नदी के साथ-साथ एक सफर

24 May 2011
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मैं नदी के बहते जल के इस संगीत का इतना अभ्यस्त हो गया हूं कि जब मैं उससे दूर चला जाता हूं, तो मुझे लगता है जैसे मैं अकेला हो गया हूं। अपने बंदरगाह से दूर यह ठीक उसी तरह है, जैसे हम हर सुबह जागने पर चाय के प्यालों की खनखनाहट के आदी हो जाते हैं।

पहाड़ी की तलहटी में एक छोटी-सी नदी है। जहां मैं रहता हूं, वहां से मैं हमेशा उसकी सरसराहट सुन सकता हूं। लेकिन मैं आमतौर पर उसकी ध्वनि पर ध्यान नहीं दे पाता। मेरा ध्यान उसकी तरफ केवल तभी जाता है, जब मैं मैदानी इलाकों में थोड़ा समय बिताकर वापस पहाड़ों में लौटता हूं। इसके बावजूद मैं नदी के बहते जल के इस संगीत का इतना अभ्यस्त हो गया हूं कि जब मैं उससे दूर चला जाता हूं, तो मुझे लगता है जैसे मैं अकेला हो गया हूं। अपने बंदरगाह से दूर। यह ठीक उसी तरह है, जैसे हम हर सुबह जागने पर चाय के प्यालों की खनखनाहट के आदी हो जाते हैं और फिर एक सुबह उस खनखनाहट की अनुपस्थिति के बीच जागते हैं और अनिष्ट की आशंका से भर जाते हैं

मेरे घर से नीचे की ओर बलूत और मेपल के दरख्तों का एक जंगल है। एक छोटी-सी पगडंडी बलखाते हुए इन दरख्तों से होकर एक खुली रिज की ओर चली जाती है, जहां लाल सोरेल के जंगली पौधों की चादर बिछी हुई है। यहां से यह पगडंडी तेजी से नीचे की ओर मुड़ती है और कांटे की उलझी हुई झाड़ियों, लताओं और बांस के झुरमुटों से होती हुई कहीं खो जाती है। पहाड़ी की तलहटी में पगडंडी जंगली गुलाबों और हरी घास से भरी हुई एक कगार तक चली जाती है। वह छोटी-सी नदी इस कगार के करीब से गुजरती है। वह छोटे-छोटे पत्थरों पर से कूदती-फांदती हुई मैदानी इलाकों की ओर बढ़े चली जाती है।

आगे चलकर वह सोंग नदी में मिल जाती है, जो अंतत: पवित्र गंगा में विलीन हो जाती है। मुझे अच्छी तरह याद है जब मैंने पहली बार उस छोटी-सी नदी को देखा था, तब वह अप्रैल का माह था। जंगली गुलाबों पर बहार आई हुई थी और छोटे-छोटे सफेद फूल गुच्छों में लदे हुए थे। पहाड़ी की तराई पर सेवंती के गुलाबी और नीले फूल अब भी मौजूद थे और बुरुंश के फूलों की लाल रंगत पहाड़ी के गाढ़े हरे रंग के कैनवास पर बिछी हुई थी। जब मैंने इस नदी के साथ चहलकदमी करनी शुरू की थी, तब मुझे वहां अक्सर एक चकत्तेदार फोर्कटेल पक्षी दिखाई देता था। वह नदी के गोल पत्थरों पर फुर्ती से चलता था और लगातार अपनी दुम हिलाता रहता था।

हम दोनों को ही नदी के बहते पानी में खड़े होना अच्छा लगता था। एक बार जब मैं नदी में खड़ा था, मैंने पानी में एक सांप को तेजी से सरसराते हुए देखा। पतला-दुबला भूरा सांप, खूबसूरत और अकेला। पानी के सांप बहुत खूबसूरत होते हैं। मई और जून के महीनों में, जब पहाड़ियां भूरी और सूखी हो जाती हैं, तब भी इस नदी के आसपास का इलाका नम और हरा-भरा रहता है। नदी के साथ थोड़ा आगे चलने पर मुझे एक छोटा-सा तालाब भी नजर आया, जहां मैं नहा सकता था। साथ ही मुझे एक गुफा नजर आई, जिसकी छत से पानी रिसता रहता था। गुफा से रिसने वाले पानी की बूंदें धूप की सुनहरी किरणों में चमकती थीं। मुझे लगा इस जगह तक बहुत कम लोग पहुंच पाए हैं। कभी-कभार कोई दूधवाला या कोई कोयले वाला गांव जाते समय नदी पार करता, लेकिन आसपास के हिल स्टेशनों में छुट्टियां बिताने आने वाले मुसाफिरों ने अभी तक इस जगह की खोज नहीं की थी।

अलबत्ता काले मुंह और लंबी पूंछ वाले बंदरों ने जरूर यहां का ठौर-ठिकाना खोज निकाला था, लेकिन वे गुफा के आसपास मौजूद पेड़ों पर ही बने रहे। वे यहां मेरी मौजूदगी के अभ्यस्त हो चले थे और अपना काम जारी रखे हुए थे, जैसे कि उनकी नजरों में मेरा कोई अस्तित्व ही न हो। बंदरों के बच्चे धींगामस्ती कर रहे थे, जबकि बड़े बंदर एक-दूसरे के साज-सिंगार में व्यस्त थे। वे भद्र बंदर थे, मैदानों में पाए जाने वाले लाल मुंह के बंदरों से कहीं बेहतर। बारिश के दिनों में नदी की छोटी-सी धारा बहुत वेगवती हो जाती। कभी-कभी नदी का प्रवाह इतना तेज हो जाता कि वह अपने साथ झाड़ियों और छोटे पेड़ों को बहा ले जाती। नदी की मद्धिम-सी सरसराहट अब कोलाहल भरी गड़गड़ाहट का रूप ले लेती।

लेकिन मैं नदी के साथ यात्रा करते हुए बहुत दूर तक नहीं जा पाया। नदी के किनारों पर मौजूद लंबी घासों में जोंकें थीं और यदि मैं वहां लगातार जाता रहता तो वे मेरा खून चूस जातीं। लेकिन मुझे यदा-कदा जंगल की सैर पर निकल जाना बहुत अच्छा लगता। मेरी आंखें जंगल की मुलायम हरी काई, पेड़ों के तनों पर मौजूद फर्न और रहस्यपूर्ण व कभी-कभी भयावह लगने वाले लिली और आर्किड के फूलों को निहारती रहती। मैं देखता रहता सुबह की धूप में अपने बैंजनी रहस्यों को खोलकर रख देने वाले जंगली डेहलिया के फूलों का वैभव।

और जब बारिश का मौसम बीत जाता और अक्टूबर आ जाता तो पक्षी फिर चहचहाने लगते। मैं मीठी गंध वाली घास में धूप में लेटा रहता और बलूत की पत्तियों की बनावट को गहरे नीले आकाश की पृष्ठभूमि में निहारता रहता। मैं पत्तियों, घास, पोदीने और मेहंदी की मिली-जुली गंध के लिए ईश्वर को धन्यवाद देता। मैं घास और हवा और आकाश को स्पर्श करता और इसके लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करता। मैं आकाश के अनंत नीलेपन के लिए ईश्वर को बार-बार धन्यवाद देता। और फिर नवंबर के तुषारापातों के बाद सर्दियों का मौसम चला आता। मैं इस मौसम में ओस से भीगी घास में नहीं लेट सकता। नदी की धारा का स्वर वैसा ही होता, पर मुझे परिंदों की चहचहाहट की कमी खलती। धूसर आकाश, बारिश और ओलों ने मुझे अपने घर की चहारदीवारी तक महदूद रह जाने को मजबूर कर दिया।

बर्फ गिरने लगी। वह बलूत के दरख्त की शाखाओं पर जम जाती और नालियों का रास्ता रोक देती। घास, फर्न और जंगली फूल सभी बर्फ की सफेद ठंडी चादर के तले छिप जाते। लेकिन नदी बहती रहती। वह बर्फ की सफेद चादर के नीचे अपना सफर तय करती रहती: एक और नदी की तरफ, एक और वसंत की तरफ।

लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।

ruskinbond75@gmail.com

 

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