नील का बढ़ता खुमार

13 May 2017
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प्राकृतिक नील की बढ़ती माँग को देखते हुए कई उद्यमी इस व्यवसाय में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इस तरह नील हमारे जीवन में वापसी कर रहा है। इस बार हमें उन गलतियों के प्रति सचेत रहना होगा जो अंग्रेजों ने चम्पारण के किसानों के साथ की थी

बांग्लादेश के रंगपुर में सूत को नील से रंगते टेक्सटाइल उद्योग के कर्मचारीनील की बढ़ती माँग के मद्देनजर भारत और कई अन्य देशों में नील की खेती फिर से शुरू हो रही है। जो नील कभी औपनिवेशिक शोषण का प्रतीक था, आज वह फैशन और स्टाइल का प्रतीक बन चुका है। प्राकृतिक नील ने कभी भी अपनी चमक नहीं खोई थी, बेशक जर्मन रसायनशास्त्री अडोल्फ फोन बेयर द्वारा वर्ष 1878 में सिंथेटिक नील का आविष्कार के बाद प्राकृतिक नील की माँग में तेजी से गिरावट आई, जिसने इसके उत्पादन पर भी प्रभाव डाला।

नील की खेती 19वीं शताब्दी के अन्त और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अपने चरम पर थी। इसके उत्पादन का अन्दाजा इससे लगाया जा सकता है कि वर्ष 1856 में भारत में लगभग 19,000 टन नील का उत्पादन हुआ था। उन दिनों पूरा नील यूरोप भेज दिया जाता था। वहाँ औद्योगिक क्रान्ति के बाद कपड़ा उद्योग का तेजी से विकास हो रहा था। जब जर्मनी की दो कम्पनियाँ बडीश एनिलीन और सोडाफैब्रिक सिंथेटिक नील का व्यावसायिक तौर पर उत्पादन करने लगे तो प्राकृतिक नील की माँग घटती चली गई।

कम होती माँग का अन्दाजा वर्ष 1914 में भारत में हुए नील के उत्पादन से लगाया जा सकता है जो घटकर 1,100 टन रह गया था। उत्पादन में लागत कम होने की वजह से आज बाजार पर कृत्रिम नील का ही नियंत्रण है। लेकिन जैसे-जैसे लोग अपने स्वास्थ्य को लेकर जागरूक हो रहे हैं, विश्वभर में प्राकृतिक नील की माँग बढ़ती जा रही है। बाजार के इस रुझान ने किसानों को नील की खेती की तरफ फिर से आकर्षित किया है।

भारत में नील का पुनरुद्धार तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में अधिक हुआ है, क्योंकि वहाँ का गर्म और अार्द्र मौसम नील उत्पादन के लिये अच्छा माना जाता है। औपनिवेशिक काल में मद्रास में उपजाया जाने वाला कुर्पाह नील अपने अच्छे रंग की वजह से वैश्विक बाजार में काफी लोकप्रिय था।

तमिलनाडु के वेल्लुपुरम जिले के एस कमलनाथन ऐसे ही एक किसान हैं जो अभी दो साल पहले अन्य नकदी फसल की खेती छोड़ नील की खेती करने लगे। वो अपने 3.6 हेक्टेयर खेत से हर मौसम में लगभग दो लाख रुपये का मुनाफा कमा रहे हैं। कमलनाथन बताते हैं, “जो पत्ते डाई निकालने के लिये इस्तेमाल होते हैं, उन्हें साल में दो से तीन बार कटवाया जा सकता है। इससे इस फसल पर खर्च कम आता है।”

नील लेगुमिनस परिवार का एक पौधा है। इन पौधों की जड़ों की गाँठों में रहने वाले बैक्टीरिया वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर मिट्टी की उत्पादकता को संरक्षित रखते हैं। इससे मिट्टी में नाइट्रोजन उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती। शुरुआती मुनाफे से प्रेरित कमलनाथन अब लीज पर 16.4 हेक्टेयर जमीन लेकर बड़े स्तर पर नील की खेती की योजना बना रहे हैं।

सरकारी आँकड़ों के अभाव में कमलनाथन की बात से ही इसके बढ़ते प्रभाव का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इनके अनुसार पिछले पाँच सालों में वेल्लुपुरम के हजारों किसान कई मुख्य नकदी फसलों की खेती छोड़ नील की खेती की तरफ मुड़ने लगे हैं। कमलनाथन के अनुसार पूरे राज्य में हर साल करीब 300-500 टन नील का उत्पादन हो रहा है। फिर भी अच्छे बीज की समस्या बनी रहती है। क्योंकि नील की खेती न तो बड़े पैमाने पर होती है और न ही इसको सरकार का कोई समर्थन प्राप्त है। वेल्लुपुरम के अधिकतर किसान आन्ध्र प्रदेश से बीज खरीदते हैं।

बांग्लादेश में नील की वापसी देखने योग्य है जहाँ कभी नील की खेती को अंग्रेजों के दमन और किसानों की परेशानियों से जोड़कर देखा जाता था।

वर्तमान समय में नील के उत्पादन के प्रति किसानों में बढ़ते उत्साह की एक वजह यह भी है कि किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता। कमलनाथन के अनुसार, “हमारे उत्पाद का करीब 70 प्रतिशत दिल्ली और हैदराबाद के टेक्सटाइल डिजाइनर खरीदते हैं। बाकी नील राजस्थान और गुजरात के पारम्परिक रंगरेज खरीद लेते हैं।”

हैदराबाद के डिजाइन स्टूडियो क्रिएटिव बी के संस्थापकों में एक शिवकेशव राव ऐसे ही एक डिजाइनर हैं। उनका स्टूडियो आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना के करीब 400 बुनकरों के साथ काम करता है। राव के अनुसार इस तरह के उत्पाद की माँग पिछले एक दशक में दोगुनी हुई है। राव अपने उत्पाद का करीब पचास प्रतिशत निर्यात करते हैं। राव कहते हैं, “यह क्लास का प्रतीक है। जो लोग अपने स्टेटस को लेकर अधिक सचेत हैं, वहीं इस तरह के कपड़े खरीदते हैं।” यहाँ उनका तात्पर्य प्राकृतिक नील के इस्तेमाल से बने कपड़ों से है।

नीलहैदराबाद स्थित डिजाइन संस्था कलमकारी क्रिएशन की संस्थापक ममता रेड्डी इनकी बातों से सहमत दिखती हैं। इनकी संस्था प्राकृतिक नील का प्रयोग कर जटिल कलमकारी बनाती है। कलमकारी हस्तकला का एक प्रकार है जिसमें हाथ से सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छाप बनाई जाती है। कलमकारी शब्द का प्रयोग कला एवं निर्मित कपड़े दोनों के लिये किया जाता है। मुख्य रूप से यह कला भारत एवं ईरान में प्रचलित है। वह कहती हैं, “दो दशक पहले जब हमने अपनी संस्था बनाई तब प्राकृतिक नील से बने कपड़ों की माँग न के बराबर थी। पर अभी इनकी माँग काफी बढ़ गई है। जो भी इस क्षेत्र में काम कर रहा है वह इस परिवर्तन को महसूस कर रहा है।”

ममता प्राकृतिक नील चेन्नई से खरीदती हैं। फिलहाल बाजार में कई ऐसे उत्पाद आ गए हैं जो खुद को प्राकृतिक नील से बना बताते हैं। राव और रेड्डी, दोनों का कहना है कि इससे यही पता चलता है कि लोगों के बीच प्राकृतिक नील से बने उत्पादों की माँग बढ़ रही है। रेड्डी प्राकृतिक नील से बने कपड़ों को पहचानने के लिये तरीका बताती हैं, “प्राकृतिक नील से तैयार कपड़े ज्यादा धूप में रहने पर हरे रंग में तब्दील होने लगते हैं। लेकिन सिंथेटिक नील के साथ ऐसा नहीं होता।”

ब्लॉक प्रिंट करने वाले एक कलाकार छिप्पा यासीन जोधपुर के पीपर शहर में रहते हैं। इनके अनुसार प्राकृतिक नील से बने कपड़ों की माँग इतनी अधिक है कि चौबीस घंटे काम करने के बाद भी हम इसे पूरा नहीं कर पाते। नील रंगाई यासीन के परिवार का पुश्तैनी धन्धा है। यासीन बताते हैं, “एक समय था जब इस पीपर गाँव में करीब 105 परिवार ब्लॉक प्रिन्टिंग के काम में लगे थे। लेकिन कृत्रिम नील की आवक ने कई लोगों को इस धन्धे को छोड़ने पर मजबूर कर दिया।”

यासीन का इस धन्धे में बना रहना इसलिये सम्भव हो पाया क्योंकि उनकी मुलाकात फैब इंडिया से जुड़े लोगों से हुई। फैब इंडिया रेडीमेड कपड़े बेचने वाले रिटेल स्टोर की एक चेन है। आज के समय में यासीन के काम की माँग न केवल फैब इंडिया जैसे स्टोर पर है, बल्कि जापान जैसे देशों में भी इसकी काफी माँग है।

नील के जानकार और बोटेनिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के पूर्व प्रमुख एम संजप्पा कहते हैं कि प्राकृतिक नील की माँग पिछले पाँच छः सालों में बढ़ी है, क्योंकि लोग स्वास्थ्य को लेकर काफी सचेत हो रहे हैं और प्राकृतिक चीजों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करना चाहते हैं। किसानों और कारीगरों के साथ काम करने वाली कुछ स्वयंसेवी संस्थाएँ भी सेमिनार और कार्यशाला के माध्यम से जागरूकता फैलाने का काम कर रही हैं।

नील का वैश्विक पुनरुत्थान


नील शोधकर्ता और लेखक जेनी बाल्फोर-पॉल कहती हैं कि पूरे विश्व में नील की अभूतपूर्व वापसी हुई है। उनके अनुसार, “ऐसा इसलिये है कि आज की युवा पीढ़ी पर्यावरण से जुड़े मुद्दजों को लेकर बहुत जागरूक है। उनके पास कपड़े भले ही कम हों पर वे टिकाऊ उत्पादों के प्रयोग से बने हुए उच्च कोटि के होते हैं। प्राकृतिक नील टिकाऊ उत्पाद का सबसे अच्छा उदाहरण है, क्योंकि यह चावल के साथ भी उगाया जा सकता है। किसान इसका उपयोग जैविक खाद के तौर पर भी करते हैं। बांग्लादेश, एल सल्वाडोर, अफ्रीकी देश और अमेरिका में नील की खेती में काफी वृद्धि हुई है।” जेनी ‘इंडिगो: इजिप्शियन ममीज टू ब्लू जींस एंड इंडिगो इन दी अरब वर्ल्ड’ शीर्षक किताब की लेखिका हैं।

बांग्लादेश में नील की वापसी का घटनाक्रम काफी दिलचस्प है, जहाँ नील हजारों किसानों के दर्द और अंग्रेजों के दमन की याद दिलाता है। वर्ष 2004-05 में बांग्लादेश के एक टेक्सटाइल डिजाइनर तुषार कुमार ने रंगपुर क्षेत्र से गुजरते समय नील के कुछ पौधे देखे। तुषार उन पौधों से कुछ डाई निकालने में सफल भी हुए। इससे प्रोत्साहन लेकर निजेरा कॉटेज और विलेज इंडस्ट्रीज (एनसीवीआई) ने स्थानीय किसानों के साथ मिलकर काम करने का निर्णय लिया। संस्था से जुड़े मिशेल ‘मिका’ अहमद ने बताया।

एनसीवीआई, बांग्लादेश स्थित मजदूरों और कलाकारों द्वारा संचालित एक सामाजिक संस्था है। वर्ष 2008-09 में इस संस्था ने रंगपुर के राजेंद्रपुर स्थित किसानों के साथ मिलकर नील की खेती शुरू की। उत्पादित नील को बेचने के लिये संस्था ने ‘लिविंग ब्लू’ नाम की एक मार्केटिंग संस्था भी बनाई।

अहमद का दावा है कि बांग्लादेश में जो नील का उत्पादन हो रहा है उसमें कुछ जादू है। वर्तमान में करीब 3,000 किसान एनसीवीआई से जुड़कर नील की खेती कर रहे हैं। इनमें अधिकतर भूमिहीन किसान हैं। एनसीवीआई इन किसानों को खेती के लिये जमीन और बीज मुहैया कराता है। इससे ये किसान मोंगा से आसानी से निपटते हैं। उल्लेखनीय है कि मोंगा को वहाँ खेती और रोजगार के हिसाब से हर साल आने वाले मुश्किल दौर के तौर पर जाना जाता है।

अहमद कहते हैं, “प्राकृतिक नील से बने उत्पादों की माँग लगातार बढ़ रही है। लेकिन इसकी माँग में एक बड़ी बाधा कीमत है। वैसे कपड़े जिसमें कृत्रिम नील का इस्तेमाल होता है, वह प्राकृतिक नील से रंगे कपड़ों से काफी सस्ता होता है।”

पृथ्वी के दूसरे छोर पर ग्वाटेमाला में भी नील अपने इसी तरह के तकलीफदेह अतीत से उबर रहा है। इस देश में नील के इस्तेमाल का इतिहास माया सभ्यता में ही देखने को मिलता है।

पेशे से टेक्सटाइल डिजाइनर ओल्गा रीचे, ग्वाटेमाला में पिछले तीन दशक से नील के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का काम कर रही हैं।

ओल्गा बताती हैं, मैंने नब्बे के दशक में प्राकृतिक नील के साथ काम करना शुरू किया और बहुत जल्द ही मुझे इस बात का एहसास हो गया कि लोग प्राकृतिक नील में खासा रुचि ले रहे हैं। आजकल यूरोप, जापान और अमेरिका में इसकी अच्छी माँग है लेकिन चीन, लाओस और भारत जैसे कुछ देशों ने प्राकृतिक नील के उपयोग को कभी पूरी तरह से बन्द नहीं किया।

इन सबके बावजूद नील जो किसानों पर अत्याचार और इसकी वजह से प्रतिरोध का कारण बना, बिना सरकारी संरक्षण के बड़े पैमाने पर वापसी नहीं कर सकता। चम्पारण को ही देखिये जहाँ की मिट्टी और वातावरण दोनों नील की खेती के लिये मुफीद है।

पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं, “चम्पारण में कोई नील के बारे में बात तक नहीं करता।” अरविंद चम्पारण के रहने वाले हैं और चम्पारण सत्याग्रह पर एक किताब लिख रहे हैं। वह कहते हैं, “प्राकृतिक नील की माँग विश्व में बढ़ रही है पर यहाँ के किसान इसके व्यावसायिक महत्त्व से नावाकिफ हैं। वे आज भी इसे अंग्रेजों के अत्याचार से ही जोड़कर देखते हैं।”

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