नदियों को उनका अधिकार वापस देना होगा-राजेन्द्र सिंह

1 Nov 2016
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polluted river
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नदी संवाद यात्रा -2


.कमला के तट पर बड़ा शहर है। झंझारपुर यह मिथिलांचल की राजनीति का केन्द्र भी है। यहाँ जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने ‘नदियों के अधिकार’ का मामला उठाया। उन्होंने कहा कि नदियों की विनाशलीला से बचने और नदियों को सूखने से बचाने के लिये उनका अधिकार वापस लौटाना होगा।

नदी क्षेत्र का विस्तार उसकी मूल धारा से लेकर वहाँ तक होता है, जहाँ तक उसका पानी जाता है। इस अति बाढ़ प्रवण और बाढ़ प्रवण क्षेत्र में कायदे से कोई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए और अगर अनिवार्य हो तो ध्यान रखना चाहिए कि नदी के स्वाभाविक प्रवाह में अड़चन न आए। परन्तु लोगों ने उन क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है। इसे रोकना और हटाना होगा।

नदियों की ज़मीन तीन तरह की होती है। प्रवाह क्षेत्र, बाढ़ प्रवण और अति बाढ़ प्रवण क्षेत्र। अति बाढ़ प्रवण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण हुआ है। सबसे बड़ी बात कि नदी क्षेत्र का कोई रिकार्ड नहीं है। सीमांकन नहीं हुआ। इसे कराना होगा। इसके बगैर नदियों को बचाना कठिन होगा।

उन्होंने कहा कि ‘नदी पुनर्जीवन यात्रा’ का उद्देश्य लोगों को नदियों की समस्या से अवगत कराना है। इसके लिये जरूरी है कि नदी में हो रहे परिवर्तन का अध्ययन किया जाए और चिन्हित किया जाए कि कौन-सी समस्या प्राकृतिक है और कौन-सी मानवकृत। यह भी सोचना होगा कि नदियों को पुर्नजीवित करने के लिये सचमुच करना क्या है?

नदियों पर पहला अधिकार समाज का है, समुदाय का है तो नदी के प्रति समाज का कुछ कर्तव्य भी है। सामुहिक प्रयासों से हम अपने पारम्परिक जलस्रोतों-नदी, तालाब, पोखर, कुआँ इत्यादि को जिन्दा रख सकते हैं। सभी एक दूसरे के पूरक होते हैं। राजस्थान में जन सहयोग से ग्यारह हजार झाल-ताल-पाल को पुनर्जीवित किया गया जिससे सात सूखी नदियाँ फिर से सदानीरा हो गईं।

समुदाय के प्रयास के जीवित नदियाँ अब समुदाय के अधिकार में हैं। इस तरह का प्रयास बिहार में करने की जरूरत है। कमला जन-पंचायत का गठन हो जो अपने क्षेत्र के जल संसाधन का संरक्षण, संवर्धन और बाढ़ जैसी समस्या से मुक्त करने का काम करेगा। बाढ़ से मुक्ति वस्तुतः वर्षाजल का संरक्षण करते हुए पारम्परिक बाढ़-सहजीवन है।

सभा बड़ी थी जिसमें इलाके के अधिकतर प्रमुख लोग उपस्थित थे। विभिन्न राजनीतिक दलों ने नेता, प्रोफेसर, पत्रकार, सरकारी अफ़सर, गैर सरकारी संस्थाओं के प्रतिनिधि-सभी थे। झंझारपुर के जानकी विवाह भवन में 31 अक्टूबर 14 को हुई सभा के आरम्भ में यात्रा के संयोजक रमेश कुमार ने यात्रा का उदेश्य बताया कि नदी को समझना, नदी तटवासी समुदायों से बातचीत करना और नदियों के बदलते चरित्र को समझना है। कमला में पानी घट गया है, कई नदियाँ सूख गई हैं, तालाब खत्म हो गए हैं। यह जल-संकट की आहट है। दूसरी तरफ-तटबन्ध टूटते हैं, भयानक बाढ़ आती है।

तटवासी समूहों के दुख-दर्द में सहभागी होने और यह सन्देश देने यह यात्रा निकली है कि नदी को संरक्षित रखे, पुनर्जीवित करें और स्वच्छ रखें।

जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने कहा कि सरकार और समाज दोनों को मिलकर साझे भविष्य की चिन्ता करनी है। हमें समझना होगा कि नदी के प्रति हमारी जिम्मेवारी क्या है? उन्होंने कहा कि नदी को जोड़ने से बाढ़ और सूखाड़ से छुटकारा नहीं मिलेगा। नदी का अधिकार सौंपने से मिलेगा।

नदियों के गवर्नेंस का काम नदी-पंचायत बनाकर उसे सौंप दिया जाए। उसमें समाज और सरकार दोनों के लोग हों तो नदी विवाद नहीं होगा। नदी जोड़ योजना तो इतने विवाद पैदा कर देगी कि कोई हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट आसानी से फैसला नहीं कर पाएगा। नदियों के विवाद को निपटाने की कोई स्पष्ट कानून नहीं है, अदालतों के सामने स्पष्टता नहीं है।

असल में नदियों को बाँधे बिना, जोड़े बिना बाढ़ और सुखाड़ से कैसे बचें! इसका नया विज्ञान खोजने की जरूरत है। इन प्रश्नों को आप अपनी-अपनी पर्टियों में उठा सकते हैं, अपने जन प्रतिनिधियों से चर्चा कर सकते हैं।

उन्होंने कहा कि दुनिया में सबसे ज्यादा सिल्ट लेकर बहने वाली नदियों को तटबन्धों से घेर देने से नदी तल का ऊँचा होना, धारा का फैलना और बाढ़ आना स्वाभाविक है। पानी जहाँ बरसे-वहाँ रोककर रखना, जहाँ दौड़ने लगे-वहाँ रोकना और प्रवाह की गति कम करके जाने देना तथा अन्त में तेजी से निकल जाने का रास्ता देना, वर्षाजल प्रबन्धन का सर्वोत्तम ढंग है।

नदियों के गवर्नेंस का काम नदी-पंचायत बनाकर उसे सौंप दिया जाए। उसमें समाज और सरकार दोनों के लोग हों तो नदी विवाद नहीं होगा। नदी जोड़ योजना तो इतने विवाद पैदा कर देगी कि कोई हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट आसानी से फैसला नहीं कर पाएगा। नदियों के विवाद को निपटाने की कोई स्पष्ट कानून नहीं है, अदालतों के सामने स्पष्टता नहीं है। असल में नदियों को बाँधे बिना, जोड़े बिना बाढ़ और सुखाड़ से कैसे बचें! इसका नया विज्ञान खोजने की जरूरत है। पानी को रोकने, रखने और जाने देने की यह संरचना तालाब होती है जिसके अंगों को राजस्थान में झाल-पाल-ताल कहते हैं। इन संरचनाओं को जीवित करने से जब पास की सूखी नदियाँ जीवित, सदानीरा हो गई तो सरकार अपनी मिल्कियत जताते पहुँच गई और मछली मारने का ठेका दे दिया। इसका स्थानीय लोगों ने विरोध किया। कहा कि नदी हमने जिन्दा किया है, इस पर हमारे सिवा किसी का अधिकार नहीं। बाद में नदी संसद बनी। नदी से जुड़े फैसले वही संसद करती है।

नदी वापसी अभियान के विजय कुमार ने कहा कि गंगा के नाम पर देश में खेल हो रहा है। निर्मल गंगा और अविरल गंगा का अर्थ घूमा फिराकर समझाया जाता है। अविरलता का अर्थ है कि प्रवाह में कोई अड़चन नहीं हो। बराज उस अविरलता को खत्म करता है। फरक्का बराज से कई तरह के नुकसान हुए हैं। उससे टकराकर पानी पीछे लौटता है। इससे कोसी और दूसरी सहायक नदियों का विसर्जन नहीं हो पाता।

गंगा और दूसरी नदियों के पानी में बालू होता है और वह बालू नदी के तल में भरता जाता है, धारा फैलती है। अगल-बगल कटाव होता है और तटबन्ध टूटते हैं, विनाशक बाढ़ आती है। इन अनुभवों की समीक्षा किए बगैर गंगा पर सोलह बराज बनाने की बात छेड़ दी गई है। उनमें चार बैराज बिहार में बनने वाले हैं। अगर इन बैराजों का निर्माण हो गया तो फरक्का जैसी समस्या जगह-जगह उत्पन्न होगी। वैसा असन्तोष देश भर में पैदा होगा।

बिहार के प्रमुख समाजवादी नेताओं में शामिल राज्यसभा के पूर्व सदस्य रामदेव भण्डारी ने कहा कि इस इलाके में कई जलधाराएँ हैं, पर सूखाड़ भी है। अभी यही समझ चल रही है कि दोनों का समाधान नदी को बाँधने, नहर निकालने और नदियों को जोड़ने से होगा। नदी बाँधने और नहर निकालने का नतीजा हमने देख लिया है।

यह तो निर्विवाद है कि नदी के जल का समुचित उपयोग हो तो हम प्रगति करेंगे। पर समुचित उपयोग की हालत यह है कि जितना कचरा होता है, हम नदी में डाल देते हैं। तालाबों की सफाई नहीं करते। हर काम सरकार के भरोसे नहीं रखा जा सकता। जैसे बच्चे को धूल लग जाती है तो साफ करते हैं। उसी तरह नदी-तालाब के प्रति अपनी जिम्मेवारी हमें उठानी होगी। सुप्रीम कोर्ट के बार-बार कहने पर भी नदियों के किनारे की फैक्टरियाँ नहीं हटी। फैक्टरी वाले अपनी जिम्मेवारी नहीं समझते।

चन्द्रवीर नारायण यादव ने कहा कि पहले लोग तालाब और कुएँ खुदवाते थे तो भूगर्भ का जलस्तर भी निकट रहता था। नई तकनीक ने उन्हें नष्ट कर दिया। कोसी की पश्चिमी और कमला की पूरबी तटबन्ध से घिरे इलाके की पारिस्थितिकी बदल गई है। खेती, पशुपालन, वनस्पति, जीव-जन्तु सब पर असर पड़ा है।

तटबन्धों से समस्या पैदा हुई, पर इस तकनीक की नाकामी की वजह से उत्पन्न समस्या के समाधान के लिये किसी विश्वविद्यालय में शोध नहीं होता। इलाके में 12 हजार तालाब नष्ट हो गए, उनका जीर्णोद्धार हो और महार पर पेड़ लगा दिए जाए तो स्थिति को शायद सम्भाला जा सकता है। चारा उपलब्ध रहने पर पपालन होगा और रासायनिक खादों पर निर्भरता कम होगी।

जिला पार्षद राघवेन्द्र लाल दास ने कहा नदियाँ धरती की नसों की तरह हैं। उनकी सुरक्षा जीवन की सुरक्षा है। नदियाँ भर गई है, उनके तल में बालू जम गया है। इसलिये थोड़ी वर्षा होती है और बाढ़ आ जाती है। जिस साल वर्षा नहीं होती, नदी सूखी रहती है। उन्होंने कहा कि नदी को साफ रखना बहुत जरूरी है क्योंकि भूजल का पुनर्भरण इसी से होता है। उन्होंने यह सुझाव भी दिया कि यह आयोजन सभाघर में न होकर, नदी के किनारे होता तो अधिक अच्छा होता।

निर्मलता के प्रश्न को जीतेन्द्र सिंह ने उठाया। नदियों को हम भी गन्दा करते हैं। जिस नदी, तालाब में अभी हमने छठ पूजा की, अगले ही दिन से उसे साफ और सुन्दर रखने की जिम्मेवारी भूल जाएँगे। फिर भी सही है कि नदियों हम जितना गन्दा करते हैं, उससे सैकड़ों गुना अधिक बड़े शहरों में रहने वाले लोग और उद्योग करते हैं।

अब नदियों में पानी घट रहा है जिससे जगह-जगह पानी की किल्लत हो रही है। सूर्य नारायण ठाकुर ने कहा कि एक तो पानी की कमी, ऊपर से विभिन्न प्रकार के कचरे से नदी दूषित हो गई है। तटवासी समुदायों को इसे समझना और नदी को साफ रखना चाहिए। श्रीमती रेणु ने कहा कि पानी का साफ, दूषणरहित होना अधिक जरूरी है क्योंकि पानी से ही दूसरी गन्दगी भी साफ होती है।

तालाबजीपीएसवीएस के संस्थापक तपेश्वर सिंह ने बताया कि इलाके में जल संरक्षण और आजीविका संवर्धन के काम में कई संगठन लगे हैं। अकेले जीपीएसवीएस ने 22 तालाबों का जीर्णोद्धार कराया है। परन्तु स्थानीय परिस्थितियों में उपलब्ध जल स्रोतों का प्रबन्धन अधिक बेहतर ढंग से किस तरह किया जा सकता है, इसका आकलन करने के लिये जलपुरुष राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में यह यात्रा आगे बढ़ेगी। समाज और सरकार के प्रतिनिधियों को लेकर ‘कमला पंचायत’ का गठन करने के प्रस्ताव के साथ यह सभा समाप्त हुई और यात्रा अगले पड़ाव की ओर चल पड़ी।

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