नौला-धारों के पुनर्जीवन से ही टलेगा पहाड़ी लोगों का जलसंकट

11 May 2020
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नौलों-धारों के विज्ञान पर कार्यशाला का आयोजन
नौलों-धारों के विज्ञान पर कार्यशाला का आयोजन

उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र (यूसर्क) और ‘नौला फ़ाउंडेशन’ के संयुक्त तत्वावधान में परंपरागत पहाड़ी जल स्रोतों, नौले-धारों के संरक्षण एवं संवर्धन पर ऑनलाइन वेबिनार का आयोजन किया गया। ‘नौला-धारों का विज्ञान’ विषय पर आयोजित वेबिनार में लोगों ने पहाड़ के लोगों के जीवनरेखा नौले-धारों को पुनर्जीवित करने को जरूरी बताया। 10 मई 2020 को हुए आयोजन में देश भर के हिमालयी स्प्रिंग्स के जानकार विभिन्न सामाजिक परिप्रेक्ष्य के वैज्ञानिकों, समाजसेवियों, नौला मित्रों ने भाग लिया। देश भर के विभिन्न संस्थानों के वैज्ञानिकों के अलावा वेबिनार में सूख चुके परंपरागत हिमालयी जलस्रोतों नौले-धारों के सामुदायिक सहभागिता से पुनर्जीवित करने वाले नौला-वारियर्स की भी भागीदारी रही।

कार्यशाला की शुरुआत में जहाँ मुख्य अतिथि के रूप में खटीमा विधायक श्री पुष्कर सिंह धामी ने परंपरागत नौले-धारे सूखते जाने के प्रति गंभीर चिंता जताई। धामी ने बताया कि पुरातन जल संस्कृति के विज्ञान को नए दौर में भी समझने की जरूरत है। नौले-धारे वास्तव में हमारी संस्कृति के प्रतीक है। इन्हें जल-संस्कृति का वाहक बनाकर जनचेतना के लिये उपयोग में लाना होगा। सामूहिक कार्यों का शुभारम्भ या तो नौले-धारों से होता था या देवस्थानों से। इस परम्परा को फिर से स्थापित करना होगा। 

यूसर्क के निदेशक प्रो दुर्गेश पन्त के अनुसार मानवीय दोहन से भूमिगत जल का निरन्तर ह्रास हो रहा है। जहाँ तालाब, पोखर, सिमार, गजार थे, वहाँ कंक्रीट की अट्टालिकाएं खड़ीं हो गईं। विकासवाद के दौर में जंगल के जंगल उजड़ गए, वर्षा जल को अवशोषित कर धरती के गर्भ में ले जाने वाली जमीन दिन पर दिन कम होने लगी है। जनसंख्या बढ़ने से समय के साथ जल की प्रति व्यक्ति खपत बढ़ती जा रही है। भूजल के अत्यधिक दोहन का कृषि पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। आज आवश्यकता है लुप्तप्राय परंपरागत जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने की और उस तकनीक को विकसित करने की, जिसे हमारे पूर्वजों ने सदियों पहले अपना कर प्रकृति और संस्कृति को पोषित किया। 

नौला फ़ाउंडेशन से जुड़े पर्यावरणविद स्वामी वीत तमसो के अनुसार हिमालय परिक्षेत्र के 45.2 प्रतिशत भू-भाग में मिश्रित घने जंगल हैं। यहाँ नदियों, पर्वतों के बीच में सदियों से निवास करने वाले लोगों के पास हिमालयी संस्कृति एवं सभ्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने का लोक विज्ञान भी मौजूद है। प्राकृतिक संसाधन लोगों के हाथ से खिसक रहे हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में साल 2031 तक सिर्फ 40 फीसदी लोगो को ही पीने का जल उपलब्ध हो पायेगाI हमें नदियों से पहले वाटर स्रोत यानी स्प्रिंग पर फ़ोकस करना होगा तभी नदियों में पानी रहेगा। 

स्वामी वीत तमसो ने अपने वक्तव्य में रेखांकित करते हुए कहा कि जहाँ तक हिमालय के पानी की बात है। हिमालय उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद सबसे अधिक हिम अपने पास आज भी रखे हुए है। जलवायु परिवर्तन से हिमालय क्षेत्र में वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन हुआ है और जो हिमनद बचे हैं, उनके समाप्त होने में ज्यादा समय नही लगेगा। अर्थात, वर्षा कम होगी तो हिम कम बनेगा और जितना बनेगा भी उतना टिकेगा भी नही तापमान बढ़ने के कारण। आज हिमालय क्षेत्र में पानी कम होने के भी अनेक कारण हैं। पर्वतों, हिमनदों, नदियों, जलागम क्षेत्रों, वनों, कृषि जोतों, गूलों-कूलों-नहरों, वर्षाजल प्रबन्धन, इत्यादि को लेकर जनपक्षीय नीतियाँ बनानी होगी। वृहद समुदाय आधारित रिसर्च हिमालयन डिक्लेरेशन ऑफ़ स्प्रिंगशेड रेजुवेनशन (एचडीएसआर) के तहत नौला फ़ाउंडेशन महिला सशक्तिकरण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है जिसका उद्देश्य महिला शक्ति को सशक्त कदम बढ़ाने और पूरे अभियान का नेतृत्व करने के लिए प्रोत्साहित करना हैं । देश के हिमालयी क्षेत्र में तीन मिलियन से अधिक स्प्रिंग्स को पुनर्जीवित करने के लिए एक व्यापक योजना हिमालयन डिक्लेरेशन ऑफ़ स्प्रिंगशेड रेजुवेनशन ( #एचडीएसआर ) के तहत 'नौला फ़ाउंडेशन' के सामाज-वैज्ञानिकों ने योजना पर काम करना शुरू कर दिया है। 

वेबिनार में मुख्य वक्ता के तौर पर प्रसिद्ध पर्यावरणविद पद्मश्री कल्याण सिंह रावत ‘मैती’ के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत भूभाग में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक के रूप में माना जाता है। अतएव पहाड़ की जवानी और पानी दोनों पहाड़ से पलायन कर रही है। अर्थात योजनाकार कागजों में ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों व जैव विविधता के सरंक्षण की अच्छी खासी योजना बना देंगे, परन्तु ये योजनाएँ प्रभावी रूप से अब तक ज़मीनी रूप नहीं ले पाई हैं। हिमालयी आपदाओं का चक्र तेज हो गया है। वृक्ष खेती, फल खेती, छोटी-छोटी पनबिजली को उद्योगों के रूप में विकसित करने की योजना बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ पाई हैं। स्थानीय जल संरक्षण की विधियों को जो प्रोत्साहन मिलना चाहिये था वह नहीं मिला है, लेकिन इसके स्थान पर सीमेंटेड जल संरचनाएँ बनाई जा रही हैं, जिसके प्रभाव से जलस्रोत सूख रहे हैं।

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, रुड़की से हाइड्रोलोजिस्ट डॉक्टर अनिल लोहानी एवं डॉक्टर सोबन सिंह रावत ने बताया की जल शक्ति मंत्रालय भारत सरकार, परंपरागत जलस्रोत स्प्रिंगस को पुनर्जीवित करने के लिए गंभीर हैं। और स्प्रिंग्स मैपिंग के साथ साथ स्प्रिंग्स हाइड्रोलॉजी पर कार्य शुरू भी हो गया हैं। जिसका परिणाम जल्दी दिखेगाI 

यूसर्क वैज्ञानिक राजेंद्र सिंह राणा के अनुसार उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में जल की आपूर्ति का परंपरागत साधन नौला या धारा रहा है। सदियों तक पेयजल की निर्भरता इसी पर रही है। नौला मनुष्य द्वारा विशेष प्रकार के सूक्ष्म छिद्र युक्त पत्थर से निर्मित एक सीढ़ीदार जल भण्डार है, जिसके तल में एक चौकोर पत्थर के ऊपर सीढ़ियों की श्रंखला जमीन की सतह तक लाई जाती है। सामान्यतः सीढ़ियों की ऊंचाई और गहराई 4 से 6 इंच होती है, और ऊपर तक लम्बाई - चौड़ाई बढ़ती हुई 5 से 9 फीट (वर्गाकार) हो जाती है। नौले की कुल गहराई स्रोत पर निर्भर करती है । आम तौर पर गहराई 5 फीट के करीब होती है ताकि सफाई करते समय डूबने का खतरा न हो। नौला सिर्फ उसी जगह पर बनाया जा सकता है, जहाँ प्रचुर मात्रा में निरंतर स्रावित होने वाला भूमिगत जल विद्यमान हो। इस जल भण्डार को उसी सूक्ष्म छिद्रों वाले पत्थर की तीन दीवारों और स्तम्भों को खड़ा कर ठोस पत्थरों से आच्छादित कर दिया जाता है। प्रवेश द्वार को यथा संभव कम चौड़ा रखा जाता है। छत को चारों ओर ढलान दिया जाता है ताकि वर्षाजल न रुके और कोई जानवर न बैठे। आच्छादित करने से वाष्पीकरण कम होता है और अंदर के वाष्प को छिद्र युक्त पत्थरों द्वारा अवशोषित कर पुनः स्रोत में पहुँचा दिया जाता है। मौसम में बाहरी तापमान और अन्दर के तापमान में अधिकता या कमी के फलस्वरूप होने वाले वाष्पीकरण से नमी निरंतर बनी रहती है। सर्दियों में रात्रि और प्रातः जल गरम रहता है और गर्मियों में ठंडा। 

‘नौला-मित्र’ महेंद्र सिंह बनेशी के अनुसार नौला फाउंडेशन मध्य हिमालयी क्षेत्र में सामुदायिक जन सहभागिता पर केन्द्रित एक गैर लाभकारी सामाजिक सेवा संगठन हैं जो परस्पर सामाजिक सहभागिता के साथ साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नौले-धारों के सरंक्षण व संवर्धन पर परम्परागत विधि से ही सफलता पूर्वक कार्य कर रहा हैं जिसके कुछ परिणाम आ भी चुके हैंI 

‘नौला-मित्र’ संदीप मनराल के अनुसार नौला पर्वतीय क्षेत्र की  संस्कृति और संस्कारों का दर्पण है। हिन्दू परिवारों की धरोहर इन नौलों को क्षीर सागर का प्रतीक माना जाता है, जिसमें श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी सदैव वास करते हैं।वास्तुकला के बेजोड़ नमूने स्तम्भों और दीवारों पर पौराणिक कथाओं पर आधारित देवी देवताओं के चित्र उकेरे होते हैं। प्राचीन जल विज्ञान पर शोधकर्ता डॉक्टर मोहन चन्द्र तिवारी के अनुसार लगभग पांच-छह दशक पूर्व तक पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का एकमात्र स्रोत नौला था। नौलों की देखभाल और रखरखाव सभी मिलजुलकर करते थे। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले घरों की युवतियाँ नित्य कर्म से निवृत्त हो तांबे की गगरी लेकर पानी लेने नौले पर साथ-साथ जातीं, बतियाती, गुनगुनाती, जल की गगरी सिर पर रख कतारबद्ध वापस घर आती, अपने अपने काम में जुट जाती थी। समय समय पर परिवार के अन्य सदस्य भी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नौले से ही जल लाते थे। घर पर रहने वाले मवेशियों के पीने के लिए और छोटी छोटी क्यारियों को सींचने के लिए नौले से ही जल लाया जाता था।नौले के माध्यम से आपस में मिलना जुलना हो जाता, सूचनाओं का आदानप्रदान हो जाता था। ग्रामीण परिवेश में नौला, हिन्दू धर्म के लगभग सभी संस्कारों के प्रतिपादन का साक्षी रहा है। नवजात शिशु के नामकरण संस्कार के समय स्नान, देवपूजन, नामकरण के पश्चात् जननी परिवार के बच्चों, ननद, जेठानी, देवरानी के साथ नैवेद्य, ज्योतिपट्ट, धूप-दीप, रोली-अक्षत, तांबे की गगरी आदि लेकर नौले पर जाती। रास्ते भर शंख ध्वनि होती। भगवान श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी की पूजा अर्चना कर आशीर्वाद लिया जाता। नैवेद्य का प्रसाद ग्रहण करते और पूजा सामग्री का विसर्जन कर जल से भरी गगरी लेकर घर वापस आ जाते, तब नामकरण संस्कार पूर्ण माना जाता था। विवाह संस्कार भी नौला भेंटने के बाद ही पूरा होता था। नव बधू ससुराल में बड़े बुजुर्गों का आशीष ले, मायके से कलश के रूप में मिली तांबे की गगरी, पूजा सामग्री, वर - वधू के विवाह में पहने हुए मुकुट आदि लेकर ननद व अन्य सहेलियों के साथ नौला भेंटने के लिए जाती। रास्ते भर हंसीं ठिठोली, शंख ध्वनि होती। नौला पूजन कर भगवान श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी जी का आशीर्वाद लेने के पश्चात एक निश्चित स्थान पर सभी सामग्री का विसर्जन कर दिया जाता। नवबधू गगरी में जल लिए सभी साथियों के साथ घर वापस आकर पुनः बड़े बुजुर्गों की आशीष लेती और तब विवाह संस्कार सम्पन्न माना जाता था। 

नौला फ़ाउंडेशन से जुड़े पर्यावरणविद बिशन सिंह ने बताया हमारे सांस्कृतिक परम्परा और सभ्यता के वाहक गाड़, गधेरे, नौले, धारे और चुपटैले इतिहास बनने की दहलीज पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। कहा जाता है कि दुनिया में तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा। आप देखें दिल्ली अब उत्तराखंड की और बढ़ चुकी है जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ रही है हम अपने प्राकृतिक संसाधनों से दिनों-दिन उतने ही दूर होते जा रहे हैं। हिमालय जिसे प्रकृति से भरपूर प्राकृतिक धरोहरों से लबरेज किया है विडम्बना देखिए उनसे लोग और नीतिकार स्वयं ही दूर हो रहे हैं। अगर हिमालय को बचाना है, अपने अस्तित्व को बचाना है तो हमें पानी को बचाना ही होगा। जब पहाड़ों में नौले-धारे सुरक्षित होंगे तभी हम सुरक्षित रह पायेंगे, प्राकृतिक रह पायेंगें। 

पर्यावरणविद गजेन्द्र पाठक के अनुसार ख़तरे की घंटी बज चुकी है, जलवायु परिवर्तन के कारण 70 फीसद से ज्यादा जलधाराएं सूख चुकी है, और जो बची है उनमें भी सीमित जल ही बचा है अगर हम अभी भी नहीं सुधरें तो वो दिन दूर नहीं जब गंगा यमुना जैसी सतत वाहिनी नदिया को बनाने वाली जलधाराएं सूख जाएगी और तब स्थिति कितनी भयावह होगी ये आप कल्पना कर सकते हैंI आखिर वो कौन से कारण थे जिनके चलते साल भर पनचक्की चलाने वाली नदियां, बरसाती नालों में तब्दील हो गई । जंगलों का घनत्व घटते रहने से स्रोत आधारित नदियों को पानी की आपूर्ति करने वाले जल स्रोतों में भी पानी कम होता रहा। मिस्रित जंगलों के कटने से सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि शीतकालीन वर्षा  और बर्फबारी काफी कम होती गयी जिसके चलते भी सदावाहिनी नदियां बरसाती नदियों में बदल गई। रामगंगा, नयार, कोसी, गौला, गगास, खीर गंगा, पनार जैसी नदियों को उसका गौरवशाली अतीत वापस दिलाने के लिए जरूरी है कि इन सभी गैर हिमानी नदियों के कैचमेंट में वर्षा जल के संरक्षण हेतु चाल, खाल और गड्ढे बनाए जायें तथा सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति से जंगलों का संरक्षण और संवर्द्धन किया जाये । 

‘गोविंद बल्लभ पंत हिमालयन पर्यावरण व सतत विकास संस्थान’, अल्मोड़ा के  वरिष्ठ वैज्ञानिक गिरीश नेगी के अनुसार विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में साल 2031 तक सिर्फ 40 फीसदी लोगों को ही पीने का जल उपलब्ध हो पायेगाI  सरकार के साथ-साथ स्थानीय जन भागीदारी को भी आगे आना होगा। स्थानीय ग्रामीणों की के सामाजिक हितों को ध्यान में रखा कर जल जंगल नौला धारों के संरक्षण संवर्धन में टीमें जलस्रोतों को चिह्नित करने, सूखे जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने, जल की गुणवत्ता और भूमिगत जल से जुडे़ पहलुओं पर कार्य करना होगा। 

वेबिनार में शामिल सभी प्रतिभागियों ने सूखती जल स्रोत एवं सहायक नदियों के सूखने पर नीति-नियंताओं पर सवाल खड़े किये तो दूसरी तरफ स्प्रिंग्स के पुनर्जीवन के लिये भी एक कार्य योजना बनाने की बात कही गई। वेबिनार में यूसर्क के वैज्ञानिक डॉक्टर ओम प्रकाश नौटियाल, डॉ भवतोष शर्मा, डॉ मंजू सुंद्रियाल, गजेंद्र पाठक, डॉ आशुतोष भट्ट, नरेंद्र सिंह रौतेला, डीके बेरी, जमुना प्रसाद तिवारी, गणेश राणा, आलोक मैथानी, डॉ हर्षवर्धन पंत, डॉ वेद प्रकाश तिवारी आदि के साथ ही दिल्ली सरकार से मुकेश बोरा, जर्मनी से ओंकार सिंह जलोटी, हिमोत्थान से सुनेश शर्मा, पीएसआई से अनिल गौतम, इंडिया वाटर पोर्टल से केसर सिंह ने भाग लिया

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