नारीत्व की प्रतिष्ठा: माहवारी स्वच्छता प्रबंधन

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माहवारी स्वच्छता का निम्न स्तर मतलब कई अधिकारों को एक साथ नकारना; गरिमा, समानता, स्वास्थ्य, अमानवीय और शर्मनाक व्यवहार से आज़ादी, गालियां और हिंसा। स्कूलों में अध्यापक भी एमएचएम पर बात नहीं करना चाहते ऐसे में सेनिटरी उत्पाद बनाने वाली प्रोक्टर एंड गैम्बल जैसी कंपनियाँ आगे आ रही हैं और विज्ञापनों के माध्यम से एमएचएम शिक्षा का कार्य कर रही हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को वाटर सप्लाई, सेनिटेशन एंड कॉलेबोरेटिव काउंसिल (डब्लूएसएससीसी) के तत्वावधान में माहवारी प्रबंधन पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में पहली बार न केवल जल और स्वच्छता के क्षेत्र में कार्य करने वाले विशेषज्ञों ने भाग लिया बल्कि शैक्षणिक संस्थानों, अकादमियों, इंजीनियरों आदि ने भी भाग लिया। पहली बार ऐसा संभव हो पाया कि इस मुद्दे को जल-स्वच्छता और स्वास्थ्य यानी वॉश के अंदर एक छोटे से मुद्दे ‘माहवारी स्वच्छता प्रबंधन’ के रूप में न देखकर समग्र रूप में मानव अधिकार के रूप में देखा गया और यह जानने की कोशिश की गई कि आखिर क्यों यह मुद्दा आज भी मुख्य धारा में न आकर हाशिए पर पड़ा हुआ है।

अनदेखा मुद्दा


यूएन के मानवाधिकार उच्चायोग से आई डॉ. ज्योति संघेरा ने अपने अभिभाषण में लोगों को अपनी सोच बदलने के लिये कहा। साथ ही उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि क्यों आज भी स्त्री के साथ जुड़ी माहवारी जैसी एक स्वाभाविक प्रक्रिया को कलंक के रूप मे देखा जाता है। कई इलाकों में महिलाओं को माहवारी के दिनों में ऐसे अकेला छोड़ दिया जाता है गोया कि या कोई घोर पाप करके आई है। डब्लूएचओ, यूनेस्को और अन्य बड़ी संस्थाओं के विशेषज्ञों ने इस बात को खुले दिल से स्वीकार किया कि युवाओं के साथ शिक्षा, स्वच्छता और स्वास्थ्य आदि के मुद्दे पर काम करते हुए उन्होंने भी कहीं न कहीं महिलाओं के माहवारी संबंधी स्वच्छता के मुद्दे को अनदेखा किया है।

आवश्यकता


विशेषज्ञों के अनुसार दोतरफा काम करने की जरूरत है पहले तो यह जानना होगा कि समाज में इस कलंक-कथा की जड़े कहां तक फैली हैं और कैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में लड़कियों और महिलाओं को इस कलंक-कथा की पीड़ा को सहना पड़ता है। इसी के साथ इस मुद्दे और कलंक-कथा के वास्तविक रूप का लेखनों और व्याख्यानों आदि के माध्यम से खुलासा करना होगा।

डब्लूएसएससीसी की अर्चना पाटकर ने भारत में हुई निर्मल भारत यात्रा का जिक्र करते हुए बताया कि यह यात्रा महिलाओं और खासकर लड़कियों को माहवारी संबंधी स्वच्छता के बारे में जागरूक करने के लिए की गई थी। 51 दिनों तक चले इस कारवां में माहवारी स्वच्छता प्रबंधन (मैंस्टूएल हाईजिन मैनेजनेंट - एमएचएम) शिक्षा के लिए बनी प्रयोगशाला में 12,000 लड़कियों ने भाग लिया और 747 सर्वेक्षण पूरे किए गए जिसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए, हर तीसरी लड़की ने यही कहा कि उसे एमएचएम स्वच्छता संबंधी कोई जानकारी नहीं है। 73 फीसदी ने तो उसे शरीर से निकलने वाला गंदा खून बताया।

एफ्प्रो यूरोपियन मेडिकल एंड रिसर्च नेटवर्क के डॉ चार्ल्स सेनेसी ने कहा कि डॉक्टरी पेशे में भी एमएचएम की शिक्षा को नज़रअंदाज़ किया गया है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से आई कैथरीन डोलान ने बताया कि एमएचएम संबंधी जानकारी के न होने से शैक्षिक क्षेत्र में खासकर लड़कियों को बहुत नुकसान होता है। महीने के पांच दिन स्कूल से ग़ायब रहती है। शिक्षा और एमएचएम के निम्न प्रबंधन में कितना गहरा संबंध है इस पर शोध कार्य अभी जारी हैं। हालांकि अभी बहुत कुछ करना बाकी है। इस कलंक-कथा और शर्म ने बहुत नुकसान किया है शिक्षा का ही नहीं, आय, स्वास्थ्य और प्रजनन।

माहवारी स्वच्छता, मानवाधिकार


माहवारी स्वच्छता का निम्न स्तर मतलब कई अधिकारों को एक साथ नकारना; गरिमा, समानता, स्वास्थ्य, अमानवीय और शर्मनाक व्यवहार से आज़ादी, गालियां और हिंसा। स्कूलों में अध्यापक भी एमएचएम पर बात नहीं करना चाहते ऐसे में सेनिटरी उत्पाद बनाने वाली प्रोक्टर एंड गैम्बल जैसी कंपनियाँ आगे आ रही हैं और विज्ञापनों के माध्यम से एमएचएम शिक्षा का कार्य कर रही हैं।

पैड, कप या कपड़ा


माहवारी स्वच्छता के लिये इस्तेमाल किए जाने वाले विकल्पों के रूप में हालांकि बहुत सारी चीजें सामने आईं। लेकिन सबसे ज्यादा पैड को ही वरीयता मिली। हालांकि निर्मल भारत यात्रा के दौरान किए गए सर्वेक्षण में लड़कियों ने कपड़े को ही ज्यादा सुरक्षित और सही बताया। पैड और कपड़े के अलावा कप पर भी चर्चा हुई।

संभावनाएं


माहवारी स्वच्छता प्रबंधन के अनसुलझे सवालों को सुलझाने में बिज़नेस की बड़ी भूमिका उभरकर आई। अगर व्यवसायी अपने कामगारों को सस्ते पैड मुहैया कराने की रणनीति अपनाएं तो बेहतर एमएचएम से उनका ही मुनाफ़ा बढ़ेगा। स्वास्थ्य विभाग के साथ जुड़कर पोलियो वेक्सीन करने के समय बच्चों की माताओं को एमएचएम संबंधी शिक्षा दी जा सकती है। नीतिगत बदलाव लाकर विभिन्न विभाग एक दूसरे के साथ मिलकर काम कर सकते हैं, विशेषज्ञों ओर ग्रासरूट संस्थाओं की मदद ली जा सकती है।

अब आगे....


अर्चना पाटकर कहती हैं कि सही म़ॉनिटरिंग और शोध, ज्ञान का आदान-प्रदान, सहभागिता की जरूरत है ताकि इस शर्मिंदगी को समाज से बाहर किया जा सके। हालांकि सोच में बदलाव की शुरुआत हुई है। आगे हमें इस मुद्दे को बालिका शिक्षा, बालिका सशक्तिकरण और स्वास्थ्य के मुद्दों से जोड़ना होगा।

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