नदी जोड़ परियोजना : एक परिचय, भाग-2

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जलमार्गों की श्रृंखला के तालमेल एवं पानी उठाने वाली व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालित होने पर ही कावेरी नदी को पानी मिलेगा। योजना के प्रस्ताव के अनुसार गंगा के पानी को सुवर्णरेखा में 60 मीटर, सुवर्णरेखा के पानी को महानदी में 48 मीटर और महानदी के पानी को गोदावरी में 116 मीटर उठाना पड़ेगा। उम्मीद है दक्षिण की उत्तर पर निर्भरता टिकाऊ होगी पर नहर टूटने, बिजली की सप्लाई अवरुद्ध होने, पंप खराब होने या नक्सलवादी या आतंकवादी गतिविधियों के कारण व्यवस्था अवरुद्ध होती है तो जल आपूर्ति का क्या विकल्प होगा?नदी जोड़ परियोजना की कल्पना का मूल आधार अमीर और गरीब नदी घाटियां हैं। यही सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं जटिल है। इस सवाल का उत्तर सामान्य अंकगणितीय जलविज्ञान द्वारा नहीं दिया जा सकता। इसका उत्तर इको-हाइड्रोलॉजी द्वारा दिया जाना चाहिए। गौरतलब है कि नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट प्लान (भारत सरकार द्वारा नियुक्त कमीशन) भी इस योजना को लेकर सशंकित है।

जे. वंद्योपाध्याय और एस. परवीन के ई. पी. डब्ल्यू. में 11 दिसम्बर 2004 को प्रकाशित लेख में उल्लेख है कि इस कमीशन ने इको-सिस्टम की निरंतरता के लिए पानी की माँग का आकलन किया है। वंद्योपाध्याय और एस. परवीन कहते हैं कि इसमें आकलन करने के तरीके का उल्लेख ही नहीं है। इको-सिस्टम की निरंतरता के लिए जरूरी पानी को रोकने का असर खेती और जंगल की जमीन की उत्पादकता, ग्राउंड वाटर रिचार्ज, जैव विविधता एवं मछलियों के निर्बाध आवागमन और उत्पादन पर प्रतिकूल तरीके से पड़ता है इसलिए इन तथ्यों को इको-हाइड्रोलाजी के नज़रिए से समझने की जरूरत है।

पर्यावरण से सरोकार रखने वाले विद्वानों, वैज्ञानिकों एवं जल विज्ञानियों के अनुसार पेयजल, सिंचाई, औद्योगिक इकाइयों की पानी की मांग की पूर्ति के अलावा नदी द्वारा इकोलॉजिकल एवं अन्य उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। अतः नदी जोड़ योजना के अंतर्गत एक घाटी से दूसरी घाटी में पानी के ट्रांसफर के परिणाम अवश्यंभावी है। ये परिणाम ट्रांसफर की जाने वाली पानी की मात्रा के समानुपाती होंगे। यह विचार धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है कि नदी घाटियों की पानी की गरीबी, हकीकत में पानी के कुप्रबन्ध और गैर टिकाऊ मांग का परिणाम है।

बड़े पैमाने पर काम करने के पहले अर्थात एक मुख्य घाटी से दूसरी घाटी में पानी के ट्रांसफर के स्थान पर, घाटी के अंदर ही टिकाऊ, आर्थिक दृष्टि से उचित एवं सावधानीपूर्वक किए जलप्रबन्ध को सबसे पहले आजमाया जाना चाहिए। इस प्रयास के बाद हो सकता है कि इतर नदी घाटी के पानी के ट्रांसफर का अवसर ही नहीं आए। वे नदी घाटी के पानी के ट्रांसफर को अंतिम विकल्प मानते हैं।

उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार नार्थ-ईस्ट, बिहार, ओडिशा और आन्ध्र प्रदेश जैसे जल समृद्ध राज्यों के कुछ इलाकों में पानी की कमी की समस्याएं हैं। इसलिए जल समृद्ध क्षेत्र के पानी को बहुत दूर-दराज के स्थानों में भेजने के स्थान पर सबसे पहले निकटस्थ भूभाग की समस्या का निराकरण किया जाना चाहिए। इस अनुक्रम में लेखक का मानना है कि अब विभिन्न नदी जोड़ योजनाओं की पूर्व संभाव्यता एवं संभाव्यता रिपोर्ट उपलब्ध होने लगी हैं इसलिए अब यह पता चलने लगेगा कि एन.डब्ल्यू.डी.ए. ने उपरोक्त सभी पक्षों पर सावधानीपूर्वक विचार कर लिया है अथवा नहीं? गौरतलब है कि केन-बेतवा लिंक की पहली संभाव्यता रिपोर्ट उपलब्ध है पर इस रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि इस पहली संभाव्यता रिपोर्ट में ही अनेक खामियाँ मौजूद हैं।

जलमार्गों की श्रृंखला के तालमेल एवं पानी उठाने वाली व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालित होने पर ही कावेरी नदी को पानी मिलेगा। योजना के प्रस्ताव के अनुसार गंगा के पानी को सुवर्णरेखा में 60 मीटर, सुवर्णरेखा के पानी को महानदी में 48 मीटर और महानदी के पानी को गोदावरी में 116 मीटर उठाना पड़ेगा। उम्मीद है दक्षिण की उत्तर पर निर्भरता टिकाऊ होगी पर नहर टूटने, बिजली की सप्लाई अवरुद्ध होने, पंप खराब होने या नक्सलवादी या आतंकवादी गतिविधियों के कारण व्यवस्था अवरुद्ध होती है तो जल आपूर्ति का क्या विकल्प होगा? अपस्ट्रीम से आने वाले पानी का क्या भविष्य होगा? कुछ लोग कह सकते हैं कि ये काल्पनिक प्रश्न हैं और इनके आधार पर योजना नकारना अनुचित होगा।

कुछ लोगों का मानना है कि उपर्युक्त बातें पूरी तरह संभावनाएँ नहीं है। मुसीबत की घड़ी में यही सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं जटिल हो जाते हैं। योजनाकार और फायदा उठाने वाले परिदृश्य से जा चुके होते हैं पर ख़ामियाज़ा आर्थिक एवं मानवीय त्रासदी के रूप में हजारों लाखों लोगों को चुकाना पड़ता है। विश्वास है, योजना में इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रखा जाएगा और पुख्ता व्यवस्थाएं की जाएंगी।

सर्वोच्च न्यायालय को प्रस्तुत हलफनामें के प्रारंभिक निवेदन के पैरा (बी) में कहा गया है कि इस परियोजना का उद्देश्य बाढ़ नियंत्रण और सूखे की समस्या को समाप्त करना है। बाढ़ नियंत्रण और सूखे की समस्या के निराकरण में नदी जोड़ योजना के औचित्य पर कोई भी जागरूक नागरिक एवं जलविज्ञानी निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चाहेगा-

1. बाढ़ के कितने भाग का ट्रांसफर प्रस्तावित है?
2. ट्रांसफर किए बाढ़ के पानी से कितनी मात्रा में फ्लड माडरेशन प्राप्त होगा?
3. बड़ी परियोजनाओं की मदद से फ्लड माडरेशन का पुराना अनुभव क्या है?
4. बाढ़ के पानी के ट्रांसफर से नदी घाटी के निचले भाग की पारिस्थितिकी, जलचरों के जीवन, नदी पर निर्भर समाज की आजीविका, पानी की गुणवत्ता एवं पानी को स्वच्छ बनाने की उसकी क्षमता, भूजल रिचार्ज, डेल्टा क्षेत्र की पारिस्थितिकी इत्यादि पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
5. अंतिम बिंदु की ओर ट्रांसफर किए पानी का पूरे रास्ते पर क्या प्रभाव होगा?
6. पानी प्राप्त करने वाली नदी या लाभान्वित इलाके पर पानी के ट्रांसफर का क्या प्रभाव होगा?
7. क्या जल प्रदान करने वाली नदी की बाढ़ और पानी प्राप्त करने वाली नदी के सूखे एक ही समय होंगे? यदि नहीं तो बाढ़ के पानी को अस्थायी रूप से कहां रखा जाएगा? पानी के साथ आने वाली सिल्ट का क्या होगा?

सब जानते हैं कि बाढ़ और सूखा दो अलग-अलग प्राकृतिक समस्याएँ हैं। उनके निदान अलग-अलग हैं इसलिए स्थान विशेष की परिस्थितियों के अनुसार इन प्राकृतिक समस्याओं के दीर्घकालीन हल खोजे जाने चाहिए। यही वास्तविक चुनौती है। यही समाज की चाहत और सरकार से अपेक्षा है। सब जानते हैं कि गलत समझ ही गलत हल की ओर ले जाती है।

समाज के प्रबुद्ध लोगों का एक वर्ग तो नदी जोड़ योजना के बाढ़ नियंत्रण के विचार पर ही प्रश्न चिन्ह लगाता है। इस वर्ग के लोगों का कहना है कि यह साफ नहीं है कि किस तरह नदी जोड़ परियोजना से बाढ़ नियंत्रण का लक्ष्य हासिल होगा? आई.आई.टी. रुड़की के ख्यातिलब्ध प्रोफेसर और नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट प्लान के पूर्व सदस्य भारत सिंह का कथन है कि जल संसाधन से जुड़ा कोई भी इंजीनियर, बाढ़ पर नियंत्रण पाने के लिए नदियों को जोड़ने के विचार को तत्काल खारिज कर देगा।

सब जानते हैं कि बाढ़ और सूखा प्राकृतिक घटनाएं हैं। हर साल उनके ठिकाने, अवधि और मात्रा बदलते रहते हैं। कई बार, बहुत छोटे इलाके में दोनों का असर देखने को मिल जाता है। रिटायर्ड मेजर जनरल डा. एस.जी. वोम्बटकेरे (डैम्स, रिवर्स एन्ड पीपुल, फरवरी-मार्च 2007, पेज 7) के अनुसार, बरसात के मौसम में गंगा में औसत जल प्रवाह 50,000 क्यूमेक होता है। ज्ञातव्य है कि 100 मीटर चौड़ी और दस मीटर गहरी केनाल से अधिक से अधिक 2000 क्यूमेक पानी ही, जो बाढ़ से मात्र 4 प्रतिशत राहत दे सकता है, ट्रांसफर किया जा सकता है।

इसी तरह ब्रह्मपुत्र में बाढ़ के दौरान औसतन 60,000 क्यूमेक पानी बहता है और उपर्युक्त आकार की केनाल से अधिक से अधिक तीन प्रतिशत राहत मिल सकती है। क्या इतनी कम राहत के लिए इतना बड़ा मेगा प्रोजेक्ट लेना चाहिए? ज्ञातव्य है, साल के शेष आठ महीनों में गंगा में औसतन 5,280 क्यूमेक पानी बहता है। यदि इस मात्रा में से 2000 क्यूमेक पानी ट्रांसफर कर दिया जाता है तो बिहार को 38 प्रतिशत पानी की आपूर्ति उस समय नकार दी जाएगी, जब वहाँ उसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। वोम्बटकेरे के अनुसार गंगा के 38 प्रतिशत पानी के ट्रांसफर के गंभीर सामाजिक एवं आर्थिक दुष्परिणाम होंगे। क्या राजनीतिक दल और समाज इन परिणामों को भुगतने के लिए तैयार हैं?

जल संसाधन विभाग ने बिजली की न्यूनतम खपत सुनिश्चित करने के लिए हलफनामें के पैरा (ए) में सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया था कि-

“नहर निर्माण के वैकल्पिक मार्गों का अध्ययन किया जा रहा है और उनके लिए सर्वेक्षण कराए जा रहे हैं ताकि निचले इलाके से ऊपरी इलाके को पानी पहुँचाने में बिजली पर आने वाला भारी खर्च बचाया जा सके।”

उपर्युक्त बिंदु पर दिए हलफनामें में वैकल्पिक जलमार्गों के सर्वेक्षण एवं निचले इलाके से ऊपरी इलाके को पानी पहुंचाने में बिजली पर आने वाले भारी खर्च को बचाने के बारे में कहा गया है। पाठक सहमत होंगे कि मैदानी सर्वेक्षण से जल परिवहन के सही रास्ते तो तय किए जा सकते हैं पर भारत का भूगोल या स्थानों की ऊँचाई नहीं बदली जा सकती। यदि पानी को ऊपर उठाना है तो बिजली लगेगी। यह हकीकत है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। अर्थात उच्चतम न्यायालय को बिजली खर्च के बारे में प्रस्तुत जवाबदावा असत्य एवं गुमराह करने वाला लगता है। इस परियोजना में पानी को तीन स्थानों पर ऊपर उठाने के लिए 4000 मेगावाट बिजली की आवश्यकता होगी। यही वास्तविकता है।

सर्वोच्च न्यायालय को प्रस्तुत हलफनामें के पैरा (ई) में कहा गया है कि नदियों को आपस में जोड़ने के बाद लगभग 25 लाख हेक्टेयर में सतही जल से और 10 लाख हेक्टेयर भूजल से सिंचाई होगी। इस अनुक्रम में लाभान्वित इलाके और भूजल संरचनाओं के बारे में विवरणों का खुलासा आवश्यक है। यदि यह इलाका कमांड क्षेत्र के बाहर है तो उसे इस योजना के साथ कैसे जोड़ा जाएगा। यदि यह इलाका योजना के कमांड क्षेत्र में है तो अभी तक का अनुभव बताता है कि कमांड क्षेत्र में सरकारी स्तर से सतही जल और भूजल का मिलाजुला उपयोग नहीं किया जाता।

भूजल स्तर के जमीन के करीब होने, वाटरलागिंग होने या जमीन के खारे होने के बाद भी भूजल दोहन को लगभग नहीं अपनाया है। कमांड क्षेत्रों में सतही जल और भूजल के मिलेजुले उपयोग के सरकार द्वारा बनवाए उदाहरण सामान्यतः अनुपलब्ध है। गंगा कछार और नर्मदा कछार जहाँ भूजल के अच्छे भंडार मिलते हैं, में भी सरकारी स्तर पर सतही और भूजल के समानुपातिक उपयोग के उदाहरण अनुपलब्ध हैं। इसके उलट दक्षिण के पठार में, जो मुख्यतः आग्नेय एवं कायान्तरित चट्टानों से बना है, कछारी क्षेत्रों के समान बड़े भूजल भंडारों के विकसित होने की संभावना बहुत कम है इसलिए भूजल से यह लक्ष्य कैसे और कहां हासिल किया जाएगा, स्पष्ट किया जाना आवश्यक एवं उपयोगी होगा। भूजल के उपयोग में अव्वल रहने वाले समाज को भी यह जानकारी मिलना चाहिए।

इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि गंगा और ब्रह्मपुत्र तथा उनकी सहायक नदियां कुछ साल के अंतराल पर अपना मार्ग बदलती हैं। कई बार मार्गों का बदलाव एक से दो किलोमीटर तक हो जाता है। इस बदलाव के कारण मार्ग में आने वाले कस्बों और गाँव का भूगोल ही बदल जाता है। मार्ग बदलने के मामले में कोसी का इतिहास सबसे जुदा है।

गंगा द्वारा मार्ग बदलने की समस्या के कारण फरक्का बांध की उपयोगिता पर संकट है और सरकार को उसकी उपयोगिता के स्तर को बरकरार रखने पर हर साल काफी धन खर्च करना पड़ रहा है। नदी जोड़ योजना के हिमालयीन घटक के लिए नदी पथ का परिवर्तन बहुत बड़ा संभावित खतरा है और इस खतरे की अनदेखी उससे भी बड़ा खतरा है। नदी द्वारा पथ बदलने से अनेक बांध और जल मार्ग बेकार हो जाएंगे। बाढ़ की तबाही भोगने वाले समाज और इलाके के जनप्रतिनिधियों को इस बारे में शिक्षित करने और उनकी सहमति लेने की आवश्यकता है।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस परियोजना के अंतर्गत जलमार्गों की कुल संभावित लम्बाई लगभग 14,900 किलोमीटर होगी। इन कृत्रिम मुख्य नहरों के अलावा अनेक ब्रांच केनाल, डिस्ट्रीब्यूटरी, माइनर, सब-माइनर एवं फील्ड चैनल भी बनाई जाएंगी। ये सब अतिरिक्त जलमार्ग होंगे। इन सारी नहरों में बहने वाला पानी लगभग 173 बिलियन क्यूबिक मीटर होगा।

यह सही है कि यह पानी प्राकृतिक जल मार्गों अर्थात नदियों में ही बहने वाला पानी है पर कृत्रिम जलमार्गों की लम्बाई और जल प्रवाह की अवधि बढ़ने तथा खेतों में उसे वितरित करने के कारण बड़ी मात्रा में वाष्पीकरण तथा रिसाव होगा। वहीं, पानी देने वाले इलाके में मात्र 10 प्रतिशत के करीब जल प्रवाह बचने के कारण गंभीर पर्यावरणी हानियां होंगी।

नदी जोड़ योजना के क्रियान्वयन से डूब क्षेत्र (गाँव, कस्बे इत्यादि) में निवास करने वाले विभिन्न श्रेणियों के किसान, खेतिहर मजदूर और गरीब तबके के लोग विस्थापित होंगे। डूब क्षेत्र में आने वाले खेत, मकान, जंगल, खनिज पदार्थ, जड़ी बूटियां, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासतें इत्यादि नष्ट होंगी।

देश का प्राकृतिक नदी तंत्र बदलेगा। नदियों में पाए जाने वाले जलचरों और जलीय वनस्पतियों का ठिकाना बदलेगा और भारत की धरती पर कृत्रिम भूगोल लिखा जाएगा। इस परियोजना के डूब में आने वाले इलाके के रकबे और विस्थापित होने वाले मनुष्यों की संख्या के बारे में आँकड़ों में भिन्नता है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय को प्रस्तुत हलफनामें के प्रारंभिक निवेदन में डूब के रकबे और विस्थापितों की संख्या के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। डेम, रिवर और पीपुल (दिसम्बर-जनवरी, 2007, पेज 6) के अनुसार पूरी योजना के डूब के रकबे और विस्थापन का संभावित विवरण निम्नानुसार है-

घटक

वन भूमिक का रकबा (हे.)

कुल रकबा (हे.)

विस्थापित व्यक्तियों की संभावित संख्या

हिमालय क्षेत्र के सभी बांध

4,300

1,62,304

2,45,079

हिमालय क्षेत्र के सभी जलमार्ग

16,758

99,315

3,11,849

दक्षिण प्रायद्वीप के सभी बांध

73,646

4,04,843

6,11,313

दक्षिण प्रायद्वीप के सभी जलमार्ग

9,165

99,046

 3,11,004

योग

1,03,869

7,65,508

14,79,245

 



ओडिशा एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय के बी. सेनापति एवं एल.एम. गरनायक (एन.डब्ल्यू.डी.ए., 2005-2, पेज 386) के अनुसार लगभग 3.5 लाख हेक्टेयर भूमि डूब में आएगी जिसमें से 1.2 लाख हेक्टेयर वन भूमि होगी। दिनांक 11 मई 2005 को 11वें नेशनल वाटर कन्वेंशन में सी.डब्ल्यू.सी. के तीन अधिकारियों ने आलेख में बताया था कि इस योजना के कारण 4 से 5 लाख लोग विस्थापित होंगे और लगभग 79,000 हेक्टेयर वन भूमि डूबेगी। डॉ. एस. वोम्बटकेरे (डेम्स, रिवर्स एंड पीपुल, दिसम्बर 2006-जनवरी 2007, पेज 3) के अनुसार, कुल 8.0 लाख हेक्टेयर जमीन डूबेगी। कर्नाटक विश्वविद्यालय के एच.एच. उलीवेप्पा के अनुसार लगभग 10,500 किलोमीटर लंबी नहरों के कारण 55 लाख लोग विस्थापित होंगे।

एन.डब्ल्यू.डी.ए. 2005-2 की रपट के पेज 55 पर दिए उल्लेख के अनुसार नेपाल में पंचेश्वर (शारदा नदी) के कारण 12,000 हेक्टेयर, छिसापानी (घाघरा नदी) के कारण 34,000 हेक्टेयर, कोसी हाई डेम (कोसी नदी) के कारण 19,063 हेक्टेयर, गंडक बांध (आँकड़े अप्राप्त) और कोसी हाई डेम (कोसी नदी) के कारण 19,063 हेक्टेयर जमीन डूबेगी। इसी तरह भूटान में मनास (आँकड़े अप्राप्त), संकोष (संकोष नदी) के कारण 4,700 हेक्टेयर, मनास-संकोष लिंक केनाल (आंकड़े अप्राप्त) और संकोष रेगुलेटिंग बांध के कारण 821 हेक्टेयर जमीन डूबेगी। यह सारी जमीन नेपाल की है। जब तक ये बांध और लिंक केनाल का निर्माण नहीं होता, हिमालयीन लिंक पूरा नहीं हो सकेगा।

भारत सरकार के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव एम.एस. रेड्डी (एन.डब्ल्यू.डी.ए. 2005-2, पेज 99) के अनुसार यद्यपि नदी जोड़ योजना के हिमालयीन घटक में पंचेश्वर, किसउ, लखवार, व्यासी और रेनुका बांध का तथा दक्षिण प्रायद्वीपीय घटक में भोपालपट्नम और बोधघाट बांधों का उल्लेख नहीं है पर उनका निर्माण आवश्यक है।

भारत में सन 1951 के बाद लगभग 1300 सिंचाई परियोजनाएं ली गईं हैं। इनमें से 900 योजनाएँ पूरी की जा चुकी हैं। शेष 400 योजनाएँ अपूर्ण हैं। वे निर्माण के विभिन्न चरणों में हैं। उनको पूरा करने के लिए लगभग 80,000 करोड़ रुपयों की आवश्यकता है। कुछ लोग जो देश के बांधों की लागत और समयावधि में होने वाली बढ़ोतरी को गंभीर मुद्दा मानते हैं, के अनुसार हर योजना अपनी प्रस्तावित लागत और प्रस्तावित अवधि में कभी पूरी नहीं होती। उसकी लागत में अनेक गुना वृद्धि होती है तथा निर्माण में जरूरत से ज्यादा समय लगता है और सिंचाई लाभ विलम्ब से प्राप्त होते हैं। इसी अनुभव की पृष्ठभूमि में यदि हम नदी जोड़ योजना की बात करें तो पाते हैं कि सिंचाई क्षेत्र की लंबित योजनाओं और नदी जोड़ योजना को पूरा करने के लिए कम से कम 6,40,000 करोड़ रुपए चाहिए।

कुछ लोगों का मानना है कि सरकार को ऐसे मेगा प्रोजेक्ट को जिसका कुशल संचालन और अस्तित्व, लिंक केनालों के बीच पानी के आदान प्रदान और नेपाल एवं भूटान की सरकारों से समझौतों तथा सतत समन्वय की शर्त पर संभव हो, के प्रबंध का अनुभव नहीं है। इस प्रोजेक्ट का प्रत्येक घटक और प्रत्येक जोड़, हकीकत में एक बहुआयामी अत्यंत जटिल सिस्टम का अंग हैं। उसके शत-प्रतिशत तालमेल से ही नदी के पानी को नियंत्रित करना संभव होगा। वोम्बाटकेरे (डेम्स, रिवर्स एंड पीपुल, फरवरी-मार्च 2007 पेज 9 और 10) के अनुसार उपर्युक्त सिस्टम का कोई भी घटक कभी भी असफल हो सकता है।

यह सुविदित तथ्य है कि किसी भी घटक या सिस्टम की असफलता के परिणाम, उसकी जटिलता के अनुरूप अधिकाधिक गंभीर होते जाते हैं। वोम्बाटकेरे के अनुसार यह परियोजना बांधों, नहरों, परस्पर संबद्ध संरचनाओं के अलावा पनबिजली, पुलों, भवनों और सड़कों जैसी अनेक परस्पर निर्भर योजनाओं की जटिल व्यवस्था है। किसी भी एक घटक के काम नहीं करने की हालत में उसके भौतिक, सामाजिक, पर्यावरणीय, आर्थिक और राजनीतिक परिणाम होंगे।

यदि किसी गलत अनुमान के कारण नदी जोड़ सिस्टम काम नहीं करता तो विस्थापन व्यय सहित उस पर खर्च की गई समस्त राशि बेकार हो जाएगी। विदेशों से लिए कर्ज का चुकारा करना हकीकत में मंहगाई बढ़ाने का सबब बनेगा। अन्न उत्पादन के प्रस्तावित फायदे नहीं मिल पाएँगे और नहरों/जलमार्गों के निर्माण के कारण खेती और जंगल की जमीन बेकार हो जाएगी और अनेक इलाकों में गरीबी बढ़ेगी। अतः नदी जोड़ परियोजना में लगाए उपरोक्त अनुमानों पर प्रश्न चिन्ह लगाना अनुचित नहीं है।

पिछले 10-15 सालों से भारत में विकास कार्यों में जन भागीदारी और समाज को अधिकार देने की बात चल रही है। कुछ योजनाओं में इसे आजमाया भी गया है। अनेक जगह सकारात्मक परिणाम मिलने के कारण, समाज को गतिविधियों के केन्द्र में रखने के फायदों पर सहमति बन रही है। यह सहमति भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में इसे आजमाया जा रहा है। जल संसाधन विभाग ने भी इस रणनीति को अपनाया है और कमांड क्षेत्र में सिंचाई जल के प्रबंध में किसानों की भागीदारी को बढ़ावा दिया है। भारत में लगभग 4500 बड़े बांध हैं। प्रत्येक बांध का अपना अस्तित्व है। प्रत्येक बांध एक स्वतंत्र इकाई या अपने आप में पूर्ण सिस्टम की तरह है। गौरतलब है कि आज तक, इन बांधों की प्रस्तावित अपेक्षाओं (वायदों) और हासिल हकीकत की तुलनात्मक समीक्षा नहीं हुई है। इस समीक्षा के अभाव में परियोजना की स्वीकृति के समय प्रस्तावित अपेक्षाओं को हकीकत की कसौटी पर तौलना संभव नहीं है। वोम्बाटकेरे (2007) के अनुसार, नागरिकों द्वारा, प्रस्तावित नदी जोड़ योजना की तकनीकी सह प्रशासनिक समीक्षा और सन 1947 से आज तक बने बांधों के विस्थापितों के पुनर्वास के अनुभव के परिप्रेक्ष्य में योजना के आधार तथा संभावित खतरों के आकलन का प्रश्न उठाना उचित है। इतनी बड़ी योजना के असफल होने का खतरा कोई भी देश नहीं उठा सकता।

अतः प्रश्न इतनी बड़ी योजना बनाने के स्थान पर उसे बनाने के औचित्य और वायदों के हकीकत में बदलने की संभावना की पुष्टि का है। इसी क्रम में वोम्बाटकेरे (2007) कहते हैं कि आई.पी.सी.सी. की जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट के अनुसार भविष्य में दक्षिण भारत में कम पानी बरसेगा तथा हिमालय के ग्लेशियरों के तेजी से पीछे हटने के कारण गंगा और ब्रह्मपुत्र की जल प्रवाह संबंधी गणनाओं में कमी संभावित है। इस कमी के कारण सारी योजना के असफल होने का गंभीर खतरा है। उनके अनुसार देश को वाटरशेड योजनाओं तथा बरसात के पानी के संरक्षण पर खर्च करना चाहिए। परियोजना को हमेशा-हमेशा के लिए तिलांजलि देनी चाहिए और उद्योगों, औद्योगिक घरानों और प्रभावशाली व्यक्तियों के लालच का प्रजातांत्रिक तरीके से समाधान करना चाहिए।

नदी जोड़ या नदी के कुदरती प्रवाह को रोककर दूसरी दिशा में मोड़ने के कुछ अंतरराष्ट्रीय अनुभव हैं। नवधान्य के प्रकाशन जल स्वराज (जल संप्रभुता श्रृंखला नम्बर 2, पेज 3) में वंदना शिवा और कुंवर जलीस (पेज 5) में कहते हैं कि जिन देशों की नदियों में पहले पर्याप्त पानी उपलब्ध था और उन्होंने उसे नियंत्रित किया, वे देश, अब अरबों डालर खर्च करके पानी का संग्रह करने और बांधों को नष्ट करने में लगे हैं। अकेले अमेरिका में सन 1911 से 1964 के बीच 500 बांधों को नष्ट किया गया है। इसमें कोलोरेडो नदी पर बनाए 20 बड़े बांध सम्मिलित हैं। सन 1999 से 2002 के बीच 100 से अधिक बांधों को हटाया गया है। अमेरिका के दक्षिण-पश्चिमी भाग में स्थिति कोलोरेडो नदी को पुनः जिंदा करने का प्रयास किया जा रहा है। गौरतलब है कि इस नदी का पानी, समुद्र में पहुँचने के पहले ही सूखने लगा है। कैलीफोर्निया की कुछ नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए 8 अरब डालर की योजना बनाई गई है। स्पेन में एबरो नदी के पानी को, नदी के दक्षिणी हिस्से में ले जाने की योजना के दूसरे चरण को जनता के विरोध के कारण रोकना पड़ा हैं पुराने सोवियत रूस में अरल समुद्र में मिलने वाले अमु और स्यूर दरिया, इकोलॉजी की दृष्टि से मर चुके हैं। चीन की यलो नदी (हुआंग हो नदी) का निचला भाग (लोअर रीचेज) तो साल में लगभग नौ महीने जल विहीन रहता है। यूरोपीय देशों, आस्ट्रेलिया, तुर्की, चिली इत्यादि देशों में बांधों से मोह भंग हो चुका है और वे देश नए विकल्पों के लिए अभियान चला रहे हैं।

पिछले 10-15 सालों से भारत में विकास कार्यों में जन भागीदारी और समाज को अधिकार देने की बात चल रही है। कुछ योजनाओं में इसे आजमाया भी गया है। अनेक जगह सकारात्मक परिणाम मिलने के कारण, समाज को गतिविधियों के केन्द्र में रखने के फायदों पर सहमति बन रही है। यह सहमति भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में इसे आजमाया जा रहा है। जल संसाधन विभाग ने भी इस रणनीति को अपनाया है और कमांड क्षेत्र में सिंचाई जल के प्रबंध में किसानों की भागीदारी को बढ़ावा दिया है। अनेक जगह, इस प्रयोग के अच्छे परिणामों के कारण जन भागीदारी के दायरे को बढ़ाने की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए कैचमेंट और कमांड क्षेत्र के प्रभावित लोग जो इस योजना से सीधे-सीधे अच्छे और बुरे तरीके से प्रभावित होंगे की भागीदारी आवश्यक प्रतीत होती है उन्हें जोड़ा जाना चाहिए। उनके विचारों को तरजीह देना चाहिए। पानी, समाज और सरकार के रिश्ते में तालमेल बैठाना होगा, यही सबसे अधिक जरूरी है।

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