नदी की गाद प्रबन्ध व्यवस्था पर संकट

नदी में सिल्ट और गाद प्रबंधन जरूरी, फोटोः needpix.com
नदी में सिल्ट और गाद प्रबंधन जरूरी, फोटोः needpix.com

नदी द्वारा किया जाने वाला गाद प्रबन्ध शत-प्रतिशत सही, कुदरती और अकल्पनीय होता है। आज उस गाद प्रबन्ध व्यवस्था पर गंभीर संकट है। उस विलक्षण गाद प्रबन्ध की हकीकत को समझने के लिए किसी अनुसन्धान, विशेषज्ञ के अभिमत या प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। वह बहुत सरल तरीके से समझ में आने वाला प्रबन्ध है। आम आदमी भी उसे देख, समझ और परख सकता है। उसे देखने, परखने या समझने के लिए केवल दो कालखंड़ों में पानी के रंग और उसके साथ प्रवाहित गाद की मात्रा को देखना होता है। पहला कालखंड है बरसात और दूसरा कालखंड है बरसात के बाद का समय। इन दोनों कालखंडों में अर्थात बाढ़ के समय और बरसात बीतने के बाद नदी में बहते पानी में गाद की मात्रा तथा पानी के रंग के अन्तर को नंगी आँखों तक से देखा, परखा तथा समझा जा सकता है। इस गाद प्रबन्ध को नदी ने बहुत आसान विज्ञान अपनाकर, बिना किसी तामझाम या व्यवस्था के सम्पन्न किया है। बांधों जमा हो रही गाद के कारण आज, उस गाद प्रबन्ध को समझने की आवश्यकता है। इसलिए सबसे पहले बात नदियों में बहने वाली गाद की उत्पत्ति एवं नदियों में प्रवाहित मात्रा की फिर कुछ बातें उसे साफ करने वाली कुदरती व्यवस्था की तथा अन्त में हमारे हस्तक्षेप के कारण उपजे संकट और समाधान की।

तकनीकी तौर पर गाद का अर्थ मिट्टी के छोटे-छोटे कण जिनकी साईज रेत और क्ले के बीच होती है, गाद कहलाती है। उसके निर्माण के लिए कच्चा माल चट्टानें उपलब्ध कराती हैं। भारतीय नदियों में उसका प्रबन्ध नेशनल वाटरशेड एटलस में उल्लेखित छः जल संसाधन क्षेत्रों में होता है। बरसात के दिनों में, प्रत्येक इकाई पर बरसा पानी, अपने प्रभाव क्षेत्र की चट्टानों के भौतिक तथा रासायनिक अपक्षय के उत्पन्न गाद, बजरी, बोल्डर इत्यादि को समेट कर अपने से बड़ी इकाई की ओर बहता है। मार्ग में सामग्री के घटक आपस में और नदी तल से टकरते हैं और छोटे-छोटे कणों में विभाजित होते हैं। यहीं से गाद की बनने की कहानी प्रारभ होती है। यह कहानी लगातार चलती रहती है। यात्रा के अन्तिम चरण में, मुख्य नदी द्वारा सारी गाद समुद्र को सौंप दी जाती है। कुछ गाद कछार के बाढ़-प्रवण इलाके को मिलती है। कुछ डेल्टा बनाती है। इसके अलावा नदियों द्वारा घुलित रसायनों को भी समुद्र में पहुँचाया जाता है। यह गाद के परिवहन की व्यवस्था है। संक्षेप में, नदी द्वारा समूची गाद को समुद्र को सोंपना ही गाद प्रबन्ध है। उल्लेखनीय है कि गाद प्रबन्ध के लिए नदीतंत्र की हर नदी को सदानीरा और व्यवधान मुक्त होना चाहिए। 

वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनिया की प्रमुख नदियों (कछारों का कुल क्षेत्रफल 1040 लाख वर्ग किलोमीटर) द्वारा हर साल लगभग 800 करोड़ टन गाद समुद्र में पहुँचाई जाती है। उसका लगभग 30 प्रतिशत भाग घुलित रसायनों के रुप में होता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि नदी कछार के एक वर्ग किलो मीटर इलाके से हर साल औसतन 80 टन मलवा बहता है। ठंडे मुल्कों में मात्रा कम तो भारत जैसे गर्म और मानसूनी इलाकों मेें अपेक्षाकृत अधिक होती है। उपर्युक्त अनुमान के अनुसार 8.61 लाख वर्ग किलोमीटर रकबे वाले गंगा कछार द्वारा हर साल लगभग 688.8 लाख टन गाद समुद्र में जमा की जाती है। नर्मदा कछार (98769 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल) के लिये यह आंकड़ा लगभग 79 लाख टन के आसपास संभावित है। उल्लेखित उपर्युक्त मात्रायें केवल एक साल के लिए है। चूँकि नदियों की आयु करोड़ों साल से भी अधिक होती है इसलिए उस लम्बी अवधि में नदी द्वारा परिवहित गाद की समूची मात्रा कितनी होगी, अकल्पनीय है। विदित हो कि टैथिस सागर में गाद जमाव के परिणाम स्वरूप हिमालय पर्वत माला का जन्म हुआ है। इस काम में भले ही लाखों साल लगे थे पर गाद की अकल्पनीय विशाल मात्रा का अनुमान लगाने के लिए यह प्रमाण पर्याप्त है। 

इस संदर्भ में यह प्रश्न सामयिक ही कहा जावेगा कि क्या गााद की इतनी विशाल मात्रा का परिवहन और सुरक्षित जगह पर उसका निपटान मनुष्य के लिए संभव है। क्या उसके परिवहन पर लगने वाला व्यय और इन्फ्रास्टक्चर हमारे पास मौजूद है ? इस अनुक्रम में कहा जा सकता है कि हर साल, इतनी विशाल मात्रा मेें नदियों में प्रवाहित गाद का प्रबन्ध करना या जहाँ वह मानवीय हस्तक्षेप के कारण जमा हो गई है, से हटाना लोहे के चने चबाने से भी अधिक कठिन काम है।  

पिछली सदी और खासकर आजादी के बाद नदियों पर खूब सारे बडे, मझौले और छोटे बाँधों तथा बैराजों और स्टाप-डेमों का बनना सुगम हुआ परन्तु उनके निर्माण ने नदी मार्ग में व्यवधान पैदा किए। अवरोधों के कारण नदी मार्ग में बड़ी मात्रा में गाद का जमाव हुआ। एक अनुमान के अनुसार यह मात्रा 40 लाख टन प्रति वर्ष से थोड़ा अधिक है। इन निर्माणों के कारण गाद निपटान बाधित हुआ। उसकी अनदेखी हुई। गाद निपटान की कारगर तथा निरापद व्यवस्था कायम करने की दिशा में कोई खास काम नहीं हुआ। प्रबुद्ध समाज ने, कभी भी, निरापद गाद निपटान को मुहिम का अंग नहीं बनाया। पिछले कुछ सालों से असहमत लोगों की असहमति सामने आ रही है पर वह असहमति गाद निपटान पर केन्द्रित नहीं है। उससे अधिक त्रासद यह है कि हमने निरापद तथा स्थायी गाद निपटान को कभी भी मुख्य समस्या नहीं माना। गाद निपटान की जो भी विधियाँ सामने आईं वे उपयोगी कम अव्यावहारिक अधिक हैं।

उल्लेखनीय है कि भारतीय नदियों में हर साल, लगभग 1963 लाख हैक्टर मीटर पानी बहता है। यह पानी, अपने साथ लगभग 205.2 करोड टन गाद बहा कर ले जाता है और उसे समुद्र को सोंपता है। यही गाद का निरापद और स्थायी निपटान है। यही नदी का कुदरती गाद प्रबन्ध है पर मौजूदा युग में बनने वाले बाँध उस प्राकृतिक भूमिका तथा गाद निपटान के मूलभूत नियमों की अनदेखी करते हैं। इस अनदेखी के कारण जलाशयों में लगातार गाद जमा हो रही है। पर्यावरण को नुकसान पहँुचा रही है। उदाहरण के लिए फरक्का बांध के कारण गंगा नदी की तली में जो सिल्ट जमा हो रही है। उसके कारण पटना तक गंगा का तल ऊँचा हो गया है। इस व्यवधान के कारण फरक्का और पटना के बीच गंगा को मिलने वाली सहायक नदियों में भी गाद जमाव बढ़ रहा है। बाढ़ का प्रकोप बढ़ रहा है। नए-नए इलाके बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं। दक्षिण बिहार की आहर-पईन प्रणाली पर अस्तित्व खतरा बढ़ रहा है। गाद जमाव की यह कहानी देश के हर अंचल में बने बांधों में देखी जा सकती है। यह अनदेखी एक दिन, बाँधों को अनुपयोगी और कछार को बाढ़ प्रणव बना देगी।  


अब कुछ बात गाद के निपटान के लिए कतिपय विकल्पों की। जाहिर है कि सबसे अधिक कारगर तरीका वह है जिसे नदी अपनाती है। वह तरीका उन नदियों में आज भी कारगर है जिनके मार्ग पर बांध या स्टापडेम या बराज का निर्माण नहीं हुआ है। दूसरा तरीका वह है जो मौजूदा समय में नदी की धारा पर बनाए बांधों में अपनाया जा रहा है। यह तरीका पूरी तरह कारगर नहीं है क्योंकि उस तरीके में प्रवाह के साथ यात्रा कर रही गाद का कुछ हिस्सा बांधों के पीछे छूट जाता है। यह हकीक़त उस सम्बन्ध में बदलाव की मांग करती है जो जल संचय और अतिरिक्त पानी की निकासी के बीच होना चाहिए। ग़ौरतलब है कि इस सम्बन्ध को भारत के पराम्परागत एकल तालाबों या तालाबों की शृंखला में देखा जा सकता है। वह बेहद कारगर तरीका था क्योंकि उस तरीके में प्रवाह के साथ यात्रा कर रही गाद का बहुत ही कम हिस्सा जलाशयों में रुक पाता है। यह प्रकृति सम्मत तकनीकी सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध को आसानी से ज्ञात किया जा सकता है। इसलिए सुझाव है कि नदियों की गाद प्रबन्ध व्यवस्था पर गहराते संकट के समाधान के लिए बांधों में रोके जाने वाले पानी की मात्रा को प्रकृति सम्मत बनाया जाना चाहिए।

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