मवेशियों का खून पीते हैं पिशाच चमगादड़ बदले में देते हैं रेबीज बीमारी

पिशाच चमगादड़ की अनोखी बनावट
पिशाच चमगादड़ की अनोखी बनावट

भारतीय ग्रन्थों, साहित्यों व कहानियों में पिशाचों (वैम्पायर्स) का कई प्रारूपों में उल्लेख मिलता है। यही नहीं फिल्मों व टेलीविजन के कई सीरियल्स में भी खून पीने वाले पिशाचों को अनोखे अन्दाज व डरावने रूपों (ड्रैकुला,चुड़ैल,भूत, राक्षस, चमगादड़ इत्यादि) में अक्सर दिखाया जाता है। लेकिन विज्ञान में इनका कोई स्थान नहीं है। परन्तु प्राणी-जगत में ऐसे भी स्तनधारी जीव हैं जो अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिये न केवल इंसानों का बल्कि पालतू मवेशियों व जंगली जानवरों का भी खून पीते हैं। इन्होंने काटने और खून पीने का हुनर इस कदर विकसित किया कि इसका पता अक्सर मवेशियों को नहीं चल पाता है। ये हैं पिशाच चमगादड़ जो रात में उड़ने वाले प्राणी हैं। इनमें अंधेरे में अपने शिकार को ढूँढने व पहचानने की अद्भुत क्षमता होती है, ऐसा हुनर प्राणियों में दुर्लभ ही देखने को मिलता है।

विश्व में करीब 1300 प्रजातियाँ चमगादड़ों की है जो प्राणी-जगत के कोर्डेटा संघ के स्तनधारी वर्ग के काईरोप्टेरा गण से सम्बन्धित निशाचर जीव हैं। ये सामाजिक प्राणी हैं जो समूहों में पेड़ों, अंधेरायुक्त खाली पड़े मकानों, खंडहरों, मन्दिरों, गुफाओं, चट्टानों की गहरी दरारों में उल्टा लटककर जीवन जीते हैं। दिन में सोने व आराम करने वाले ये जीव रात में सक्रिय होकर भोजन पानी तलाशते हैं। ये बच्चे देते और दूध पिलाकर इन्हें बड़ा भी करते हैं। सभी प्रजाति के चमगादड़ों की शारीरिक संरचना एवं व्यवहार लगभग एक जैसा ही होता है परन्तु भोजन भिन्न-भिन्न होने से इनमें कुछ विशेष प्रकार की अनुकूलताएँ विकसित हो जाती हैं। इनमे से कई प्रजातियाँ फल व मकरन्द भक्षी भी होती हैं तो कोई कीटभक्षी या फिर मांसाहारी। लेकिन विश्व में चमगादड़ की तीन ऐसी प्रजातियाँ है जो रक्तभक्षी (संगिवोर्स) है जिन्हें पिशाच चमगादड़ या वैम्पायर बैट्स कहते हैं। सामान्य पिशाच चमगादड़ (डेस्मोडस रोटून्डस), सफेद पंख युक्त पिशाच चमगादड़ (डीइमस यंगी) व रोएंदार पाँव वाले पिशाच चमगादड़ (डीफिलाए ऐकोडाटा), ये तीनों प्रजातियाँ स्तनधारी वर्ग के काईरोप्टेरा गण के फिलोस्टोमिडी परिवार व डेस्मोडोंटीनी उप परिवार की हैं। इनकी प्रमुख पहचान इनकी पतीनुमा नाक से होती है। ये चमगादड़ बहुत ही छोटे होतें हैं जिनकी लम्बाई इंसान के अंगूठे जितनी करीब की होती है यानि दो से तीन इंच व पंख फैलाने पर इनकी लम्बाई सात-आठ इंच तक की। इनका वजन लगभग दो औंस तक होता है तथा इनकी अधिकतम आयु नौ वर्ष तक होती हैं। इनके उड़ने की रफ्तार नौ मील प्रति घंटा तक की होती है। ये दुनिया के एकमात्र ऐसे चमगादड़ हैं जो जमीन पर चलते, कूदते-फुदकते व दौड़ सकते हैं।

पिशाच चमगादड़ के खून पीने हेतु विशेष दांत व नुकीली जीभपिशाच चमगादड़ के खून पीने हेतु विशेष दांत व नुकीली जीभपिशाच चमगादड़ प्रमुख रूप से उत्तरी व दक्षिणी अमरीका मूल के हैं। वहाँ ये बहुतायत में मिलते हैं। लेकिन ये प्रजातियाँ मेक्सिको से लेकर ब्राजील, चिली, उरुग्वे, अर्जेंटीना इत्यादि देशों में भी व्यापक रूप में बसर करती है। भारत में चमगादड़ों की लगभग 128 प्रजातियाँ हैं। इनमें से पिशाच चिमगादड़ की दो प्रजातियाँ है, लेसर फाल्स (मेगाडर्मा स्पाज्मा) व ग्रेटर फाल्स (मेगाडर्मा ईरा) नाम की। जिनके नाक भी पतीनुमा होते हैं। लेकिन ये कीट भक्षी प्रवृत्ति के होते हैं।

गहरी अंधेरी गुफाओं-कन्दराओं, चट्टानों की दरारों, वृक्ष की खोंखलों इत्यादि आवासों में रहने वाले ये नन्हें-नन्हें वैम्पायर बैट्स 7,800 फीट की ऊँचाई पर भी रह सकते हैं। धूसर व भूरे आवरण के ये चमगादड़ शिकार को ढूँढने व इनका खून पीने के लिये अपने शरीर में अतिसंवेदनशील सेंसर विकसित कर रखे हैं जो न केवल अंधेरे में उड़ान के दौरान इन्हें रास्ता भटकने से रोकते हैं बल्कि ये इन्हें शिकार की सटीक जानकारी भी देते हैं। इनमें देखने व सुनने की जबर्दस्त क्षमता होती है। शिकार को पहचानने में धोखा न हो इस हेतु इनकी आँखें सिर के आगे होने से ये दूरबीन की भाँति स्पष्ट देख लेतें हैं। इन चमगादड़ों के कान काफी बड़े होते हैं जो एंटिना व रेडार की तरह काम करते हैं। इनके कोनों में अतिसंवेदनशील तंत्रिकाओं का जाल होने से ये हल्की से हल्की आहट (ध्वनि) को भी सुन सकते हैं। इनके उल्टे लटके रहने से ये रात में आसानी से उड़ानें भर सकते हैं। उड़ान के दौरान गले में स्थित लेरिंक्स अंग से ये एक विशेष ध्वनि या अल्ट्रा साउंड निकालते हैं। यदि इनके रास्ते में कोई है तो यह ध्वनि उससे टकरा कर इनकी ओर पुन: लौटकर इसके कानों से टकराती है। इस इको साउंड से ये रास्ते में अवरोधक का पता लगा लेते हैं। शिकार उपयुक्त है या नहीं इसके लिये ये अपनी पतीनुमा नाक से पता कर लेते हैं। दरअसल इनके पतीनुमा चौड़ी नाक पर विशेष प्रकार के अतिसंवेदनशील ताप या ऊष्माग्राही कोशिकाओं (थर्मोरिसेप्टर्स) का जाल बिछा होता है जो विशेष रूप से ऊष्मा अथवा इंफ्रारेड के अनुभूति होते हैं। इनकी वजह से अंधेरे में भी अपने समतापी अथवा गरम खून प्रवृति के शिकार को आसानी से ढूँढ लेते हैं। इसीलिये मनुष्य, पालतू मवेशी, जंगली जानवर, पक्षी इत्यादि इनके प्रमुख शिकार होते हैं क्योंकि ये समतापी होते हैं।

मवेशी का खून पीने में तल्लीन पिशाच चमगादड़मवेशी का खून पीने में तल्लीन पिशाच चमगादड़इन चमगादड़ों में खून पीने का एक अनोखा तरीका होता है। ये सिर्फ सोए हुए मवेशियों (शिकार) का ही खून पीते हैं। पहले ये मवेशियों के आस-पास की जमीन पर अवतरण करके अपने मस्तिष्क में स्थित इंफेरिअर कोलिकुलस भाग से यह पता लगाते हैं कि मवेशी नींद में है या नहीं। इसके लिये ये इनकी सांसों की ध्वनि का मूल्यांकन करते हैं। मवेशी के नींद में होने पर ये चौकने होकर धीर-धीरे उसके नजदीक जाकर अपनी नाक के थर्मोरिसेप्टर्स से मवेशी की त्वचा के नजदीकी रक्त वाहिनी का पता लगा लेते हैं। वहाँ बैठकर वाहिनी के ऊपर की त्वचा पर अपने विशेष नुकीले धारदार अग्र दांतों से बारीक चीरा लगाते हैं। इनके थूक (सेलाइवा) में मौजूद रसायन से खून नहीं जमता है वहीं इसका प्रवाह बाहर की ओर निरन्तर बढ़ता रहता है। रसायन से चीरे के आस-पास की जगह संवेदनहीन हो जाने से पशु को दर्द का अहसास ही नहीं हो पाता है। आधा घंटा तक एक चमच जितना खून ये अपनी नुकीली व लचीली जीभ से सोखकर (लेप अप) पी लेते हैं। रक्त पीने पर इन्हें हल्का सा भारीपन का अहसास होता है, थोड़ा सुस्ताने के बाद वहाँ से ये उड़ जाते हैं।

जैव-विकास के दौरान ये तीन प्रजातियाँ खून पीने की आदी कैसे और क्यों हुई इसके लिये कई अवधारणाएं है। परन्तु सटीक जानकारी आज भी उपलब्ध नहीं है। भारत में भी दो वैम्पायर चमगादड़ों की प्रजातियाँ है जिनकी नाक भी इन तीन प्रजातियों की तरह ही पतीनुमा और मिलती जुलती है। परन्तु ये खून न पीकर कीटों को ही अपना भोजन बनाती है। ऐसा व्यवहार इनमें क्यों विकसित हुआ है ये गहन शोध का विषय है। इनमे शिकार ढूँढने का तरीका भी लगभग एक जैसा ही है परन्तु शिकार को पकड़ने का हुनर अलग-अलग प्रकार का है। क्या ये दोनों भारतीय प्रजातियाँ आने वाले समय में खून पीने की आदी हो सकेंगी या नहीं ये भविष्य के गर्भ में निहित है।

वैम्पायर बैट्स के काटने से न केवल पालतू मवेशियों में बल्कि इंसानों में भी लाइलाज एवं जानलेवा रेबीज नाम की बीमारी के होने का खतरा रहता है क्योंकि ये इस बीमारी के संवाहक होते हैं। इसलिये किसान व पशुपालक इनके दुश्मन होते हैं। कई बार ये इनको मारने के लिये जहरीले रसायनों का प्रयोग करते हैं। जिससे इनकी कई कॉलोनियाँ बर्बाद हो जाती हैं। दिन में बाज व रात्रि में उल्लू इन जीवों का बेरहमी से शिकार करते रहते हैं। जहाँ इनकी बस्तियाँ होती हैं वहाँ से एक विशेष प्रकार की तीव्र गन्ध आती है जो इनके मल में मौजूद अमोनिया से होती है। इसी गन्ध को पाकर कई प्रजाति के परभक्षी साँप इनकी कॉलोनियों का पता लगा लेते हैं। इनमें घुसकर ये इनका शिकार करते रहते हैं। साल में ये एक ही बच्चे को जन्म देते हैं जिससे इनकी आबादी में ज्यादा इजाफा भी नहीं होता है। इसलिये अब इनकी आबादी पर गहरा असर पड़ने लगा है। जो भी हो, जैव-विकास को दौरान इन वैम्पायर बैट्स ने शिकार को ढूँढने व भोजन हेतु खून पीने के जो तरीके इजाद किये है वो वाकई कमाल के हैं।

 

 

 

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