मुआवजे के लालच में मुगालते में लोग

21 Feb 2016
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आज से दो-ढाई दशक पूर्व लोगों के जल, जंगल, जमीन पर आक्रमण इतना नहीं था और ना ही पर्यावरण के प्रति जागरुकता थी इसलिये तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने परियोजना की जद में आ रही आबादी से उसकी राय एवं सुझाव जानने की जहमत उठाने का कोई प्रयास ही नहीं किया। किन्तु वर्ष-1992 में परियोजना निर्माण कार्य पैसे की कमी के चलते ठप पड़ गया। उत्तराखण्ड राज्य में जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बनती जा रही है। क्योंकि जल विद्युत परियोजना के निर्माण में यहाँ सर्वाधिक राजनेता ही ठेकेदार हैं। राज्य बनने के बाद से अब तक किसी भी राजनेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं जुटाई कि जल विद्युत परियोजना से फलां-फलां पर्यावरणीय और मानवीय नुकसान होने वाला है।

उन्हें तो जल विद्युत निर्माण में ठेकेदार के रूप में खुद को प्रस्तुत करना होता है। यहाँ यमुना पर निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजना का जिक्र किया जा रहा है। क्योंकि सन 1986 से अब तक इन परियोजनाओं की जनसुनवाई तक नहीं हुई है। जबकि परियोजनाओं पर 35 फीसदी से भी अधिक का काम हो चुका है।

प्रदेश सरकार का उपक्रम उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम लिमिटेड देहरादून जिले के डाकपत्थर में यमुना नदी पर लखवाड़-व्यासी बाँध का निर्माण करा रहा है। इसमें लखवाड़ (300 मेगावाट) स्टोरेज तथा व्यासी (120 मेगावाट) रन ऑफ द रिवर परियोजनाएँ बताई जाती हैं। हैरत की बात है कि इन परियोजनाओं में जनसुनवाई की जरूरत तक महसूस नहीं की गई।

चूँकि लखवाड़-व्यासी परियोजना की प्रक्रिया 1986-87 से चल रही है और 1992 तक इसमें 30-35 प्रतिशत काम पूरा हो गया था, किन्तु तब कोई जन-सुनवाई नहीं हुई। सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत मिली जानकारी में पता चलता है कि लखवाड़-व्यासी जल विद्युत परियोजना आरम्भ में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग को आवंटित की गई थी। जिसके लिये 1986 में फॉरेस्ट क्लियरेंस और 3 फरवरी 1987 को पर्यावरणीय स्वीकृति मिली। किन्तु किसी प्रकार की जन-सुनवाई इसके लिये नहीं की गई।

आज से दो-ढाई दशक पूर्व लोगों के जल, जंगल, जमीन पर आक्रमण इतना नहीं था और ना ही पर्यावरण के प्रति जागरुकता थी इसलिये तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने परियोजना की जद में आ रही आबादी से उसकी राय एवं सुझाव जानने की जहमत उठाने का कोई प्रयास ही नहीं किया। किन्तु वर्ष-1992 में परियोजना निर्माण कार्य पैसे की कमी के चलते ठप पड़ गया।

उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने लखवाड़-व्यासी परियोजना को दो भागों में विभक्त कर लखवाड़ (300 मेगावाट) एवं व्यासी (120 मेगावाट) दो परियोजनाओं को वर्ष-2004 में एनएचपीसी को आवंटित कर दिया जिसके लिये पुनः पर्यावरण स्वीकृति हेतु प्रस्ताव भेजा गया और वर्ष-2007 में पर्यावरण स्वीकृति हासिल हो गई। इसके बाद वर्ष-2008 में दोनों परियोजनाओं को एनएचपीसी से वापस लेकर सरकार ने इन्हें उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम लिमिटेड के हवाले कर दिया।

.गौरतलब है कि लखवाड़ एवं व्यासी जल विद्युुत परियोजनाओं में पुनरीक्षित डीपीआर की स्वीकृति का इन्तजार है जिसके बाद इनके निर्माण का काम पुनः शुरू हो जाएगा। लखवाड़ परियोजना के अन्तर्गत टिहरी जिले के 22 तथा देहरादून जिले के 10 गाँव प्रभावितों की सूची में हैं।

इन प्रभावित 32 गाँवों में 6716 लोग प्रभावितों में शामिल हैं जिनमें अनुसूचित जाति के 98 परिवार, अनुसूचित जन जाति के 141 परिवार, अन्य पिछड़ा वर्ग के 379 परिवार तथा सामान्य वर्ग के 30 परिवार शामिल हैं। वहीं व्यासी परियोजना में देहरादून जिले के लोहारी, प्लानखेड़ा, बिन्हार, डिन्डाल, चुन्हों, कान्ड्रियान कुल 6 गाँवों के 749 लोग प्रभावितों में शामिल हैं।

परिवार के रूप में प्रभावित कुल 137 परिवारों में अनुसूचित जाति के 18, अनुसूचित जनजाति के 116, अन्य पिछड़ा वर्ग का 01 तथा सामान्य के 02 परिवार शामिल हैं। इस तरह देखा जाये तो लखवाड़-व्यासी जलविद्युत परियोजनाओं से प्रभावितों में समाज के कमजोर वर्ग के परिवारों की बहुतायत है। इसके साथ ही लखवाड़ परियोजना हेतु कुल 177.226 हेक्टेयर तथा व्यासी परियोजना में कुल 135.425 हेक्टेयर की जरूरत है। इन परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर वन भूमि भी भेंट चढ़ रही है।

निजी भूमि के लिये एक मात्र मुआवजा 1986-87 में ही दिया जा चुका था। सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी मिली है कि लखवाड़ परियोजना में भूमि अधिग्रहण के तहत अभी भी 14 करोड़ 16 लाख 45 हजार 20 रुपए की धनराशि अभी और भूमि अधिग्रहण का मुआवजा दिया जाना है।

सरकारी एजेंसी उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम लिमिटेड ने हजारों लोगों के जीवनयापन एवं निवास को बुरी तरह प्रभावित करने वाली इन परियोजनाओं की जन सुनवाई की कोई कवायद नहीं की। प्रभावितों से उनकी राय भी न पूछने का यह तानाशाही रवैया उत्तराखण्ड की जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में नग्न सच है जो लोगों के गुस्से का खास कारण बनकर सामने आ रहा है।

सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार सतलुज जल विद्युत निगम द्वारा निर्माणाधीन नैटवाड़-मोरी (60 मेगावाट) व जखोल-सांकरी (51 मेगावाट) जल विद्युत परियोजनाओं में भी यही सच सामने है कि अभी जन-सुनवाई निर्धारित नहीं हुई है। इन परियोजनाओं में बैराज का निर्माण प्रस्तावित है।

टौंस नदी पर प्रस्तावित नैटवाड़-मोरी प्रोजेक्ट में उत्तरकाशी जिले के बैनोल, नैटवाड़ तथा गैंचवाण गाँव प्रभावित गाँवों में हैं। इन गाँवों के काश्तकारों की 7 हेक्टेयर निजी भूमि तथा 32 हेक्टेयर वनभूमि सहित कुल 39 हेक्टेयर भूमि नैटवाड़-मोरी परियोजना की भेंट चढ़ रही है। जबकि सूपीन नदी पर बन रही जखोल-साँकरी परियोजना में उत्तरकाशी जिले के सावणी, धारा, जखोल, सुनकुण्डी, पाँव मल्ला तथा सौड़ गाँवों के काश्तकारों की 12 हेक्टेयर निजी भूमि के साथ ही 21 हेक्टेयर वनभूमि भी प्रभावित हो रही है।

जंगल और जमीन को खासे प्रभावित करने वाली इन जलविद्युत परियोजनाओं में जन-सुनवाई की कार्यवाही केवल खानापूर्ति की प्रक्रिया बनकर रह जाये तो आश्चर्य की बात नहीं। जब बड़ी एवं मध्यम श्रेणी की जलविद्युत परियोजनाओं में स्थानीय लोगों की राय को इस तरह बताया जा रहा है तो लघु जलविद्युत परियोजनाओं की स्थिति क्या होगी इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

यूजेवीएनएल चला रहा अंधेरे में तीर


लखवाड़ परियोजना विषयक, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय भारत सरकार के उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम लिमिटेड को 10 जनवरी 2011 को दिये गए पत्र से प्रदेश सरकार की जल विद्युत उत्पादन हेतु खासतौर पर गठित विशेषज्ञ एजेंसी की गम्भीरता के ऊपर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। इस पत्र में एक्सपर्ट कमेटी फॉर रिवर वैली एंड हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स ने यूजेवीएनएल द्वारा प्रस्तुत किये गए डिटेल प्रजेंटेशन पर कई आपत्तियाँ उठाई हैं।

कमेटी ने कहा है कि कटापत्थर में बैराज बनाकर पानी का जमाव कर सिंचाई की सुविधा बढ़ाने के प्रस्ताव के बाबत विस्तार से कुछ भी नहीं है और ना ही लखवाड़ से नदी के बहाव में नीचे की ओर बनने वाली व्यासी बाँध परियोजना का उद्देश्य स्पष्ट किया गया है।

.पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की विशेषज्ञ कमेटी ने पूछा है कि व्यासी बाँध में वाटर कंडक्टर सिस्टम, पावर हाउस तथा टेलरेस की विस्तृत जानकारी कहाँ है। इसी पत्र में कहा गया है कि यह अजीव बात है कि लखवाड़-व्यासी परियोजना के विकासकर्ता ने आधा-अधूरा दस्तावेज पेश किया जिसका खासतौर पर पर्यावरणीय पहलू से कोई सम्बन्ध नहीं है। जो प्रपत्र जरूरी है वह मौजूद नहीं जबकि अनावश्यक जानकारी नत्थी की गई है।

अन्त में विशेषज्ञ कमेटी ने सुझाव दिया है कि परियोजना को लखवाड़, व्यासी तथा कटापत्थर तीन अलग-अलग परियोजनाओं में बाँटा जाना चाहिए तथा उनके लिंकेज, स्पष्ट हाइड्रोलॉजिकल विवरण, दूसरे पर्यावरणीय मुद्दे जो परीक्षण एवं स्वीकृति के लिये जरूरी हैं, पूर्व की एमओईई, सीडब्लूसी, सीईए सभी स्वीकृतियाँ कमेटी को मुहैया कराई जाएँ।

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