नदियों को सदानीरा बनाए बिना जल संकट खत्म नहीं होगा

नदियों को सदानीरा बनाए बिना जल संकट खत्म नहीं होगा
नदियों को सदानीरा बनाए बिना जल संकट खत्म नहीं होगा

संविधान के प्रावधानों के अनुसार पानी पर समग्र चिन्तन करने और जनहित से जुड़ी सभी जल विषयक समस्याओं का निदान सुझाने और उनके समाधानों के क्रियान्वयन या उन्हें सही तरीके से करवाने की संवैधानिक जिम्मेदारी मूलतः जल संसाधन विभाग की है। इसीलिए केन्द्र सरकार ने सेन्ट्रल वाटर कमीशन और सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड का गठन किया है। इसी अनुक्रम में मौटे तौर पर राज्यों के जल संसाधन विभागों ने भी अपनी-अपनी व्यवस्था कायम की हैं। यह अलग बात है कि नदियों को सदानीरा रखना उनके अजेन्डे पर नहीं है। यही अनदेखी नदियों के गैरमानसूनी प्रवाह के घटने या समाप्त होने तथा जल संकट की असली वजह है।


आई.आई.टी और अनेक इंजीनियरिंग कालेज, कई सालों से, वाटर सेक्टर की मांग के अनुरुप अमला तैयार कर रहे हैं। इसके अलावा,देश में प्रशिक्षण  अनुसन्धान के लिए माकूल व्यवस्था है। सम्पादित कामों से असहमति के लिए एक्टिविस्टों की प्रतिकूल टिप्पणियाँ और उदाहरण उपलब्ध हैं। अर्थात्,जल सेक्टर (सतही और भूजल) के समग्र अध्ययन की समीक्षा करने के लिए माकूल अवसर तथा उदाहरण उपलब्ध हैं। इन सब सुविधाओं, अवसरों तथा चुनौतियों के बावजूद जल सेक्टर की चुनौतिया साल दर साल बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए नदियों के असमय सूखने की समस्या है। भूजल स्तर की गिरावट की समस्या है। पानी की गुणवत्ता की गहराती समस्या है। बांधों तथा तालाबों में गाद जमाव की समस्या है।


उल्लेखनीय है कि भारत के जलविज्ञान के आधार पर निर्मित परम्परागत तालाबों में गाद जमाव की समस्या नही के बराबर है। इस कारण अनेक परम्परागत तालाब सैकड़ों साल से अस्तित्व में हैं। उनके द्वारा पोषित नदियाँ जिन्दा हैं। उन तालाबों की इस विशिष्टता को देखने के बाद भी हम उनके पीछे के विज्ञान को समझने का प्रयास नहीं करते। यदि उनके पुनरोद्धार की आवश्यकता पड़ती है तो हम परम्परागत तालाब के मूल जलविज्ञान को नकार कर, संरचना पर आधुनिक विज्ञान थोप देते हैं। देश में ऐसे उदाहरणों की कमी नही है जिनसे सिद्ध होता है कि परम्परागत तालाबों के पुनरोद्धार के बाद, उनका मूल चरित्र खत्म हो गया है। मूल चरित्र नष्ट होने के कारण वे गाद और गन्दगी से पटकर अल्पायु हो गए हैं। इन ज्वलन्त उदाहरणों के बावजूद, भारतीय जल विज्ञान की अनदेखी या उपेक्षा हमारी चिन्ता का विषय नहीं है।


पानी के मामले में भारत दुनिया का सबसे अधिक समृद्ध देश है। उल्लेखनीय है कि भारत के प्राचीन जल वैज्ञानिकों ने देश को जल संकट से यथा संभव मुक्त रखा था। पिछली दो सदियों में ऐसा क्या बदल गया जिसके कारण भारत जल अभाव के मुहाने पर नजर आ रहा है तथा इसके कुछ महत्वपूर्ण महानगर दक्षिण आफ्रिका के केपटाउन बनने की कगार पर हैं ? भारत में जल संकट का पनपना या लाईलाज होना हमारी प्रज्ञा को चुनौति है। कुछ लोगों का मानना है कि दिश हीनता के कारण भी, कई बार मर्ज लाईलाज हो जाता है। इस संभावना को ध्यान में रखकर पूरे परिदृश्य की पड़ताल  करना उचित होगा।
पिछले सालों में भारत में पानी पर बहुत काम हुआ है पर परिदृश्य  बताता है कि सारा काम एक ही सिद्धान्त या लीक पर चलने जैसा है। भारत की विविधता को नकार कर लीक पर चलना अनुचित है। यह नुस्खा पद्धति है। सभी जानते हैं कि नुस्खों की मदद से किया इलाज कारगर नहीं होता। बीमारी बनी रहती है और धीरे-धीरे बीमारी लाइलाज होने लगती है। बीमारी दूर करने अर्थात् साध्य को हासिल करने के लिए सही शिक्षा, समस्या के आयामों की व्यापकता की समझ और सही साधकों का होना अनिवार्य है। इस उल्लेख के अनुक्रम में पानी पर काम करने वालों की शिक्षा और उसके आयामों को समझना होगा। पानी और जीवन के सम्बन्ध को ध्यान में रख पानी की सार्वभौमिक और सर्वकालिक उपलब्धता सुनिश्चित करना होगा। पानी के कुदरती सन्तुलन का सम्मान करना होगा। अलग-अलग परिस्थितियों में हासिल जल स्वराज के विज्ञान की फिलासफी को समझना होगा। इस अनुक्रम में सबसे पहले बात शिक्षा की।

सतही पानी और भूजल की शिक्षा मौटे तौर पर अलग अलग है। उन विषयों के जानकार जुदा-जुदा हैं। उनका फोकस अलग-अलग है। सतही पानी की शिक्षा का फोकस मुख्यतः बांध केन्द्रित है। आधुनिक युग में बांधों को, उनकी सेवा के आधार पर भले ही अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है पर उनके निर्माण का सिद्धान्त एक ही है। इस माडल में पानी की उपलब्धता केवल कमाण्ड क्षेत्र में बढ़ती है। इस मॉडल की मदद से भारत में मात्र 35 प्रतिषत जमीन को ही जल संकट से मुक्त किया जा सकता है। इस मॉडल में बाकी बची 65 प्रतिशत धरती पर मौजूद जीवन की प्यास बुझाने और जल संकट को दूर करने के लिए कोई व्यवस्था नही है। इसलिए इस मॉडल  की सहायता से जल स्वराज अर्थात् पानी की सार्वभौमिक और सर्वकालिक उपलब्धता की अपेक्षा करना अनुचित है। यदि देश में जल स्वराज लाना है तो पुरानी व्यवस्था के आगे जाकर अन्य मॉडल पर काम करना होगा।

भूजल की शिक्षा मौटे तौर पर चन्द विज्ञान महाविद्यालयों, कतिपय तकनीकी कालेजों और कुछ आई.आई.टी में दी जाती है। उस शिक्षा में भारतीयता का अभाव है। विभागों का सारा काम, मुख्यतः भूजल स्तर की कमी-वेषी नापने और पानी की गुणवत्ता के इर्दगिर्द सिमटा है इसलिए इस माडल की मदद से भूजल की सार्वभौमिक और सर्वकालिक उपलब्धता की अपेक्षा करना अनुचित है। यदि देश में भूजल स्वराज लाना है तो पुरानी व्यवस्था के आगे जाकर परिष्कृत मॉडल पर काम करना होगा। यदि मौजूदा कार्यपद्धति और सोच की दिशा नही बदली तो कुछ ही सालों में, हर बरसात के बाद तालाबों, कुओं, नलकूपों और नदियों में पानी के दर्षन असंभव हो जावेंगे। वह स्थिति भयावह होगी। नदियों के कछार जलाभाव से ग्रसित होने के कारण रहने योग्य नहीं बचेंगे। नदियों को सदानीरा बनाने के लिए समानुपातिक भूजल रिचार्ज को मुख्य धारा में लाना होगा। उसके लिए डीलर्निंग और नए सिरे से अमला प्रशिक्षित  करना होगा। पर्याप्त धन उपलब्ध कराना होगा। सभी सम्बन्धितों को याद रखना होगा कि नदियों के सूखे दिनों के गैरमानसूनी प्रवाह की बहाली के बिना कछार और जल संरचनायें सुरक्षित नहीं की जा सकती। सदानीरा नदी, भूजल संरचनाओं के जीवित बने रहने का बीमा है। इसकी उपेक्षा ने ही हमें जल संकट के मौजूदा गर्त में ढ़केला है। इसलिए नदियों को जिन्दा करना ही जल संकट से बचाव का सुरक्षित मार्ग है।  


उल्लेखनीय है कि भारत की परम्परागत तालाबों जिन्होंने धरती के चरित्र और जल स्वराज को ध्यान में रख नदियों को साल भर जिन्दा रख, पानी के संकट को हल करने और धरती की नमी को संरक्षित करने का कालजयी मॉडल पेश किया था, के विज्ञान को मुख्यधारा में लाने की आवश्यकता है। आवश्यकता नदियों को सदानीरा बनाकर जल स्वराज स्थापित करने की है। नदियों को जिन्दा कर जीवन को उसकी आवश्यकतानुसार कुदरती पानी उपलब्ध कराने की है आवश्यकता दिशाहीनता और नुस्खा पद्धति को नकार कर कुदरत से तालमेल बनाकर भारत के परम्परागत जल विज्ञान के आधार पर काम करने की है। जल जीवन और जंगल बचाने के लिए यही एकमात्र विकल्प है। विकल्प को अपनाना व्यवस्था की और उसके परिणामों के से रुबरु होने की जिम्मेदारी समाज की है।  

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