नई सोच से दूर होगा जलसंकट

19 Sep 2008
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बिन पानी सब सून
बिन पानी सब सून

तीन सदी पहले एडम स्मिथ ने गैर-हस्तक्षेपकारी राह के जरिए दुनिया में सबके लिए असीम समृद्धि की सोच जाहिर की थी। इसके तुरंत बाद कुछ अर्थशास्त्री इसके रंग में भंग डालते नजर आए। उनका कहना था कि प्रकृति ने कंजूसी और सजगता से नेमत बख्शी है, संसाधन सीमित हैं। सीमित संसाधानों का मतलब है, लगातार घटता हुआ प्रतिफल। दूसरी ओर आबादी की जरूरतें दिनदूनी-रात चौगुनी बढ़ती रहीं। इसका अवश्यंभावी परिणाम अभाव, अकाल, बीमारी और लड़ाई-झगड़े के रूपमें सामने आता। एडम स्थिम का यह कल्पनालोक कल्पना ही साबित हुआ।

पर इतिहास ने मानव की असीम सूझ-बूझ के बारे में एडम स्मिथ के आशावाद को पुष्टही किया। कृषि उत्पादन की नई तकनीकें विकसित होने से आज पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा आबादी के लिए अधिक और बेहतर भोजन उपलब्ध है तथा उत्तम स्वास्थ्य के साथ उनका जीवनकाल भी बढ़ गया है। इसका सीधा अर्थ यही है कि मानव की सूझ-बूझ और कल्पनाशीलता विकास की राह में आने वाली हर बाधा को पार कर सकती है। असीम विकास की सोच के आगे एक बार फिर विशाल चुनौती आ गई है। यह चुनौती पेट्रोलियम या कॉपर और जमीन की कमी नहीं है बल्कि उस तरफ से है, जिससे आम आदमी का जीवन सीधे तौर पर प्रभावित होता है- यानि जलसंकट। पानी के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

गरीबी कहीं भी हो, उससे सर्वत्र समृद्धि को खतरा है। यह स्वयंसिद्ध कथन पानी की तंगी के संदर्भ में भी उतना ही सच्चा है। आबादियों की सहजीविता में एक जगह इसकी निपट दुर्लभता से गंदगी, बीमारियों और महामारी को बढ़ावा मिलेगा, जिससे समूची बिरादरी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

बढ़ते जल संकट की सच्चाई को पूरी दुनिया ने माना है। इस पर काबू पाने की योजना संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम विकास लक्ष्यों की सूची में दर्ज हैं ज्यादातर देशों ने इसके बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए कार्यक्रम तैयार किए हैं। कृषि पर आधारित ज्यादातर ग्रामीण आबादी नगरीय और राजनीतिक निकायों पर निर्भर हुए बिना अपनी पानी की जरूरतों का प्रबंध कर लेती है। वर्श 2007 में शहरी-ग्रामीण परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। उस वर्ष शहरी आबादी कुल आबादी के आधे तक पहुंच गई। शहरवासियों की जरूरतों की पूर्ति के लिए पानी की कृत्रिम आपूर्ति पर निर्भर रहना पड़ता है। वर्ष 2030 तक दो-तिहाई वैश्विक आबादी शहरीहो जाएगी। वैश्विक गरीबी का केंद्र शहरों की ओर खिसक रहा है।

वर्श 2020 तक दो करोड़ से ज्यादा आबादी वाले दुनिया के आठ सबसे बड़े शहर एशिया में और विशेष तौर पर भारत और चीन में होंगे। इन दोनों देशों में अमीर और गरीब के बीच की विभाजक रेखा जल-बहुल समुदायों और पानी केलिए तरसने वाले समुदायों की विभाजक रेखा के संगत नजर आती है। वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर जल योजनाओं में जल संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है।इन कार्यक्रमों में जल संसाधनों के संवर्धन पर जोर कम दिया जाता है। आर्थिक विकास, सिंचित कृषि में बढ़ोतरी और बढ़ती आबादी के चलते भारत में पानी की मांग बढ़ रही है। भूमिगत जल से ग्रामीण भारत में पेयजल की 85 फीसदी औद्योगिक क्षेत्र की 50फीसदी और सिंचाई की 55 फीसदी जरूरतें पूरी होती हैं। भूजल के बढ़ते इस्तेमाल की वजह से देश के कई हिस्सों में जल-स्तर और इसकी गुणवत्ता में कमी आई है।

देश के जल संसाधनों की क्षमता मूलत: इसके वृहद नदी कछारों में निहित है। इन कछारों के इस्तेमाल लायक संसाधनों में सुधार की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। भूमिगत जल-संसाधनों के पुनर्भरण के बारे में काफी बातें की जाती हैं, लेकिन उपलब्धियां तुलनात्मक रूप से औसत हैं।

समुद्री जल के मृदुकरण में भी ज्यादा स्कोप नहीं है और यह काफी खर्चीला है। इंसान के लिए आज भी उतना ही पानी उपलब्ध है जितना दुनिया की शुरूआत में था। तबसे ही यह पानी बारिश-नदियां-सागर-वाष्पीकरण-बारिश के चक्र के रूप में घूम रहा है। पानी इस मायने में नश्वर संपदा है कि इसके भंडारण की सीमा है।

मौजूदा दौर में जहां पानी को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है, वहीं समाधान के तौर पर वनीकरण, बांधबनाने और रेन वाटर हार्वेस्टिंग से ज्यादा कुछ नहीं हो पाया। जल परियोजना सेप्रभावित आबादी के पुनर्स्थापन के मसले को सुलझाने में सरकार की अक्षमता नदी कछारों के पूरी तरह से इस्तेमाल में आडे आती है। ग्लोबल वार्मिंग व मौसमी बदलाव से परिस्थितियां और बिगड़ने वाली है तथा वर्षा काल काफी हद तक घट सकता है।

आज बड़ा सवाल यही है कि पानी का उचित वितरण सुनिश्चित कैसे किया जाए। किसी भी कार्ययोजना का पहला चरण आपूर्ति में वृद्धि करने वाला ही होना चाहिए।

यह अचरज कारी है कि बारिश में ज्यादातर पानी समुद्र में बहने दिया जाता है। बहुत थोड़ा ही भूमिगत जल और कुएं-तालाबों में रूक पाता है। वनीकरण, मेढ़ बनाना, और बांधों के निर्माण जैसी तकनीकों के इस्तेमाल से ही इस उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। ज्यादातर बांध निर्माण परियोजनाओं में जल के प्रवाह को किसी उपयुक्त स्थान पर रोका जाता है और रिजरवॉयर्स के पानी को नदी की एकल व्यवस्था और पनबिजली पैदा करने के लिए ही छोड़ा जाता है। कई दशक पहले संयुक्त राष्ट्र की एक टीम ने पश्चिमी पंजाब के नहर तंत्र का अध्ययन किया। टीम इस नतीजे पर पहुंची कि एकल नहर व्यवस्था के बजाए कई छोटी-छोटी नहरों काएक नेटवर्क बनाना होगा ताकि पानी सीधे खेतिहर जमीन तक न पहुंचने पाए। उनकी यह बात राजनेताओं- बिल्डरों की मंडली को रास नहीं आई चूंकि यह खास क्षेत्र/समुदाय की मांग से मेल नहीं खाती है।

पूर्ववर्ती एनडीए सरकार ने देश की कई नदियों को जोड़ने की दिशा में पहल की थी, दुर्भाग्य से इस योजना पर एनडीए का ठप्पा होने की वजह से मौजूदा यूपीए सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। जलसंकट एक गंभीर समस्या है। मानवीय चतुराई और बुद्धिमत्ता के जरिए इस समस्या पर उसी तरहकाबू पाया जा सकता है जिस तरह जमीन की कमी और खनिजों व धातुओं की सीमित आपूर्ति को काबू में किया गया है।

शरद जोशी
लेखक शेतकारी संगठन के संस्थापक और राज्यसभा के सदस्य हैं।
ssharadjoshi.mah@gmail.com
 

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