नहीं निकाला है। जब वह बाहर जाने लगा तो उस बच्चे ने उसे रोककर टिकट लेने तथा जुर्माना देने के लिए बाध्य किया।

मास्को शहर में पुस्तकों की दुकान में लंबी-लंबी लाईने लगी हुई देखी, लोग पुस्तक खरीदने के लिए घंटों इंतजार करते देखे गए, यदि कोई चर्चित उपन्यास या पुस्तक विक्रेताओं के पास आती तो हजारों प्रतियाँ एक दो दिन में ही समाप्त हो जाती। यही हाल गरम कपड़ों का भी है। हमारे देश के लुधियाना के ऊनी वस्त्रों के भी यही हाल थे।

23 अक्तूबर को ताशकंद से बुद्धिप्रसाद के दोस्त प्रोफेसर आज़ाद 7 दिन के लिए मास्को आए, आज़ाद ताशकंद विश्वविद्यालय के पूर्वी भाषा विभाग में थे, वे हिंदी बहुत अच्छी तरह से बोल लेते थे। दो दिन उनके साथ मास्को शहर के विभिन्न स्थानों को देखने गया। वे उजबेक हैं। 26 अक्तूबर की बुद्धि ने आज़ाद को मेरे साथ लेनिनग्राद भेजा। हमने मास्को से लेनिनग्राद की यात्रा रेल से की। यह रेल वातानुकूलित थी तब तक मैंने वातानुकूलित रेल नहीं देखी थी। बारह रूबल एक बर्थ का किराया था। रात को 12.40 पर रेल मास्को से छूटी तथा अगले दिन सवेरे 7.05 पर लेनिनग्राद पहुंचे।

स्टेशन पर हमने नाश्ता किया, उसके बाद हम बुद्धि के एक दोस्त अकादमिशियन जी.आर. जौग्रफू के यहां गए, वे हिंदी, नेपाली, उर्दू और पंजाबी के विद्वान हैं। उन्होंने हिंदी-रूसी शब्दकोष भी लिखा है। जौग्रफू ने बताया कि वे बढ़ईगिरी भी जानते हैं। यदा-कदा जरा पढ़ने-पढ़ाने एवं लिखने से ऊब जाता हूं। तो बढ़ई का काम कर लेता हूं। उनसे यहां की पारिस्थितिकी के बारे में चर्चा हुई। 11 बजे हमने वहां से प्रस्थान किया, शहर के बीच में स्थित सस्नोकया में गए, जंगल में चीड़ (ससना) और भोजपत्र के पेड़ बहुतायत में हैं। बताया गया कि यह जंगल 4 किलोमीटर चौड़ा 5 किलोमीटर लंबा है। यहां पर पेड़ों के ऊपर पक्षियों के लिए बनावटी लकढ़ी के घोसले बनाए गए हैं। जाड़ों में जब यहां आठ-आठ, दस-दस फीट तक बर्फ गिरती है तो यहां से पक्षियां प्रवास पर निकल जाती हैं, उस समय कठखोर (जो पेड़ों पर लगने वाले कीड़ों को खा लेती है) इन घोसलों में रुक जाती है। लोग उन्हें दाना भी देते हैं। इन पक्षियों को रोकने का यह बेहतरीन तरीका लगा, सस्नोकाया जंगल में शांति दिखी।

मुझे खाना बनाने में बड़ा आनंद आता है और मैं कई व्यंजन बना लेता हूं। बुद्धिप्रसाद के घर में दूसरे दिन से ही मैंने भोजन बनाने का ज़िम्मा संभाल लिया था, कढ़ी, चावल, दही का रायता, विभिन्न प्रकार की सब्जियां, पटोड़ी आदि हमारा मुख्य खाना था। यद्यपि बुद्धिप्रसाद भी खाना बनाने के माहिर तो थे ही जब वह घर पर होते तो दोनों मिलकर बनाते थे, लेकिन दिन का भोजन अमूमन मैं ही बनाता था। सफाई करने के लिए एक अधेड़ उम्र की महिला आती थी, वह घर की सफाई करने के अलावा जो बर्तन वहां पर होते उन्हें साफ करती। लेकिन हम दोनों अमूमन जूठे बर्तनों को तत्काल ही साफ किया करते थे।इसके बाद हम फारसी के विद्वान ओरनस्कोद के यहां गए, वे संस्कृत के विद्वान भी हैं, मिलनसार हैं, जिज्ञासु व्यक्ति भी हैं, पता चला कि ये यहूदी हैं। ये ओरियेंटल इंस्टीट्यूट से जुड़े हैं। शोध कार्य करते हैं, उनके यहां बहुत बड़ी लाइब्रेरी हैं। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के संस्मरण भी सुनाए। आज उनकी कन्या तानिया का जन्म दिन था, उन्होंने कहा कि इस शुभ अवसर पर आप लोग आए, इसलिए मैं अत्यधिक प्रसन्न हूं। उन्होंने अपनी कन्या का पुस्तकालय भी दिखाया, जिसमें नेपाली, बंगाली और हिंदी की पुस्तकें भी थी, इस बीच तानिया भी आ गई थी। शुद्ध हिंदी में बातचीत कर रही थी, वह भी बड़ी मिलनसार लगी। हिंदी के प्रति जिज्ञासा व्यक्त कर रही थी, लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं। भोजन करते समय एक वाक़या हो गया था, तानिया हमारे लिए कांच के बर्तनों पर भोजन की सामग्री ला रही थी कि उसका पैर फिसला, कि सारे कांच के बर्तन टूट गए, मैं अफसोस जता रहा था, कि बाप-बेटी ने कहा कि कांच के बर्तनों का टूटना शुभ माना जाता है। आज़ाद जी ने भी हामी भरी, पर मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। भोजन के बाद तानिया पहले हमें अपने विश्वविद्यालय में ले गई, वहां अपने विद्यार्थियों से मिलवाया, फिर भूमिगत रेल से जो कि नेवा नदी के नीचे से गुजरती है कई स्थानों को दिखाने ले गई। आखिर 6 बजे शाम को तानिया को विदा कर हम जोग्रुफु के घर आए। उनकी पत्नी चीनी भाषा की विद्वान एवं पुत्र गणितशास्त्री है साथ ही वह टेलरिंग का काम भी करता है। जब तक आज़ाद जोग्रुफु से चर्चा करता रहा, मैं उनके पुत्र के साथ शतरंज खेलता रहा। उन्होंने बाद में फिल्म और स्लाईड भी दिखाई, मैंने भी गढ़वाली गीत सुनाये, रात को 11 बजे भोजन के बाद आज़ाद के साथ रेलवे स्टेशन प्रस्थान किया तथा 1.40 लेनिनग्राद से मास्को को रवाना हुए।

रेल में सुबह 6.30 पर नींद खुली, आज़ाद जी ने रास्ते में हल्का नाश्ता मंगाया। हमारी रेल जंगल से गुजर रही थी, बीच-बीच में खेत उनके चारों ओर वायुरोधी वृक्ष पंक्तियां खड़ी है। बहुत सुहावना दृश्य रेल से दिखाई दिया, आखिर में हम 10 बजे मास्को रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। एक दिन बाद आजाद भी वापस लौट गया। मास्को में भारतीय दूतावास के अधिकारियों के साथ घरेलू कार्य करने हेतु नौकर भी थे। जब मुझे यह पता चला तो मैंने उनकी ढूंढ खोज की, एक हमारे पड़ोसी गांव का बणद्वार का किशन सिंह बिष्ट, सिलोगी गढ़वाल का अमर सिंह तथा गुंसाई पट्टी टिहरी का गबरसिंह से संपर्क किया। मेरे अनुरोध पर बुद्धि ने उनको भोजन पर बुलाया, यद्यपि पता लगा कि तीन-चार लोग और थे। उनसे संपर्क नहीं हो सका। उनसे जानकारी हुई कि उनको बहुत कम वेतन मिलता है। उसमें भी उनके हिस्से का डालर अधिकारी ले लेते हैं। कभी-कभी भोजन बनाते समय यदि बर्तन टूट जाते हैं तो उनके पैसे काट दिए जाते हैं। उनकी मर्ज़ी के बिना वे भारत लौट भी नहीं सकते हैं। उनकी घुटन साफ दिखाई देती थी, दूतावास के अलावा जो अन्य भारतीय वहां पर कोई सामूहिक भोज आदि का कार्य करते तो उनकी कभी सुध नहीं ली गई। न भोजन आदि पर ही बुलाया जाता।

मुझे खाना बनाने में बड़ा आनंद आता है और मैं कई व्यंजन बना लेता हूं। बुद्धिप्रसाद के घर में दूसरे दिन से ही मैंने भोजन बनाने का ज़िम्मा संभाल लिया था, कढ़ी, चावल, दही का रायता, विभिन्न प्रकार की सब्जियां, पटोड़ी आदि हमारा मुख्य खाना था। यद्यपि बुद्धिप्रसाद भी खाना बनाने के माहिर तो थे ही जब वह घर पर होते तो दोनों मिलकर बनाते थे, लेकिन दिन का भोजन अमूमन मैं ही बनाता था। सफाई करने के लिए एक अधेड़ उम्र की महिला आती थी, वह घर की सफाई करने के अलावा जो बर्तन वहां पर होते उन्हें साफ करती। लेकिन हम दोनों अमूमन जूठे बर्तनों को तत्काल ही साफ किया करते थे। इस महिला का नाम देउस्का था, वह दिन में आती थी, उस समय हमारा दिन का भोजन तैयार रहता था। एक दिन मैंने दिन के लिए चावल, कढ़ी और चटनी बनाई थी। बुद्धिप्रसाद उस दिन भोजन के लिए नहीं आने वाले थे। मैंने सोचा जब देउस्का सफाई करके चले जाएगी तब भोजन करुंगा, इस बीच कीचन से देउस्का जोर-जोर से चिल्ला रही थी।

मैं हड़बड़ाते हुए किचन में गया तो देखा कि वह दोनों हाथों को ऊपर, नीचे पंखों की तरह हिला रही थी। उसकी आंखे लाल थी, आंसूओं की धारा बह रही थी, वह जोर-जोर से पेरिस-पेरिस चिल्ला रही थी, मेरे ऊपर क्रोधित हो रही थी। भाषा की अज्ञानता के कारण मेरी तो कुछ समझ में आ नहीं रहा था। कुछ देर बाद वह आंसू पोछते हुए चली गई। शाम को बुद्धिप्रसाद से मैंने दिन का किस्सा सुनाया बुद्धि के समझ में कुछ भी नहीं आया, यही लगा कि हाथ कट गया हो, पेट दर्द हो। हम अंदाज़ ही लगाते रहे। दूसरे दिन देउस्का को बुद्धि ने पूछ लिया तो पता चला के देउस्का ने हमारी बनाई हुई कढ़ी, साग का एक कटोरा यह देखकर कि यह तो अच्छा व्यंजन है गटक लिया। उसमें मिर्च तेज थी, वह पेरिस-पेरिस (मिर्च-मिर्च) चिल्ला रही थी, फिर तीनों ठहाका मारने लगे, उसके बाद मैं उसे कुछ नए व्यंजन लेने को कहता तो वह हाथ से ना-ना कर इशारा कर देती। इसके बाद उसने शायद ही कोई पकाया हुआ भोजन छुआ हो।

नवंबर की पहली दो तारीख से ही बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी, ठंड भी बढ़ गई थी, बर्फ का आनंद लेने के लिए लोग गर्म ऊनी के लंबे-लंबे कोट पहन करके घरों से बाहर निकल आते और बड़े चाव से आइसक्रीम खाते दिखाई देते थे।

आठ नवंबर को मैंने मास्को से ताशकंद के लिए प्रस्थान किया। मास्को हवाई अड्डे पर बर्फ गिर रह थी, चारों ओर बर्फ की चादर से ढका था, रात को 11.45 पर प्रस्थान किया, ताशकंद के समय के अनुसार हमारा जहाज़ 6.10 पर ताशकंद हवाई अड्डे पर उतरा, बाहर आया तो वहां आज़ाद जी मेरा इंतजार कर रहे थे आज़ाद जी के लिए मास्को से दो पेटियों में फल, सब्जी आदि ढेर सारा सामान लेकर के आया था, जो वस्तुएँ ताशकंद में कम उपलब्ध या महंगी होती थी, उसे उन्होंने मंगाया था, आज़ाद ने पूछा कि पेटियां अच्छी तरह से बंद की गई हैं, मैंने सवाल किया कि क्यों? उनकी शंका थी कि ठीक से न बंधी हो तो वे हमारे सामान उतारते समय हाथ डालकर चुरा लेते हैं। इस बीच सामान आ गया था। हम टैक्सी को लेकर के आज़ाद जी के घर पर पहुंच गए।

आजाद जी की पत्नी एवं एक बेटा सात वर्ष का है। उनकी पत्नी भी ताशकंद विश्वविद्यालय में प्रवक्ता है, आज़ाद के घर में मेरे लिए शाकाहारी एवं भारतीय व्यंजन तैयार किए गए थे। उनका पूरा परिवार शतरंज का खिलाड़ी हैं। जब भी समय मिलता है वे शतरंज खेलते रहते हैं। लड़के का नाम सहजाद था। अगले दिन सहजाद ने मुझे शतरंज खेलने का संकेत किया, घर में हम दोनों के अलावा सभी बाहर गए थे, पहला मैंच मैंने जीता, दूसरा मैच सहजाद ने जीता, उसके प्यादे सभी गोट थे, मेरे दो घोड़े दो प्यादे मारे गए। जैसे ही मैं तीसरे मैच के लिए गोट को लगाने की तैयारी करने लगा, सहजाद ने गोट सहित पट्टे को उठा लिया और अपनी अलमारी में बंद कर दिया। दोपहर बाद जब आज़ाद पहुंचे तो सहजाद शतरंज का पट्टा लेकर के आया। फिर आज़ाद ने बताया कि मुझे मात देने के बाद बहुत खुश है।

किस तरह मात दी, इसलिए उसने पट्टे और गोटों को ज्यों को त्यों रखा, शाम को अपनी मां को भी उसने आज की जीत का जश्न मनाने को कहा।

दूसरे दिन हम आज़ाद के पिता के घर गए, वे स्वास्थ्य विभाग में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं तथा ख्याति प्राप्त अस्थि रोग विशेषज्ञ हैं, माता जी दंत चिकित्सक हैं। उनके घर के अहाते में सेब, आडू तथा अंगूर के वृक्ष फूलों में गुलाब गुलदावरी आदि पौधे थे, मेरे लिए दिन के भोजन की विशेष तैयारी थी। अपने रिश्ते के आठ दस और लोगों को भी भोज पर बुलाया गया था। मेरे लिए कई शाकाहारी पकवान बनाए गए थे, जिसमें पुलाव में काले अंगूर भी डाले गए थे, चटनी भी मुख्य रूप से बनाई गई थी। पुलाव में मक्खन की मात्रा अत्यधिक थी, अन्य पदार्थों में नमक मिर्च, मसाले बहुत डाले गए थे। उनमें यह धारणा थी कि भारतीय लोग मीर्च मसाले बहुत लेते हैं। आजाद का परिवार तो था ही। और लोगों के लिए खास प्रकार का भोजन तैयार किया गया था। जो एक बड़ी मेज पर सजाकर रखा गया था। बताया गया कि उनके लिए मांसाहारी पुलाव जैसा तैयार किया गया था। एक बकरे के पेट के आकार का था। उसमें ऊपर से सलाद के पत्ते भी रखे गए थे, कांटे चम्मचों से सब एक साथ ही निकाल रहे थे, मुझे बीच-बीच में बताते थे कि यह मांसाहारी पुलाव है और खास कर ताशकंद में यह बहुत प्रसिद्ध है। आप पुलाव अलग से पकाया है। आजाद बीच-बीच में आकर मेरे लिए तैयार खाने को भी चखता रहता था जो अलग टेबल में सजा कर रखा गया था, मैं इससे पूर्व कश्मीर के गाँवों में घूमा था, इसलिए मुझे पता था कि इन्हें एक साथ खाने में कोई परहेज नहीं होता है। आजाद के घर में तो जब तक मैं वहां पर था, सबके लिए शाकाहारी भोजन ही बनता था, आज़ाद की पत्नी ने मुझसे कढ़ी बनाना, सब्जी को छौंक कर बनाना सीखा।

पुराने शहर के बाहरी क्षेत्र में खेतों की मेढ़ों पर शहतूत के पेड़ों की कतार खड़ीं हैं। कहीं-कहीं जंगल जैसे भी लगते थे, इस क्षेत्र में बस की कमी बताई गई। गाँवों की दुकानों में पुस्तकें भी हैं, दुकानों में पुस्तक के बंडल बंद मिले। हमें टालस्टाय की पुस्तकें चाहिए थी, जो मास्को और लेनिनग्राद में नहीं मिली। वे वहां गांव की दुकान में मिल गई थी, गाँवों की दुकानों में फर्नीचर से लेकर मनोरंजन आदि सभी प्रकार का सामान मिल जाता है। सभी प्रकार का सामान उपलब्ध हो, गाँवों के बाजार का पूरा ध्यान रखा जाता है। मैं आज़ाद के साथ ताशकंद विश्वविद्यालय भी गया। वहां पूर्वी भाषा विभाग के डीन के साथ परिचय हुआ। स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष के छात्रों के बीच 45 मिनट तक प्रवचन किए। बाद में एक छात्र ने हिंदी फिल्मी गाना सुनाया, उजबेक तथा वियतनामी में भी एक-एक गीत सुनाये। मैंने भी उनके आग्रह पर अंत में कबीर का भजन एवं उत्तराखंड के गीत सुनाये। ताशकंद में स्व. लालबहादुर शास्त्री जी का स्मरण होना लाज़िमी था। मुझे उस समय की याद है जब शास्त्री जी का ताशकंद में देहावसान की खबर आई तो सारा देश स्तब्ध रह गया था। उनकी सादगी एवं स्वभाव के हम कायल थे, मैंने आज़ाद से कहा कि जहां उन्होंने अंतिम सांस ली उस जगह को दिखा दीजिए, लेकिन उन्होंने दूर से दिखा कर टाल दिया। शायद वहां जाने में औपचारिकतें रही होंगी। वे मुझे बाद में जहां शास्त्री जी की मूर्ति लगी है वहां ले गए, उन्हें नमन कर श्रद्धांजलि दी।

अगले दिन आज़ाद के एक सहकर्मी ने भोजन पर बुलाया, वे अध्ययन के लिए कोलकाता में रह चुके हैं। उनका नाम जाहिद साहब था, वे विश्वविद्यालय में बांग्ला के प्रवक्ता थे। इनके मुहल्ले का नाम समरकंद दरवाज़ा है। पुराने शहर में कश्मीर का जैसा वातावरण लगा, मकान ईंट की चिनाई तथा टिन की छतें। गर्मी देने के लिए मिट्टी से लिपे हुए हैं। मकान के आस-पास दो चार फल के पेड़ अवश्य होंगे।

मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा है। जगह-जगह ‘सलाम वाले कम-वाले कम सलाम’ – कह कर आपस में नमस्कार का वहीं तरीका, घरों में बुर्का नहीं देखा, नमाज भी पढ़ा जाता है, नमाज पढ़ने को तो आज़ाद भी जाते थे, वे यदा-कदा कहते थे कि कका जी मैं नमाज पढ़ने जा रहा हूं।

पुराने शहर के बाहरी क्षेत्र में खेतों की मेढ़ों पर शहतूत के पेड़ों की कतार खड़ीं हैं। कहीं-कहीं जंगल जैसे भी लगते थे, इस क्षेत्र में बस की कमी बताई गई। गाँवों की दुकानों में पुस्तकें भी हैं, दुकानों में पुस्तक के बंडल बंद मिले। हमें टालस्टाय की पुस्तकें चाहिए थी, जो मास्को और लेनिनग्राद में नहीं मिली। वे वहां गांव की दुकान में मिल गई थी, गाँवों की दुकानों में फर्नीचर से लेकर मनोरंजन आदि सभी प्रकार का सामान मिल जाता है। सभी प्रकार का सामान उपलब्ध हो, गाँवों के बाजार का पूरा ध्यान रखा जाता है। हमने यहां पोलिहाउस का बना हुआ वातानुकूलित बगीचा जैसा देखा, जो तीन सौ मीटर लंबा था, उसके अंदर टमाटर उगाए जा रहे थे।

गांव में घर के आगे-पीछे चार-पांच बीघा के करीब खेत है जिनमें वे सब्जी, मकई उगाने के अलावा फलदार पेड़ शहतूत के पेड़ है। अपने-अपने खेतों का उत्पादन सुबह-शाम पास के बाजार में स्वयं बेचते हैं। उन्हें इसकी अनुमति मिल जाती है ऐसा बताया गया, ये लोग अमूमन कोल खोज में श्रम करते हैं, बाकी समय अपना काम कर लेते हैं। खेती ट्रैक्टरों द्वारा की जाती है।

अगले दिन आज़ाद और उसके दोस्त जिलाऊदीन के साथ कार से कजाकीस्तान भी गए, रास्ते में हमने कोलखोज देखा, घने जंगल भी देखें, जिन्हें देखकर चित प्रसन्न हुआ, चैंगसांग पहाड़ी जो कि कजाकीस्तान में हैं तोलनोल गांव गए, जहां एक कोलखोज में वातानुकूलित सब्जी उद्यान देखा । टमाटर, आलू खोदे जा रहे थे। ग्रामीण वातावरण को देखकर बहुत अच्छा लगा, इस प्रकार शाम को हम लौटकर ताशकंद आए।

आगले दिन 14 नवंबर को 6 बजे आजाद के साथ हवाई अड्डे पर गया, साथ में उनकी सहकर्मी देउस्का ईरा भी रास्ते से मुझे भेजने के लिए आई, हवाई अड्डे पर पता चला कि जहाज़ तीन घंटे देर से चलेगा, क्योंकि मौसम अनुकूल नहीं है, आज़ाद जी को विदा किया, देउस्का वहीं रुकी रहीं, बाद में उसने संकेत किया तथा मुझे जहाज़ तक बिठाने आ गई। जहाज़ से स्तेपी, वन एवं सागर का मनोहारी दृश्य देखते हुए एक बजे मास्को पहुंचा, वहां मुझे लेने के लिए दिगंबर जी आए थे, हवाई अड्डे से पहले रेल फिर मेट्रो से बुद्धिप्रसाद के घर पहुंचे।

मास्को में एक शाम बुद्धिप्रसाद के साथ भोजन पर एक भारतीय मित्र के यहां गया था, 12 बजे रात हम दोनों ने वहां से प्रस्थान किया। रास्ते में बुद्धि को किसी और को मिलने जाना था, इसलिए वे तो उतर गए, उन्होंने टैक्सी ड्राइवर को समझा दिया था मुझे वन्ये पैरोलोक में उतार देना, वहां का अधिकतम किराया साढ़े तीन रूबल होगा, मेरे पास दस रूबल के अलग सिक्के दे दिए थे।

टैक्सी ड्राइवर मुझे सीधे रास्ते बजाय विपरीत दिशा में ले जा रहा था। मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने आवाज़ भी दी, लेकिन हम एक दूसरे की भाषा को समझते नहीं थे, उसने मीटर भी बंद कर दिया था। वह आगे चलकर गली की ओर टैक्सी मोड़ रहा था कि दूर से टैक्सी पर टॉर्च का प्रकाश लगाया गया। टैक्सी रुक गई। कुछ क्षण रुकने के बाद वह मुख्य मार्ग से चल पड़ा। रास्ते में पुलिस थी। उनकी आपस में क्या बात हुई, यह तो मेरे समझ में नहीं आया, लेकिन मैंने उन्हें बताया कि दोम-दोम वैन्ये पैरोलोक यह शब्द सुनकर पुलिस वालों ने जोर से उससे कुछ कहा (शायद डांट लगाई हो) । इसके बाद दस मिनट में हम घर पहुंच गए। कुल मिलाकर पच्चीस मिनट के रास्ते को वह एक घंटे तक घुमाता रहा, उतरने के बाद मैंने संकेत में पूछा कि किराया कुल कितना हुआ, उसने साढ़े सात रूबल बताया, मैंने 8 रूबल दिए, उसने पच्चास कुपेक भी नहीं लौटाएं, जब बुद्धिप्रसाद देर रात घर लौटा तो इस घटना के सुनते ही उसने टेलीफोन से शिकायत की। उसके पास टैक्सी नंबर था, उसे क्या दंड मिला यह तो मालूम नहीं लेकिन टेलीफोन और पूछताछ बुद्धि से करते रहे, कई बार मेट्रो स्टेशन से बाहर जाने के लिए जब मैं टैक्सी वाले को पूछता तो नज़दीक होने का बहाना ना कह देते, बाद में दो-तीन रूबल ज्यादा देने की बात कहकर तैयार होते, लेकिन बुद्धिप्रसाद का कहना था कि टैक्सियां सरकारी है, मीटर लगे हैं ना कहने का सवाल ही नहीं उठता है, यह सब विदेशी समझकर करते हैं।

बुद्धिप्रसाद ने मेरे लिए लेब टॉलस्टाय की जन्मस्थली एवं कर्मस्थली यास्नाया पोल्याना दिखाने का कार्यक्रम बनाया था। यह तुला के पास मास्को से दक्षिण में 196 किलोमीटर दूर है। लेकिन मैंने बुद्धिप्रसाद से कहा कि मैं मां जी से दो माह का अवकाश लेकर के आया हूं। इसलिए मुझे एक दो दिन में भारत पहुंचना चाहिए। उन्होंने कहा कि अवकाश किस प्रकार का, मैंने बताया कि जब मैं यहां आ रहा था, मां जी ने पूछ लिया था कि अब लौटोगे? मैंने कहा था कि दो माह में, इसलिए वे चिंतित हो जाएगी, बुद्धिप्रसाद ने दौड़ धूप कर आखिर में 22 नवंबर का टिकट मेरे लिए लिया।

इस प्रकार कुछ देखकर, समझकर, खट्टे मीठे अनुभवों से गुजर कर, दो महीने से कुछ दिन बाद 22 नवंबर को एअर इंडिया की उड़ान से दिल्ली पहुंचा। हवाई अड्डे पर कस्टम वालों ने पूछा कि मास्टर जी कहां से आ रहे हो, मैंने कहा कि मास्को से लौट रहा हूं। उन्होंने कहा कि मास्को से लाई हुई सिगरेट की एक दो डिब्बी तथा वोदका की एक आध बोतल दे दो। मैंने कहा मैं इन दोनों वस्तुओं को छूता तक नहीं हूं। इसके बाद मुझे बिना सामान चैक किए जाने दिया गया। हवाई अड्डे के बाहर मेरा इंतजार हमारी संस्था के मंत्री शिशुपाल सिंह कुंवर तथा बुद्धिप्रसाद के दोस्त डॉ. कृष्णमूर्ति कर रहे थे। दो दिन बाद गांधी स्मारक निधि में रुकने के बाद मैं 26 नवंबर को गोपेश्वर पहुंचा। जहां मेरी मां बहुत बीमार थी और मेरा बेसब्री से इंतजार हो रहा था।

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