नदी बनी इंसान बदलेगी पहचान

26 Mar 2017
0 mins read

उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में हमारी जीवनदायिनी गंगा और यमुना नदियों को जीवित इंसान का दर्जा दिया है। संविधान में जिस तरीके के अधिकार किसी भारतीय नागरिक को प्राप्त हैं, अब ये नदियाँ भी उन अधिकारों के बूते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ सकेंगी। इनको बीमार करने या मारने की कोशिश करने वालों के खिलाफ किसी जीवित व्यक्ति को मारने या ऐसी कोशिश के आरोप में मुकदमा चलाया जा सकेगा। इन पर अत्याचार के मामलों में मानवाधिकार का दरवाजा भी खटखटाया जा सकता है। गंगा और यमुना देश की पवित्र नदियों में से एक हैं। प्रत्येक भारतीय के दिल में इनका विशेष स्थान है। विभिन्न संस्कृतियों के समावेश से बने इस देश में इन नदियों का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। दुर्भाग्यवश पिछले कई दशकों से ये अवहेलना का शिकार हैं। बढ़ती आबादी ने इनकी दुर्दशा कर दी है। अशोधित सीवेज नदियों में प्रदूषण की प्रमुख वजह बन गया है। सॉलिड वेस्ट, औद्योगिक कचरा, कृषि रसायन और पूजा पाठ की सामग्री नदियों में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा रही है। सूखे महीनों में ये कचरा नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध कर देता है। गंगा के आस-पास बसे इलाकों में उत्पन्न होने वाले दूषित पानी में से केवल 26 फीसद का शोधन होता है बाकी सीधे नदी में छोड़ दिया जाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक 138 नालों के जरिए रोजाना छह अरब लीटर दूषित पानी गंगा में छोड़ा जा रहा है। देश की तकरीबन 25 करोड़ आबादी खुले में शौच करती है। इससे सीधे तौर पर लोगों की सेहत पर खतरा मँडरा रहा है। और तो और इससे बड़े स्तर पर जल भी प्रदूषित हो रहा है।

तमाम इंसानी गतिविधियाँ स्वच्छ और मीठे जलस्रोतों को प्रदूषित कर रही हैं। हैरत होती है कि किस तरह लोग नदी को माँ बुलाते हैं पर इसकी दुर्गति करने में कोर-कसर नहीं छोड़ते। गंगा को बचाने के लिये गंगा और यमुना एक्शन प्लान, गंगा बेसिन अथॉरिटी, नेशनल मिशन ऑन क्लीन गंगा जैसे कदम उठाए गए। नमामि गंगे जैसी महत्त्वाकांक्षी परियोजना शुरू हुई। ये प्रयास नदी के अस्तित्व को बचाने के लिये नाकाफी साबित हुए।

सवाल ये है कि क्या वाकई सरकार नदियों को बचाने के लिये प्रतिबद्ध है। क्या नदियों के पास वाकई कोई कानूनी अधिकार है जिसका दावा वे सरकार, कानून और उल्लंघन करने वालों से कर सकती हैं? यह सवाल उस फैसले के सन्दर्भ में है जो गत 20 मार्च को उत्तराखण्ड हाईकोर्ट द्वारा गंगा-यमुना के संरक्षण की दिशा में दिया गया है। निश्चित रूप से कोर्ट का यह फैसला अवधारणा में बदलाव की आहट दर्शाता है और नदियों को बचाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। कानूनी व्यक्ति की परिभाषा जानने के लिये कोर्ट ने भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय कानून का सन्दर्भ लिया। इसके बाद गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया गया। उनके अधिकार और कर्तव्य तय हुए। इस फैसले के रूप में एजेंसियों, सिविल सोसायटी और धार्मिक संगठनों के हाथ में एक प्रभावशाली हथियार आ गया है। फैसला नदियों की आवाज बनकर उभरेगा। इससे उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश की सरकारों को केन्द्र की ओर इनके उद्धार में काफी सहयोग मिलेगा। नदियों की अविरल और निर्मल धारा को बरकरार रखने की उनकी प्रतिबद्धता को और बल मिलेगा।

फैसले का फलाफल


1. जीवित का दर्जा मिलने के बाद गंगा, यमुना और उनकी सभी सहायक नदियों को एक जीवित इंसान के सभी कानूनी अधिकार मिलेंगे। इन्हें प्रदूषित करने का मतलब होगा किसी इंसान को कष्ट पहुँचाना।

2. गंगा और यमुना को नाबालिग श्रेणी में रखा गया है। मतलब ये कि वे स्वयं अपने हितों की रक्षा करने में असक्षम हैं, इसलिये उन्हें प्रबन्धक या संरक्षक की निगरानी में रखा जाएगा। कार्यवाहक की जिम्मेदारी होगी कि वह इनका गलत इस्तेमाल या इनमें प्रदूषण न होने दें।

3. नमामि गंगे परियोजना के निदेशक, उत्तराखण्ड के चीफ सेक्रेटरी और उत्तराखण्ड के महाधिवक्ता को इनका अभिभावक बनाया गया है। इन अधिकारियों की जिम्मेदारी होगी कि नदियों के हित का ध्यान रखें।

4. चुने हुए व्यक्ति कोर्ट में गंगा और यमुना का प्रतिनिधित्व करेंगे। ये नदियों की ओर से केस दाखिल करेंगे और लड़ेंगे।

5. इन नदियों को दूषित करने वाले लोगों के खिलाफ सीधे नदियों के नाम से मुकदमा दायर किया जा सकेगा। उन लोगों को मुकदमा दायर नहीं करना होगा जो प्रदूषण के शिकार हैं।

6. नदियों के रख-रखाव के लिये प्रदान की जाने वाली राशि चुने हुए अभिभावक नदियों के कल्याण में ही खर्च कर सकेंगे।

7. जीवित इंसान का दर्जा मिलने के कारण नदियों को स्वतंत्रता से बहने का अधिकार दिया गया है। उनके बहाव को रोकने वाली निर्माण या खनन जैसी गतिविधि कानून के दायरे में आएगी।

लेखक, इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट से सम्बद्ध हैं। निताशा नायर के साथ

मानव शरीर की तरह ही हैं गंगा-यमुना


प्रो. यूके चौधरी, संस्थापक निदेशक, महामना मालवीय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी फॉर द गंगा मैनेजमेंट

गंगा-यमुना की खास विशेषता इनके जल में निहित है। इनकी खासियत है कि ये ऑक्सीजन ज्यादा ग्रहण करती हैं साथ ही ये अधिक समय तक ऑक्सीजन को अपने भीतर बनाए रखती हैं। मनुष्य को तेजी से चलने या दौड़ने के लिये अधिक ऑक्सीजन की जरूरत होती है। ठीक उसी प्रकार इन नदियों का जल प्रवाह जितनी तीव्रता से होता है, उनका जल उतनी ही तेजी के साथ ऑक्सीजन को अपने में समाहित करने में सक्षम होता है। इंसानी शरीर की तरह ही स्थान परिवर्तन के साथ इनकी जलधारा में शामिल धूल, कण व रासायनिक अवयव भी बदलते रहते हैं। इससे इन नदियों में पल रहे जलीय जीवों की प्रजनन क्षमता बढ़ती है। जिस तरह से जख्म होने पर मनुष्य के घाव भर जाते हैं, उसी तरह ये नदियाँ हैं। ये जितनी कटाव करती हैं उतना भराव भी करती हैं। हमारा शरीर जिन पाँच तत्वों से मिलकर बना है, वही इन नदियों में सन्तुलन के कारक हैं।

मानव शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण अंग उसका माथा है। वैसे ही नदियों का माथा पर्वत है, जहाँ से इनका उद्गम होता है। मनुष्य का रक्त एक-दूसरे से मेल नहीं खाता। इसी तरह नदियों के जल का रंग भी है, जो एक-दूसरे से अलग होते हैं। मानव भूख मिटाने के लिये भोजन ग्रहण करता है, उसी तरह नदियाँ भोजन के रूप में मिट्टी व रसायन लेती हैं। नदियों का संगम कटाव को रोकने में सहायक है। बालू का अधिक जमाव बाढ़ का कारण है। यही वजह है कि जहाँ ज्यादा जरूरत होती है, संगम भी वहीं होता है। इन स्थानों पर बालू जमा होने का तरीका वैसे ही है जैसे मनुष्य मलमूत्र परित्याग करता है। नदी के रक्त संचार का जरिया भूजल है। हमारे शरीर की कोशिकाएँ ये बता देती हैं कि हम किस तरह की बीमारी से ग्रसित हैं। उसी तरह नदियों की मिट्टी के कणों का कम्पन उसके स्वास्थ्य का हाल बयाँ कर देते हैं। नदी के शरीर की तुलना मानव शरीर से की गई है। जिस तरह मनुष्य उल्टी करता है, उसी तरह नदियों में बाढ़ आती है। मानव शरीर के गुण व बीमारियाँ नदियों के समतुल्य हैं। गंगाजल की विशेषता यह है कि बैक्टीरिओफेज वायरस के कारण इसमें जीवाणु नहीं पनपते हैं। इससे ये अपने भीतर अधिक ऑक्सीजन समाहित कर लेती है। एक मानव के जो भी गुण हैं वे सभी नदियों से मेल खाते हैं। जैसे कि भोजन सेंटीमेंट, बीमारियाँ, रक्त संचार, पाचन क्रिया, ऑक्सीजन ऑब्जर्वेशन।

हमारे ऋषि-मुनियों ने सदियों पहले नदियों को देवी का जीवन्त रूप मानकर पूजना शुरू किया था। गंगा-यमुना को कोर्ट ने जीवन्त माना ये सौभाग्य की बात है।

समानता से समाधान


1. नदी जल वितरण सिद्धान्त मानव शरीर के क्रियाकलाप से जुड़ा है।

2. नदी के न्यूनतम जल से अधिक जल का कहाँ से कितना और कैसे उपयोग किया जाये, इसके लिये उपयुक्त तकनीक का अन्वेषण मानव शरीर के रचना के तहत सम्भव है।

3. बाढ़ प्राकृतिक आपदा नहीं है। इसे बेसिन तथा नदी पेट की व्यवस्था से ही नियंत्रित किया जा सकता है। बेसिन की व्यवस्था से ही अकाल को भी नियंत्रित किया जा सकता है।

4. प्राकृतिक नदी संगम तथा सम्पोषिकता के सिद्धान्त पर नदी, मृदा क्षरण नियंत्रण एक कम खर्चीली स्थायी तकनीक विकसित की जा सकती है जो मानव शरीर व्यवस्था के समरूप है।

5. नदियों के अन्तर्गठबन्धन एवं बड़े-बड़े बाँधों के निर्माण से उत्पन्न पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं तथा लाभ-हानि का तुलनात्मक अध्ययन मानव शरीर सम्बन्धों पर आधारित है।

6. नदी के प्रवाह की मात्रा तथा शक्ति के सम्बन्धों का अध्ययन कम खर्च में अधिकतम जलविद्युत उत्पादन करने की उपयुक्त तकनीक मानव जीवन के आधार पर बनाई जा सकती है।

7. जल जीवों एवं अन्य उपभोक्ताओं के बदलते जीवन चक्र का अध्ययन मानव जीवन के आधार पर किया जा सकता है।

न्याय दिलाने की ठोस पहल


पिंकी आनंद, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल, सुप्रीम कोर्ट

देश की सबसे पवित्र और पूजी जाने वाली नदी ‘गंगा’, जिस पर लाखों हिन्दू, मुस्लिमों और अन्य धर्म के लोग आस्था रखते हैं, आखिरकार उसके प्रति आभार प्रकट करते हुए उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने उसे जीवित व्यक्ति का दर्जा दे दिया है। पावन नदी गंगा ने उत्तर भारत में मानव सभ्यता को पुष्पित-पल्लवित करने में अपना योगदान दिया है। उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में कई प्रमुख शहर इसी नदी के तट पर बसे और समृद्ध हुए। हालांकि इस विशाल जीवनदायिनी नदी को बड़े पैमाने पर आघात झेलना पड़ा। इसे न सिर्फ प्रदूषित किया गया बल्कि इसके तटों पर अवैध अतिक्रमण किया, इसके किनारों पर निर्माण कार्य किये गए।

स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि इस पावन नदी ने अपनी मौलिकता और जल की शुद्धता खो दी है। अभी तक गठित सभी केन्द्रीय सरकारों और कई राज्य सरकारों ने समय-समय पर गंगा की मौलिकता को पुनर्जीवित करने और उसके मौजूदा स्वरूप को बदलने का मुद्दा उठाया है। इन कोशिशों में कई दशक बीत गए लेकिन नदी को राहत नहीं मिली। वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा गंगा प्रबन्धन बोर्ड की स्थापना और उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया ऐतिहासिक फैसला गंगा को दोबारा पावन और निर्मल बनाने की दिशा में बड़ी उपलब्धि है।

कोर्ट के फैसले ने गंगा नदी को जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया है, इससे लाल-फीताशाही और निरर्थक सरकारी बातों पर रोक लगेगी। उम्मीद की जा रही है कि गंगा प्रबन्धन बोर्ड अपने प्रयासों में तेजी लाएगा और गंगा किनारे अतिक्रमण और अवैध निर्माण हटाने व गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक औद्योगिक और घरेलू कचरे का निस्तारण रोकने में ठोस कदम उठाएगा। कानून की नजर में जीवित व्यक्ति का दर्जा मिलने के बाद उसे नुकसान पहुँचाने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकेगी। वर्तमान में ऐसी कार्रवाई के लिये विभिन्न सरकारी दफ्तरों से स्वीकृति लेनी पड़ती है। अगर गंगा प्रबन्धन बोर्ड गंगा की खो चुकी ख्याति को लौटाने का ईमानदार और तत्पर प्रयास करे, तो कुछ ही समय में इसके सकारात्मक नतीजे देखने को मिल सकते हैं। ऐसी आशा है कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय का यह फैसला केन्द्र सरकार के प्रयासों के लिये वरदान साबित होगा।

गंगा प्रबन्धन बोर्ड जल्दी ही पूर्ण रूप से कार्य करने लगेगा और इन नदियों के किनारे अवैध निर्माण करने वालों के खिलाफ त्वरित रूप से सख्त कानूनी कार्रवाई कर सकेगा। साथ ही हमारी पवित्र नदियों के साथ अन्याय करने वाली नगर पालिकाओं-निगमों, ग्राम पंचायतों, प्राधिकरणों को कोर्ट में घसीट सकेगा। पॉल्यूटर्स पे प्रिंसिपल नियम के तहत प्रबन्धन बोर्ड गंगा को हुए नुकसान के लिये हर्जाना माँग सकता है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading