नील का धब्बा

22 Jun 2010
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हरा, पीला, लाल, सफेद, काला- ये सभी रंग प्रकृति में आसानी से मिल जाते हैं। पर नीला रंग मिलना सबसे मुश्किल रहा है। इसीलिए नीला रंग दे सकने वाले पौधे पर सबकी नजर टिक गई थी। व्यापारी की भी और शोषण करने वालों की भी। मारा गया किसान। नील के पौधे की खेती बिहार के चंपारण क्षेत्र में होती रही है। दुनिया की मांग का एक बड़ा भाग चंपारण से पैदा होता था और इसका सारा लाभ नील की खेती करने वाले किसानों को नहीं, बल्कि जबरन खेती करवाने वाले निलहों को जाता था। शोषण का यह धब्बा धोए नहीं धुलता था। पर गांधीजी ने इसे किस सावधानी के साथ, किस तरह की अहिंसा से, किस तरह की निडरता और किस तरह की विनम्रता से धोया- यह उन्हीं के शब्दों में पढ़ें।

चंपारन राजा जनक की भूमि है। चंपारन में जैसे आमों के वन हैं, वैसे वहां सन् 1917 में नील के खेत थे। चंपारन के किसान अपनी ही जमीन के 3/20 हिस्से में नील की खेती उसके असल मालिक के लिए करने को कानून से मजबूर थे। इस प्रथा को ‘तिनकठिया’ कहते थे। बीस कट्ठे का वहां का एक एकड़ था और उसमें तीन कट्ठे की बोआई का नाम था ‘तिनकठिया का रिवाज’।

मुझे स्वीकार करना चाहिए कि वहां जाने के पहले मैं चंपारन का नाम तक नहीं जानता था। वहां नील की खेती होती है, इसका ख्याल भी नहीं के बराबर ही था। नील की गोटियां देखी थीं, पर यह चंपारन में बनती हैं और उसके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी तनिक भी खबर नहीं थी।

राजकुमार शुक्ल चंपारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा। यह दुख उन्हें खलता था। पर इस दुख से उनके भीतर नील का धब्बा सब के लिए धो डालने की आग जली।

लखनऊ की महासभा में मैं गया था, वहीं इन किसानों ने मेरा पल्ला पकड़ा। “वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे”, यह कहते जाते और मुझे चंपारन आने का न्योता देते जाते थे। वकील बाबू से मतलब था मेरे चंपारन के प्रिय साथी, बिहार के सेवा-जीवन के प्राण ब्रजकिशोर बाबू। राजकुमार शुक्ल उन्हें मेरे तंबू में लाए। उन्होंने काले आलपाके की अचकन, पतलून वगैरा पहन रखी थी। मेरे मन पर उनकी कोई अच्छी छाप न पड़ी। मैंने मान लिया-“ वह भोले किसानों को लूटने वाले कोई वकील साहब होंगे। ”

मैंने चंपारन की कथा उनसे थोड़ी-सी सुनी। अपनी साधारण रीति के अनुसार मैंने जवाब दिया, “खुद देखे बिना इस विषय पर मैं कोई राय नहीं दे सकता। आप महासभा में बोलिएगा। मुझे तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए।” राजकुमार शुक्ल को महासभा की मदद की तो जरूरत थी ही। चंपारन के बारे में महासभा में ब्रजकिशोर बाबू बोले और सहानुभूति प्रकाश का प्रस्ताव पास हुआ।

राजकुमार शुक्ल को खुशी हुई। पर इतने से ही उन्हें संतोष नहीं हुआ। वह तो खुद मुझे चंपारन के किसानों का दुख दिखाना चाहते थे। मैंने कहा, “अपने दौरे में मैं चंपारन को भी शामिल कर लूंगा और एक-दो दिन दूंगा।” उन्होंने कहा, “एक दिन काफी होगा, अपनी नजरों से देखिए तो सही। ”

लखनऊ से मैं कानपुर गया। वहां भी राजकुमार शुक्ल मौजूद थे। “यहां से चंपारन बहुत नजदीक है, एक दिन दे दीजिए।” “अभी मुझे माफ करें। पर मैं आऊंगा यह वचन देता हूं।” यह कहकर मैं अधिक बंध गया।

मैं आश्रम गया तो राजकुमार शुक्ल वहां भी मेरे पीछे लगे हुए थे। “अब तो दिन मुकर्रर कीजिए।” मैंने कहा, “जाइए, मुझे फलां तारीख को कलकत्ते जाना है, वहां आइएगा और मुझे ले जाइएगा।” कहां जाना, क्या करना, क्या देखना है, इसका मुझे कुछ पता नहीं था। कलकत्ते में भूपेन बाबू के यहां मेरे पहुंचने के पहले उन्होंने वहां डेरा डाल रखा था। इस अपढ़, अनगढ़ पर निश्चयवान् किसान ने मुझे जीत लिया।

सन् 1917 के आरंभ में कलकत्ते से हम दोनों जने रवाना हुए। दोनों की एक-सी जोड़ी थी। दोनों किसान-जैसे ही लगते थे। राजकुमार शुक्ल जिस गाड़ी में ले गए, उसमें हम दोनों घुसे। सबेरे पटने में उतरे।

पटने की यह मेरी पहली यात्रा थी। वहां मेरा किसी से ऐसा परिचय नहीं था कि उसके घर टिक सकूं। मेरे मन में था कि राजकुमार शुक्ल यद्यपि अनपढ़ किसान हैं तथापि उनका कोई वसीला तो होगा ही। ट्रेन में मुझे उन्हें कुछ अधिक जानने का मौका मिला। पटने में उनका परदा खुल गया। राजकुमार बिल्कुल भोले थे। उन्होंने जिन्हें मित्र मान रखा था, वे वकील उनके मित्र नहीं थे, बल्कि राजकुमार शुक्ल उनके आश्रित सरीखे थे। किसान मुवक्किल और वकीलों के बीच तो चौमासे की गंगा के चैड़े पाट के जितना अंतर था।

मुझे वह राजेंद्र बाबू के यहां लिवा गए। राजेंद्र बाबू पुरी या और कहीं गए हुए थे। बंगले पर एक-दो नौकर थे। खाने को कुछ मेरे पास था। मुझे खजूर की जरूरत थी। वह बेचारे राजकुमार शुक्ल बाजार से लाए।

पर बिहार में तो छुआछूत का बड़ा जोर था। मेरे डोल के पानी के छींटों से नौकर को छूत लग जाती थी। नौकर को क्या मालूम कि मैं किस जाति का हूं। राजकुमार ने अंदर का पाखाना काम में लाने को कहा। नौकर ने बाहर के पाखाने की ओर अंगुली दिखाई। मेरे लिए इसमें कहीं परेशानी या रोष का कारण नहीं था। ऐसे अनुभवों में मैं पक्का हो गया था। नौकर तो अपने धर्म का पालन कर रहा था और राजेंद्र बाबू के प्रति उसका जो फर्ज था, उसे बजाता था। इन मनोरंजक अनुभवों से राजकुमार शुक्ल के लिए मेरे मन में आदर बढ़ा। उसी के साथ उनके विषय में मेरा ज्ञान भी बढ़ा। पटने से मैंने लगाम अपने हाथ में ले ली।

मौलाना मजहरुल हक और मैं कभी लंदन में साथ पढ़ते थे। उसके बाद हम बंबई में सन् 1915 की कांग्रेस में मिले थे। उस साल वह मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे। उन्होंने पुराना परिचय बताकर कहा था कि आप कभी पटने आएं तो मेरे यहां अवश्य पधारेंगे। इस निमंत्रण के आधार पर मैंने उन्हें पत्रा लिखा और अपना काम बतलाया। वह तुरत अपनी मोटर लाए और मुझे अपने यहां ले जाने का आग्रह किया। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि जहां मुझे जाना है वहां आप पहली ट्रेन से मुझे रवाना कर दें। रेलवे गाइड से मुझे कुछ पता नहीं चल सकता था। उन्होंने राजकुमार शुक्ल से बातें कीं और बताया कि मुझे पहले तो मुजफ्फरपुर जाना चाहिए। उसी दिन, शाम को मुजफ्फरपुर जो ट्रेन जाती थी, उसमें उन्होंने मुझे रवाना कर दिया।

आचार्य कृपलानी उन दिनों मुजफ्फरपुर में ही रहते थे। उन्हें मैं पहचानता था। मैं जब हैदराबाद गया तब उनके महान त्याग की, उनके जीवन की और उनके पैसे से चलने वाले आश्रम की बात डा. चोइथराम की जबानी सुनी थी। वे मुजफ्फरपुर कॉलेज में प्रोफेसर थे। इन दिनों उससे अलग होकर बैठे थे। मैंने उन्हें तार दिया। मुजफ्फरपुर ट्रेन आधी रात को पहुंचती थी। वे अपने शिष्यमंडल को लेकर स्टेशन पर उपस्थित थे। पर उनके घर-बार नहीं था। वे अध्यापक मलकानी के यहां रहते थे। मुझे उनके यहां ले गए। मलकानी वहां के कॉलेज में प्रोफेसर थे और उस समय के वातावरण में सरकारी कॉलेज के प्रोफेसर का मुझे अपने यहां टिकाना, यह असाधारण बात मानी जा सकती है।

कृपलानीजी ने बिहार की और उसमें भी तिरहुत विभाग की दीन-दशा का वर्णन किया और मेरे काम की कठिनाई का अंदाजा कराया। कृपलानीजी ने बिहार के साथ गहरा संबंध जोड़ लिया था। उन्होंने मेरे काम की बात उन लोगों से कर रखी थी। सबेरे छोटा-सा वकील-मंडल मेरे पास आया। उनमें से रामनवमी प्रसाद मुझे याद रह गए हैं। उन्होंने अपने आग्रह से मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा।

“आप जो काम करने आए हैं, वह यहां से नहीं होने का। आपको हम जैसों के यहां ठहरना चाहिए। गया बाबू यहां के नामी वकील हैं। आपसे, उनकी ओर से मैं यहां उतरने का आग्रह करता हूं। हम सब सरकार से डरते तो जरूर हैं, पर हमसे जितनी बनेगी, उतनी मदद हम आपको देंगे। राजकुमार शुक्ल की बहुत-सी बातें सच्ची ही हैं। दुख यह है कि हमारे अगुआ आज यहां नहीं हैं। बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद और राजेन्द्र प्रसाद को मैंने तार दिया है। दोनों यहां तुरत आ जाएंगे और आपको पूरी बातें बताएंगे और मदद दे सकेंगे। मेहरबानी करके आप गया बाबू के यहां चलें।”

इस भाषण से मैं लुभाया। मुझे ठहराने से गया बाबू कठिनाई में न पड़ जाएं, इस डर से मुझे संकोच होता था, पर गया बाबू ने मुझे निश्चिंत कर दिया। मैं गया बाबू के यहां गया। उन्होंने और उनके कुटुंबियों ने मुझे अपने प्रेम से सराबोर कर दिया।

ब्रजकिशोर बाबू दरभंगे से आए। राजेंद्र बाबू पुरी से आए। यहां देखा तो वह लखनऊ वाले ब्रजकिशोर प्रसाद नहीं थे। उनमें बिहारवासी की नम्रता, सादगी, भलमनसी, असाधारण श्रद्धा देखकर मेरा हृदय हर्ष से भर गया। बिहारी वकील मंडल का ब्रजकिशोर बाबू के प्रति आदर देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।

इस मंडल के और मेरे बीच जन्म-भर के लिए स्नेहगांठ बंध गई। ब्रजकिशोर बाबू ने मुझे सारी बातों से वाकिफ कराया। वह गरीब किसानों के लिए मुकदमे लड़ते थे। ऐसे दो मुकदमे चल रहे थे। ऐसे मुकदमों की पैरवी करके वह कुछ व्यक्तिगत आश्वासन प्राप्त कर लिया करते थे। कभी-कभी उसमें भी नाकामयाब हो जाते थे। इन भोले किसानों से मेहनताना तो लेते ही थे। त्यागी होते हुए भी ब्रजकिशोर बाबू या राजेंद्र बाबू मेहनताना लेने में संकोच नहीं रखते थे। उनकी दलील यह थी कि पेशे के काम में मेहनताना न लें तो हमारा घर-खर्च नहीं चल सकता और हम लोगों को मदद भी नहीं कर सकते। उनके मेहनताने के तथा बंगाल के और बिहार के बैरिस्टरों को दिए जाने वाले मेहनताने के कल्पना में न आ सकने वाले आंकड़े सुनकर मैं सुन्न हो गया।

“...साहब को हमने ‘ओपीनियन’ (राय) के लिए दस हजार रुपए दिए।” हजार से कम की तो बात ही मैंने नहीं सुनी।

इस मित्रमंडल ने इस संबंध में मेरा मीठा उलाहना स्नेह-सहित सुन लिया। इसका उन्होंने विपरीत अर्थ नहीं लिया।

मैंने कहा- “इन मुकदमों को पढ़ जाने के बाद मेरा मत तो यह है कि अब ये मुकदमे लड़ना हमें बंद ही कर देना चाहिए। ऐसे मुकदमों से फायदा बहुत कम होता है। जो रैयत इतनी कुचली हुई हो, जहां सब इतने भयभीत रहते हों, वहां कचहरियों के जरिए थोड़ा ही इलाज हो सकता है। लोगों का डर निकालना उनके रोग की असली दवा है। यह ‘तिनकठिया’ प्रथा न जाए तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते। मैं तो दो दिन में जितना देखा जा सके, उतना देखने आया हूं। पर अब देखता हूं कि यह काम तो दो साल भी ले सकता है। इतना समय लगे तो भी मैं देने को तैयार हूं। इस काम में क्या करना चाहिए यह तो मैं सोच सकता हूं। लेकिन आपकी मदद की जरूरत है।

ब्रजकिशोर बाबू को मैंने बहुत ठंडे दिमाग का आदमी पाया। उन्होंने शांति से जवाब दिया- “हमसे जो मदद हो सकेगी वह हम देंगे। पर वह किस तरह की होनी चाहिए, यह हमें समझाइए।”

हमने इस बातचीत में रात बिता दी। मैंने कहा- मुझे आपकी वकालत की योग्यता का थोड़ा ही उपयोग होगा। आप-जैसों से मैं तो मुहर्रिर और दुभाषिये का काम चाहूंगा। इसमें जेल जाने की संभावना भी मुझे दिखाई देती है। मैं यह पसंद करूंगा कि आप यह जोखिम उठाएं। लेकिन आप उसे न लेना चाहें तो न लें। पर वकील न रहकर मुहर्रिर बनाना और अपना धंधा अनिश्चित अवधि के लिए छोड़ देना, यह मेरी कोई छोटी मांग नहीं है। यहां की हिंदी बोली समझने में मुझे भारी कठिनाई होती है। कागज-पत्र सब कैथी या उर्दू में लिखे हुए होते हैं, जिन्हें मैं नहीं पढ़ सकता। इनका उल्था कर देने की मैं आपसे आशा रखता हूं। यह काम पैसे देकर करा सकना मुमकिन नहीं है। यह बस सेवाभाव से और बिना पैसे के होना चाहिए।

ब्रजकिशोर बाबू समझ गए। लेकिन उन्होंने मुझसे और अपने साथियों से जिरह शुरू की। मेरी बातों के गर्भितार्थ पूछे। मेरे अंदाजे के अनुसार वकीलों को कब तक त्याग करना होगा, कितनों की जरूरत होगी, थोड़े-थोड़े लोग थोड़ी-थोड़ी अवधि के लिए आएं तो काम चलेगा या नहीं, इत्यादि प्रश्न पूछे। वकीलों से पूछा कि आप लोग कितना त्याग कर सकते हैं?

अंत में उन्होंने यह निश्चय जताया- “हम इतने आदमी, आप जो काम सौंपेंगे, वह कर देने को तैयार रहेंगे। इनमें से जितनों को जिस समय मांगिएगा, उतने आपके पास रहेंगे। जेल जाने की बात नई है। उस बारे में हम शक्ति प्राप्त करने की कोशिश करेंगे।”

मुझे तो किसानों की हालत की जांच करनी थी। नील की कोठियों के मालिक गोरों (निलहों) के खिलाफ जो शिकायतें थीं, उनमें कितनी सचाई है, यह देखना था। इस काम के सिलसिले में हजारों किसानों से मिलने की जरूरत थी, पर उनसे इस प्रकार मिलने के पहले नील के मालिकों की बात सुन लेना और कमिश्नर से मिलना मैंने जरूरी समझा। दोनों को चिट्ठी लिखी।

मालिकों के मंत्री ने मुलाकात के समय साफ कह दिया कि आप परदेशी हैं, आपको हमारे और किसानों के बीच में दखल नहीं देना चाहिए। फिर भी अगर आपको कुछ कहना हो तो मुझे लिखकर जताइएगा। मैंने मंत्री से नम्रतापूर्वक कहा कि मैं अपने को परदेशी नहीं मानता और किसान चाहें तो उनकी हालत की जांच करने का मुझे पूरा अधिकार है। कमिश्नर साहब से मिला। उन्होंने तो धमकाना ही शुरू कर दिया और मुझे आगे बढ़े बिना तिरहुत छोड़ देने की सलाह दी।

मैंने साथियों को सब बातें बताकर कहा कि जांच करने में मुझे सरकार रोकेगी, ऐसी संभावना है और जेल-यात्रा का समय मैंने जो सोचा था, उससे जल्दी भी आ सकता है। अगर मुझे अपने आपको गिरफ्तार कराना ही हो तो मुझे मोतिहारी और मुमकिन हो तो बेतिया में गिरफ्तार कराना चाहिए। और इससे जहां तक जल्दी मुमकिन हो वहां पहुंचना चाहिए।

चंपारन तिरहुत कमिश्नरी का एक जिला है और मोतिहारी उसका सदर मुकाम। बेतिया के आसपास राजकुमार शुक्ल का घर था और उसके आसपास की कोठियों के किसान सबसे ज्यादा कंगाल थे। उनकी दशा दिखाने का राजकुमार शुक्ल को लोभ था और मुझे अब उसे देखने की इच्छा थी।

अतः साथियों को लेकर मैं उसी दिन मोतिहारी के लिए रवाना हो गया। मोतिहारी में गोरख बाबू ने आश्रय दिया और उनका घर धर्मशाला बन गया। हम सब ज्यों-त्यों करके उसमें अंट सकते थे। जिस दिन हम पहुंचे, उसी दिन सुना कि मोतिहारी से कोई पांच मील दूर एक किसान रहता था, उस पर जुल्म हुआ था। यह तय हुआ कि उसे देखने को मैं धरणीधर प्रसाद वकील को लेकर सुबह जाऊं। हम सबेरे हाथी पर सवार होकर निकल पड़े। चंपारन में हाथी का उपयोग लगभग उसी तरह होता है, जिस तरह गुजरात में बैलगाड़ियों का। आधे रास्ते पहुंचे होंगे कि पुलिस सुपरिंटेंडेंट का आदमी आ पहुंचा और मुझसे बोला- “आपको सुपरिंटेंडेंट साहब ने सलाम दिया है।” मैं समझ गया। धरणीधर बाबू को मैंने आगे जाने को कहा। मैं उक्त संदेशवाहक के साथ उसकी किराए की हुई गाड़ी में बैठा। उसने चंपारन छोड़ने की नोटिस मुझे दी, मुझे अपने स्थान पर ले गया और मेरी सही मांगी। मैंने जवाब लिख दिया कि मैं चंपारन नहीं छोड़ना चाहता और मुझे तो आगे बढ़ना है और जांच करनी है। चंपारन छोड़ देने का हुक्म न मानने के कारण दूसरे ही दिन अदालत में हाजिर होने का समन मिला।

सारी रात जागकर जो पत्र मुझे लिखने थे वे लिखे और जो-जो सूचनाएं देनी थीं, वे ब्रजकिशोर बाबू को दीं। समन की बात क्षण भर में सर्वत्र फैल गई और लोग कहते थे कि मोतिहारी में ऐसा दृश्य देखने में आया जैसा इसके पहले कभी देखने में न आया था। गोरख बाबू के घर और कचहरी में लोग उमड़ पड़े। सौभाग्य से मैंने अपना सब काम रात को निबटा लिया था, इससे इस भीड़ को संभाल सका। साथियों की कीमत मुझे पूरी-पूरी मालूम हुई। वे लोगों को नियम से रखने में जुट गए। कचहरी में जहां जाता वहां दल-के-दल लोग मेरे पीछे आते। कलेक्टर, मजिस्ट्रेट, सुपरिंटेंडेंट वगैरा के साथ भी मेरा एक तरह का संबंध जुड़ गया। सरकारी नोटिसों वगैरा के खिलाफ कानूनी विरोध करना होता तो मैं कर सकता था, इसके बजाय मैंने उनकी सब नोटिसों को स्वीकार कर लिया और अधिकारियों के साथ निजी व्यवहार में मिठास से काम लिया। इससे वे समझ गए कि मुझे उनका विरोध नहीं करना है, बल्कि उनके हुक्म का विनयपूर्वक विरोध करना है। इससे वे मेरी ओर से एक तरह से निर्भय हो गए। मुझे तंग करने के बजाय उन्होंने लोगों को नियम में रखने में मेरी और मेरे साथियों की सहायता का खुशी से उपयोग किया। पर साथ ही वे समझ गए कि उनकी हुकूमत आज से गई। लोग क्षण-भर के लिए दंड का भय छोड़ कर उनके नये मित्र के प्रेम के शासन के अधीन हो गए।

याद रहे कि चंपारन में मुझे कोई पहचानता नहीं था। किसान वर्ग बिल्कुल अपढ़ था। चंपारन गंगा के उस पार ठेठ हिमालय की तराई में नैपाल का निकटस्थ प्रदेश है यानी नई दुनिया है। यहां न कहीं कांग्रेस का नाम सुनाई देता था, न कांग्रेस का कोई सदस्य दिखाई देता था। जिन्होंने नाम सुना था, वे नाम लेने या उसमें शामिल होते डरते थे। आज महासभा (कांग्रेस) के नाम बिना महासभा ने और महासभा के सेवकों ने प्रवेश किया और महासभा की दुहाई फिरी।

साथियों से मशविरा करके मैंने निश्चय किया था कि महासभा के नाम से कोई भी काम न किया जाए। हमें नाम से नहीं बल्कि काम से काम है, ‘कथनी’ नहीं, ‘करनी’ की जरूरत है। महासभा का नाम यहां अप्रिय है। इस प्रदेश में महासभा का अर्थ है वकीलों की बहसा-बहसी, कानूनी छिद्रों से सटक जाने की कोशिश। महासभा के मानी हैं बमगोला, महासभा के मानी हैं ‘कथनी’ और, ‘करनी’ और। ये धारणाएं सरकार और सरकार की सरकार निलहे गोरों की थीं। महासभा यह नहीं है, वह महासभा दूसरी ही चीज है, यह हमें साबित करना था। इसलिए हमने महासभा का नाम ही कहीं न लेने और लोगों को महासभा के भौतिक देह का परिचय न कराने का निश्चय किया था। हमने सोच लिया था कि वे उसके अक्षर को न जानकर उसकी आत्मा को जानें और अनुसरण करें तो काफी है, यही असल बात है।

अतः महासभा की ओर से गुप्त या प्रकट दूतों के द्वारा कोई भूमिका तैयार नहीं कराई गई थी। राजकुमार शुक्ल में हजारों आदमियां में प्रवेश करने की शक्ति नहीं थी। उनके अंदर किसी ने आज तक राजनीतिक काम किया ही न था। चंपारन के बाहर की दुनिया को वे जानते नहीं थे, फिर भी उनका और मेरा मिलाप पुराने मित्रों का-सा जान पड़ा। इससे मैंने ईश्वर का, अहिंसा का और सत्य का साक्षात्कार किया, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है, पर अक्षरशः सत्य है। इस साक्षात्कार में अपने अधिकार का विचार करता हूं तो मुझे लोगों के प्रति प्रेम के सिवा और कुछ नहीं मिलता। प्रेम अथवा अहिंसा में मेरी अचल श्रद्धा के सिवा और कुछ नहीं।

चंपारन का यह दिन मेरी जिंदगी में ऐसा था जो कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह मेरे लिए और किसानों के लिए उत्सव का दिन था। सरकारी कानून के अनुसार मुझ पर मुकदमा चलाया जाने वाला था। पर सच पूछिए तो मुकदमा सरकार पर ही चलाया जा रहा था। कमिश्नर ने जो जाल मेरे लिए बिछाया था, उसमें सरकार को ही फंसा दिया।

मुकदमा चला। सरकारी वकील और मजिस्ट्रेट वगैरा घबराए हुए थे। उन्हें सूझता नहीं था कि क्या करना चाहिए। सरकारी वकील सुनवाई मुल्तवी रखने की प्रार्थना कर रहे थे। मैं बीच में पड़ा और विनय की कि मुल्तवी रखवाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मुझे चंपारन छोड़ने की नोटिस का अनादर करने का अपराध कबूल कर लेना है। यह कहकर मैंने जो बहुत ही छोटा-सा बयान तैयार किया था, उसे पढ़ सुनाया। वह इस प्रकार थाः

जाब्ता फौजदारी की दफा 144 के अनुसार दी हुई आज्ञा का स्पष्ट अनादर करने का गंभीर कदम मुझे क्यों उठाना पड़ा? इस विषय में छोटा-सा बयान अदालत की इजाजत से देना चाहता हूं। मेरी नम्र सम्मति में यह अनादर का प्रश्न नहीं है, बल्कि स्थानीय सरकार और मेरे बीच मतभेद का प्रश्न है। मैं इस प्रदेश में जन सेवा और देश सेवा के उद्देश्य से ही आया हूं। रैयत से निलहे न्याय का बर्ताव नहीं करते। इस कारण उनकी मदद के लिए आने का मुझसे प्रबल आग्रह किया गया, इसी से मुझे आना पड़ा है। सब बातों को जाने-समझे बिना मैं उनकी मदद कैसे कर सकता हूं? अतः मैं इस प्रश्न का, संभव हो तो सरकार और निलहों की सहायता लेकर, अध्ययन करने आया हूं। मेरा कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है और मेरे आने से लोगों की शांति भंग होगी और खून-खराबा होगा, यह मैं नहीं मान सकता। मेरा दावा है कि इस बारे में मुझे यथोचित अनुभव है। पर सरकार का विचार इस विषय में मुझसे भिन्न है। उसकी कठिनाई मैं समझता हूं और मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि उसे प्राप्त सूचनाओं पर ही भरोसा करना पड़ता है। कानून का आदर करने वाले प्रजाजन की हैसियत से तो मुझे जो हुक्म दिया गया है, उसे स्वीकार करने की स्वाभाविक इच्छा होती है और हुई होती, पर मुझे लगा कि वैसा करने में मैं जिनके लिए यहां आया हूं, उनके प्रति मैं अपने कर्तव्य का घात करूंगा। मुझे लगता है कि उनकी सेवा आज मुझसे उनके बीच में रहकर ही बन सकती है। अतः स्वेच्छा से चंपारन छोड़ना संभव नहीं है। इस धर्मसंकट में मुझे चंपारन से हटाने की जिम्मेदारी मैं सरकार पर डालने को मजबूर हो गया।

इस बात को मैं अच्छी तरह समझता हूं कि हिंदुस्तान के लोकजीवन में मुझ-जैसी प्रतिष्ठा रखने वाले आदमी को कोई कदम उठाकर उदाहरण उपस्थित करने में बड़ी सावधानी रखनी चाहिए। पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि आज जिस परिस्थिति में हम डाल दिए गए हैं, उसमें मुझ-जैसी परिस्थिति में पड़े हुए स्वाभिमानी मनुष्य के सामने इसके सिवा कोई दूसरा निरापद और मानयुक्त मार्ग नहीं है, सिवा इसके कि आज्ञा का उल्लंघन करके उसके बदले में जो सजा हो, उसे चुपचाप स्वीकार कर ले।

“मुझे आप जो सजा देना चाहते हैं, उसे कम कराने की नीयत से यह बयान मैं नहीं दे रहा हूं। मुझे सहज यह जता देना था कि आज्ञा का उल्लंघन करने में मेरा उद्देश्य कानून से स्थापित सरकार का अपमान करना नहीं है, बल्कि मेरा हृदय जिस अधिक बड़े कानून को स्वीकार करता है अर्थात अंतरात्मा की आवाज, उसका अनुसरण करना है।”

अब मुकदमे की सुनवाई मुल्तवी रखने की जरूरत नहीं रही। पर मजिस्ट्रेट या वकील इस नतीजे की उम्मीद नहीं रखते थे। इससे सजा सुनाने के लिए अदालत ने मुकदमे को मुल्तवी रखा। मैंने वाइसराय को सारी स्थिति तार से सूचित कर दी थी। पटना भी तार दिया था। भारतभूषण पंडित मालवीयजी आदि को भी हालात के तार भेज दिए थे। सजा सुनने के लिए अदालत में जाने का समय आने के पहले मेरे पास मजिस्ट्रेट का हुक्म आया कि लाट साहब के हुक्म से मुकदमा वापस ले लिया गया और कलेक्टर का पत्रा मिला कि आप को जो जांच करनी हो, वह कीजिए और उसमें अधिकारियों से जिस मदद की जरूरत हो, वह मांग लें। ऐसे तात्कालिक और शुभ परिणाम की आशा हममें से किसी ने नहीं की थी।

मैं कलेक्टर मि. हेकोक से मिला। वह खुद भला आदमी जान पड़ा और न्याय करने में तत्पर। उसने कहा कि आपको जो कागज, पत्रा या और कुछ देखना हो, वह मांग लें और मुझसे जब मिलना हो मिल सकते हैं।

दूसरी ओर सारे हिंदुस्तान को सत्याग्रह का अथवा कानून के सविनय भंग का पहला स्थानीय पदार्थ पाठ मिला। अखबारों में इसकी खूब चर्चा हुई और चंपारन को तथा मेरी जांच को अकल्पित प्रसिद्धि मिल गई।

अपनी जांच के लिए यद्यपि मुझे सरकार के निष्पक्ष रहने की जरूरत थी, फिर भी अखबारों में चर्चा होने और उसके संवाददाताओं की रिपोर्टों की जरूरत न थी। इतना ही नहीं, उनके बहुत अधिक टीका-टिप्पणी करने और जांच की लंबी रिपोर्टों से, हानि होने का भय था। इससे मैंने खास-खास अखबारों के संपादकों से प्रार्थना की थी कि वे अपने रिपोर्टर भेजने के खर्च में न पड़ें। जितना छापने की जरूरत होगी, उतना खुद मैं भेजता रहूंगा और उन्हें खबर देता रहूंगा।

चंपारन के निलहे खूब खीझे हुए हैं, यह मैं समझता था। अधिकारी भी मन में खुश नहीं होंगे, यह भी मैं समझता था। अखबारों में सच्ची-झूठी खबरें छपने से वे ज्यादा चिढ़ेंगे और उनकी खीझ मुझ पर तो क्या उतरेगी, पर बेचारी गरीब, डरपोक रैयत पर उतरे बिना न रहेगी और ऐसा होने से जो सच्ची स्थिति मैं जानना चाहता हूं , उसमें विघ्न आएगा। निलहों की ओर से विषैला आंदोलन शुरू हो गया। उनकी ओर से अखबारों में मेरे और साथियों के विषय में खूब झूठे प्रचार हुए, पर मेरे अत्यंत सावधान रहने और छोटी-से छोटी बातों में भी सत्य को पकड़े रहने की आदत के कारण उनके तीर खाली गए।

ब्रजकिशोर बाबू की अनेक प्रकार से निंदा करने में निलहों ने तनिक भी कसर नहीं की। पर ज्यो-ज्यों वे उनकी निंदा करते गए, त्यों-त्यों ब्रजकिशोर बाबू की प्रतिष्ठा बढ़ती गई।

ऐसी नाजुक स्थिति में रिपोर्टरों को आने के लिए मैंने तनिक भी उत्साह नहीं दिलाया। नेताओं को नहीं बुलाया। मालवीयजी ने मुझे कहला दिया, “जब मेरी जरूरत हो तब बुला लेना। मैं तैयार हूं।” उन्हें भी तकलीफ नहीं दी। इस लड़ाई को कभी राजनैतिक रूप नहीं लेने दिया। जो कुछ होता था उसकी रिपोर्ट मैं मौके से खास-खास अखबारों को भेज दिया करता था। राजनैतिक काम के लिए भी, जहां राजनीति की गुंजाइश न हो, वहां राजनैतिक रूप देने से ‘माया मिली न राम’ वाली बात हो जाती है और इस प्रकार विषय का स्थानांतर न करने से दोनों सुधरते हैं। यह मैंने बीसियों बार के अनुभव से देख लिया था। शुद्ध लोक सेवा में प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रीति से राजनीति रहती ही है। चंपारन की लड़ाई यह सिद्ध कर रही थी।

अब इस प्रकरण के विषय पर आना चाहिए। गोरख बाबू के यहां रहकर यह जांच होती तो उन्हें अपना घर खाली करना पड़ता। मोतिहारी में किराए पर मांगने पर भी कोई झट अपना मकान दे दे, इतनी निर्भयता लोगों में नहीं आई थी। पर चतुर ब्रजकिशोर बाबू ने एक बड़े सहन वाला मकान किराए पर लिया और हम उसमें चले गए।

बिलकुल बिना पैसे के काम चल जाए, ऐसी स्थिति नहीं थी। मेरा यह दृढ़ निश्चय था कि चंपारन की रैयत से एक कौड़ी भी नहीं लेनी है। उससे लेने से गलत अर्थ निकाला जाएगा। यह भी निश्चय था कि इस जांच के लिए हिंदुस्तान में आम जनता से चंदा न मांगूंगा। ऐसा करने से यह जांच राष्ट्रीय और राजनैतिक रूप धारण कर सकती थी। बंबई से कुछ मित्रों का 15,000 रुपए मदद देने का तार आया। उनकी सहायता धन्यवादपूर्वक अस्वीकर कर दी। मैंने निश्चय किया कि चंपारन के बाहर से लेकिन बिहार के ही संपन्न जनों से ब्रजकिशोर बाबू की मंडली जो सहायता प्राप्त कर सके, वह ले लूं और जो कमी रह जाए वह मैं डाक्टर प्राणजीवनदास मेहता से रुपए लेकर पूरी कर लूं। डाक्टर मेहता ने लिखा था कि जितने रुपए की जरूरत हो मांग लीजिएगा। पैसे के बारे में हम निश्चिंत हो गए। गरीबी से, कम-से-कम खर्च रख करके लड़ाई चलानी थी। इससे ज्यादा पैसों की जरूरत नहीं पड़ने वाली थी, वास्तव में पड़ी भी नहीं। मेरा खयाल है कि सब मिलाकर दो या तीन हजार से ज्यादा का खर्च नहीं था। जो इकट्ठा किया था, उसमें से 500 रुपए या 1000 रुपए बच जाने का मुझे खयाल आ रहा है।

अधिक शक्ति की बड़ी आवश्यकता थी, क्योंकि किसानों के दल-के-दल अपनी कहानियां लिखाने आने लगे। कहानियां लिखने वाले के पास लिखाने वालों की भीड़ लगी रहती। मकान का सहन भर जाता था। मुझे दर्शनार्थियों से सुरक्षित रखने को मेरे साथी बड़े-बड़े प्रयत्न करते और विफल हो जाते। एक नियत समय पर दर्शन देने को मुझे बाहर कर देने पर ही जान छूटती। कहानी लिखने वाले भी कभी छह-सात से कम न होते फिर भी शाम को सबके बयान पूरे न हो पाते। इतने सब लोगों के बयान लेने की जरूरत नहीं थी, फिर भी उसे लिख लेने से लोगों को संतोष हो जाता था और मुझे उनकी भावना का पता चल जाता था।

कहानी लिखने वालों को कुछ नियमों का पालन करना पड़ता था। हरएक किसान से जिरह करनी चाहिए। जिरह में जो उखड़ जाए उसका बयान न लिखा जाए। जिसकी बात शुरू में ही निराधार लगे उसका बयान न लिया जाए। इन नियमों के पालन से यद्यपि कुछ समय अधिक जाता था तथापि बयान अधिक सत्य और साबित होने लायक मिलते थे।

ये बयान लेते समय खुफिया पुलिस का कोई कर्मचारी तो रहता ही था। हम उनका आना रोक सकते थे, पर हमने शुरू से ही निश्चय कर लिया था कि उन्हें आने से न रोकेंगे। इतना ही नहीं, परंतु उनके साथ विनय का बरताव भी करेंगे और देने लायक खबर दे दिया करेंगे। उनके आंख और कान के सामने सारे बयान लिए जाते थे। इसका फायदा यह हुआ कि लोगों में अधिक निर्भयता आई। खुफिया पुलिस से लोग बहुत डरते थे, वह डर चला गया और उनकी निगाह के सामने लिए जाने वाले बयान में अतिशयोक्ति का डर कम रहता था। झूठ बोलने से खुफिया पुलिस वाले उन्हें फंसा देंगे, इस डर से किसानों को सावधान रहकर बोलना पड़ता था। मुझे निलहों को खिझाना नहीं था, बल्कि उन्हें भलमनसी से जीतने का प्रयत्न करना था। इससे जिनके खिलाफ ज्यादा शिकायतें आती थीं, उन्हें पत्र लिखता था और उनसे मिलने की भी कोशिश करता था।

ब्रजकिशोर बाबू और राजेंद्र बाबू की तो जोड़ी बेजोड़ थी। उन्होंने अपने प्रेम से मुझे ऐसा अपाहिज बना दिया कि उनके बिना मैं एक कदम भी आगे नहीं जा सकता था। उनके शिष्य कहिए या साथी शंभू बाबू, अनुग्रह बाबू, धरणी बाबू और रामनवमी बाबू- ये वकील करीब-करीब सदा साथ ही रहते थे। विंध्या बाबू और जनकधारी बाबू भी जब-तब आया करते। यह तो हुआ बिहारी-संघ। उसका खास काम था लोगों के बयान लेना।

अध्यापक कृपलानी इसमें शामिल हुए बिना कैसे रह सकते थे? खुद सिंधी होते हुए भी वे बिहारी से भी बढ़कर बिहारी थे। ऐसे कम सेवकों को मैंने देखा है, जिनकी शक्ति जिस प्रांत में जाएं, उसमें पूरी तरह घुल-मिल जाने की हो और वह खुद दूसरे प्रांत के हैं, यह किसी को मालूम न होने दें। इनमें कृपलानी एक हैं। उनका खास काम द्वारपाल का था। दर्शन करने वालों से मुझे बचा लेने में उन्होंने इस समय अपने जीवन की सार्थकता मान ली थी। किसी को मजाक करके मेरे पास आने से रोकते थे तो किसी को अहिंसक धमकी से। रात होने पर अध्यापक का धंधा शुरू करते और सब साथियों को हंसाते और कोई कच्चे दिल का आदमी पहुंच जाए तो उसे हिम्मत दिलाते थे।

मौलाना मजहरुल हक ने मेरे सहायक के रूप में अपना नाम दर्ज करा रखा था और महीने में एक दो फेरे कर जाते थे। उस वक्त उनके ठाठ और दबदबे और आज की उनकी सादगी में जमीन-आसमान का अंतर है। हममें आकर वे अपना दिल मिला जाते थे, पर अपनी साहबी से बाहर के आदमियों को तो हमसे अलग-से लगते।

ज्यों-ज्यों मैं अनुभव प्राप्त करता गया, त्यों-त्यों मुझे दिखाई दिया कि चंपारन में सच्चा काम करना हो तो गांवों में शिक्षा का प्रवेश होना चाहिए। लोगों का अज्ञान दयनीय था। गांवों के बच्चे मारे-मारे फिरते थे या मां-बाप दो-तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे सारे दिन नील के खेतों में मजदूरी करवाते थे। इस समय पुरुषों की मजदूरी वहां दस पैसे से अधिक नहीं थी। स्त्रिायों की छह पैसे और लड़कों की तीन पैसे थी। चार आने की मजदूरी पाने वाला मजदूर भाग्यशाली समझा जाता था।

साथियों से सलाह करके पहले तो छह गांवों में बच्चों की पाठशालाएं खोलने का निश्चय हुआ। शर्त यह थी कि उन गांवों के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन-व्यय दें। उसके और खर्च हम चलाएं। यहां के गांवों में पैसे की बहुतायत तो नहीं थी, पर अनाज वगैरा देने की लोगों की शक्ति थी। इसलिए लोग कच्चा अनाज देने को तैयार हो गए थे।

अब बड़ा प्रश्न यह था कि शिक्षक कहां से लाए जाएं। बिहार में थोड़ा वेतन लेने वाले या कुछ न लेने वाले अच्छे शिक्षकों का मिलना कठिन था। मेरा ख्याल यह था कि साधारण शिक्षक के हाथ में बच्चों को नहीं देना चाहिए। शिक्षण को अक्षर-ज्ञान भले ही थोड़ा हो, पर उसमें चारित्रय-बल होना चाहिए।

पर मुझे पढ़ाई के प्रबंध से ही संतोष नहीं करना था। गांव की गंदगी की कोई हद न थी। गलियों में कूड़ा, कुंओं के आसपास कीचड़ और बदबू, आंगनों की ओर देखा नहीं जाता था। बड़ों को स्वच्छता की शिक्षा की जरूरत थी। चंपारन के लोग रोगों से पीड़ित दिखाई देते थे। जितना हो सके उतना सुधार का काम करें और वह करके लोगों के जीवन के हर एक विभाग में प्रवेश करें, यह हमारा विचार था।

इस काम में डाक्टर की मदद की जरूरत थी। इससे मैंने गोखले की सोसायटी से डा. देव की मांग की। उनके साथ मेरी स्नेहगांठ तो बंध ही चुकी थी। छह महीने के लिए उनकी सेवा का लाभ मिला। उनकी देख-रेख में शिक्षकों और शिक्षिकाओं को काम करना था।

सबको यह समझा दिया गया था कि कोई भी निलहों के खिलाफ की जाने वाली शिकायतों में न पड़ें, राजनीति को स्पर्श न करें, शिकायतें करने वाले को मेरे पास भेज दें, कोई भी अपने क्षेत्रा से बाहर एक कदम भी न रखे। चंपारन के इन साथियों का नियम-पालन अद्भुत था। ऐसे किसी मौके की मुझे याद नहीं है जब किसी ने दी हुई सूचना का उल्लंघन किया हो।

एक ओर तो समाज सेवा का काम, जिसका मैंने पिछले प्रकरण में वर्णन किया है, हो रहा था और दूसरी ओर लोगों की दुखगाथाएं लिखने का काम चल रहा था और दिन-दिन बढ़ता जा रहा था। हजारों आदमियों की कहानियां लिखी गईं। इसका असर हुए बिना कैसे रहता? मेरे डेरे पर ज्यों-ज्यों लोगों की आवाजाही बढ़ती गई, त्यों-त्यों निलहों का क्रोध बढ़ता चला। मेरी जांच को बंद कराने की उनकी ओर से होने वाली कोशिशें बढ़ती गईं।

एक दिन मुझे बिहार की सरकार का पत्रा मिला। उसका भावार्थ यह था- “आपकी जांच काफी लंबे अरसे तक चल चुकी और अब आपको उसे बंद करके बिहार छोड़ देना चाहिए।” पत्रा नरम था, लेकिन मतलब साफ था। जवाब में मैंने लिखा कि जांच अभी और चलेगी और वह पूरी हो जाने पर भी लोगों की तकलीफें जब तक दूर न हों तब तक मेरा इरादा बिहार छोड़ने का नहीं है।

मेरी जांच बंद करने का सरकार के पास मुनासिब इलाज एक ही था और वह यह कि वह लोगों की शिकायतों को सच्ची मानकर उन्हें दूर करे या शिकायतों का लिहाज करके अपनी जांच-कमेटी बैठाए। गवर्नर सर एडवर्ड गेट ने मुझे बुलाया और खुद जांच-कमेटी नियुक्त करने का इरादा जाहिर किया और उसमें सदस्य होने का मुझे निमंत्रण दिया। दूसरे नाम देखकर और अपने साथियों से सलाह करके इस शर्त पर सदस्य होना कबूल किया कि मुझे साथियों से मशविरा करने की आजादी रहे और सरकार यह समझ रखे कि मैं सदस्य बनकर किसानों का हिमायती न रहूं सो नहीं होगा, और जांच होने के बाद मुझे संतोष न हुआ तो किसानों की रहनुमाई करने की अपनी आजादी भी मैं न छोडूंगा।

सर एडवर्ड गेट ने इन शर्तों को मुनासिब मानकर कबूल कर लिया। स्व. सर फ्रेंक स्लाई इस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए थे। जांच-कमेटी ने किसानों की सब शिकायतों को सही माना, निलहों के अनुचित रीति से लिए हुए रुपयों का अमुक भाग वापस लौटाने की और ‘तिनकठिया’ पद्धति को रद्द करने की सिफारिश की।

इस रिपोर्ट के मुकम्मल होने और अंत में कानून पास होने में सर एडवर्ड गेट का बहुत बड़ा हिस्सा था। वे दृढ़ न रहे होते या अपनी कुशलता का पूरा उपयोग न किया होता तो जो रिपोर्ट एकमत से तैयार हुई वह न हो पाती और जो कानून अंत में पास हुआ, वह न बन पाता। निलहों की ताकत जबर्दस्त थी। रिपोर्ट प्रकाशित हो जाने पर भी उनमें से कुछ ने बिल का तीव्र विरोध किया था, पर सर एडवर्ड गेट अंत तक दृढ़ रहे और कमेटी की सिफारिशों पर पूरा-पूरा अमल किया।

इस प्रकार तिनकठिया का कानून, जो सौ साल से चला आ रहा था, टूटा और उसके साथ निलहों का राज्य अस्त हुआ और नील का दाग धोए नहीं धुलता- यह वहम दूर हो गया।

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