मुसीबत में एक नदी


हिमाचल प्रदेश में औद्योगीकरण के अपने फायदे और नुकसान हैं। हालांकि इससे कुछ रोज़गार तो खड़े हुए किन्तु नदियों और वायु प्रदूषण के रूप में हमें भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है। जो रोज़गार खड़े भी हुए उसमें ज़्यादातर अकुशल मजदूरी के अस्थायी रोज़गार ही हिमाचल के हिस्से आये। ऊपर से 70 प्रतिशत रोज़गार हिमाचलियों को देने का वादा भी पूरा नहीं हो सका।

नदियों के प्रदूषण से न सिर्फ जल प्रदूषित हुआ, बल्कि पारम्परिक रोज़गार भी छिन गए। स्थानीय समुदायों के लिये स्वास्थ्य की चुनौतियाँ भी बढ़ी। सिरसा नदी इसकी एक बानगी है। सिरसा नदी हरियाणा के जिला पंचकुला के कालका के आस पास के क्षेत्रों से निकल कर उत्तर-पश्चिम की ओर बहते हुए बद्दी में हिमाचल में प्रवेश करती है।

बद्दी, बरोटीवाला, नालागढ़ जो हिमाचल प्रदेश का प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र है, इसमें से गुजरते हुए यह पंजाब में प्रवेश करती है और रोपड़ के पास चक – देहरा में यह सतलुज नदी में मिल जाती है। बाहरी शिवालिक क्षेत्र में बहने के कारण यह बहुविध पारिस्थितिकीय भूमिका निभाती है। शिवालिक क्षेत्र आमतौर पर पानी के अभाव वाला क्षेत्र माना जाता है।

एक सदानीरा नदी का इस क्षेत्र में होना ही अपने आप में प्रकृति की अद्भुत देन से कम नहीं। सिंचाई, पेयजल, भूजल पुनर्भरण, जलीय जीवों के सुन्दर आवास के अलावा इस नदी में कई पनचक्कियाँ भी चलती थीं। जहाँ सिंचाई की कुहलें नहीं पहुँचती थीं वहाँ लोगों ने नलकूप लगाकर सिंचाई की व्यवस्था कर ली थी।

प्रदेश के विकास के लिये औद्योगीकरण को बहुत जरूरी और रोज़गार पैदा करने वाला माना जाता है। एक हद तक यह ठीक ही है। किन्तु यदि औद्योगीकरण हमारे वातावरण, नदियों,और भूजल को ही प्रदूषित कर दे तो बहुत सा रोज़गार छीना भी जाता है। रहने के हालात कठिन हो जाते हैं। बीमारियों की भरमार हो जाती है।

टिकाऊ विकास की व्यवस्थाएँ नष्ट हो जाती हैं। ऐसा विकास थोड़े समय का तमाशा बनकर रह जाता है। इसलिये औद्योगीकरण के विपरीत प्रभावों को कम करने के लिये प्रदूषण नियंत्रण के कई उपाय करने जरूरी हो जाते हैं। जिसके लिये राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के माध्यम से मार्गदर्शिका जारी की जाती है।

उद्योगों की गतिविधियों की निगरानी और अनुश्रवण की विभिन्न व्यवस्थाएँ खड़ी की जाती हैं। औद्योगिक वर्ग लाभ कमाने के लालच में कई बहुत जरूरी सावधानियों की जानबूझकर अनदेखी कर जाता है। जिससे जनसामान्य के हितों और पर्यावरण की नाज़ुक व्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ता है।

नदी और भूजल व्यवस्थाएँ इसका शिकार हो जाती हैं। वायु प्रदूषण भी एक बड़ा खतरा बनकर उभरता है। प्रदूषित वायु के भी कुछ अंश बारिश में घुलकर नदियों और जलस्रोतों में मिल जाते हैं और उन्हें भी प्रदूषित कर देते हैं। बीबीएन क्षेत्र भी इन विसंगतियों से अछूता नहीं है। इसका सबसे बड़ा शिकार सिरसा नदी हुई है।

अगस्त 2011 से जुलाई 2012 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चौहान और साथियों द्वारा किये गए अध्ययन और उसके बाद हुए अध्ययनों से कई महत्त्वपूर्ण बातें सामने आई हैं। पहले अध्ययन में जैव अनुश्रवण अध्ययन किया गया था। इसके अन्तर्गत जलीय जैवविविधता का सूचीकरण करके नदी प्रदूषण स्तर का पता लगाया जाता है।

इस अध्ययन में, बद्दी से ऊपर का क्षेत्र जहाँ औद्योगिक कचरा नहीं पहुँचता है; जगातखाना, जहाँ से औद्योगिक कचरा शुरू हो जाता है और धनौली, जहाँ औद्योगिक कचरे वाले क्षेत्र को लाँघकर नदी पंजाब में प्रवेश करती है, इन तीन स्थलों का नमूना अध्ययन किया गया। इसमें पाया गया कि बद्दी के ऊपर वाले क्षेत्र से जगातखाना तक आते-आते जैविक प्रदूषण, दो गुना हो जाता है।

धनौली तक आते-आते प्रदूषण का स्तर तीन गुना हो जाता है। यानी खतरे के स्तर से ऊपर पहुँच जाता है। इसके कारण संवेदनशील जलीय जीव प्रजातियाँ लुप्त होती जाती हैं।

सिरसा नदी की सहायक खड्डे, बलद, चिकनी खड्ड, छोटा काफ्ता नाला, पल्ला नाला, जटा वाला नाला और संधोली खड्ड हैं। इन खड्डों का भी हाल औद्योगिक प्रदूषण के चलते खराब हो चुका है। बीबीएन क्षेत्र लगभग 3500 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इसमें लगभग 2063 उद्योग हैं। इनमें से 176 लाल श्रेणी के, 779 सन्तरी श्रेणी के और 1108 हरी श्रेणी के हैं।

सिरसा नदी का जल ‘ई’ श्रेणी का पाया गया है। यह जल के घोषित उपयोगों में से किसी के योग्य नहीं है। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि मछली जिन्दा नहीं रह सकती। ई-कोलाई की मात्रा इतनी ज्यादा है कि यह पीने योग्य नहीं है। क्रशर उद्योग के लिये सिरसा नदी और उसकी सहायक खड्डे बुरी तरह से खनन का शिकार हो चुकी हैं। ज्यादातर खनन अवैध है। नदी खनन से प्राप्त रेत, बजरी, पत्थर का प्रयोग हिमाचल और सीमा से सटे पंजाब के क्रशरों में भी अवैध रूप से होता है।यह वर्गीकरण इनकी प्रदूषण फ़ैलाने की क्षमता के आधार पर किया गया है। लाल श्रेणी में सबसे ज्यादा, सन्तरी श्रेणी में उससे कम और हरी श्रेणी में काफी कम प्रदूषण फैलने की सम्भावना रहती है। लाल श्रेणी में थर्मल प्लांट, धागा उद्योग, स्टोन क्रशर, एल्युमीनियम स्मेल्टर, लेड-एसिड-बैटरी, और बायलर उद्योग आदि आते हैं। सन्तरी श्रेणी में ईंट भट्ठा, नदी से रेत-बजरी-पत्थर आदि निकालने, ढाँचागत निर्माण और फार्मेसी आदि उद्योग रखे गए हैं। हालांकि प्रदूषण फ़ैलाने में सन्तरी श्रेणी के उद्योगों का योगदान भी कम नहीं है। बीबीएन क्षेत्र में प्रदूषण नियंत्रण प्रावधानों का उद्योगों द्वारा ठीक से पालन न करने के चलते ही केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इसे “खतरनाक स्तर तक प्रदूषित” क्षेत्रों की सूची में डाला है।

खतरनाक कचरे को यहाँ-वहाँ नदियों में डालना, प्रदूषित जल को खेतों व नदियों में छोड़ देना, अवैध खनन, आदि प्रमुख समस्याएँ हैं, इनका सम्मिलित प्रभाव कृषि, पशुपालन, जलीय जैवविविधता, स्वास्थ्य, और स्वच्छता पर पड़ना स्वाभाविक ही है। प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की पर्यावरणीय गाइड लाइन को लागू करने की सामर्थ्य पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है।

नदी और उसकी सहायक खड्डों में प्रदूषित पानी छोड़ने के साथ कुछ उद्योगों द्वारा प्रदूषित जल को ज़मीन के भीतर इंजेक्ट करने की भी सूचनाएँ हैं। 60 प्रतिशत उद्योगों में जल उपचार प्लांट ही नहीं लगे हैं। बघेरी क्षेत्र में हवा में पारे, लेड और केडमियम की मात्रा सुरक्षित स्तर से काफी ज्यादा है।

बारिश में घुलकर पारा नदी जल और भूजल में पहुँच जाता है। मछली के शरीर में पहुँच कर पारा, मिथाइल पारे में बदल जाता है। यह शरीर में मस्तिष्क, हृदय, फेफड़े, और गुर्दे को नुकसान पहुँचाता है और रोगरोधी व्यवस्था को भी खराब करता है।

नदियों के किनारे एक्सपायर दवाइयों की और अन्य खतरनाक ठोस कचरे की डम्पिंग आम बात है। यह ‘खतरनाक अपशिष्ट नियम 2006’ का उल्लंघन है। केंधुवाल में एक साँझा प्रदूषित जल संशोधन/उपचार संयंत्र लगना है, इसकी क्षमता 1260 इकाइयों के प्रदूषित जल को संशोधित करने की है, कुल इकाइयाँ 2063 हैं, शेष का क्या होगा।

सिरसा नदी का जल ‘ई’ श्रेणी का पाया गया है। यह जल के घोषित उपयोगों में से किसी के योग्य नहीं है। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि मछली जिन्दा नहीं रह सकती। ई-कोलाई की मात्रा इतनी ज्यादा है कि यह पीने योग्य नहीं है।

क्रशर उद्योग के लिये सिरसा नदी और उसकी सहायक खड्डे बुरी तरह से खनन का शिकार हो चुकी हैं। ज्यादातर खनन अवैध है। नदी खनन से प्राप्त रेत, बजरी, पत्थर का प्रयोग हिमाचल और सीमा से सटे पंजाब के क्रशरों में भी अवैध रूप से होता है। खनन माफिया से स्थानीय राजनीतिज्ञों के तार भी जुड़े हो सकते हैं। इसीलिये उनके हौसले इस कदर बढ़े हुए हैं कि कुछ समय पहले अवैध खनन पर छापा मारने वाले तहसीलदार पर ही तलवारों से हमला हो गया था।

इन खड्डों का तल 3 से 12 मीटर तक गहरा हो गया है। इसी कारण किशनपुरा-हरिरायपुर, भुद्द और सन्धोली विभागीय सिंचाई योजनाएँ फेल हो गई हैं। इससे 415 हेक्टेयर भूमि सिंचाई से वंचित हो गई है। भूजल 200 फुट तक नीचे चला गया है। वहाँ भी पानी प्रदूषित है। परिणामस्वरूप कृषि बर्बाद हो गई है, खेतों में काम करना कठिन है, चर्मरोग और प्रदूषित जल जनित रोगों का प्रकोप बढ़ रहा है। स्थिति की गम्भीरता को समझा जाना चाहिए।

सरकार, प्रबुद्ध नागरिक और स्वयं औद्योगिक उद्यमी ही मिलकर रास्ता निकाल सकते हैं। इन सवालों को उठाने वालों को विकास विरोधी ठहराने के प्रयास किये जाते हैं। ताकि कोई बोलने का साहस न करे। किन्तु एक नदी को मरने से बचाना सबका साझा हित है। अनुमान लगाएँ कि जब जीवनदायी नदियाँ ही विषैली हो जाएँगी तो जीवन कैसे चलेगा। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के बराबर जरूरी मामला है। औद्योगिक या किसी भी तरह की विकास गतिविधि के नाम पर यहाँ कोई लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जा सकती।

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