नींद में डूबे हुए-से ऊंघते-अनमने जंगल

21 Feb 2011
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भवानी प्रसाद मिश्र की मशहूर कविता जब बचपन में सुना-पढ़ा करता था तो सतपुड़ा के जंगलों को लेकर तरह-तरह की बातें मन में उठती थीं।

सतपुड़ा के घने जंगल,
नींद में डूबे हुए से,
ऊंघते-अनमने जंगल।


इस कविता को पढ़कर सतपुड़ा के जंगल रहस्यमय, डरावने तो कभी लुभावने लगते थे। लेकिन उनकी छवि अंतत: थी मनोहारी। कुछ समय पूर्व मुझे अपने जीवन में पहली बार सतपुड़ा के जंगलों को करीब से देखने का मौका मिला। वैसा मौका नहीं, जैसे पचमढ़ी के धूपगढ़ पर खड़े होकर लोग नीचे की ओर देखकर कह देते हैं कि उन्होंने सतपुड़ा के जंगलों को देख लिया। मुझे मौका मिला था उन जंगलों के बीच घुसकर उन्हें देखने का, लताओं और बेलों से उलझने का, वहां के हवा-पानी को सूंघने और पीने का, वहां से निकल रहे झरनों के जल में डूबने-उतराने का, जंगलों के बीचों-बीच खिल रहे फूलों की सुगंध के साथ रूबरू होने का, ऊंचे-हरे दरख्तों से अपना बौनापन मापने का।

सतपुड़ा का नाम जिन्होंने दूर रहकर सुना है, वो इसके पास आए बिना यह नहीं जान सकते कि इतनी विशाल पहाड़ी श्रंखला ने अपने भीतर और आस-पास क्या कुछ सहेजकर रखा है। जो इसके पहाड़ों और उनकी तलहटी पर बसे जंगलों में दिन-रात घूमते रहते हैं, उन्हें भी हर दिन नया देखने को मिल जाता है। पूरी दुनिया है यहां पर। यहां कई नदियां बह रही हैं। तवा, देनवा और उनकी सहायक नदियां नागद्वारी, बोरी और मालनी। इन्हें देखकर स्वर्गिक अनुभूति होती है। जो लोग जंगलों के बारे में कम जानते हैं, उन्हें यह पता होना चाहिए कि किसी भी नदी को पैदा करने और उसे बनाए रखने में जंगलों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वो वर्षा के जल को बांधे रखते हैं और नदी का बहाव भी उन्हीं के बूते अपना अस्तित्व बना पाता है। जब मैंने इन नदियों के किनारों पर खड़े होकर उन्हें दूर तक देखा तो लगा कि वे वाकई अनुभवी हैं। इन्होंने कई सभ्यताएं बनते और बिगड़ते देखी हैं।

नाव में इन नदियों की सैर करने पर आपको उसके किनारे कई प्रकार के वन्यजीवों के झुंड पानी पीते हुए नजर आ जाएंगे। चीतल, लंगूर और जंगली सूअर दिन में दिख जाएंगे, लेकिन नदी किनारे बाघों के पंजों के निशान आपको बताएंगे कि जंगल का राजा वहां रात में पानी पीने आया था। सतपुड़ा के मढ़ई और चूरणा क्षेत्र अद्वितीय हैं। जंगल की पगडंडियों पर चलते हुए कई बार ढेरों बाइसन (जंगली भैंसा) रास्ता रोके खड़े मिल जाते हैं। सतपुड़ा इन जानवरों के लिए प्रसिद्ध है।

सुदूर जंगल के भीतर जब आपको लगने लगता है कि दुनिया में जंगलों के सिवा और कुछ नहीं है, तब आपको अचानक वहां आदिवासियों की छोटी से बस्ती मिल जाएगी। मिश्र जी ने अपनी कविता में इन आदिवासियों का भी जिक्र किया है। मैं उनसे रूबरू था, बोरी और धाईं तो विस्थापित होकर बेहतर स्थिति में चले गए लेकिन कांकणी, साकोट और खकरापुरा अभी भी बाघों के बीच में ही हैं। कोरकू और गोंड आदिवासियों की जीवनचर्या देखकर अचरज हुआ।

जहां हम रॉकेट युग की बातें करते हैं, वहीं ये आदिवासी अब भी सिर्फ रोटी के जुगाड़ में जीवन बिता रहे हैं। कितना फर्क है भारत के शहरों, कस्बों, ग्रामों और वन ग्रामों के बीच। घास के मैदानों के बीच जब आप चारों ओर सिर घुमाकर देखते हैं तो वृक्षों के ऊंचे शिखर सतपुड़ा के भाल की ओर देखते हुए से लगते हैं, मानो कह रहे हों कि धन्यवाद जो आपने हमें दुनिया की क्रूर निगाहों से सुरक्षित बचाए रखा है। वाकई सतपुड़ा घना और अद्भुत है।
 

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