नदियों के किनारे अवैध खनन से बढ़ रहा है प्रदूषण

खनन माफिया लगातार रेत निकाल रहा है और सोन समेत कई नदियां तबाह हो रही हैं। बिहार सरकार ने पत्थरों के खनन पर रोक लगा रखी है लेकिन अकेले सासाराम में 400 से अधिक खनन इकाईयां कार्यरत हैं। इनमें से सिर्फ 8 के लीज वैध हैं। कैमूर की पहाड़ियों में अवैध खनन से हरियाली मर गई है और पहाड़ियों का वजूद खत्म हो रहा है। रोहतास का भी यही हाल है। इस तरह पूरे सूबे में एक हजार से अधिक अवैध खनन इकाईयां कार्यरत हैं।

पर्यावरण पर चौतरफा हमले हो रहे हैं लेकिन प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए अब तक के प्रयास बौने साबित हुए हैं। बिहार के कुल क्षेत्रफल का 15 फीसदी हिस्सा हरा-भरा बनाने के लिए योजनाएं बननी शुरू हुई हैं। अब तक वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कारगर कोशिश ही नहीं हुई थी। पटना के गांधी मैदान और बेली रोड जैसे प्रमुख इलाके ध्वनि और वायु प्रदूषण के तय मानकों को धता बता रहे हैं। जल प्रदूषण बीमारियों का कारण बन रहा है। बिहार के 22 जिलों में हर साल बाढ़ आती है। इनमें सुपौल, सहरसा, खगड़िया, मधुबनी और पश्चिमी चंपारण में भूजल भी प्रदूषित है। भूजल में आर्सेनिक, आयरन और अन्य घातक बायोलॉजिकल कण पाए गए हैं। प्रदूषित पानी से बड़ी आबादी हर साल बीमारी झेलती है। त्वचा रोग लोगों को बेकार बना देता है और कई लोग विकलांग हो जाते हैं।

उत्तर बिहार के गांवों में शुद्ध पेयजल मुहैया कराना सरकार के लिए कठिन चुनौती है। जनसामान्य को शिक्षित करना भी चुनौती है ताकि वे आर्सेनिक युक्त पानी पीने के लिए उपयोग नहीं करें। लोगों में यह धारणा रही है कि भूमि के नीचे से निकलने वाला पानी ज्यादा शुद्ध होता है। इसलिए वे हैंडपंपों के पानी का बेधड़क इस्तेमाल करते हैं जो आर्सेनिक युक्त होता है। इससे कई इलाकों में बीमारियां फैलती हैं। कुछ स्थानों पर बच्चों में अंधेपन की भी शिकायतें आई हैं। बाढ़ प्रभावित इलाकों में बाढ़ के दौरान और बाढ़ के बाद पेयजल के लिए कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने खास मटका विकसित किया है। वर्षा के जल को संग्रहित कर उसे शोधन कर जल एकत्र करने, पुराने कुओं के जीर्णाद्धार जैसे प्रयास किए गए हैं लेकिन अब भी ऐसे प्रयास 'ऊंट के मुंह में जीरे' जैसे ही हैं। बाढ़ प्रभावित इलाकों में सोलर वाटर ट्रीटमेंट के भी इंतजाम शुरू हुए हैं। बिहार में सीवेज प्लांट भी कम हैं। पटना में महज तीन सीवेज ट्रीटमेट प्लांट हैं। गंगा एक्शन प्लान के तहत गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए फेज वन में बिहार के चार शहरों में सीवेज प्लांट योजना पर 53 करोड़ 29 लाख रुपए खर्च हुए।

1985 में शुरू हुई योजना के बाद 26 साल बीत गए लेकिन हालत नहीं बदली। योजना 31 मार्च 2000 को बंद कर दी गई। फेज वन में बिहार के पटना, भागलपुर, मुंगेर और छपरा में 45 योजनाएं शुरू की गईं जिनमें से 44 फाइलों में पूरी भी हो गईं। उपलब्धि 99 फीसदी दिखाई गई। सात सीवेज प्लांट मंजूर हुए थे जिनमें से 6 बने। इन ट्रीटमेंट प्लांटों की क्षमता 371.60 मिलियन लीटर टन कचरे की निस्तारण की तय की गई थी। इनमें से 6 प्लांट बने लेकिन क्षमता घटकर 122 एमएलडी हो गई। फेज वन में 17 योजनाओं के तहत 53.71 किलोमीटर सीवर लाइन बनाया जाना था। फेज दो में बिहार के आरा, छपरा, भागलपुर, मुंगेर, पटना, फतुहा, सुल्तानगंज, बड़हिया, बक्सर, कहलगांव और हाजीपुर शामिल हैं। बिहार के लिए एक हजार करोड़ रुपए तय किए गए हैं।

अभी हालात यह है कि खनन माफिया लगातार रेत निकाल रहा है और सोन समेत कई नदियां तबाह हो रही हैं। बिहार सरकार ने पत्थरों के खनन पर रोक लगा रखी है लेकिन अकेले सासाराम में 400 से अधिक खनन इकाईयां कार्यरत हैं। इनमें से सिर्फ 8 के लीज वैध हैं। कैमूर की पहाड़ियों में अवैध खनन से हरियाली मर गई है और पहाड़ियों का वजूद खत्म हो रहा है। रोहतास का भी यही हाल है। इस तरह पूरे सूबे में एक हजार से अधिक अवैध खनन इकाईयां कार्यरत हैं। हालांकि अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हरित बिहार और प्रदूषण मुक्त शहरों के लिए पौधरोपण का विशेष अभियान चलाया है। जद(यू) ने सरकारी प्रयासों से अलग अभियान चला रखा है। प्रोत्साहन योजनाएं और वृक्ष पट्टा कार्यक्रम शुरू हो रहा है। इन प्रयासों से हालात बदलने की उम्मीद जगी है।

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