नए भागीरथ चाहिए


कुछ देशों के नागरिकों की जीवन पद्धति एवं प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का स्तर इतना बढ़ गया है कि जल्दी ही हमको यह धरती छोटी पड़ने लगेगी। इन संस्थाओं द्वारा प्रस्तुत किये गए एक रोचक किन्तु चौंकाने वाले आकलन के अनुसार विश्व के कई सम्पन्न देशों द्वारा धरती पर डाला जा रहा दबाव जिसे पारिस्थितिक पदचिन्ह कहा गया है, इतना अधिक है कि हमें एक से अधिक धरतियों की आवश्यकता पड़ने वाली है। नदियों के साथ जुड़ी अनेक पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं और किंवदन्तियों से यह पता चलता है कि धरती पर नदियों के अवतरण और विलुप्त होने में मानव की भी बड़ी भूमिका रही है। गंगा नदी के अवतरण में राजा भागीरथ की कठिन तपस्या और भगवान शिव की जटाओं में गंगा का उतरना प्रतीकात्मक रूप से यही सिद्ध करता है कि पर्वतों के वनों की, नदियों के उद्गम क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आज भी नदियों के पुनरुद्धार के लिये भागीरथ जैसी लगन और तपस्या की आवश्यकता है। यदि हमें नदियों को जीवन्त और सक्रिय बनाए रखना है तो वास्तव में हमें जगह-जगह ऐसे लोगों की आवश्यकता पड़ेगी, जो नदियों के इन कामों को भागीरथ जैसी लगन से अंजाम दे सकें।

यदि पर्यावरण की निःशब्द चीत्कारों की तरंगें हमारे हृदय और मानस को समय रहते झंकृत कर सकें तो अभी भी इतनी देर नहीं हुई है कि वापस लौटा ही न जा सके। परन्तु यह काम अब आसान नहीं रह गया है। विकास के नाम पर प्रकृति की ताकतों के साथ किया जा रहा दुस्साहसपूर्ण खिलवाड़ अनन्त काल तक निर्बाध नहीं चल सकता क्योंकि अब धरती के अनेक पारिस्थितिक तंत्रों का दम निकला जा रहा है।

वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की असामान्य बढ़त से प्रेरित मौसमी बदलाव अब असामान्य ठंड, बेहिसाब और अनिश्चित बारिश तथा तड़पाने वाली गर्मी के रूप में अपना असर दिखा रहे हैं जिनसे खेती, औद्योगिक विकास और जनजीवन बुरी तरह प्रभावित होने लगा है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा प्रतिवर्ष विस्तृत अध्ययनों के आधार पर जारी की जाने वाली ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट में विगत कुछ वर्षों से मौसमी बदलाव, जलचक्र में उतार-चढ़ाव तथा जल संकट, जैवविविधता को खतरों से उद्योगों और बाजार पर प्रभाव और प्रदूषण जैसे मुद्दे 10 सबसे बड़े खतरों की सूची में स्थान पाने लगे हैं, जिससे यह पता चलता है कि उद्योग और बाजार को धीरे-धीरे ही सही लेकिन अब यह महसूस होने लगा है कि हम धरती के साथ अनन्त काल तक दुर्व्यवहार करते हुए बेतहाशा मुनाफा कमाना जारी नहीं रख सकते।

विश्व प्रकृति निधि और ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क द्वारा कराए गए एक आकलन के अनुसार कुछ देशों के नागरिकों की जीवन पद्धति एवं प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का स्तर इतना बढ़ गया है कि जल्दी ही हमको यह धरती छोटी पड़ने लगेगी। इन संस्थाओं द्वारा प्रस्तुत किये गए एक रोचक किन्तु चौंकाने वाले आकलन के अनुसार विश्व के कई सम्पन्न देशों द्वारा धरती पर डाला जा रहा दबाव जिसे पारिस्थितिक पदचिन्ह (इकोलॉजिकल फुटप्रिंट) कहा गया है, इतना अधिक है कि हमें एक से अधिक धरतियों की आवश्यकता पड़ने वाली है।

आकलन बताता है कि विश्व के सारे नागरिक यदि कुवैत के लोगों की तरह जीने लगे तो हमें 5.1 धरतियों की आवश्यकता पड़ेगी। इसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया की तरह रहने पर 4.8 धरतियाँ, अमेरिका की तरह रहने पर 3.8 धरतियाँ और सिंगापुर के निवासियों की तरह रहने पर 3.4 धरतियों की आवश्यकता पड़ने वाली है जबकि हमें केवल यही एक धरती उपलब्ध है। यह आकलन हमारी आँखें खोलने और हमें यह समझाने में समर्थ होना चाहिए कि हम धरती के संसाधनों का उपभोग उनके नवीनीकरण की गति से अधिक तेज कर रहे हैं।

इस अध्ययन के अनुसार वर्तमान स्तर पर पूरी मानव जाति धरती के संसाधनों का प्रतिवर्ष जितना उपयोग करती है उसके नवीनीकरण के लिये 1.6 वर्ष का समय चाहिए यानि हम विकास के नाम पर कमाने से ज्यादा खाने वाली शैली पर और धरती से निरन्तर ली जा रही उधारी पर जी रहे हैं और यह ज्यादा दिनों तक यूँ ही नहीं चल सकता। हम सभी के लिये यह समझना अनिवार्य है कि हम विकास के नाम पर अपनी मूल प्राकृतिक पूँजी को गँवाकर कहीं के नहीं रहेंगे इसलिये धरती की प्राकृतिक अधोसंरचना के साथ जितनी कम छेड़खानी की जाये उतना ही बेहतर होगा।

नदियों के संरक्षण के परिप्रेक्ष्य में यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि उत्पादन बढ़ाने के फेर में खेती में घातक रसायनों के अंधाधुंध और अविवेकपूर्ण उपयोग से हमारी जमीन में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले जीव-जन्तु तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं जिसके कारण खेतों की उर्वरा शक्ति में तेजी से कमी आ रही है।

घातक कीटनाशकों का उपयोग धीरे-धीरे खेती की अनिवार्यता बन जाने से हमारी फसलें और उन पर टिकी हमारी नस्लें, दोनों ही गम्भीर संकट का सामना कर रहे हैं। फसलों में जाने से बचे हुए विषैले कीटनाशक और खरपतवार नाशक वर्षा में बहकर नालों नदियों में पहुँच जाते हैं और नदियों के जलीय पारिस्थितिक तंत्र को गम्भीर संकट में डाल रहे हैं। आज इन चुनौतियों को समझकर विवेकपूर्ण रास्ते तलाशने और उन पर मजबूती से डटे रहने वाले चंद लोगों की नहीं बल्कि ऐसे भागीरथों की फौज जरूरी है।

जीवनरेखा को जीवन देने वाली नीति, नीयत और निगाह तीनों जरूरी


नर्मदा के लिये कुछ करने से पहले नर्मदा को ठीक से जानना, समझना जरूरी है। परन्तु सिर्फ जानना ही काफी नहीं है, जानने के बाद भी कुछ न करना किसी विचार अथवा चिन्तन प्रक्रिया की भ्रूण हत्या जैसा ही है। अतः नर्मदा को ठीक से जानने और कुछ करने के लिये भावनाओं और ज्ञान में एक सन्तुलन स्थापित करना आवश्यक है।

यदि केवल भावना का पक्ष ही प्रबल रहा और उसके पीछे ज्ञान का सम्बल नहीं रहा तो कर्म की सार्थकता और परिणाम की उपयोगिता के बारे में सन्देह बना रहेगा। इसी प्रकार केवल ज्ञान का पक्ष प्रबल रह गया और उस ज्ञान से लाभान्वित होकर समाज द्वारा अपने कर्मों पर चिन्तन नहीं किया गया तो वह भी निरर्थक ही सिद्ध होगा। इसी कारण नर्मदा ही क्यों इसके पूरे पारिस्थितिक तंत्र-पहाड़ों, वनों, सहायक नदियों, वन्य प्राणियों और वनवासियों के अतीत और वर्तमान दौर का ज्ञान पूरी नर्मदा घाटी के भविष्य की नीति और रणनीति तय करने में सहायक हो सकता है।

वनों के प्रभावी संरक्षण के माध्यम से मध्य प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा को काफी हद तक और लम्बे समय तक सदानीरा और निर्मल बनाए रखा जा सकता है परन्तु इसके लिये नर्मदा को केवल पानी के भण्डार के रूप में देखने की बजाय इसे जागृत व जीवन तंत्र के रूप में देखने की नीयत, नीति और निगाह तीनों की आवश्यकता पड़ेगी। नीति इसलिये कि सही नीति के माध्यम से ही नदियों के प्रति बढ़ते निरादर को अंकुश में रखा जा सकता है। इसलिये समाज की सक्रिय भागीदारी से नदियों के संरक्षण की एक जमीनी नीति बननी चाहिए और उसे अच्छी नीयत से प्रभावी ढंग से लागू भी किया जाना चाहिए। नीति और नीयत ठीक होने के बावजूद इन कार्यों पर लगातार निगाह रखने की आवश्यकता भी पड़ेगी। तभी समय-समय पर पता चल सकेगा कि नदियों की देखभाल के लिये बनाई गई नीति के पालन में जमीनी कार्यवाही किस हद तक सफल हो पा रही है।

नर्मदा के प्रति आध्यात्मिक आस्था को सृजनात्मक दिशा मिले


नर्मदा अंचल के वनों के संरक्षण को जन साधारण की धार्मिक आस्था से जोड़ने की अपार सम्भावनाएँ हैं। भगवान शिव की पुत्री मानी जाने वाली इस नदी का प्रवाह लोगों की आस्था का प्रवाह भी है। आस्था का यह प्रवाह नर्मदा में पानी के प्रवाह से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिये नर्मदा संरक्षण के विराट कार्य में लोगों की आस्था की शक्ति का उपयोग किया जाना आवश्यक है। अंचल में कई ऐसे पवित्र तीर्थ स्थलों पर वन मौजूद हैं जिनका संरक्षण तीर्थों से जोड़कर किया जा सकता है।

उदाहरण के लिये अमरकंटक तथा ओंकारेश्वर द्वीप के वनों का सीमांकन करके इन्हें धर्म संरक्षित वन घोषित किया जा सकता है (जैसे तिरूमला-तिरुपति में किया गया है)। देवी-देवताओं, महान ऋषियों और धार्मिक मान्यताओं से जुड़े ऐसे क्षेत्रों की नर्मदा अंचल में भरमार है अतः इसी प्रकार के अन्य वन स्थानीय धर्मस्थलों से जोड़कर उनके संरक्षण की शुरुआत की जा सकती है। नर्मदा में आस्था रखने वाले करोड़ों लोगों के आचरण में बदलाव लाने के लिये यह एक सशक्त माध्यम सिद्ध हो सकता है। इसके लिये विशिष्ट अध्ययनों पर आधारित जानकारी दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम, पठन सामग्री इत्यादि तैयार करने हेतु नर्मदा अंचल में स्थित अनेक आश्रमों के विद्वानों तथा संतों से विचार-विमर्श कर आगे की रणनीति और रूपरेखा तैयार की जा सकती है।

वनों व नदियों का संरक्षण सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन बने


नर्मदा विश्व की प्राचीनतम नदियों में से एक होने के साथ-साथ भारत की सात पवित्रतम नदियों में से एक है। यह महान नदी न केवल इसके अंचल में बसने वाले लोगों बल्कि पूरे भारत के विशाल जन समुदाय के लिये आस्था की धुरी है। धार्मिक अनुष्ठानों में पवित्र नदियों का आह्वान किये जाते समय नर्मदा का भी आह्वान किया जाता है। धर्म ग्रन्थों में विवरण आते हैं कि नर्मदा के किनारे लाखों तीर्थ हैं। अपने पर्यावरणीय और आर्थिक महत्त्व के साथ-साथ नर्मदा सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक महत्त्व के कारण भी अद्वितीय है।

नर्मदा अंचल के वनों के संरक्षण को जन साधारण की आस्था से जोड़ते हुए गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की नर्मदा प्रेमी जनता के सहयोग से एक अन्तरराज्यीय सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन प्रारम्भ किये जाने की आवश्यकता है। विभिन्न प्रकार के धार्मिक समारोहों, नर्मदा जयन्ती तथा इसी जैसे अन्य पर्वों पर धर्म गुरुओं द्वारा लोगों को संकल्प दिलाया जाकर वन संरक्षण का एक धार्मिक-सामाजिक अभियान छेड़ा जा सकता है। यह आन्दोलन नर्मदा तट पर बसे हुए असंख्य धर्म-स्थलों, आश्रमों, साधु-सन्तों की भागीदारी से उन्हीं की देख-रेख और नेतृत्व में चलाया जाना चाहिए। इस आन्दोलन के माध्यम से न केवल नर्मदा अंचल के वनों के संरक्षण बल्कि नर्मदा के प्रदूषण नियंत्रण में भी सफलता प्राप्त की जा सकेगी।

नर्मदा संरक्षण के लिये अन्तरराज्यीय सहयोग


नदियों के जल के बँटवारे के लिये राज्यों के बीच लड़ाई-झगड़ा आज के युग की कड़वी हकीकत है। कृष्णा-कावेरी नदियों के जल के बँटवारे को लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक राज्यों के बीच विवाद हो या सतलुज-यमुना लिंक को लेकर पंजाब और हरियाणा के बीच बढ़ती तकरार हो, ये सभी आने वाले समय में और जटिल होते जाने वाली समस्याएँ हैं।

नर्मदा घाटी की अनेक परियोजनाएँ भी राज्यों के बीच नदी जल के बँटवारे को लेकर दशकों तक अटकी रहीं और लम्बे समय तक अन्तरराज्यीय विवाद चले। इसी प्रकार नर्मदा भी नदी जल के बँटवारे के विवाद को लेकर लम्बे समय तक चर्चा में बनी रही परन्तु इस दौर में राज्यों के बीच इस प्रकार की कोई समझ बनने के प्रमाण नहीं मिलते हैं कि नर्मदा से जुड़े राज्यों द्वारा इस नदी में पानी की आवक बढ़ाने अथवा वर्षा से मिले जल को सहेजने की दिशा में परस्पर कोई सहयोग किया हो।

अब समय आ चुका है कि नदियों के जल पर निर्भर राज्य आपस में पानी के बँटवारे की लड़ाई करने के साथ-साथ नदियों में जल की मात्रा, प्रवाह की निरन्तरता और जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिये पारस्परिक सहयोग करें। नर्मदा के परिप्रेक्ष्य में विशेषकर मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के बीच इस प्रकार का पारस्परिक सहयोग विशेष प्रासंगिक है क्योंकि पूरे नर्मदा बेसिन में पानी की मात्रा अथवा गुणवत्ता में होने वाला बदलाव न केवल मध्य प्रदेश बल्कि गुजरात और महाराष्ट्र के हितों को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा। विशेषकर गुजरात राज्य के लोगों, नीति-नियन्ताओं और योजनाकारों को यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि आज गुजरात नर्मदा के जिस पानी पर काफी सीमा तक निर्भर है उसका संचय, विंध्य और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के पहाड़ों और उनमें मौजूद घने वनों से ही होता है। अतः मध्य प्रदेश के पहाड़ों और वनों को यदि कोई क्षति पहुँचती है तो यह केवल इस प्रदेश के हितों को ही नहीं बल्कि गुजरात के हितों को भी जोर का झटका लगेगा। अतः मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों के बीच नर्मदा नदी के जल-जंगल-जमीन के संरक्षण को लेकर एक अन्तरराज्यीय सहयोग और निरन्तर चलने वाले कार्यक्रम की आवश्यकता है।

नर्मदा अंचल के वनों के संरक्षण-संवर्धन के लिये अन्तरराज्यीय सहयोग पर आधारित वन प्रबन्ध योजना बनाकर बड़े पैमाने पर काम करने की आवश्यकता है। इस प्रकार की एक योजना गंगा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में वानिकी के माध्यम से सुधार करने के लिये वन अनुसन्धान संस्थान, देहरादून द्वारा व्यापक छानबीन और अध्ययन के बाद तैयार की गई है। यह दस्तावेज नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में वनों के प्रबन्धन में सुधार कर नदियों के प्रवाह और जल की गुणवत्ता सुधारने का मार्ग प्रशस्त करता है। नर्मदा के परिप्रेक्ष्य में भी इसी प्रकार की एक योजना उन राज्यों के पारस्परिक सहयोग से चलाए जाने की आवश्यकता है जो नर्मदा के प्रवाह पथ से जुड़े हैं।

कोरी बयानबाजी नहीं, ठोस कर्म जरूरी, पहले आप नहीं, पहले मैं!


नदियों का संरक्षण अभी हमारे देश में आमतौर पर बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं समझा जाता है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में गंगा नदी के शुद्धिकरण का मुद्दा मुख्य रूप से चुनावी एजेंडा में सामने आया। सम्भवतः गंगा व अन्य नदियों के लिये यह एक शुभ लक्षण है। इसी चुनाव के दौरान इन्दौर महानगर में दो प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रचार अभियान में पानी की किल्लत और नर्मदा के तृतीय चरण को लेकर बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए गए थे। एक उम्मीदवार ने तो यहाँ तक नारा दिया था कि तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें पानी दूँगा। परन्तु इस मामले में कोरी बयानबाजी से काम चलने वाला नहीं है।

नदियों को लेकर अभी तक योजनाकार केवल पानी के उपयोग की रणनीति और तिकड़में बनाते रहे हैं और पानी की खपत करने की जुगत भिड़ाते रहे हैं। पानी की आवक बढ़ाने की दिशा में अथवा भूजल पुनर्भरण के माध्यम से धरती के जल भण्डारों को भरने के कुदरती संयंत्र के तौर पर वनों को प्रबन्धित करने के मामले में बहुत कम काम हुआ है। इस दिशा में लम्बी दूरी तय की जानी है और यह कार्य स्वयं से प्रारम्भ करना पड़ेगा। इस मामले में ‘पहले आप-पहले आप’ की औपचारिक जुमलेबाजी या अपेक्षा छोड़कर ‘पहले मैं’ की रणनीति पर काम करने की आवश्यकता है।

नर्मदा पूजन नए जमाने का…


नर्मदा नदी में धार्मिक आस्था रखने वालों की कमी नहीं है। माँ नर्मदा की स्तुति में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा रचित नर्मदाष्टक गाने का चलन पूरे नर्मदा अंचल में है। परन्तु स्वयं नर्मदा का अस्तित्व दिनोंदिन बढ़ते प्रदूषण और वन-विनाश जैसी विकराल होती समस्याओं के कारण कठिनाई में है अतः नर्मदा पूजन के प्रचलित तौर-तरीकों से कहीं आगे बढ़कर प्रदूषण मुक्ति और वन सुरक्षा को नर्मदा मैया की नई पूजा के रूप में देखने-दिखाने की जरूरत है। इसी का अाह्वान करता गीत।

नए दौर में करें, नर्मदा पूजन नए जमाने का;
वरना हम हक खो बैठेंगे, नर्मदाष्टक गाने का।

आज प्रदूषण, सुरसा जैसा चौड़ा सा मुँह बाए है;
नदियों की बर्बादी को, अपना चंगुल फैलाए है।
आस्था से हो या लालच से, किन्तु प्रदूषण जारी है;
नदियाँ साफ रहें, यह आखिर किसकी जिम्मेदारी है? व्यर्थ दिखावा करते हम, नर्मदा भक्त कहलाने का;
हम तो हक ही खो बैठेंगे, नर्मदाष्टक गाने का।।

ये विकास के सागर जैसे, बाँध-जलाशय अपने हैं;
इनसे जुड़े हजारों-लाखों, खुशहाली के सपने हैं।
इन सपनों पर गाद न जमने पाये, वन कट जाने से।
हो न कोई नुकसान, जलाशय में माटी पट जाने से;
वरना क्या फायदा, यहाँ पर इतने बाँध बनाने का?
हम तो हक ही खो बैठेंगे, नर्मदाष्टक गाने का।

घंटों-घड़ियालों, दीपों से भले आरती रोज करो;
पर माता की पीड़ा समझो, कारण की भी खोज करो।
रेवा में जब निर्मल-शीतल नीर न बहने पाएगा;
तीर्थों की रौनक उजड़ेगी कौन यहाँ फिर आएगा।
क्या मतलब रह जाएगा तीर्थाटन और नहाने का?
हम तो हक ही खो बैठेंगे नर्मदाष्टक गाने का।

जंगल की रक्षा, कलियुग की नई नर्मदा पूजा है;
इससे सीधा, इससे बेहतर अन्य उपाय न दूजा है।
दाग प्रदूषण के धो डालें, माँ के उजले दामन से;
चलो कसम खाएँ, जुट जाएँ, माँ की सेवा में मन से।
वरना क्या मतलब है फिर घंटा-घड़ियाल बजाने का;
हम तो हक ही खो बैठेंगे, नर्मदाष्टक गाने का।

नए दौर में करें, नर्मदा पूजन नए जमाने का;
वरना हम हक खो बैठेंगे, नर्मदाष्टक गाने का।
त्वदीय पाद पंकजम्, नमामि देवी नर्मदे…


नर्मदा के वनों की जैवविविधतानर्मदा के वन, विशेषकर विंध्य, मैकल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणी में फैले वन मध्य भारत के लिये जीवनरेखा जैसे हैं। जैवविविधता के समृद्ध भण्डार ये वन इस क्षेत्र के लिये वन उपजों के साथ-साथ भोजन-पानी की दीर्घकालिक उपलब्धता सुनिश्चित करने की धूरी हैं। यहाँ से निकलने वाली नर्मदा, महानदी, ताप्ती, सोन तथा उनकी असंख्य सहायक नदियाँ भारत के कई प्रदेशों को सुजलाम्-सुफलाम् बनाती हैं। हिमालय और पश्चिमी घाट के दो समृद्धतम जैविक क्षेत्रों के बीच स्थित मध्य भारत के ये वन दोनों ही क्षेत्रों की जैव विविधता का अद्भुत सम्मिश्रण प्रस्तुत करते हैं और अनुवांशिक निरन्तरता बनाए रखकर पूर्वी हिमालय तथा पश्चिमी घाट को जोड़ते हैं। यहाँ बाघ संरक्षण क्षेत्रों में विश्व के 2 सबसे बड़े सतत क्षेत्र तथा भारतीय बायसन या गौर की काफी बड़ी आबादी वाला क्षेत्र भी है।जैव विविधता की प्रचुरता की दृष्टि से नर्मदा बेसिन में तीन स्थानों - अमरकंटक, पातालकोट तथा पचमढ़ी का अपना विशिष्ट स्थान है जहाँ अनेक प्रकार की दुर्लभ औषधीय वनस्पतियाँ भी मिलती हैं। नर्मदा बेसिन में कई दुर्लभ प्रजातियों सहित पौधों की 1244 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। राज्य वन अनुसन्धान संस्थान, जबलपुर द्वारा वर्ष 1976 में किये गए अध्ययन के अनुसार अमरकंटक में 635 प्रजातियों के पौधे पाये जाते हैं, जिनमें 612 एंजिओस्पर्म, 2 जिम्नोस्पर्म तथा 21 टेरिडोफाईट्स हैं। इसमें से 7 प्रजातियाँ मध्य भारत के लिये और 14 मध्य प्रदेश के लिये नई पाई गई थीं। घास प्रजाति की अत्यधिक उपलब्धता के कारण अमरकंटक में द्विबीजपत्री पौधों तथा एकबीजपत्री पौधों का अनुपात 68:3 - 26:5 है जबकि विश्व का औसत अनुपात 81:3 - 18:7 है। अमरकंटक में पाये जाने वाले कुछ पौधों की प्रजातियाँ अपने गण की एकमात्र प्रतिनिधि होने के कारण असाधारण महत्त्व की हैं क्योंकि इनके लुप्त होने पर पूरे गण के लुप्त होने का खतरा बढ़ जाता है।जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के मध्य अंचल कार्यालय, जबलपुर के अनुसार नर्मदा घाटी में कशेरुकी वर्ग की 262 प्रजातियों के प्राणी ज्ञात रूप से पाये जाते हैं जिनमें 72 से अधिक किस्मों की मछलियाँ, 8 प्रजातियों के उभयचर, 10 प्रकार की छिपकलियों और 9 प्रकार के साँपों सहित 21 से अधिक प्रजातियों के सरीसृप, लगभग 120 प्रजातियों के पक्षी तथा 41 से अधिक प्रजातियों के स्तनधारी प्राणी पाये जाते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार यहाँ तितलियों और पतंगों की 350 से अधिक प्रजातियाँ भी मिलती हैं।- शुभरंजन सेन, आर.एस. मूर्ति एवं जे एस. चौहान
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