मनरेगा से फ्लडप्रूफ बना हरपुर बोचहा

हरपुर बोचहा में मनरेगा
हरपुर बोचहा में मनरेगा

बिहार के समस्तीपुर जिले के विद्यापतिनगर ब्लॉक में एक गांव है हरपुर बोचहा। लगभग साढ़े 11 हजार की आबादी और 2349 घरों वाले इस गांव में सालभर बारिश और बाढ़ का पानी लगा रहता था। यही नहीं, इस गांव तथा अन्य 6 पंचायतों की मिलीजुली 6400 एकड़ जमीन थी, वहां भी सालभर पानी लगा रहता था, जिससे वहां एक फसल भी नहीं होती थी। 

लेकिन पिछले एक दशक से गांव जलजमाव के अभिशाप से स्थायी तौर पर मुक्त हो गया है। यहां अब बाढ़ भी आती है और जलजमाव भी होता है, लेकिन पहले की तरह सालभर पानी नहीं ठहरा नहीं रहता है। पानी अब मेहमान की तरह आता है और एक हफ्ते 10 दिन में चला जाता है। गांव के लोग अब पानी को देखकर डरते नहीं हैं, वे उसका सत्कार करते हैं। जिस 6400 एकड़ जमीन जलजमाव के कारण सालभर खेती लायक नहीं रहती थी, अभी वहां साल में तीन फसल उग रही है।

लोगों के सहयोग और मुखिया की रचनात्मक सोच

ये सब स्थानीय लोगों के सहयोग और मुखिया की रचनात्मक सोच से ही संभव ही हो सका है। 

स्थानीय लोग बताते हैं कि बाढ़ आने पर या बरसात के मौसम में बारिश का पानी यहां जम जाता था, तो सालभर जमा ही रह जाता था। लोगों ने 6400 एकड़ जमीन में खेती करना ही छोड़ दिया था। ऐसा नहीं है कि ये समस्या कोई दो-चार दशक पहले की है। पारंपरिक तौर पर ये गांव और जमीन जलजमाव की समस्या से अभिशप्त था। 6400 एकड़ जो जमीन थी, वहां जलजमाव का इतिहास इतना पुराना है कि पुराने सरकारी दस्तावेज में वो जमीन खेत नहीं बल्कि एक जलाभूमि के तौर पर दर्ज है।

लोग बताते हैं कि सन् 77 में जब इंदिरा गांधी आई थी, तो गांव के कुछ लोगों ने उन्हें भी मांगपत्र सौंपा था और जलजमाव की समस्या से निजात दिलाने की गुजारिश की थी, लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई।

स्थानीय मुखिया प्रेम शंकर सिंह बताते हैं, “मैं जब स्कूल में था तभी से ये समस्या मेरी आंखों में चुभती थी। हमलोग कई नेताओं से मिल चुके थे और जलजमाव की समस्या खत्म करने की अपील कर चुके थे, लेकिन कोई पहल नहीं हुई।”

वर्ष 2001 में मुखिया का चुनाव हुआ, तो प्रेम शंकर सिंह ने चुनाव लड़ा और जीत गए। लेकिन, उस वक्त तक ऐसी कोई योजना नहीं थी, जिसकी मदद से जलजमाव की समस्या का स्थाई समाधान निकल पाता।

मनरेगा की मदद से खोदी 6 किलोमीटर लंबी नहर

फिर 2006 में वह दोबारा मुखिया बन गए। उसी समय महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) शुरू हुई। इस योजना में नहर व तालाब की खुदाई, वृक्षारोपण आदि योजनाएं शामिल थीं। मनरेगा स्कीम इस गांव के लिए वरदान बनकर आई।

वह कहते हैं,

“मैंने देखा कि मनरेगा में नहर की खुदाई भी शामिल है, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने सोचा कि क्यों न एक लंबी नहर खोदी जाए ताकि 6400 एकड़ जमीन और गांव में जमने वाला पानी नहर के रास्ते नदी में चला जाए।”

लेकिन, इस सोच को अमलीजामा पहनाना मुश्किल काम था। गांव के आसपास दो नदियां बहती हैं। एक नून नदी और दूसरा बाया नदी। नून नदी गांव से लगभग 20 किलोमीटर दूर है, जबकि बाया नदी 6 किलोमीटर दूर। नून नदी बाढ़ के समय लबालब भरी रहती है और गांव में बाढ़ भी इसी नदी से आती है। ऐसे में नहर को इस नदी से जोड़ने का कोई फायदा नहीं मिलता, तो ग्रामीणों ने बाया नदी से नहर को जोड़ने का फैसला किया, क्योंकि बाया नदी आगे चलकर गंगा नदी से मिल जाती है। गंगा नदी से बहुत कम बाढ़ आती है। 

प्रेमशंकर सिंह ने इंडिया वाटर पोर्टल को बताया,

“हमने 6 किलोमीटर लम्बी नहर खोदकर गांव का पानी बाया नदी में डालने का निर्णय लिया। इसके लिए हमें जमीन चाहिए थी। हमने ग्रामसभा की बैठक बुलाई और लोगों को समझाया कि इससे हमें कितना फायदा होगा।”

“शुरुआत में तो कई लोगों ने अपनी जमीन देने से मना किया, तो मैंने तय किया कि जहां तक संभव होगा नहर को दो खेतों की मेड़ से होकर ले जाया जाएगा और दोनों खेतों से बराबर जमीन ली जाएगी और जहां मुमकिन नहीं हो पाएगा वहां किसी एक खेत के बीच से होकर नहर जाएगी। शुरुआती ना-नुकर के बाद लोग तैयार हो गए”, प्रेम शंकर सिंह बताते हैं।

स्थानीय लोगों से मिला सहयोग

साल 2007 से नहर का काम शुरू हुआ। वर्ष 2009 तक काम पूरा होने को था कि उस साल भी गांव में बाढ़ आई, लेकिन इस बार उस आधी-अधूरी नहर का असर दिखा। बाढ़ का पानी थोड़े ही दिनों में खेत और गांव से निकल गया, तो लोगों को अहसास हुआ कि ये नहर उनके लिए कितना फायदेमंद है। इसके बाद तो लोगों ने भरपूर सहयोग दिया और वर्ष 2010 तक नहर का काम पूरा हो गया। मनरेगा स्कीम का लाभ उठाकर 30 फीट चौड़ी, 20 फीट गहरी और 6 किलोमीटर लंबी नहर की तामीर कर दी गई।

नहर खोदने से न केवल गांव और खेत में जलजमाव की समस्या से निजात मिली है, बल्कि सूखे के वक्त इस नहर के पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए भी होता है। ग्रामीणों ने बताया कि बरसात का पानी नहर में जमा रहता है, जो सूखे के वक्त हमारी सिंचाई की जरूरत पूरी कर देता है।

कटाव रोकने के लिए लगाए 1 लाख से अधिक पेड़

बारिश और बाढ़ के समय नहर में पानी की रफ्तार तेज होने से एक नई समस्या सामने आ गई थी। रफ्तार तेज होने से नहर के दोनों तरफ मिट्टी का कटाव बढ़ गया था। पहले तो सोचा गया कि इसके दोनों किनारों को पक्का कर दिया जाए, लेकिन पर्याप्त फंड नहीं होने के कारण इस योजना को टाल दिया गया। फिर ये तय किया गया कि दोनों ओर पेड़ लगाया जाय।

प्रेम शंकर सिंह ने बताया,

“नहर का पक्कीकरण नहीं हुआ था, तो शुरुआत में पानी की रफ्तार अधिक होने से कटाव बढ़ गया था। इस समस्या के समाधान के लिए हमने नहर को पक्का करने के बजाय दोनों किनारों पर पेड़ लगाने का फैसला लिया। वर्ष 2010 में ही दोनों किनारों पर करीब सवा लाख पेड़ लगाए गए। इस काम को भी मनरेगा के जरिए ही अंजाम तक पहुंचाया गया। इससे न केवल कटाव रुका बल्कि यहां हरियाली भी बढ़ी।”

जल संरक्षण के लिए खोदे 10 तालाब

नहर का निर्माण तो जल निकासी के लिए किया गया, लेकिन साथ जल संरक्षण भी जरूर था, क्योंकि सूखे के वक्त पानी की किल्लत के चलते सिंचाई व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो जाती थी। इसके लिए गांव में तालाब खोदने का निर्णय लिया गया।

प्रेम शंकर कहते हैं, “इस काम के लिए भी हमने मनरेगा स्कीम को ही चुना। मनरेगा की मदद से ही यहां जल संरक्षण के लिए 10 तालाब खोदे गए हैं और इन तालाबों को नहर से जोड़ दिया गया है। इससे फायदा ये हुआ कि अतिरिक्त पानी नहर के रास्ते निकल जाता है। तालाब में मछली पालन भी होता है और खेतों में सिंचाई भी हो जाती है।”

हालांकि, कुछ लोगों का कहना है कि बहुत कम जमाव होने पर वह नहर से नहीं निकल पाता है। 6400 हेक्टेयर जमीन में गांव के एक स्थानीय निवासी परमानंद सिंह का 7 बीघा खेत है। उन्होंने कहा, “अभी मेरे खेत में 4 फीट पानी लगा हुआ है। ये पानी नहर से नहीं निकल पा रहा है।”

इस संबंध में प्रेम शंकर सिंह ने कहा कि अभी गंगा में जलस्तर बढ़ा हुआ है जिससे नहर का स्लुइस गेट बंद कर दिया गया है। इसी वजह से खेत में कुछ पानी लगा हुआ है। गंगा का जलस्तर कम होने पर गेट खोल दिया जाएगा, तो सारा पानी निकल जाएगा।

मूल आलेख हिंदी में उमेश कुमार राय 

हिंदी से अंग्रेजी अनुवाद स्वाति बंसल

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