नदी जोड़ने के खतरे

21 Feb 2015
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जनवरी 2015 में दिल्ली में आयोजित भारत जल सप्ताह में पर्यावरणविदों द्वारा जारी चिन्ताओं को नजरअन्दाज कर भाजपा नीत सरकार नेे घोषणा की कि प्राथमिकता के आधार पर हर हालत में नदियाँ आपस में जोड़ी जाएँगी एवं रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर किया जाएगा। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने सन् 2002 में 5,67,000 करोड़ रु. की नदी जोड़ योजना को अमृत क्रान्ति नाम देकर प्रारम्भ किया था।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार इसे दिसम्बर 2016 तक पूरा किया जाना था। इस योजना के पीछे प्रमुख तर्क यह दिया गया था कि इससे सिंचाई एवं बिजली उत्पादन में जो बढ़ोतरी होगी जिससे सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) लगभग 4 प्रतिशत बढ़ेगी। इसके अन्तर्गत लगभग 3 करोड़ 50 लाख हेक्टेयर में सिंचाई तथा 34 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन की सम्भावना बताई गई थी। देश के सूखे क्षेत्रों में 173 अरब क्यूबिक मीटर पानी पहुँचाने तथा जल परिवहन को बढ़ावा देने के साथ-साथ कई अन्य लाभों के भी गुणगान किए गए थे।

वर्ष 2004 में केन्द्र में बनी डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने इस योजना पर अध्ययन एवं सर्वेक्षण करवाते हुए इसे जारी रखा। इस सभी कार्यों पर सरकार के 50 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। सितम्बर 2009 के गंगा प्राधिकरण की बैठक के बाद तत्कालीन पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश ने इसे बन्द करने को घोषणा कर दी थी। इसे रद्द करने का आधार यह बताया गया कि जनता को जादुई आंकड़ों पर ध्यान न देकर वास्तविकता समझनी चाहिए क्योंकि इस परियोजना के घातक मानवीय, आर्थिक, पारिस्थितिकीय एवं सामाजिक परिणाम घातक होंगे।

परियोजना रद्द करने की इन बातों को यदि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देखा जाए तो इस सम्भावित परिणामों को एकदम नकारा नहीं जा सकता है वैसे भी प्रकृति मनुष्यों द्वारा दिए आँकड़ों एवं नियमों के अनुसार नहीं चलती है।

किसी भी परियोजना को अपने पक्ष में करने हेतु सरकारें आँकड़ों का ऐसा चित्र जनता के सामने प्रस्तुत करती है कि उसमें सब कुछ लाभ-ही-लाभ दिखाई देता है। देश में बड़े बाँधों को स्थापित करते समय जो लाभ बताए गए थे उनमें से कई तो आज तक प्राप्त नहीं हुए।

वर्तमान में दुनिया मन्दी के दौर से गुजर रही है एवं देश की आर्थिक हालत भी कोई बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है, वहीं शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बजट में कमी की जा रही है। ऐसी हालत में इतनी व्यापक एवं महँगी योजना लागू करना कहाँ तक उचित है? योजना पूर्ण होते-होते इसकी लागत बताई गई राशि से कई गुना अधिक होगी, तो आखिर इतनी राशि कहाँ से आएगी?

वित्त एवं कम्पनी कार्य के राज्यमन्त्री ने वर्ष 2002 में ही जानकारी दी थी कि देश में प्रति व्यक्ति पर 13384 रुपए का कर्ज है। हिसार के एक आरटीआई कार्यकर्ता को वित मन्त्रालय ने जानकारी दी है कि दिनांक 11/12/14 को देश पर 67.9 अरब डालर का विदेशी कर्ज है। इतने कर्ज में डूबा देश इस योजना से और कितने कर्ज में डूबेगा?

देश की भौगोलिक स्थिति में जहाँ पहाड़, मैदान, जंगल, चारागाह, तालाब, झीलें, रेगिस्तान एवं बड़ा समुद्री किनारा है वहां यह योजना किस हद तक सफल होगी? हमारे यहाँ नगरों एवं महानगरों में जब सड़कें चौड़ी की जाती हैं या अतिक्रमण हटाए जाते हैं तो हजारों लोग न्यायालय से स्थगन आदेश ले आते हैं एवं कार्य रुक जाता है तो फिर देश भर में फैलने वाली इस योजना पर कितने स्थगन आदेश आएँगे एवं कहाँ-कहाँ कार्य रुकेगा? इस परिस्थितियों में योजना अपने निर्धारित समय से पूरी नहीं होगी एवं लागत बढ़ती जाएगी।

प्रत्येक नदी अपने आप में एक ईकोतन्त्र है। उसके अपने पानी के गुण हैं, बहाव है, अपना क्षेत्र है एवं कई प्रकार की वनस्पतियों के साथ-साथ शाकाहारी व मांसाहारी जीव भी है। गंगा डाल्फिन मछलियों के लिए उपयुक्त है तो चंबल में घड़ियाल पलते हैं। नदियाँ हमारी सभ्यता संस्कृति एवं आस्था से जुड़ी हैं एवं इसलिए उनका धार्मिक महत्व भी है। ऐसे में नदियों को जोड़ना यानी उनके प्राकृतिक स्वरूप को तोड़ना है जो प्रकृति के विरुद्ध है।इतनी बड़ी योजना के पीछे सबसे बड़ी त्रासदी विस्थापन एवं पुनर्वास की होगी। इस योजना से 3.5 से 5 करोड़ लोगों के विस्थापन सम्भावित है। वैसे भी पुनर्वास का इतिहास देश से अच्छा नहीं है। कई बड़े बाँधों के कारण विस्थापित लोगों का पुनर्वास सही ढंग से नहीं हुआ। दक्षिण के नागार्जुन सागर के कई विस्थापितो को अपने बच्चे तक बेचने पड़े हैं।

बड़े बाँधों एवं नहरों से सिंचाई के कारण गाद जमा होने, दलदलीकरण एवं लवणीकरण की जो समस्याएँ पैदा हुई, वे इस योजना में भी पैदा होगी। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मध्य एशिया व पाकिस्तान में किए गए कुछ अध्ययनों के अनुसार जहाँ नदियों का पानी समुद्र में जाने से रोका गया वहाँ भूमि में क्षारियता बढ़ी एवं धीरे-धीरे बंजर हो गई। हमारे देश की नदियाँ अपने-अपने जलप्रवाह क्षेत्रों से लगभग 2 करोड़ 68 लाख 30 हजार घनमीटर पानी महासागरों में पहुँचाते हैं।

सतत् तटीय प्रबन्धन राष्ट्रीय केन्द्र के निर्देशक ने हमारे देश में किए गए अध्ययन के आधार पर बताया है कि जैसे-जैसे ताजे पानी के बहाव को समुद्र में जाने से रोका जाता है वैसे-वैसे डेल्टा सिकुड़ जाते हैं या डूब जाते हैं। देश को नदियों के सन्दर्भ दो महत्वपूर्ण बातें हैं, प्रथम, तो यह कि इनमें वर्ष भर जल की समान मात्रा नहीं रहती है एवं दूसरी, यह कि सारी नदियों में प्रदूषण का स्तर अलग-अलग है एवं वह भी जल की मात्रा अनुसार बदलता रहता है।

इस सन्दर्भ में जल की अधिकता के समय बाढ़ नियन्त्रण एवं कमी के समय सूखे से रोकथाम किस प्रकार होगी? नहरों, जलाशयों एवं दलदलों से जलजनित रोग भी बढ़ते हैं। सूखाग्रस्त इथोपिया में जब सिंचाई कार्य का विस्तार किया तो मलेरिया में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। हमारे देश में भी हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने कहा कि नागार्जुन व तुंगभद्रा बाँधों के कारण आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु के किसानों में घुटने की एक बीमारी (लाकनी) फैली है।

नदियों के मार्ग बदलने एवं नहरों से पानी पहुँचाने का स्थानीय जीवों पर भी विपरीत प्रभाव होता है। सतलज का पानी इन्दिरा गाँधी नहर से जब थार के रेगिस्तान में पहुँचाया गया तो वहाँ स्थानीय पौधों की 150 तथा पक्षियों की 20 प्रजातियाँ धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। जलवायु परिवर्तन की बातें अब स्थापित हो चुकी है अतः इस योजना को इस आधार पर भी पुनः आर्थिक, सामाजिक, तकनीकों, मानवीय, भौगोलिक सांस्कृतिक, पारिस्थितिकीय एवं कृषि के पक्षों पर विशेषज्ञों द्वारा वैज्ञानिक आधार पर पारदर्शिता से अध्ययन करवाना चाहिए।

ज्यादातर तकनीकी लोग नदियों के सिंचाई एवं बिजली उत्पादक के भाव देखते हैं जो एकदम ठीक नहीं है। प्रत्येक नदी अपने आप में एक ईकोतन्त्र है। उसके अपने पानी के गुण हैं, बहाव है, अपना क्षेत्र है एवं कई प्रकार की वनस्पतियों के साथ-साथ शाकाहारी व मांसाहारी जीव भी है। गंगा डाल्फिन मछलियों के लिए उपयुक्त है तो चंबल में घड़ियाल पलते हैं।

नदियाँ हमारी सभ्यता संस्कृति एवं आस्था से जुड़ी हैं एवं इसलिए उनका धार्मिक महत्व भी है। ऐसे में नदियों को जोड़ना यानी उनके प्राकृतिक स्वरूप को तोड़ना है जो प्रकृति के विरुद्ध है। बगैर व्यापक अध्ययन के जल्दबाजी में इसे लागू किए जाने पर यह पर्यावरण की सबसे बड़ी त्रासदी साबित हो सकती है।

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