मुक्ति की आस में मुक्तिदायिनी फल्गु


गंगा पदोदकं विष्णो फल्गुहर्यादि गदाधर:।
स्वयं हि द्रवरूपेण तस्माद्गंगाधिकां विद:।।


(गंगा भगवान विष्णु का चरणामृत है। फल्गु रूप में स्वयं आदि गदाधर ही हैं। स्वयं भगवान द्रव (जल) रूप में हैं। इसलिए फल्गु को गंगा से अधिक समझना चाहिए।)

मुक्तिर्भवति पितृणां कतृणां तारणाय च।
ब्रह्मणा प्रार्थितो विष्णु: फल्गुरूपो भवत्पुरा।।


(गया जी में फल्गुतीर्थ पर श्राद्ध करने से पितरों की मुक्ति एवं करनेवाले का तारण होता है। क्योंकि ब्रह्मा जी की प्रार्थना से स्वयं भगवान विष्णु ही फल्गु के रूप में परिणत हुए।)

फल्गु नदी में दूर तक बिछी रेत की चादरगया रेलवे स्टेशन पर उतरते ही प्लेटफॉर्म की छतों को सहारा देनेवाले पिलरों पर फल्गु नदी के धार्मिक महत्त्व को बताने वाले श्लोक व उनका हिन्दी तर्जुमा दिखता है। इन श्लोकों में फल्गु नदी को गंगा से भी महत्त्वपूर्ण नदी कहा गया है।

इन्हें पढ़ते हुए जेहन में कलकल बहती फल्गु की जादुई तस्वीर बनती है। और बने भी क्यों नहीं। जिस नदी के साथ विष्णु के धरती पर उतरने और सीता द्वारा राजा दशरथ को पिंडदान करने की पौराणिक कथाएं जुड़ी हों, उस नदी के बारे में ऐसी ही तस्वीर बननी भी चाहिए। लेकिन, चांदचौरा से होकर विष्णुपद मंदिर की सीढ़ियाँ उतरते हुए जब आप नदी के सामने पहुँचेंगे, तो आपको झटका लगेगा। आपकी मुठभेड़ एक कलकल बहती नदी से नहीं, बल्कि एक ऐसी नदी से होगी, जो पूरी तरह सूख चुकी है। नदी में लाल बालू की मोटी चादर बिछी हुई है। नदी की चौड़ाई यह बताती है कि इसका इतिहास भव्य रहा होगा, लेकिन इसका वर्तमान कितना दारुण है, यह बीच नदी से सर्प जितनी पतली बलखाती धारा (नाली के गंदे पानी) से पता चल जाता है।

विष्णुपद मंदिर से सटा हुआ श्मशान घाट है। इस श्मशान घाट में इलेक्ट्रॉनिक चूल्हे भी हैं, लेकिन गया नगर निगम की मनाही (घाट पर निगम का बोर्ड भी लगा है, जिसमें घाट पर शव नहीं जलाने की हिदायत दी गयी है) के बावजूद लोग फल्गु नदी में ही लाशें जलाते हैं। नदी के दोनों किनारों से होते हुए जहाँ तक चले जाइये, आपका सामना शौच और गंदगी से ही होगा। विष्णुपद से संलग्न श्मशान घाट में लकड़ियाँ बेचनेवाले एक बुजुर्ग से बात होती है, तो वह बेहद सामान्य लहजे में कहते हैं, “सीता माता का श्राप है, इसलिए नदी सूखी हुई है। इसमें चिंता की कोई बात नहीं है।”

विष्णुपद के पीछे नदी के किनारे बना श्मशान घाटपौराणिक कथाओं की मानें, तो सीता के श्राप के कारण नदी की यह हालत हो गयी। पौराणिक कथा है कि राजा दशरथ जी को पिंडदान करने के लिये राम, लक्ष्मण और सीता फल्गु नदी के किनारे आये थे। सीता को फल्गु नदी के किनारे छोड़ राम और लक्ष्मण कुछ सामान लेने चले गये। इस बीच दरशथ की आत्मा आयी और सीता से कहा कि अविलंब उन्हें पिंडदान किया जाय क्योंकि यह पिंडदान का सबसे शुभ मुहूर्त है। सीता ने फल्गु, वट वृक्ष, गाय औऱ ब्राह्मण को साक्षी मान कर बालू का पिंड बनाया और राजा दशरथ को दान कर दिया। राम जब लौटे, तो सीता ने पूरी बात बतायी। सीता की बातों पर राम को यकीन नहीं हुआ और उन्होंने सबूत मांगे। सीता ने गवाह के तौर पर ब्राह्मण, वट वृक्ष, गाय व फल्गु नदी को पेश किया। इनमें से वट वृक्ष को छोड़ कर सभी अपनी बातों से मुकर गये। इससे गुस्सायी सीता ने सभी को श्राप दे दिया। फल्गु नदी को कहा कि वह अब सदा जमीन के नीचे से बहेगी व ऊपरी हिस्सा सूखा रहेगा। इसी तरह सीता ने ब्राह्मण को यह श्राप दिया कि वे कभी संतुष्ट नहीं होंगे। गाय को श्राप दिया कि वह अपशिष्ट भी खायेगी। वट वृक्ष ने सीता की बातों का समर्थन किया, तो उन्हें सीता ने सदा हरा-भरा रहने का वरदान दिया।

इस कथा में कितनी सच्चाई है नहीं पता, लेकिन सूखी फल्गु नदी देख कर यह यकीन हो जाता है कि सीता का श्राप हो या कुछ और नदी अब तो वैसी नहीं रही जैसी पहले रही होगी।

सूखी फल्गु नदीप्रशासनिक लापरवाही के कारण फल्गु के किनारों पर उट्टालिकाएं खड़ी कर दी गयी हैं और फल्गु से रेत निकालने का धंधा जोरों पर है। रेत निकालने के लिये सरकार बाजाब्ता टेंडर निकालती है, लेकिन टेंडर की शर्तों की अनदेखी करते हुए भारी पैमाने पर रेत निकाला जा रहा है। शहर का हजारों लीटर गंदा पानी भी नदी में ही बहाया जा रहा है। जब छठ पूजा होती है, तो गड्ढा खोद कर रिसते पानी में छठव्रती खड़े होकर अर्घ्य देते हैं और ढेर सारी मन्नतें मांग कर घर लौट जाते हैं। इन मन्नतों में फल्गु कहीं नहीं होती।

पुराने गजेटियर से पता चलता है कि एक समय फल्गु में बारिश के मौसम में भयावह बाढ़ आया करती थी। बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स तैयार करनेवाले एल एस एस ओमॉले वर्ष 1906 में प्रकाशित गजेटियर में लिखते हैं, “भागवत पुराण के अनुसार त्रेता युग में गया नाम के एक राजा हुए थे। उन्हीं के नाम पर गया शहर का नामकरण हुआ है लेकिन गया को लेकर सर्वमान्य पौराणिक कहानी वायु पुराण में है। वायु पुराण के अनुसार गयासुर नाम का एक असुर था। उसने अपनी तपस्या से खुद को इतना पवित्र कर लिया था कि जो भी उसे देख लेता या छू लेता वह स्वर्ग में चला जाता। गयासुर को देख यमराज जलते-कुढ़ते रहते थे क्योंकि स्वर्ग व नर्क में भेजने का अधिकार यमराज को था। गयासुर ने यमराज से यह अधिकार छीन लिया था। यमराज ने अपनी पीड़ा भगवान विष्णु के सामने व्यक्त की, तो भगवान विष्णु फल्गु के किनारे उतरे और गयासुर का वध किया।”

गजेटियर में कहा गया है कि फल्गु बाढ़ प्रवण नदी है। जब बाढ़ आती है, तो नदी का पानी लकड़ी की पुलिया को छू लेता है, जिस कारण ट्रैफिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाती है। फल्गु नदी बारिश को छोड़ अन्य मौसमों में सूखी रहती है।

लेकिन, नदी की चौड़ाई इस बात की तस्दीक करती है कि किसी जमाने में इसमें सालभर पानी रहता होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो नदी का स्थायी मार्ग नहीं बन पाता।

गजेटियर के मुताबिक, फल्गु नदी के पानी का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई के लिये पइन (नाला) के जरिये खेतों की ओर मोड़ दिया गया है। गजेटियर पर यकीन करें, तो नदी की दुर्दशा के पीछे कहीं न कहीं सिंचाई के लिये पानी का रुख मोड़ा जाना भी एक बड़ा कारण है। वहीं, दूसरी बड़ी वजह नीरंजना (नीलांजन) और मोहना नदी के उद्गम स्थल पर वनों की कटाई है। इन दोनों नदियों का निर्माण झरने से होता है। पेड़-पौधे पानी को संग्रह करने का काम करते हैं। इन दोनों नदियों के उद्गमस्थल के आस-पास वनों की बेतहाशा कटाई की गयी है, जिस कारण बारिश का पानी जमा नहीं हो पाता है।

उल्लेखनीय है कि फल्गु नदी गया शहर की एक तरफ से होकर गुजरती है। कह सकते हैं कि गया शहर फल्गु के किनारे बसा हुआ है। गया तीन तरफ से ब्रह्मशिला, रामशिला, मंगलागौरी व श्रींगस्थान पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इन पहाड़ियों के बारे में कहा जाता है कि ये गयासुर के शरीर के हिस्से हैं। गया की चौथी तरफ फल्गु नदी है। नीलांजन (नीरंजना) व मोहना (मुहाने) नदी के मिलने से फल्गु बनती है। नीलांजन नदी का उद्गमस्थल हजारीबाग पठार है। यहाँ से पथरीली राहों से बहती हुई गया के दक्षिण की तरफ 10 किलोमीटर जाकर केंदुई के पास मोहना नदी से मिल जाती है। यहाँ इसे फल्गु नदी का नाम मिलता है। यहाँ भी बता दें कि मोहना नदी भी हजारीबाग के पठार से ही निकलती है।

ब्रह्मयोनी पहाड़ी। इसी के पीछे से मधुश्रवा नदी निकली हैकुछ आगे चल कर विष्णुपद के पास फल्गु में मनसरवा नाला मिलता है। मनसरवा नाले के बारे में कहा जाता है कि यह पहले नदी था, जिसे मधुश्रवा कहा जाता था। यह नदी ब्रह्मयोनी पहाड़ के पीछे से निकली है। रामायण में फल्गु नदी का जिक्र नीरंजना (नीलांजना) नदी के रूप में हुआ है। फल्गु आगे चल कर मोहना नदी के नाम से जानी जाती है कुछ दूर और जाकर पुनपुन नदी की शाखा में मिल जाती है।

गया के पुराने लोग यह भी बताते हैं कि फल्गु में पहले दूध, घृत व शहद बहा करती थी।

फल्गु नदी को लेकर काम करनेवाले ब्रजनंदन पाठक कहते हैं, “असल में ब्रह्मयोनी पहाड़ी के पीछे घने जंगल थे, जहाँ मधुमख्यियों के असंख्य छत्ते हुआ करते थे, इन छत्तों से भारी मात्रा में शहद टपकती रहती थी, जो मधुश्रवा नदी से होकर फल्गु में चली जाती थी। आज भी ब्रह्मयोनी पहाड़ी के पीछे के जंगल में मधुमक्खियों के छत्ते दिखते हैं। वहीं, धार्मिक महत्त्व होने के कारण फल्गु में सालभर तीर्थयात्रियों का आना लगा रहता था। वे दूध और घी नदी में चढ़ाते रहते होंगे, जो नदी के पानी के साथ बहती रही होगी।”

मनसरवा (मधुश्रवा नदी) नाले से होकर फल्गु में जाता है शहर का गंदा पानीमनसरवा नाले को देख कर यह यकीन पुख्ता हो जाता है कि यह कभी नदी रही होगी। इसका चैनल प्राकृतिक और घने जंगलों से ढका हुआ है। कई जगहों पर तो जंगल इतना घना है कि लगता ही नहीं कि इस रास्ते कोई नाला भी बहता है। शहर की सीवरेज लाइनें मनसरवा नाले से जोड़ दी गयी हैं।

फल्गु का इतिहास भले ही गौरवशाली रहा हो, लेकिन इसका वर्तमान बेहद धुमिल है और अगर हालात यही रहे, तो एक दिन इस नदी की बची-खुची पहचान भी खत्म हो जायेगी। 400 मीटर चौड़ी इस नदी के दोनों किनारों पर दर्जनों अवैध मकान बना दिये गये हैं जिससे कई जगहों पर इसके घाट विलुप्त हो गये हैं। गया के वयोवृद्ध साहित्यकार गोवर्धन प्रसाद सदय फल्गु के अतिक्रमण पर चिंता जताते हुए कहते हैं, ‘इस नदी का अस्तित्व है, तभी गया का भी अस्तित्व है, लेकिन आज कोई इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है।’ वे कहते हैं, “फल्गु नदी में दो बार भयंकर बाढ़ आयी थी, जिसका मैं गवाह हूँ। सन 1938-39 और फिर सन 1945-46 में बाढ़ का जो विकराल रूप गया के लोगों ने देखा, वैसा रूप फिर नहीं दिखा। इसके बाद कभी ऐसी बाढ़ नहीं आयी। अलबत्ता बारिश के दिनों में नदी हरी-भरी हो जाती है।”

गोवर्धन प्रसाद सदय कहते हैं, “मैं नदी को देखता हूँ, तो मुझे चिंता नहीं तकलीफ होती है, क्योंकि मैं लाचार हूँ। नदी के लिये कुछ नहीं कर सकता हूँ। जिसे (गया नगर निगम) करना है, वह लापरवाह है।”

गौरतलब है कि ब्रजनंदन पाठक की संस्था प्रतिज्ञा ने फल्गु को लेकर पटना हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की थी। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए मार्च 2015 में हाईकोर्ट ने प्रशासन से तीन कदम उठाने को कहा था। इसमें नदी के किनारे बने अवैध मकानों को ध्वस्त करना, नदी में नाली का गंदा पानी नहीं बहाना व फल्गु में बाँध बनाना शामिल थे। कोर्ट ने नदी का असल क्षेत्रफल पता करने को भी कहा था लेकिन अफसोस की बात है कि न तो नाली का पानी गिरना बंद हुआ और न ही बाँध बनाने की दिशा में ही कोई काम हुआ। हाँ, खानापूर्ति के लिये कुछ अवैध मकानों पर बुलडोजर जरूर चला।

अगर मान लिया जाये कि पौराणिक कथा ही फल्गु का सच है, तो मौजूदा स्थितियाँ इस ओर इशारा कर रही हैं कि आने वाले कुछेक दशकों में यह पौराणिक कथा अप्रासंगिक हो जायेगी। सीता जी ने फल्गु को अंतः सलीला (सतह के नीचे से बहनेवाली) कहा था, लेकिन कुछ सालों में फल्गु के नीचे से भी पानी खत्म हो जायेगा। तब शायद एक और कहानी गढ़नी होगी, ताकि इस नदी के अस्तित्व को मिटाने को आमादा पीढ़ी अपने कुकर्मों पर परदा डाल सके।

रेत हटाने से फल्गु में निकला पानीब्रजनंदन पाठक कहते हैं, ‘पहले आधा से एक फीट बालू हटाने पर पानी निकलने लगता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब तो 10-10 फीट गड्ढा करने पर पानी के दर्शन होते हैं क्योंकि भूगर्भ जल का बेतहाशा दोहन किया जा रहा है।’

यहाँ यह भी बता दें कि नदी के अंतः सलीला होने के पीछे वैज्ञानिक कारण हैं। आईआईटी कानपुर के भूविज्ञान विभाग के राजीव सिन्हा कहते हैं, “नदी की सतह के नीचे भी संरचनाएँ हैं। प्रकृति ने खुद को ठंडा रखने के लिये ये संरचनाएँ बनायीं। फल्गु में बालू की सतह के नीचे चट्टान की परतें हैं। हालाँकि सभी नदियों की बनावट कमोबेश ऐसी ही होती है, लेकिन फल्गु में चट्टान की परत बहुत ऊपर है इसलिए थोड़ा-सा बालू हटाते ही पानी निकलने लगता है।”

राजीव सिन्हा कहते हैं, “फल्गु को लेकर बहुत अधिक शोध नहीं हुआ है, लेकिन इसकी चौड़ाई, इसकी प्रकृति और मगध का इतिहास बताता है कि सदियों पहले यह नदी सालभर बहती होगी।”

सिन्हा बताते हैं, “वर्तमान में फल्गु नदी से बड़े पैमाने पर बालू निकाला जा रहा है और इस बालू का कारोबार नेपाल के काठमांडू तक होता है। बालू की निकासी नदी की इकोलॉजी को बर्बाद कर रही है।”राजीव सिन्हा ने कहा, बेतहाशा बालू खनन व फल्गु के ग्राउंड से बड़े पैमाने पर पानी के दोहन ने फल्गु को बहुत नुकसान पहुँचाया है।

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल के हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “नदी को बचाना है, तो दो तीन काम जल्द से जल्द करने होंगे। पहला काम तो यह करना होगा कि नदी के कैचमेंट एरिया में अधिक से अधिक पौधे लगाने होंगे। दूसरा, चकबांध बनाना होगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अधिक से अधिक बारिश के पानी को रोका जाय।”

गया मगध क्षेत्र में आता है। मगध क्षेत्र पर लंबे समय तक मौर्य वंश का शासन रहा। मौर्य वंश के शासनकाल में पानी के प्रबंधन पर खासा ध्यान दिया जाता था और इसी कारण मगध क्षेत्र समृद्ध भी हुआ था। कहा जाता है कि मगध में पानी के प्रबंधन की पृथक व प्रभावशाली व्यवस्था थी।

आज फल्गु की हालत देख कर अपने अतीत की ओर सिंहावलोकन कर सीख लेने की जरूरत है ताकि फल्गु का अस्तित्व सदियों तक बचा रहे।


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