नारू रोग की आशंका से आदिवासी पशोपेश में

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डॉ बीएस बघेल बताते हैं कि उन्हें शुरू से ही लग रहा है कि यह नारू का परजीवी हो सकता है पर जब तक इसकी जाँच रिपोर्ट नहीं आ जाती, साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता फिर भी एहतियात के तौर पर ग्रामीणों को अपने पीने के पानी की जाँच कर लेनी चाहिए और हैंडपम्प आदि का ही पानी पीयें, इसमें बरसात के दिनों में जल स्रोतों में मिल जाने वाली अशुद्धियों के प्रदूषण का खतरा कम हो जाता है।काफी प्रयासों के बाद करीब 26 साल पहले मध्यप्रदेश के झाबुआ इलाके से गन्दे पानी से होने वाली जिस बीमारी का पूरी तरह से उन्मूलन कर दिया गया था, उसके फिर से लौटने की खबर ने लोगों को चिन्तित कर दिया है। यहाँ एक महिला के पेट में फुंसी होने पर जब डॉक्टर ने उसका आपरेशन किया तो उसमें से धागे के आकार का एक परजीवी निकला है। इस घटना के बाद झाबुआ जिले के आदिवासी गाँवों में जलजनित रोग नारू की आशंका बढ़ गई है। इस परजीवी को इन्दौर की एक प्रयोगशाला में जाँच के लिए भेजा गया है, जहाँ इसकी जाँच की जा रही है। जाँच रिपोर्ट आने के बाद ही इसकी सरकारी पुष्टि हो सकेगी। गौरतलब है कि इस क्षेत्र में 1980 के दशक से पहले तक गन्दे पानी के उपयोग से यह बीमारी बहुत बड़े पैमाने पर फैली हुई थी, जिसे काफी बड़े स्तर पर किये गए प्रयासों के बाद 1990 आते-आते पूरे प्रदेश से ही रोग का उन्मूलन कर दिया गया।

ताज़ा मामला करीब एक महीने पहले प्रकाश में आया है। स्थानीय एक वरिष्ठ चिकित्सक डॉ बीएस बघेल को आशंका है कि उन्होंने जिस परजीवी को प्रयोगशाला में जाँच के लिए भेजा है, वह नारू का परजीवी हो सकता है। यदि ऐसा होता है तो यह नारू रोग के फिर से क्षेत्र में पहुँचने की चेतावनी होगी। उन्होंने बताया कि कुछ दिनों पहले उनके पास माधौपुर क्षेत्र की एक महिला इलाज के लिए आई। वह अपने पेट की एक फुंसी से काफी परेशान थी। जाँच करने के बाद जब फुंसी का ऑपरेशन किया गया तो उसमें से धागेनुमा कुछ निकलने लगा। इस पर डॉ बघेल ने उस परजीवी को पूरा निकालकर काँच की एक साफ शीशी में उसे रख लिया। उन्होंने बताया कि पहली बार देखने से ही यह नारू के परजीवी की तरह नजर आ रहा है। हालाँकि प्रयोगशाला में जाँच के बाद ही यह तय हो सकेगा कि यह नारू का परजीवी ही है या कुछ और।

उधर नारू रोग की आशंका से आदिवासी इलाके के लोगों सहित प्रशासन भी चिन्ता में पड़ गया है। गोरतलब है कि इस इलाके में 1980 के दशक तक नारू रोग बड़ी तादाद में फैला हुआ था। चिकित्सा विशेषज्ञ बताते हैं कि नारू रोग एक परजीवी की वजह से होता है, यह धागे के आकार का पतला होता है तथा इसकी लम्बाई करीब 10 से 14 इंच तक हो सकती है। यहाँ रहने वाले आदिवासी बरसाती नदी–नालों का ही पानी पीने के उपयोग में लाते थे। इसी वजह से यहाँ नारू रोग का परजीवी मानव शरीर में पनपता था और इसी गन्दे पानी के जरिये मानव शरीर में प्रवेश कर जाता था और फिर वह उसे शारीरिक रूप से इस तरह कमजोर और अशक्त कर देता कि संक्रमित व्यक्ति की मौत तक हो जाया करती है। यह परजीवी शरीर के विभिन्न हिस्सों से निकलता था और कई बार तो उसे स्थाई रूप से विकलांग तक कर देता था। विशेषज्ञ बताते हैं कि इसका नर परजीवी तो अंदर ही रह जाता है लेकिन मादा शरीर के किसी भी हिस्से से बाहर निकलने की कोशिश करती है।

1980 के दशक से पहले तक जब यहाँ नारू रोग फैला था तो कई गाँव के गाँव इसकी चपेट में थे। एक चिकित्सक बताते हैं कि उन दिनों नदी-नालों का पानी पीने वाले जितने भी लोग होते थे, वे सभी इस परजीवी से संक्रमित होकर इसकी चपेट में आ जाते थे। यह परजीवी मानव शरीर में प्रवेश करने के बाद अपनी तादाद वहीं बढ़ाता रहता है और व्यक्ति को निसहाय कर देता है। इससे शरीर पर छाला बन जाता है और उसमें बहुत दर्द होता है। इस रोग के पीड़ित को मर्मान्तक पीड़ा और अमानवीय कष्ट झेलना पड़ता है। इसके बचाव का सबसे बड़ा साधन है पानी का संसाधन बदलना। जब तक लोग गन्दे पानी का इस्तेमाल करते रहेंगे, तब तक इसे रोका नहीं जा सकता।

झाबुआ जिले के गाँव कन्जाबानी, समोई और मदरानी जैसे पूरे के पूरे गाँव इसकी जकड़ में थे। इससे निपटने के लिए स्थानीय स्वास्थ्य विभाग और प्रशासन ने 1985 में जमकर जंग छेड़ी और 1989 में पूरी तरह से इसका उन्मूलन कर दिया गया। तत्कालीन जिला कलेक्टर गोपाल कृष्णन ने इसके लिए नारू की बीमारी पर विशेष रूप से शोध करने वाले भोपाल के डॉ प्रदीप संघवी से सम्पर्क किया और उनसे बीमारी से लड़ने के लिए मदद ली। डॉ संघवी उन दिनों मप्र विज्ञान और प्रोद्योगिकी परिषद की तीन वर्षीय शोध परियोजना में काम कर रहे थे। उनके परामर्श पर ही आदिवासियों के फलियों (गाँवों) में आनन–फानन में सैकड़ों हैंडपम्प खनन करवा कर नदी–नालों का पानी बंद करवाया था। इसका असर भी हुआ और कुछ ही महीनों में पूरा क्षेत्र नारू मुक्त घोषित कर दिया गया। आज भी झाबुआ जिले के कई गाँवों की दीवारों पर गेरू से लाल अक्षरों में लिखे तब के नारे साफ़ नजर आते हैं, जिनमें लिखा है– गुरु करो जान के, पानी पियो छान के। और कहीं–कहीं तो यह मुनादी भी कि नारू का रोगी बताने पर नगद ईनाम।

डॉ संघवी का मानना है कि 1985 से 1989 तक झाबुआ क्षेत्र में बड़े स्तर पर काम करके नारू का उन्मूलन कर दिया गया था और तब से लेकर अब तक झाबुआ ही नहीं प्रदेश में कहीं भी इस रोग का कोई मामला सामने नहीं आया है लेकिन यह जो नया मामला सामने आया है, इसकी गम्भीरता से जाँच होना चाहिए।

डॉ बीएस बघेल बताते हैं कि उन्हें शुरू से ही लग रहा है कि यह नारू का परजीवी हो सकता है पर जब तक इसकी जाँच रिपोर्ट नहीं आ जाती, साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता फिर भी एहतियात के तौर पर ग्रामीणों को अपने पीने के पानी की जाँच कर लेनी चाहिए और हैंडपम्प आदि का ही पानी पीयें, इसमें बरसात के दिनों में जल स्रोतों में मिल जाने वाली अशुद्धियों के प्रदूषण का खतरा कम हो जाता है। पानी को मोटे कपड़े से छानकर या उबाल कर इस्तेमाल करना चाहिए। इसके अलावा किसी भी तरह की फुंसी या चर्म रोग को हल्के में नहीं लेते हुए तत्काल पास के चिकित्सक को दिखाएँ।

माधौपुरा के युवक रमेश बताते हैं कि जब से इसके बारे में सुना है, तब से चिन्ता होने लगी है। अच्छा हो कि वह नारू का परजीवी नहीं हो। हालाँकि गाँव के लोग पहले से ही हैंडपम्प का पानी ही पी रहे हैं।

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