नहीं रख पाये मान, मानसरोवर का सो अब प्यासे हैं

2 Jan 2016
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विदिशा में ही विजय मन्दिर और उदयगिरि की गुफाएँ आंशिक रूप से ही सही, पर सुरक्षित तो हैं, लेकिन उनके करीब बने हुए तालाब जमाने पहले नष्ट हो चुके हैं। मोहनगिरि के तालाब किनारे का मठ अब पहले से भी भव्य मन्दिर में बदल चुका है और तालाब...?

बड़ा पुराना नगर है ग्यारसपुर। अब तो बस एक छोटी-सी बस्ती ही रह गया है, लेकिन उसके खण्डहर सोलह सौ हेक्टेयर में बिखरे पड़े हैं। इसी ग्यारसपुर में सत्रहवीं सदी में गौंड राजा मानसिंह ने दो पहाड़ियों की तलहटी में पानी रोककर एक खूबसूरत झील बनावाई थी। निर्माता के नाम से ही झील का नाम चल पड़ा, मानसरोवर। झील के एक हिस्से में बावड़ी आज भी है। यह बावड़ी ग्यारसपुर के महल के पानी का स्रोत थी। महलों से नीचे बावड़ी तक पक्की बन्द सीढ़ियाँ थी। महल अब भी है, बावड़ी अब भी है, सीढ़ियाँ अब भी हैं, लेकिन बावड़ी में पानी नहीं रहता। इस बावड़ी में ही क्यों, मानसरोवर के ठीक नीचे छीपाकुआँ और खस बावड़ी भी अब सूख जाते हैं। गर्मियों मे तो अब ग्यारसपुर के सभी कुओं-बावड़ियों में पानी का टोटा पड़ जाता है।

कहावत थी कि ‘ताल के इस पार या उस पार, ऊपर बड़ की डार, माया अपरम्पार, ना जाने किस पार’। माया अपरम्पार ही थी, लेकिन न इस पार, न उस पार, बल्कि मानसरोवर में ही थी, अकूत पानी की शक्ल में। हर साल बारिश में पहाड़ों का पानी छल-छल बहता आता और मानसरोवर में समा जाता। धूप में पानी की ऊँची-ऊँची लहरें चाँदी की तरह चमकती। मनसरोवर की इस अनमोल माया से आसपास के कुएँ भी समृद्ध रहते थे, लेकिन इस माया को लोगों ने पहचाना नहीं, आसपास चबूतरे खोदते फिरे और तालाब फोड़ दिया। माया बह गई, अब हर साल प्रकृति तालाब को लबालब भरती तो है, पर हर साल वह अनमोल दौलत फिजूल बह जाती है। मानसरोवर सूखता है, तो उसके नीचे की तरफ की बस्ती के सारे कुएँ बावड़ियाँ रीत जाते हैं। ग्यारसपुर अब तेजी से बढ़ती बस्ती है जो अपने पुराने दर्शनीय स्थल के लिये जानी जाती है। पुलिस स्टेशन के ठीक सामने पत्थर की शिला पर पुरातत्व विभाग ने दर्शनीय स्थल की जो सूची खुदवा रखी है, बस अब उसी में बचा है, मानसरोवर तालाब का नाम। पर्यटक जब मानसरोवर तालाब को देखने जाते हैं, तो उन्हें तालाब की जगह घने जंगल और ऊँचे पहाड़ों के बीच खेत नजर आते हैं, जहाँ कभी मानसरोवर तालाब था।

एक आदिवासी राजा ने सबके उपयोग के लिये मानसरोवर को बाँधा था और समझदारी का दम्भ पाले हमने अपनी निजी इस्तेमाल के लिये तालाब को खेतों में बदल दिया। ग्यारसपुर में पानी का संकट अब स्थायी है। वहाँ की जमीन में बहुत नीचे तक पानी है ही नहीं। गर्मियों में गाँव के कुओं में खारा या मीठा कैसा भी पानी नहीं बचता। नल-जल-योजना वालों ने तीन किलोमीटर दूर औलींजा गाँव से पाइप बिछा दिये हैं, पर उनके कनेक्शन उन्हीं घरों में हैं, जो पानी का मोल चुका सकते हैं। गरीब घरों की महिलाएँ दूर खेतों के कुओं से पानी लाती हैं। ऐसे में उनका एक सहारा अमर्रा कुआँ भी है, जो एक तालाब के पेटे में ही है।

अमर्रा नाम का यह तालाब गढ़ पहाड़ पर बने माला देवी के मन्दिर के नीचे है। ग्यारसपुर से एक मील दूर लम्बाई में फैले इस पुराने तालाब को चाँदलाबली पहाड़ और गढ़ पहाड़, दोनों के बीच एक पाल डालकर बनाया गया था, जिसकी मरम्मत सन् 1904 में खुद तब के ग्वालियर महाराजा ने अपनी विशेष दिलचस्पी की वजह से करवाई थी। पाल के दक्षिण के नीचे की तरफ बने कुएँ इस तालाब की वजह से हमेशा जल-समृद्ध रहते हैं। तब भी, जब इस तालाब को खाली कर उसमें खेती शुरू हो जाती है। इस तालाब के दूसरी छोर का अमर्रा कुआँ ग्यारसपुर की पश्चिमी निर्धन बस्ती की प्यास बुझाता है। कैसी भी गर्मी हो, उसका ठंडा और मीठा पानी कभी सूखता नहीं है। अमर्रा कुआँ तालाब के पेटे में जो बना हुआ है।

जलस्रोत कौन बचाएगा?


ग्यारसपुर में मालादेवी के मन्दिर के ठीक नीचे बहुत पुराना तालाब भी था, तालाब चाँदलाबली पहाड़ को गढ़ पहाड़ से एक मील लम्बी पाल के जरिए जोड़कर बनाया गया था। आज ऊपर मालादेवी का मन्दिर सुरक्षित है, लेकिन नीचे का तालाब? पता नहीं क्या हुआ!

ऐसे ही, सन्त गैयननाथ की कृपा से अकूत धन पाने वाले गड़रिए ने बड़ोह में मन्दिर के साथ-साथ, सुन्दर और विशाल तालाब भी बनवाया था। तालाब के निर्माण में गड़रिए के पूरे परिवार ने जीवन बलिदान कर दिया था। आज गड़रमल का मन्दिर पुरातत्व विभाग की देखरेख में है, पर तालाब लगभग दम तोड़ चुका है।

ग्यारहवीं सदी में राजा उदयादित्य परमार ने उदयपुर में खूबसूरत शिवमन्दिर के साथ ही उदयसमुद्र नामक विशाल तालाब भी बनवाया था, लेकिन मन्दिर तो अपनी पूरी शान से आज भी खड़ा है, उदय समुद्र का कोई पता-ठिकाना नहीं है।विदिशा में हाजीबली के मकबरे के साथ ही एक विशाल तालाब भी उसके चारों तरफ बनवाया गया था। हाजी पीर या हाजी बली के मकबरे के नाम से मशहूर यह संरक्षित इमारत अपनी चन्द कब्रों के साथ सुरक्षित है, लेकिन तालाब अब वहाँ नहीं है।

विदिशा में ही विजय मन्दिर और उदयगिरि की गुफाएँ आंशिक रूप से ही सही, पर सुरक्षित तो हैं, लेकिन उनके करीब बने हुए तालाब जमाने पहले नष्ट हो चुके हैं। मोहनगिरि के तालाब किनारे का मठ अब पहले से भी भव्य मन्दिर में बदल चुका है और तालाब...?

पूजा-स्थल तो हमने बचा लिये, जलस्रोत कौन बचाएगा?

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