नदी जीवन को मिला अदालती आधार

21 Mar 2017
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गंगा
गंगा

विश्व जल दिवस, 22 मार्च 2017 पर विशेष


गंगासयुक्त राष्ट्र संघ ने मलीन जल को विश्व जल दिवस - 2017 का मुख्य विचारणीय विषय घोषित किया है और जल की मलीनता की सबसे बड़ी शिकार आज हमारी नदियाँ ही हैं। इस लिहाज से विश्व जल दिवस - 2017 का सबसे बड़ा तोहफा इस बार उत्तराखण्ड हाईकोर्ट की तरफ से आया है।

तय हुआ गंगा-यमुना का जीवित दर्जा, अधिकार और अभिभावक


नैनीताल स्थित उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने गंगा, यमुना और इनकी सहायक नदियों को 'जीवित व्यक्ति' का दर्जा और अधिकार देते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने 'पैरेंट पैट्रिआई लीगल राइट' को आधार बनाते हुए यह फैसला सुनाया है। वरिष्ठ न्यायमूर्ति राजीव शर्मा एवं न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खण्डपीठ द्वारा 20 मार्च, 2017 को सुनाए इस फैसले में नमामि गंगे परियोजना के निदेशक, उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव तथा उत्तराखण्ड के महाधिवक्ता को गंगा-यमुना व इनकी सहायक नदियों का अभिभावक घोषित किया गया है। जाहिर है कि गंगा-यमुना व इनकी सहायक नदियों की जीवन्तता के दर्जे व अधिकारों की रक्षा की जवाबदेही अब सीधे-सीधे इन अभिभावकों की होगी।

इस फैसले की ऐतिहासिकता इस बात में भी है कि यह फैसला किसी हिन्दू सन्त नहीं, बल्कि एक नदी प्रेमी मुस्लिम मोहम्मद सलीम की जनहित याचिका पर आया है। याचिकाकर्ता ने बता दिया है कि दरिया का पाक बने रहना सभी के लिये जरूरी है; किसी भी नदी को लेकर मजहबी बताने की बात खुद में बेमानी है।

दर्जे की माँग का दर्ज इतिहास


गौरतलब है कि नदियों की जीवन्तता को संवैधानिक दर्जा देने के विचार को मैंने सबसे पहले यमुना वाटरकीपर्स की मुखिया और हिन्दी वाटर पोर्टल से सम्बद्ध बहन मीनाक्षी अरोड़ा के मुख से सुना था। वर्ष - 2012, तारीख - 16-17 सितम्बर, स्थान - मेरठ और मौका - नीर फाउण्डेशन द्वारा उत्तर प्रदेश की नदियों के भूत, वर्तमान और भविष्य को लेकर आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन।

इस सम्मेलन की सभा के बीच एक सवाल उछालते हुए मीनाक्षी जी ने कहा था कि इक्वाडोर और न्यूजीलैंड ने नदियों की जीवन्तता को आधार बनाकर इन्हें 'नैचुरल पर्सन' का संवैधानिक दर्जा दे दिया है। उन्होंने न्यूजीलैण्ड की माओरी जनजाति की आस्था से जुड़ी वांगानुई नदी को एक नागरिक की तरह कानूनी अधिकार दिये जाने का प्रसंग सुनाया था। मुझे याद है कि मीनाक्षी जी ने कहा था - ''हमें उनके अनुभवों से सीखना ही चाहिए। कभी भारत की आस्था व ज्ञानतंत्र ने आधुनिक विज्ञान से पहले यह बात दुनिया को बताई थी। आज भी भारत में नदियों को 'वाटरबाॅडी' नहीं, माँ कहा जाता है। क्या ऐसे भारत देश में नदियों को 'नैचुरल पर्सन' का संवैधानिक दर्जा नहीं मिलना चाहिए?''

बहन मीनाक्षी द्वारा उछाले इस सवाल से मुझे नदियों की सेहत सुनिश्चित करने वाली एक खिड़की खुलती दिखाई दी थी। उनके सवाल का सिरा पकड़कर मैंने कई लेख लिखे, जिन्हें सबसे पहले हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल ने स्थान दिया। इस विचार के भिन्न व्यावहारिक आयामों को खोलते हुए अपने लेखों में मैंने माँग की थी कि नदियों के माँ कहने वाले देश में तो नदियों को 'नैचुरल पर्सन' से दो कदम आगे बढ़कर 'नैचुरल मदर' यानी 'प्राकृतिक माँ' का संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए। गंगा मास्टर प्लान-2020 के नियोजकों ने भी आईआईटी, कानपुर द्वारा दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में नदियों की जीवन्तता को संवैधानिक दर्जा दिये जाने का पक्ष लिया।

योगेन्द्र नाथ नसकर बनाम आयकर आयुक्त कोलकोता मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था कि हिन्दुओं की देव प्रतिमाएँ न्यायाधिकार धारण करने की क्षमता रखने वाली सत्ता है। इसलिये समाज की आस्था और उसकी मान्यता की रक्षा करने के लिये गंगा और यमुना को जीवित व्यक्ति या न्यायाधिकार प्राप्त व्यक्ति के रूप मेें घोषित करने की जरूरत है। नदियों की जीवन्तता को संवैधानिक दर्जा दिलाने के विचार और माँग की पूर्ति का संकल्प पहली बार तब सार्वजनिक हुआ, जब वर्ष 2013 के इलाहाबाद कुम्भ के दौरान ‘गंगा संसद’ आयोजित की गई।

जलबिरादरी और गोविन्दबल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद की ओर से संयुक्त रूप से जारी किये गए 18 सूत्री संकल्प पत्र में नदियों को ‘जीवित व्यक्ति’ का दर्जा दिलाने का संकल्प पहला था। इस सम्बन्ध में हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल में प्रकाशित अपने लेख में मैंने आशा व्यक्त की थी कि आगाज हो चुका है; एक न एक दिन अंजाम आएगा जरूर। आखिरकार 21 मार्च को एक अंजाम सामने आ गया है। उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने माँग पर अपनी मुहर लगा दी है। माँग सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं की जानकारी के लिये आप हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल पर उपलब्ध लेख सम्बन्धित लेख पढ़ सकते हैं।

प्रतिक्रिया


कानून विशेषज्ञों ने इस फैसले को अपनी तरह का अलग और फैसला मानते हुए नदी के अधिकारों की चर्चा की दृष्टि से विस्तृत अध्ययन की बात कही है। कुछ मान रहे हैं कि अब गंगा, यमुना और सहायक नदिया में फेंके गए कचरे को यह माना जाएगा कि यह किसी जीवित व्यक्ति पर फेंका गया है। इन नदियों की बीमार करने और मारने की कोशिश को किसी जीवित व्यक्ति को बीमार करने और मारने की कोशिश मानकर हत्या कानूनों के तहत प्राथमिकी और मुकदमा दर्ज कराया जा सकेगा। नदियों पर अत्याचार के मामलों की अपील और सुनवाई अब मानवाधिकार आयोग में भी की जा सकेगी।

नदी प्रेमियों की राय में यह अहम फैसला है। स्वयं को भारतीय संस्कृति की पैरोकार कहने वाली केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह इसका संज्ञान लेते हुए भारत की सभी नदियों पर लागू करते हुए अधिसूचना जारी करे। जल व नदी मामलों की केन्द्रीय मंत्री सुश्री उमा भारती जी को चाहिए कि वह इस फैसले का लाभ लें और इस मामले में पहल करें। संसद, समाज और सभी सरकारों को चाहिए कि फैसले को जमीन पर उतारने में सहयोगी बनें। मेरी माँग पुनः है कि नदियों को सिर्फ जीवित व्यक्ति नहीं, ‘प्राकृतिक माँ’ का दर्जा व अधिकार देते हुए अधिसूचना जारी किया जाये।

आदेश के अन्य पहलू


मोहम्मद सलीम द्वारा उक्त याचिका में याचिका, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के बीच में नदियों व परिसम्पतियों के बँटवारे तथा यमुना की शक्ति नहर ढकरानी से अतिक्रमण हटाने की माँग को लेकर की गई थी। कोर्ट ने अपने फैसले में दोनों राज्यों को अपना समझौता पत्र 72 घंटे के भीतर केन्द्र सरकार को सौंपने का आदेश दिया है। साथ ही केन्द्र को भी निर्देश दिया है कि दस सप्ताह के भीतर दोनों राज्यों के समझौते पर अपना फैसला तय कर ले। अधिवक्ता एम सी पंत ने गंगा प्रबन्धन बोर्ड का गठन न करने का तथ्य भी कोर्ट के समक्ष रखा था।

गौरतलब है कि हाईकोर्ट ने दिसम्बर, 2016 में आदेश दिया था कि केन्द्र सरकार से कहा था कि तीन माह के भीतर गंगा बोर्ड का गठन कर उसे प्रभावी भूमिका में ले आया जाये। अदालत में पेश केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के वरिष्ठ संयुक्त आयुक्त वीरेन्द्र शर्मा ने कहा कि गंगा प्रबन्धन बोर्ड गठित करने में उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश शासन ने कोई सहयोग नहीं किया। कोर्ट ने इसे गम्भीरता से लेते हुए कहा है कि आदेश न मानने पर संविधान की धारा 356 प्रभावी हो सकती है।

सम्बन्धित लेख पढ़ने के लिये यहाँ देखें।

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